दलित-बहुजनों को सत्ता का लाइफ जैकेट बनने से इंकार कर देना चाहिए
-रामायण राम
वर्तमान भारत में आजकल एक अजीब स्थिति पैदा हो गई है। जब भी राजनैतिक या सामाजिक सत्ता का कोई भी अंग अंतर्विरोध में फंसता है, जब भी व्यवस्था के खिलाफ देश में एक जनमत बनना शुरू होता है तब ठीक उसी समय दलित व पिछड़े समाज के बीच से कुछ जाने पहचाने बौद्धिक प्रतिनिधि कुछ ऐसे मुद्दों और विचारों को लेकर सामने आते हैं जिससे पहली नजर में संगठित हो रहे जनमत और सत्ता के खिलाफ बन रहे माहौल को दलित विरोधी साबित कर दिया जाता है और इसकी अंतिम परिणति यह होती है दलितों-बहुजनों का एक बहुत बड़ा तबका खुद को इस जनमत से अलग कर लेता है और परिणाम यह होता है कि इस तरह सत्ता को वैधता मिल जाती है और आंदोलन भी कमजोर पड़ जाता है।
पिछले सालों मे निर्भया आंदोलन हो, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हो या ‘न्यू इंडिया’ में जेएनयू का आंदोलन हो, भीड़ की हिंसा का मामला हो या साहित्यकारों द्वारा अवार्ड वापसी का मामला हो या फिर सीएए – एनआरसी विरोधी मुहिम हो, दलितों -पिछड़ों के कुछ बौद्धिक ठेकेदारों ने इन तबकों को इन आंदोलनों से दूर रहने को कहा और हर बार यह साबित करने की कोशिश की कि यह सब सवर्ण लिबरलों के चोंचले हैं, इनसे दलितों को कोई फायदा नहीं होने वाला। हमेशा कुछ उदाहरणों को सामने रखा गया जिसमें यह कहा गया कि जब दलितों के साथ कुछ गलत होता है तो ये सवर्ण लिबरल सामने नहीं आते। लेकिन जब रोहित वेमुला के संस्थानिक हत्या के खिलाफ और 2 अप्रैल के भारत बंद में लेफ्ट और लिबरल संगठन शामिल हुये और ‘जय भीम – लाल सलाम’ का नारा लगने लगे तो भी दलित-पिछड़े समाज के इन तथाकथित बौद्धिक ठेकेदारों के पेट में दर्द शुरू हो गया क्योंकि इस एकता से उनकी ठेकेदारी खतरे मे पड़ गई।
इस परिघटना और प्रवृत्ति का हालिया मामला सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और मानवाधिकार और सिविल सोसाइटी आंदोलन के प्रमुख नेता प्रशांत भूषण से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों पर ट्वीट के जरिये टिप्पणी करने के दो मामलों के आधार पर उन्हें अवमानना का दोषी करार दिया गया है। प्रशांत भूषण लगातार वर्तमान सत्ता की सरपरस्ती में लोकतान्त्रिक संस्थाओं और खासकर न्यायपालिका को कमजोर किए जाने के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं। इसी क्रम में उन्होंने मुख्य न्यायाधीश शरद बोबडे के एक बीजेपी नेता के बेटे के महंगी मोटर बाइक की सवारी करती हुई तस्वीर के आधार पर जजों के सार्वजनिक व्यवहार पर प्रश्न उठाए थे, जिसको लेकर काफी बहस हुई थी। भूषण के खिलाफ अवमानना का केस साफ तौर पर इस ट्वीट से हुई बहस से उपजी खुन्नस और मजा चखाने की भावना से उपजा है।
14 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की खंडपीठ ने भूषण को दोषी करार दिया और 20 अगस्त को उन्हें सजा सुनाया जाना है। इस फैसले के खिलाफ देश और दुनिया के हजारों न्यायविदों व लोकतन्त्र पसंद हस्तियों ने आवाज उठायी है, देश के भीतर आम जन के बीच भी इस मुद्दे पर असंतोष और आक्रोश देखने को मिल रहा है।
इसी बीच दलित-पिछड़े समाज के बिचौलिये फिर सामने आ गए और 2017 के जस्टिस कर्णन के मामले को सामने रखकर प्रशांत भूषण के मामले से दलितों पिछड़ों को दूर रहने का मशविरा देने लगे। इसके लिए भूषण के एक ट्वीट को आगे किया गया जिसमें उन्होंने 2017 में तत्कालीन कलकत्ता हाईकोर्ट के दलित जज जस्टिस कर्णन के खिलाफ हुई अवमानना की कार्यवाही और इसके तहत छ: महीने की सजा पर हर्ष व्यक्त किया था।
अब यह कहा जा रहा है कि दलितों को भूषण से कोई सहानुभूति नहीं होनी चाहिए क्योंकि जस्टिस कर्णन के मामले में उन्होंने खुशी जताई थी। दलित पिछड़ों के स्वघोषित रहनुमाओं का कहना है कि चूंकि भूषण सवर्ण और सत्ता के गलियारे के करीब रहने वाले ताकतवर समुदाय से आते हैं इसलिए उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए। उनके हिसाब से यह सवर्णों के बीच का आपसी अंतर्विरोध है जिससे हमारा कोई संबंध नही होना चाहिए।
इस संबंध में पहली बात तो यह है कि यहाँ प्रशांत भूषण के व्यक्तिगत मान अपमान का सवाल नहीं है बल्कि यह संविधान की आत्मा को बचाने व न्यायपालिका की स्वतन्त्रता की रक्षा का सवाल है। लोकतन्त्र में साधारण जनता ही प्रहरी की भूमिका में होती है और अगर न्यायपालिका की निष्पक्षता पूरी तरह खत्म होती है तो उसका सीधा प्रभाव दलित, गरीब व वंचितों पर ही पड़ेगा क्योंकि सब कुछ के बावजूद इन तबकों को थोड़ा बहुत भी न्याय की उम्मीद यहीं से है।
परिपक्व लोकतन्त्र और निष्पक्ष न्यायपालिका कोई बनी बनाई अवधारणा नहीं है बल्कि उसे रोज बरोज संघर्ष के जरिये हासिल करना, बचाए रखना और मजबूत बनाना होता है। इस संघर्ष में वंचित तबकों व दलित पिछड़ों को सबसे अगली कतार में होना चाहिए, न कि किसी न किसी बहाने इनसे किनारा करने की कोशिश करते रहें, और सत्ता को ‘वाक – ओवर’ देते रहें और पिछले दरवाजे से सत्ता को फायदा पहुंचाएं।
अब आइए कर्णन के मामले को भी समझने की कोशिश करते हैं। कर्णन 2009 में मद्रास हाईकोर्ट में जज नियुक्त हुए थे। उस समय के जी बालकृष्णन भारत के मुख्य न्यायाधीश हुआ करते थे। 2009 से 2011 तक अस्थायी जज रहने के बाद 2011 में उनका स्थायीकरण हुआ। इसके बाद उन्होंने न्यायपालिका में जातिगत भेदभाव का सवाल उठाना शुरू किया। एक प्रेस वार्ता बुलाकर उन्होंने अपने एक साथी जज के ऊपर जातिगत भेद भाव का आरोप लगाया लेकिन इस मामले में उन्होंने न्यायपालिका में मिले अधिकारों का प्रयोग नहीं किया।
मद्रास हाई कोर्ट में जज रहते हुए उन्होंने अपने साथ होने वाले जातिगत भेदभाव का सवाल कई बार उठाया लेकिन हर बार वे न्यायपालिका के सिद्धांतों और अपनी जज होने की गरिमा को ताक पर रखते हुये ऊल-जुलूल हरकत करते रहे, 2015 में जजों की नियुक्ति से संबन्धित एक याचिका पर सुनवाई के दौरान ही वे कोर्ट रूम मे पहुँच गए और जज होते हुये भी इस मामले में खुद को पार्टी बनाने की मांग करने लगे।
मद्रास हाई कोर्ट के 21 जजों ने इनके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय मे शिकायती चिट्ठी लिखी थी। विवादों मे रहने के कारण 2016 में इनका तबादला कलकत्ता हाईकोर्ट में कर दिया गया, इन्होंने खुद ही अपने ट्रान्सफर आदेश पर स्टे कर दिया। इस पर जब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने नोटिस भेजा तो इन्होंने अपने व्यवहार के लिए माफी मांगी और स्वीकार किया कि उनका मानसिक संतुलन ठीक नहीं है। इसके बाद वे कलकत्ता हाईकोर्ट में कार्यभार भी ग्रहण कर लेते हैं, यहाँ आकर वे 20 जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हैं जिस पर उनके खिलाफ अवमानना की कार्यवाही हुई।
कर्णन की सजा और महाभियोग के बजाय सीधे न्यायिक हिरासत में भेजने को लेकर बहस चलती रही है। हो सकता है कि इस मामले में उनके विशेषाधिकार का हनन हुआ हो। लेकिन इस मामले में उनके दलित होने से ज्यादा भूमिका उनके उस व्यवहार में है जिसके तहत उन्होंने अपने आरोपों को अपने एकतरफा फैसलों, फ़रारी और न्यायिक प्रक्रियाओं की अवमानना से जुड़ा है। एक वकील के रूप में या फिर न्यायमूर्ति का कार्यकाल पूरा होने और छ: महीने सजा पूरी करके आने के बाद जातिवाद के खिलाफ या दलित मुद्दों पर जस्टिस कर्णन की कोई आवाज नहीं सुनी गई, इस बीच, वे किसी भी आंदोलन या बहस में हिस्सा लेते हुये नज़र नही आए हैं।
इस विवरण को पढ़ते हुए किसी को भी लग सकता है कि इन पंक्तियों के लेखक ने इकतरफा जानकारी साझा की है और जस्टिस कर्णन के पक्ष को समझने की कोशिश नहीं की गई है। यह बिल्कुल संभव है कि जस्टिस कर्णन ने जो सवाल उठाए वो सही थे। कर्णन से पहले भी न्यायपालिका में जातिवाद और भ्रष्टाचार का सवाल उठता रहा है, लेकिन इस सवाल को उठाने का जो तरीका कर्णन ने अपनाया उसमें सारी बहस कर्णन के व्यवहार और उनके असंगत फैसलों और प्रक्रियाओं पर केन्द्रित हो गई।
अपने व्यवहार से कर्णन ने मुद्दे को पीछे कर दिया और व्यक्ति के रूप में वे बहस के केंद्र मे आ गए, इस तरह उन्होंने न्यायपालिका में जातिगत भेदभाव के मुद्दे का नुकसान ही किया। अगर वहाँ उनके साथ भेदभाव हो रहा था तो उन्हें वहाँ से इस्तीफा देकर बाहर आना चाहिए था और जनता के बीच अपने सवाल को उठाकर इस मुद्दे पर व्यापक जन गोलबंदी करनी चाहिए थे, इसकी बजाय वे माननीय भी बने रहे और अटपटे तरीके से एक गंभीर मुद्दे को अगम्भीर बनाते रहे।
सवाल यह है कि दलित मुद्दों का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार किसको है? क्या रामदास अठावले या चिराग पासवान कहें कि उनके साथ जातिगत आधार पर भेद भाव हो रहा है, और अक्सर चुनाव से ठीक पहले इनके भीतर का दलित जाग भी जाता है, तो दलितों को इनके पीछे गोलबंद हो जाना चाहिए? भारत में जातिवाद की समस्या कोई छोटी समस्या नहीं है। यह हमारे समाज का मूल अंतर्विरोध है, इसका समाधान सभी को खोजना है, कर्णन जैसे लोग अपने तौर तरीकों से जातिवाद के खिलाफ संघर्ष को कमजोर करने का काम करते हैं। वंचित तबकों के बीच जाति के नाम पर हर गलत व्यक्ति का समर्थन करने और हर विजातीय व्यक्ति का अंध विरोध करने की प्रवृत्ति भी बेहद घातक है जो जाति के विरुद्ध लड़ाई को कमजोर करती है।
प्रशांत भूषण पर अवमानना का मामला अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अंकुश लगाने का मामला तो है ही लेकिन अपने मूल में यह न्यायपालिका की निष्पक्षता को सवालों के घेरे मे खड़ा करता है, देश के लोकतन्त्र में विश्वास रखने वाले हर व्यक्ति को आज प्रशांत भूषण के साथ खड़ा होना चाहिए। जाति के नाम पर दलित बहुजनों को सत्ता का लाइफ जैकेट बनने से इंकार कर देना चाहिए।
(आर राम स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
जनचौक से साभार
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