अस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना आसान, लेकिन बाबासाहेब इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।– आनंद तिल्तुम्बडे
आनंद ने कहा कि हमें यह समझ लेना चाहिए कि सत्ता वर्ग और राज्यतंत्र ने वर्गीय ध्रुवीकरण के सारे रास्ते बंद कर दिये हैं, जिन्हें खोलने के लिए सबसे पहले बहुजनों को धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद और अस्मिता के मुक्ताबाजारी तिलिस्म से रिहा करना जरूरी है। हमारे प्रतिबद्ध जनपक्षधर लोग इसकी जरुरत जितनी तेजी से महसूस करेंगे और इसे वास्तव बनाने की दिशा में सक्रिय होंगे, उतना हम जनमोर्चा बनाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे। विरोध और प्रतिरोध की हालत तो फिलहाल है ही नहीं।
रात को आनंद ने खुलकर आराम से बात की। मैंने जो लिखा है कि बाबासाहेब संगठक नहीं थे, उस पर ऐतराज जताते हुए उन्होंने साफ तौर पर कहा कि बाबा साहेब चाहते तो राष्ट्रव्यापी संगठन वे बना सकते थे और सत्ता हासिल करना उनका मकसद होता तो वे उसके रास्ते भी निकाल सकते थे।
बाबासाहेब की सर्वोच्च प्राथमिकता जाति उन्मूलन की रही है।
आनंद के मुताबिक बाबासाहेब के विचार, बाबा साहेब के वक्तव्य और बाबासाहेब के कामकाज सबकुछ हम भूल जायें तो चलेगा लेकिन हमें उनके जाति उन्मूलन के एजेंडे को भूलना नहीं चाहिए। उनकी जाति उन्मूलन की परिकल्पना रही है या नहीं रही है, इसका कोई मतलब नहीं है। क्योंकि जाति उन्मूलन के बिना भारत में वर्गीय ध्रुवीकरण के रास्ते खुलेंगे नहीं।
वर्गीय ध्रुवीकरण न हुआ तो यह देश उपनिवेश ही बना रहेगा और वध संस्कृति जारी रहेगी।
अर्थव्यवस्था के बाहर ही रहेंगे बहुसंख्य बहुजन।
मुक्त बाजार का तिलिस्म और पूंजी का वर्चस्व जीवनयापन असंभव बना देगा।
नागरिक कोई नहीं रहेगा। सिर्फ उपभोक्ता रहेंगे। उपभोक्ता न विरोध करते हैं और न प्रतिरोध। उपभोग भोग के लिए हर समझौता मंजूर है। देश बेचना भी राष्ट्रवादी उत्सव है।
आनंद के इस वक्तव्य से हिंदू साम्राज्यवाद और अमेरिका इजराइल नीत साम्राज्यवादी पारमानविक रेडियोएक्टिव मुक्तबाजारी विश्वव्यवस्था के चोली दामन रिश्ते की चीरफाड़ जरुरी है। जिस उत्पादन प्रणाली और उत्पादन संबंधों के साथ साथ उत्पादक वर्ग के सफाये की नींव पर बनी है मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था, धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद एकदम उसीके माफिक है। फासीवाद उसका आधार है।
गौर तलब है कि संघ परिवार का केसरिया कारपोरेट बिजनेस फ्रेंडली सरकार न सिर्फ मेड इन खारिज करके मेकिंग इन गुजरात और मेकिंग इन अमेरिका के पीपीपी माडल को गुजरात नरसंहार की तर्ज पर धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के दंगाई राजीनीति के तहत अमल में ला रही है, बल्कि पूरी हुकूमत अब मुकम्मल मनसैंटो और डाउ कैमिकल्स है।
पूरा देश ड्रोन की निगरानी में है। नागरिकता अब सिर्फ आधार नंबर है। हालत यह है कि संघ परिवार के ही प्राचीन वकील राम जेठमलानी तक को देश के वित्तमंत्री अरुण जेटली को ट्रेटर कहना पड़ रहा है।
हालत यह है कि तमाम सरकारी उपक्रमों की हत्या की तैयारी है गयी है। सरकार ने अगले वित्त वर्ष के लिए करीब 70, 000 करोड़ रुपये का विनिवेश लक्ष्य तय किया है।
बाबासाहेब का अंतिम लक्ष्य लेकिन समता और सामाजिक न्याय है, जिसके लिए बाबासाहेब ने राजनीति कामयाबी कुर्बान कर दी।
सत्ता हासिल करना चूंकि उनका अंतिम लक्ष्य नहीं था, इसलिए संगठन बनाने में उनकी खास दिलचस्पी नहीं थी।
समता और सामाजिक न्याय के लिए जो कमसकम वे कर सकते थे, उन्होंने सारा फोकस उसी पर केंद्रित किया।
तेलतुंबड़े का कहना है, अस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना आसान, लेकिन बाबासाहेब इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।
उन्होंने कहा कि जाति पहचान और अस्मिता के आधार पर भाववादी मुद्दों पर केंद्रित जो बहुजन समाज का संगठन बनाया कांशीराम जी ने, जो बामसेफ और बाद में बहुजन समाजवादी पार्टी बनायी कंशीराम जी ने, बाबा साहेब चाहते तो वे भी बना सकते थे।
क्योंकि जाति और पहचान, भावनाओं के आधार पर जनता को मोबिलाइज करना सबसे आसान होता है और यही सत्ता तक बहुंचने की चाबी है। जिस व्यक्ति का एजेंडा जाति उन्मूलन का रहा हो, जिनने जति व्यवस्था तोड़ने के लिए भारत को फिर बौद्धमय बानाने का संकल्प लिया, वे जाति और पहचान के आदार पर भाववादी मुद्दों पर संगठन कैसे बना सकते थे, हमें इस पर जरूर गौर करना चाहिए।
आनंद ने जो कहा, उसका आशय मुझे तो यह समझ आया कि बाबासाहेब के जीवन और उनके विचार, उनकी अखंड प्रतिबद्धता पर गौर करें तो वे सही मायने में राजनेता थे भी नहीं। उन्होंने बड़ी राजनीतिक कामयाबी हासिल करने की गरज से कुछ भी नहीं किया।
बाबासाहेब राजनीति में वे जरूर थे, लेकिन उनका मकसद उनका भारत के वंचित वर्ग के लिए, सिर्फ वंचित जातियों या अछूत जातियों के लिए नहीं, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और महिलाओं, कामगारों और कर्मचारियों के हक हकूक सुनिश्चित करना था।
इसमें उन्हें कितनी कामयबी मिली या उनकी परिकल्पनाओं में या उनके विचारों में क्या कमियां रहीं, इस पर हम समीक्षा और बहस कर सकते हैं और चाहे तो बाबासाहेब के व्यक्तित्व और कृतित्व का पुनर्मूल्यांकन कर सकते हैं, लेकिन उनकी प्रतिबद्धता में खोट नहीं निकाल सकते हैं।
जो लोग बाबासाहेब को भारत में जात पांत की राजनीति का जनक मानते हैं, वे इस ऐतिहासिक सच को नजरअंदाज करते हैं कि जाति व्यवस्था का खात्मा ही बाबासाहेब की जिंदगी का मकसद था और यही उनकी कुल जमा राजनीति थी।
ऐतिहासिक सच है कि बहुजनों को जाति के आधार पर संगठित करने की कोई कोशिश बाबासाहेब ने नहीं की और वे उन्हें वर्गीय नजरिेये से देखते रहे हैं।
विडंबना यह है कि हर साल बाबासाहेब के जन्मदिन, उलके दीक्षादिवस और उनके निर्वाण दिवस और संविधान दिवस धूमधाम से मनाने वाले उनके करोड़ों अंध अनुयायियों को इस ऐतिहासिक सच से कोई लेना देना नहीं है कि बाबासाहेब बहुजनों को डीप्रेस्ड क्लास मानते थे, जाति अस्मिताओं का इंद्र धनुष नहीं।
मान्यवर कांशीराम की कामयाबी बड़ी है, लेकिन वे बाबासाहेब की परंपरा का निर्वाह नही कर रहे थे और न उनका संगठन और न उनकी राजनीति बाबासाहेब के विचारों के मुताबिक है।
मान्यवर कांशीराम ने उस जाति पहचान के आधार पर बहुजनों को संगठित किया, जिसे सिरे से मिटाने के लिए बाबासाहेब जिये और मरे।
तेलतुंबड़े का कहना है, अस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना आसान, लेकिन बाबासाहेब इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।
पलाश विश्वास