भगवान दास मेरी नज़र में
- एस आर दारापुरी
मैं भगवान दास जी को 1965 से
जानता था। उस समय उन्हें दिल्ली में बाबासाहेब के सबसे बड़े विद्वान और समर्पित
पैरोकारों में से एक के तौर पर जाना जाता था।
मैंने उन्हें पहली बार नई
दिल्ली के लक्ष्मीबाई नगर में बौद्ध उपासक संघ की मीटिंगों में सुना था। कुछ
वर्षों तक आंबेडकर भवन बौद्ध गतिविधियों का केंद्र रहा था। बुद्धिस्ट सोसाइटी आफ
इंडिया द्वारा साप्ताहिक धार्मिक मीटिंगें आयोजित की जाती थीं। श्री वाई सी
शंकरानंद शास्त्री तथा सोहन लाल शास्त्री जो दोनों पंजाब की एक आर्यसमाजी संस्था
ब्रह्म विद्यालय की उपज थे और बौद्ध आन्दोलन के अगुआ थे। आर्य समाज की मीटिंगों की
तरह ये लोग साप्तहिक मीटिंगें किया करते थे। कुछ कारणों से दोनों के बीच मतभेद हो
गए और वे एक दूसरे से अलग हो गए। श्री शंकरानंद शास्त्री ने अपने कुछ साथियों को
लेकर बौद्ध उपासक संघ बना लिया और रिज़र्व बैंक आफ इंडिया के एक कर्मचारी श्री
रामाराव बागड़े के फ्लैट के सामने आंगन में साप्ताहिक मीटिंगें शुरू कर दीं। श्री
भगवान दास जी इन मीटिंगों में मुख्य वक्ता के रूप में रहते थे।
उन्हें दलितों की एकता में
रूचि थी और उन्होंने बहुत सी जातियों मसलन धानुक, खटीक, बाल्मीकि, हेला, कोली आदि को अम्बेडकरवादी आन्दोलन में लेने के
प्रयास किये। ज़मीनी स्तर पर काम करते हुए भी उन्होंने दलितों एवं अल्पसंख्यकों के
विभिन्न मुद्दों पर लेख लिखे जो पत्र पत्रिकायों में प्रकाशित होते रहे। उन्हें
अंग्रेजी और उर्दू में महारत हासिल थी और सरल हिंदी तथा कुछ गुरमुखी लिपि में
पंजाबी पढ़ सकते हे। बंगाल और अराकान में एयरफोर्स की नौकरी करते हुए उन्होंने
बंगाली भाषा भी सीखी थी पर अब भूल गए थे ।
मुझे नौकरी में रहते हुए लगभग
पूरे भारत वर्ष में घूमने और अनुसूचित जातियों से सम्बंधित अधिकारियों, प्रोफेसरों, अध्यापकों और नेताओं को जानने
का मौका मिला। मेरा विश्वास है कि श्री दास जी के पास पुस्तकों का सबसे बड़ा भंडार
था। वह कभी न थकने वाले पाठक थे और काम के अधिकाँश घंटे पढ़ने में बिताते थे।
पुस्तकों और पत्र पत्रिकायों पर उनका काफी पैसा खर्च होता था। उनके पुस्तक संग्रह
में विदेशी और भारतीय लेखकों की दुर्लभ पुस्तकें शामिल थीं। उनकी फाइलों में अलग
अलग विषयों पर अच्छे लेख और पर्चे थे जिन्हें या तो वे प्रकाशित नहीं करा सके थे
या फिर उनके बारे में भूल गए थे.
उनसे बातचीत के दौरान मुझे
पता चला कि उनका जन्म 23 अप्रैल, 1927 को भारत की गर्मियों की राजधानी शिमला के निकट
छावनी जतोग में हुआ था और उनका परिवार काफी खुशहाल था लेकिन एक अछूत परिवार में
जन्म के कारण वह अपमान और भेदभाव का शिकार होते रहे। उन्हें उनके पिता पर गर्व था
जिन्होंने उनके चरित्र पर गहरा प्रभाव डाला। उनके पिता डॉ आंबेडकर के वह बहुत
प्रशंसक थे और समाचार पत्र पढ़ने के शौक़ीन थे। उन्हें हिन्दू, ईसाई, इस्लाम और सिख धर्म के
ग्रंथों के अलावा आयुर्वेद की पुस्तकें पढ़ने का शौक था। श्री दास जी को ज्ञान से
प्रेम अपने पिता जी से विरासत में मिला था।
ऐसा लगता है कि दास साहेब
अपने समय के अधिकतर अछूतों की तरह इसाईयत से प्रभावित हुए। बाद में उन्होंने आर्य
समाज साहित्य, कुरान और इस्लाम विचारधारा की अन्य पुस्तकें
पढ़ीं। काफी समय तक उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य का अध्ययन किया और मार्क्सवाद पर
लिखते भी रहे लेकिन कम्युनिस्टों नेताओं के जातिवादी चरित्र ने उनका मन खट्टा कर
दिया। उन्होंने इन्गर्सेल, टामस पेन, वाल्टेयर, बर्नार्ड शा और बर्टरैंड रस्सल का अध्ययन किया।
बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर से सीधे संपर्क में आने से पहले उन्होंने धर्म के बारे
में अपने विचार विकसित कर लिए थे। बाबा साहेब से उनकी जान पहचान पिछड़ी जातियों के
प्रसिद्ध नेता शिव दयाल सिंह चौरसिया ने करवाई थी जो कि काका कालेलकर आयोग के
सदस्य थे और राज्य सभा के सदस्य भी थे।
श्री भगवान दास जी ने बाबा
साहेब की रचनाओं और भाषणों का सम्पादन किया और उन पर पुस्तकें लिखीं। उनका "
दस स्पोक आंबेडकर" शीर्षक से चार खण्डों में प्रकाशित ग्रन्थ देश और विदेश
में अकेला दस्तावेज़ था जिनके जरिये डॉ आंबेडकर के विचार सामान्य लोगों और
विद्वानों तक पहुंचे।
यह काम उन्होंने 1960 के दशक में शुरू किया था जब
अभी इस की तरफ महाराष्ट्र सरकार का ध्यान भी नहीं गया था। उन्होंने सफाई
कर्मचारियों और भंगी जाति पर चार पुस्तकें और धोबियों पर एक छोटी पुस्तक लिखी।
उनकी बहुचर्चित पुस्तक "मैं भंगी हूँ" अनेक भारतीय भाषायों में अनूदित
हो चुकी है और वह दलित जातियों के इतिहास का दस्तावेज़ है।
उनकी पुस्तकें और देश विदेश
के सेमीनार आदि प्रस्तुत उनके पर्चों से पता चलता है कि उनका अध्ययन कितना विस्तृत
था और वह दबे कुचले लोगों के हित के प्रति कितने समर्पित थे। अगर मार्कस ने दुनिया
के मजदूरों को एक होने का आह्वान किया था तो भगवान दास जी ने भारत और एशिया के
दलितों को एक होने का सन्देश दिया। मुझे नहीं लगता कि उनके अलावा कोई ऐसा व्यक्ति
है जिसने एशिया के सभी दलितों को एक मंच पर लाने , उनकी मुक्ति और स्वाभिमान से उनके जीने के
अधिकार के लिए इतना प्रयास किया हो। उन्होंने कुल 23 पुस्तकें लिखीं।
श्री भगवान दास जी ने
भारत में दलितों के प्रति छुआछूत और भेदभाव के मामले को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर
उठाने का ऐतिहासिक काम किया। भारत, नेपाल, पाकिस्तान और बांग्लादेश के जातिभेद के मामले को
उन्होंने 1983 में यू एन ओ ( संयुक्त राष्ट्र संघ) में पेश
किया और जापान के अछूतों बुराकुमिन के मामले को भी उठाया।
डॉ आंबेडकर भी इस मामले को
संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाना चाहते थे परन्तु कुछ कारणों से यह संभव नहीं हो
पाया था। श्री दास के प्रयासों का ही यह फल है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने छुआछूत
को मानवाधिकारों का हनन मान कर भारत सरकार की जवाबदेही तय की है और अपनी ओर से
भारत के लिए दो रिपोर्टियर नियुक्त किये हैं। इस के बाद वह 2001 में डरबन में नसल भेद पर
संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन में भी गए थे। वास्तव में छुआछूत के मामले को
अंतर्राष्टीय मंच पर पहुँचाने का सारा श्रेय श्री भगवान दास जी को ही जाता है। इस
के लिए एशिया के दलित और जापान के बुराकुमिन सदैव उनके ऋणी रहेंगे।
श्री भगवान दास जी ने बहुत
साधारण जीवन जिया। वह बहुत विनम्र थे और भदंत आनंद कौशल्यायन कहा करते थे, "आप में बहुत नम्रता है।" वकील के रूप में वह बहुत मेहनत करते थे। उनके
ज्यादा दोस्त नहीं थे और न ही सामाजिक समारोहों में जाने में उन्हें कोई खास ख़ुशी
होती थी। लाइब्रेरी में या दलित शोषित लोगों की बेहतरी के लिए काम कर रहे
बुद्धिजीवियों की संगत में उन्हें अधिक ख़ुशी मिलती थी।
इस महान व्यक्ति को हम लोगों
ने 18 नवम्बर, 2010 को खो दिया जिससे अम्बेडकरवादी आन्दोलन की
अपूर्णीय क्षति हुई है। उनके दिखाए गए मार्ग पर चलकर बाबा साहेब के मिशन को अगर हम
पूरा कर सकें तो यही उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी।
नोट: भगवान दास जी पर एक डाक्यूमेंटरी फिल्म इस लिंक पर उपलब्ध है: https://www.youtube.com/watch?v=jFljZE25ccE