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रविवार, 17 सितंबर 2023

रामासामी नायकर पेरियार का उत्तर प्रदेश संबंध

 

रामासामी नायकर पेरियार का उत्तर प्रदेश संबंध

एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट


उपलब्ध विवरण के अनुसार रामासामी ई वी नायकर पेरियार उत्तर प्रदेश में 1944, 1959 तथा 1968 में आए थे। 1944 व 1959 में वे उत्तर प्रदेश बैकवर्ड एवं अछूतों के समेकन को संबोधित करने के लिए लखनऊ आए थे। उनके 1944 के कार्यक्रम का कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। उनके 1959 में लखनऊ आगमन के संबंध में रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया के तत्कालीन उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष डा. छेदी लाल साथी का एक चित्र उपलब्ध है जो उनकी पुस्तक “भारत की आम जनता शोषण मुक्त व अधिकार युक्त कैसे बने” पुस्तक में छपा है। इसके अतिरिक्त इसका कोई अन्य विवरण उपलब्ध नहीं है।

लखनऊ व कानपुर में पेरियार जी की सभा

1968 में पेरियार जी 12-13 अक्तूबर को लखनऊ आए थे। इस पर उन्होंने अल्प-संख्यक एवं पिछड़ा वर्ग सम्मेलन को लखनऊ में 12 अक्तूबर को तथा अछूत-बैकवर्ड सम्मेलन को कानपुर में 13 अक्तूबर को संबोधित किया था। लखनऊ में यह सम्मेलन बारहदरी, कैसरबाग में हुआ था। लखनऊ सम्मेलन के बारे में डा छेदी लाल साथी ने बताया था कि वे पेरियार जी को जुलूस की शक्ल में सभा स्थल पर ले जाना चाहते थे परंतु कुछ सवर्ण गुंडों  ने इस पर आपत्ति की तथा उस पर हमले की धमकी दी थी। इस पर छेदी लाल साथी ने अपने कुछ लोगों को नंगी तलवारें तथा लाठियाँ लेकर जुलूस के साथ चलने के लिए कहा। इस प्रकार जुलूस सभा स्थल पर सुरक्षित पहुँच गया। साथी जी ने मुझे बताया था कि उस दौरान पेरियार जी ने लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों को भी संबोधित किया था। इस आयोजन में उनके सहयोगी दाऊजी गुप्त, डा. गया प्रसाद प्रशांत, डा. अँगने लाल तथा शिव दयाल सिंह चौरसिया आदि थे। पेरियार जी के तमिल में भाषण का अनुवाद दाऊजी गुप्त ने किया था।

लखनऊ की सभा को संबोधित करते हुए पेरियार जी ने कहा-

“हमारे कर्णधार पुरानी धार्मिक व सामाजिक व्यवस्था रखना चाहते हैं, जैसी धार्मिक व सामाजिक व्यवस्था पहले थी। वही अब भी जबरन थोपी जा रही है। मानवता इससे बहुत दूर है। समतामूलक समाज की स्थापना असंभव है।“

“ईश्वर, वेद, धर्म-शास्त्र, आत्मा, स्वर्ग, नरक, पाप, पुण्य, भाग्य, पुनर्जन्म, देवी देवताओं के नाम पर ऊंची जाति के हिंदुओं ने लाभ उठाया है। ईश्वर को जिसने गढ़ा , वह मूर्ख  था! वह महाधूर्त है! जो ईश्वर की पूजा करता है, वह असभ्य है! ईश्वर नहीं है! ईश्वर नहीं है!! ईश्वर नहीं है!!!”

“कुछ लोग नाजायज फायदा उठाने के लिए जाति-पाँति बनाए रखना चाहते हैं। मगर ज्यादा लोग जाति-पाँति खत्म करना चाहते हैं क्योंकि इनकी बेइज्ज़ती जाति-पाँति के आधार पर ही हो रही है।“

“जब तक हिन्दू-धर्म रहेगा तब तक अछूत मानसिकता और भेदभाव का समाज रहेगा।“

“यही बातें हमने प्रदेशीय बैकवर्ड व अछूतों के सम्मेलन के इसी मैदान में सन 1944 और सन 1959 ई. को भी कहीं थी।‘

पेरियार जी ने 13 अक्तूबर को कानपुर के परेड मैदान में अछूत-बैकवर्ड सम्मेलन को संबोधित किया था। इस सम्मेलन में पेरियार जी ने कहा था:

“अगर ईश्वर, वेद, शास्त्र,, हिन्दू धर्म व उनके देवी देवताओं में इतना विश्वास न करते तो हमारा इतना सामाजिक अपमान व धार्मिक शोषण नहीं होता।“

“पुराने व नए जमाने की सरकार इस हिन्दू धर्म को प्रोत्साहित करती है। हमारा सामाजिक ढांचा धार्मिक जीवन का अंग  बन गया है।“

“एक ब्राह्मण की थाली में कुत्ता खाना खा सकता है। मगर मनुष्य  थाली के पास भी नहीं फटक सकता, खाना खाने की बात तो बहुत दूर है। मैं स्पष्ट शब्दों में कहना चाहता हूँ कि मनुष्य जानवर से नि:संदेह गरिमापूर्ण है।“

“राष्ट्र किसी कौम अर्थात वर्ण-जाति विशेष का नहीं।“

“जिन लोगों ने ईश्वर के अस्तित्व की वकालत की है, उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए तथा दूसरों का शोषण करने के अपने ढंग पर स्वत: कहानियाँ गढ़ी हैं जो सरासर झूठ हैं।“

मायावती सरकार और पेरियार मेला तथा पेरियार की मूर्ति लगाने पर रोक

मई, 1995 में उत्तर प्रदेश में भाजपा के समर्थन से बसपा वाली मायावती की सरकार बनी थी। सरकार बनने के कुछ दिन बाद ही मायावती ने लखनऊ  में पेरियार मेला लगाने तथा परिवर्तन चौक पर पेरियार की मूर्ति लगाने की घोषणा की थी। इस पर भाजपा ने सख्त आपत्ति की जिसके फलस्वरूप मायावती न तो पेरियार मेला लगा सकी और न ही पेरियार की मूर्ति ही लग सकी। इतना ही नहीं चार बार सरकार में रहते मायावती ने कभी भी किसी मेले, सभा अथवा प्रदर्शनी में पेरियार की फ़ोटो तक नहीं लगाई। इतना डर रहा है भाजपा का और शायद आज भी है।

सच्ची रामायण की जब्ती

उपरोक्त सम्मेलनों में भागीदारी के अतिरिक्त पेरियार जी का उत्तर प्रदेश से संबंध उनकी बहुचर्चित पुस्तक “रामायण : ए ट्रू रीडिंग ” के हिन्दी अनुवाद “सच्ची रामायण” को लेकर छपने पर हुआ था। उत्तर प्रदेश के पेरियार कहे जाने वाले ललई सिंह यादव ने इस का हिन्दी अनुवाद अक्तूबर 1968 में छापा था जिसको लेकर पूरे प्रदेश में हंगामा खड़ा हो गया था। इस पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया तथा किताब को 1969 में जबत कर लिया था। इसके विरुद्ध ललाई सिंह जी ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में केस किया जिस में वह जीत गए। हाई कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि सरकारी पक्ष ऐसा कोई सुबूत पेश नहीं कर सका कि इस पुस्तक में विभिन्न संप्रदायों के बीच वैमनस्यता फैलाने वाली कोई बात नहीं है। इस फैसले के विरुद्ध उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में 1970 में अपील दायर की थी परंतु वहाँ पर भी सरकार हार गई और सच्ची रामायण आम जनता तक पहुँच गई।

सच्ची रामायण की बिक्री पर मायावती सरकार की रोक

उत्तर प्रदेश में 2007 में मायावती की बसपा सरकार थी और बसपा उस समय बहुजन से सर्वजन में बदल चुकी थी और” हाथी नहीं गणेश है” में रूपांतरण स्वीकार कर चुकी थी। उसी दौरान कुछ सावर्णों ने सच्ची रामायण पुस्तक को हिन्दू विरोधी कह कर उसकी बिक्री पर प्रतिबंध लगाने की मांग की। मायावती सरकार ने इस शिकायत पर तुरंत कार्रवाही करते हुए सच्ची रामायण की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया जो आज तक लगा हुआ है। इस प्रकार मायावती की यह कार्रवाही कांग्रेस सरकार की दलित विरोधी कार्रवाही की ही पुनरावृति थी। इतना ही नहीं इसी दौरान मायावती ने बामसेफ  द्वारा बनवाई गई “तीसरी आजादी” नामक  फिल्म पर भी प्रतिबंध लगा दिया था जो आज तक चल रहा है। ऐसा है मायावती का पेरियार एवं दलित प्रेम!

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है की पेरियार जी का उत्तर प्रदेश से काफी निकट संबंध रहा है तथा यहाँ पर भी उनकी विचारधारा का काफी असर है।  

बुधवार, 6 जुलाई 2022

कितनी आदिवासी हितैषी है मायावती?

 

कितनी आदिवासी हितैषी है मायावती? 

एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट  

हाल में मायावती ने एनडीए की राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी श्रीमती द्रौपदी मुर्मू का यह कह कर समर्थन किया है कि उनकी पार्टी तथा उसकी नीतियाँ हमेश से आदिवासी समर्थक रही हैं। वैसे तो मायावती की यह बात बहुत स्वाभाविक एवं प्रत्याशित लगती है परंतु वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत है। मायावती का चार वार मुख्यमंत्री काल यह दर्शाता है कि मायावती की पार्टी तथा उसकी नीतियाँ घोर आदिवासी विरोधी रही हैं जैसाकि निम्नलिखित विवरण से स्पष्ट होता है।

2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में आदिवासियों की जनसंख्या 1,07,963 है जो कुल आबादी का लगभग 1% है। उत्तर प्रदेश में 35.30% आदिवासी भूमिहीन एवं हाथ का श्रम करने वाले हैं। सरकारी, अर्ध सरकारी तथा निजी क्षेत्र की नौकरियों में वे केवल 8% हैं। 81.35% आदिवासी ऐसे हैं जिनकी मासिक आय 5000 रू से काम है। इनमें गरीबी की रेखा के नीचे का प्रतिशत 44.78 है जिनकी मासिक आय मात्र 816 रू है। आदिवासियों के 79% घर परिवार अतिवंचित श्रेणी के हैं। इससे आप देख सकते हैं कि मायावती के 1995 से 2012 तक के मुख्यमंत्री रहने के बावजूद उत्तर प्रदेश के आदिवासियों की क्या दुर्दशा है। वास्तव में न तो पहले और न ही मायावती के शासनकाल में आदिवासियों के उत्थान के लिए कुछ किया गया। इसके आदिवासी क्षेत्रों में न केवल प्राकृतिक संसाधनों बल्कि आदिवासियों के निवास वाले जनलों का बुरी तरह से दोहन किया गया। आदिवासी क्षेत्रों का न तो कोई विकास किया गया और न ही आदिवासियों का सशक्तिकरण। परिणामस्वरूप आदिवासी तथा आदिवासी क्षेत्र अति पिछड़ेपन का शिकार हैं।

सबसे अधिक आदिवासी आबादी वाला जनपद सोनभद्र न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि देश के अति पिछड़े जनपदों में से एक है। उत्तर प्रदेश के जिन जिलों में आदिवासियों की पर्याप्त आबादी है उन्मे मूलभूत सुविधाओं जैसे सड़कों, अस्पतालों, विद्यालयों, सुरक्षित पेयजल, बिजली, सिंचाई, पब्लिक ट्रांसपोर्ट आदि का सर्वथा अभाव है। सोनभद्र जिले के काफी क्षेत्र में पीने के पानी में फ्लोरेसिस की मात्रा खतरनाक स्तर की है जिसके कारण कई गाँव के वासियों की हड्डियाँ टेड़ीमेड़ी हो गई हैं। इस जनपद में आदिवासी बाहुल्य तहसील दुदधी में लड़कियों की पढ़ाई के लिए एक भी डिग्री कालेज नहीं है। आज भी बहुत से गाँव सड़क द्वारा तहसील मुख्यालय से जुड़े नहीं हैं और मरीजों को चारपाई पर लाद कर अस्पताल लाना पड़ता है जिनका सर्वथा अभाव है। सुरक्षित पेयजल की सप्लाई के अभाव में आदिवासी चुआड़, नदी तथा पोखरे का असुरक्षित जल पीने के लिए अभिशप्त हैं। गर्मी के दिनों में पानी की घोर किल्लत का सामना करना पड़ता है। इस जनपद द्वारा उत्पादित अरहर, चना तथा टमाटर मंडी के अभाव में कौड़ियों के दाम बेचने पड़ते हैं। यद्यपि सोनभद्र जनपद बिजली के उत्पादन का सबसे बड़ा केंद्र है परंतु अधिकतर आदिवासी गाँव में आज भी बिजली नहीं है। स्थानीय बड़े बड़े उद्योगों में आदिवासी केवल ठेका मजदूर की नौकरी ही पाते हैं। अंधाधुंध एवं अवैध खनन के कारण उपजे प्रदूषण से आदिवासियों का जीवन असुरक्षित हो रहा है। सोनभद्र के जनपद से सरकार को सबसे अधिक आय होती होती है परंतु उसका बहुत थोड़ा हिस्सा जनपद के विकास पर खर्च होता है। इस प्रकार उत्तर प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों का दोहन निरंतर हो रहा है और आदिवासी दिन-ब-दिन पिछड़ते जा रहे हैं।

आइए अब देखें कि मायावती की सरकार ने आदिवासियों के लिए क्या किया। सबसे पहले तो मायावती नें दलित-आदिवासियों के संरक्षण के लिए बनाए गए अनुसूचितजाति/जनजातिअत्याचार निवारण अधिनियम 1989 को ही 2001 में यह कह कर रद्द कर दिया था कि इसका दुरुपयोग हो रहा है जबकि उसको ऐसा करने का कोई अधिकार ही नहीं था। उत्तर प्रदेश तो वैसे ही दलित उत्पीड़न में काफी आगे रहता है। मायावती द्वारा उपरोक्त एक्ट के पर रोक लगाने से दलितों और आदिवासियों को दोहरी मार झेलनी पड़ी। एक उनपर अत्याचार के मामले दर्ज ही नहीं किये गए और दूसरे उन्हें जो मुआवजा मिल सकता था वह भी नहीं मिला। आखिरकार दलित संगठनों द्वारा मायावती के इस अवैधानिक एवं दलित/आदिवासी विरोधी कानून को हाई कोर्ट में चुनौती देकर रद्द करवाया गया। क्या कोई सोच सकता है कि एक दलित मुख्यमंत्री इतना दलित/आदिवासी विरोधी काम कर सकता है जो मायावती ने किया।

उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड के अलग हो जाने के बाद उत्तर प्रदेश में आदिवासियों का लोकसभा, विधानसभा तथा पंचायती राज में आरक्षण खत्म हो गया था। इसके बाद किसी भी सरकार ने उत्तर प्रदेश के आदिसियों को आरक्षण देने/दिलाने का प्रयास नहीं किया। हमारी तत्कालीन पार्टी जन संघर्ष मोर्चा ने प्रयास कर करके 2010 में आदिवासियों को पंचायती राज में आरक्षण का आदेश दिलाया परंतु मायावती इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गईं। इस कारण यह आरक्षण 2015 में लागू हो सका। हमारी तत्कालीन पार्टी आदिवासियों के लिये विधान सभा की दो सीटें आरक्षित कराने की लड़ाई लड़ रही थी परंतु यह खेद का विषय है की मायावती की बसपा, कांग्रेस, सपा तथा भाजपा इसका निरंतर विरोध कर रही थीं। उन्होंने यह विरोध न केवल चुनाव आयोग बल्कि हाईकोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट तक किया। अंतत तमाम विरोध के बावजूद 2017 में हमारी पार्टी आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट उत्तर प्रदेश के आदिवासियों के लिए ओबरा तथा दूदधी विधान सभा को दो सीटें आरक्षित कराने में सफल रहा। इससे आप अंदाज लगा सकते हैं की मायावती का दलित हितैषी होने का दावा कितना सही है।

जैसाकि सर्वविदित है कि ग्रामीण परिवेश में भूमि का बहुत महत्त्व होता है। क्योंकि अधिकतर आदिवासी ग्रामीण क्षेत्र में ही रहते हैं, अतः इन सबके लिए भूमि का स्वामित्व अति महत्वपूर्ण है। ग्रामीण लोगों में बहुत कम परिवारों के पास पुश्तैनी ज़मीन है। अधिकतर लोग जंगल की ज़मीन पर बसे हैं परन्तु उस पर उनका मालिकाना हक़ नहीं है। इसी लिए जंगल की ज़मीन पर बसे लोगों को स्थायित्व प्रदान करने के उद्देश से 2006 में वनाधिकार अधिनयम बनाया गया था जिसके अनुसार जंगल में रहने वाले आदिवासियों एवं वनवासियों को उनके कब्ज़े वाली ज़मीन का मालिकाना हक़ अधिकार के रूप में दिया जाना था। इस हेतु निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार प्रत्येक परिवार का ज़मीन का दावा तैयार करके ग्राम वनाधिकार समिति की जाँच एवं संस्तुति के बाद राजस्व विभाग को भेजा जाना था जहाँ उसका सत्यापन कर दावे को स्वीकृत किया जाना था जिससे उन्हें उक्त भूमि पर मालिकाना हक़ प्राप्त हो जाना था।  

वनाधिकार अधिनयम 2008 में लागू हुआ, उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती की बहुत मज़बूत सरकार थी। उसी वर्ष इस कानून के अंतर्गत अकेले सोनभद्र जिले में वनाधिकार के 65,300 दावे तैयार हुए परन्तु 2009 में इनमे से 53,000 अर्थात 81% दावे ख़ारिज कर दिए गये। मायावती सरकार की इस कार्रवाही के खिलाफ आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने अपने संगठन आदिवासी-वनवासी महासभा के माध्यम से आवाज़ उठाई परन्तु मायावती सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। अंतत मजबूर हो कर हमे इलाहाबाद हाई कोर्ट की शरण में जाना पड़ा। हाई कोर्ट ने हमारे अनुरोध को स्वीकार करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को सभी दावों की पुनः सुनवाई करने का आदेश अगस्त, 2013 को दिया परन्तु तब तक मायवती की सरकार जा चुकी थी और उस का स्थान अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार ने ले लिया था। हम लोगों ने 5 साल तक अखिलेश सरकार से इलाहबाद हाई कोर्ट के आदेश के अनुसार कार्रवाही करने का अनुरोध किया परन्तु उन्होंने हमारी एक भी नहीं सुनी और एक भी दावेका निस्तारण नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि किस प्रकार मायावती और अखिलेश की सरकार ने सोनभद्र के दलितों और आदिवासियों को बेरहमी से भूमि के अधिकार से वंचित रखा।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि किस तरह पहले मायावती और फिर अखिलेश यादव की सरकार ने दलितों, आदिवासियों और परंपरागत वनवासियों को वनाधिकार कानून के अंतर्गत भूमि के अधिकार से वन्चित रखा है और भाजपा सरकार में उन पर बेदखली की तलवार लटकी हुयी है। यह विचारणीय है कि यदि मायावती और अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल में इन लोगों के दावों का विचरण कर उन्हें भूमि का अधिकार दे दिया होता तो आज उनकी स्थिति इतनी दयनीय नहीं होती। इसी प्रकार यदि मायावती ने अपने शासन काल में भूमिहीनों को ग्रामसभा की ज़मीन जो आज भी दबंगों के कब्जे में है, के पट्टे कर दिए होते तो उनकी आर्थिक हालत कितनी बदल चुकी होती।  

उपरोक्त संक्षिप्त वीरान से स्पष्ट है कि मायावती का आदिवासी हितैषी होने का दावा एक दम झूठा है। वास्तव में भाजपा प्रत्याशी का समर्थन करना मायावती की मजबूरी है जैसाकि उसने हाल के चुनाव/उपचुनाव में परोक्ष/अपरोक्ष रूप से किया भी है और आगे भी करेगी।

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