मैं चाहता हूँ कि मनुस्मृति लागू होनी चाहिए
(कँवल भारती)
मैंने अख़बार में पढ़ा था कि गत दिनों बनारस में कुछ दलित छात्रों ने मनुस्मृति को जलाने का कार्यक्रम किया था, और वे सब जेल में बंद हैं। समझ में नहीं आता कि दलित ऐसी बेवकूफियां क्यों करते हैं? वे डा. आंबेडकर का अनुसरण करते हैं, पर भूल जाते हैं कि उस दौर की परिस्थितियां अलग थीं। डा. आंबेडकर ने मनुस्मृति को हिन्दू अलगाववाद के रूप में देखा था। आज दलित उसे किस रूप में देख रहे हैं? अगर वे अपने आप को हिन्दू समझ रहे हैं तो मनुस्मृति का विरोध क्यों कर रहे हैं? दलितों को मालूम चाहिए कि मनुस्मृति में दलित जातियों अर्थात अछूतों के बारे में कुछ नहीं लिखा है। मनु ने जो प्रतिबंध लगाए हैं, वे शूद्रों और स्त्रियों पर लगाए हैं, वह भी सवर्ण स्त्रियों पर। दलित क्यों बिलबिला रहे हैं।
दलितों को मालूम होना चाहिए कि मनुस्मृति का विधान हिन्दुओं के लिए है, और हिन्दुओं में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आते हैं। मनु ने कहा है कि पांचवां कोई वर्ण नहीं है। इसलिए, इस फोल्ड में अछूत नहीं आते, जो आज अनुसूचित जातियों के लोग हैं। फिर दलित क्यों मनुस्मृति को लेकर आपे से बाहर हो जाते हैं? मनुस्मृति के खिलाफ विद्रोह शूद्रों को करना चाहिए, जो आज ओबीसी में हैं, और वे ही आज हिन्दू राष्ट्र के सबसे बड़े समर्थक बने हुए हैं।
दलितों को तो मनुस्मृति को लागू कराने का आन्दोलन चलाना चाहिए। मनुस्मृति को एक बार लागू तो हो जाने दो, जो कभी नहीं होगी, क्योंकि आरएसएस जानता है कि मनुस्मृति को ब्राह्मण खुद स्वीकार नहीं करेंगे।
जिस मनुस्मृति की निन्दा करने पर आज हिन्दुओं की भावनाएँ आहत हो जाती हैं, और निन्दकों को जेल में डाल दिया जाता है, वह मनुस्मृति अगर हिन्दूराष्ट्र बनने के बाद फिर से लागू हो जाए, तो क्या होगा? दो बातें ज़रूर होंगी। एक, उच्च वर्ण की स्त्रियाँ और पुरुष दोनों ही इसके ख़िलाफ़ बग़ावत कर देंगे; और दूसरी, अगर बग़ावत को कुचल दिया गया, और मनु के विधान को बलपूर्वक लागू कर दिया गया, तो हिन्दू समाज रसातल में चला जायेगा।
इसलिए मुझे नहीं लगता कि हिन्दूराष्ट्र की सरकार कभी मनुस्मृति को लागू कर सकेगी। वह इसलिए कि मुसलमानों के खिलाफ जहर फैलाना एक अलग बात है, और मनुस्मृति के अनुसार हिन्दुओं को, खास तौर से द्विजों को हजार साल पीछे ले जाना दूसरी बात है। अगर मनुस्मृति के कानून लागू हुए तो कैथरीन मेयो की किताब ‘देवताओं के गुलाम’ के सारे पात्र जिन्दा हो जायेंगे। कोई भी हिन्दू स्त्री फिर पढ़ नहीं पायेगी। उसे 12-13 साल की उम्र में विवाह करना होगा। वह चौका-बर्तन, और बच्चे पैदा करने के सिवा कोई और काम नहीं कर सकेगी। अगर वह कम उम्र में विधवा होती है, तो उसे या तो सती होना पड़ेगा, या सिर घुटाकर आजीवन सफेद वस्त्रों में जीवन गुजारना होगा। हिन्दू धर्म के सनातन विधान में स्त्री की यही नियति है। क्या आधुनिक भारत की सवर्ण महिलाएं, जो आज पायलट हैं, जज हैं, प्रोफ़ेसर हैं, राजनेता हैं, राजनयिक हैं, कलेक्टर, पुलिस अफसर, कलाकार और पत्रकार हैं, इस नियति को स्वीकार करेंगीं? आरएसएस और भाजपा के लोग एक बार मनुस्मृति का विधान लागू करके तो देखें, सवर्ण हिन्दू तो छोड़िए, देश के ब्राह्मण ही सबसे पहले उसके ख़िलाफ़ विद्रोह करेंगे, क्योंकि कोई भी ब्राह्मण स्त्री अब अशिक्षित बनकर प्रतिबंधों की जंजीरों में बंधकर रहना नहीं चाहेगी। सनातन की आवाज़ उठाने वाले और हिन्दू-हिन्दू चिल्लाने वाले उन सवर्णों की भी, चाहें, वे जज हों, नेता हों, प्रोफ़ेसर हों, वकील हों, अक्ल ठिकाने लग जाएगी, जब लोकतंत्र के स्थान पर मनुस्मृति के विधान के साथ हिन्दू राज्य अस्तित्व में आएगा।
आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत संविधान का विरोध यह कहकर करते हैं कि यह विदेशी विचारों पर बनाया गया है, इसमें भारतीय संस्कृति का कुछ भी अंश नहीं है। वह भारतीय संस्कृति की आड़ में हिन्दू संस्कृति, ख़ास तौर से ब्राह्मण-संस्कृति की बात करते हैं। लेकिन आरएसएस का सौ सालों का इतिहास बताता है कि उसने कभी भारतीय संस्कृति की बात नहीं की, हमेशा ब्राह्मण संस्कृति का ही गुणगान किया है। वह हर क्षेत्र में ब्राह्मण प्रभुत्व और ब्राह्मण-वर्चस्व को ही भारतीय संस्कृति कहता आया हैं। उसकी इस संस्कृति के आदर्श नायक श्रीराम हैं, जिन्होंने ब्राह्मण-रक्षा और ब्राह्मण-राज्य स्थापित करने लिए अवतार लिया था। उन्होंने निम्न वर्गों में फूट, विभाजन और भेदभाव पैदा करके, उन्हीं की सेना बनाकर, उन्हीं के साम्राज्य को नष्ट करके ब्राह्मण-राज्य की विजय-पताका फहराई थी। आरएसएस और भाजपा के नेता श्रीराम के ही पदचिन्हों पर चलते हुए, आज दलित-पिछड़े और आदिवासी समुदायों में फूट, विभाजन और भेदभाव पैदा करके, उनकी शिक्षा बर्बाद करके, और उन बेरोजगारों की रामभक्त सेना बनाकर, उन्हीं के हाथों में हिन्दू राष्ट्र के नाम पर, हर क्षेत्र में ब्राह्मण-प्रभुत्व और वर्चस्व कायम कर रहे हैं। यही उनका एकमात्र एजेंडा है। यही उनका सनातन धर्म है, जिसके केंद्र में मनुस्मृति है।
सनातन धर्म के केंद्र में मनुस्मृति ज़रूर है, परन्तु आरएसएस और भाजपा के नेता सिर्फ सनातन की फ़िज़ा बनाए रखने के लिए उसका समर्थन करते हैं, वे उसे लागू कभी नहीं करेंगे। इसका कारण मनु के वे विधान हैं, जिन्हें अब कोई भी हिन्दू, खास तौर से खुद ब्राह्मण स्वीकार नहीं करेंगे। उनमें से कुछ विधान यहाँ उल्लेखनीय हैं।
मनुस्मृति के तीसरे अध्याय में मनु का विधान है कि ‘गुरु के आश्रम में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए 36 वर्ष तक, या 18 वर्ष तक या 19 वर्ष तक तीनों वेद, या दो वेद या एक वेद पढ़े, उसके बाद ही गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे।’ कितने हिन्दू इस नियम का पालन करने को तैयार होंगे? क्या आज यह संभव है कि कोई हिन्दू, ख़ास तौर से द्विज वर्ण का व्यक्ति 36, 18 या 19 वर्ष तक सिर्फ वेद पढ़े, और कुछ न पढ़े? क्या सिर्फ वेद पढ़ने भर से वह योग्य हो जायेगा? क्या कोई भी दर्शन, विज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र, वकालत और अंग्रेज़ी पढ़े बिना राष्ट्र और समाज के विकास में योगदान दे पायेगा? आदमी को ज्ञान-विज्ञान से वंचित करने वाला यह विधान आज कौन हिन्दू स्वीकार करेगा?
मनुस्मृति के नवें अध्याय में व्यवस्था दी गई है कि ‘30 वर्ष का पुरुष 12 वर्ष की कन्या से, और 24 वर्ष का पुरुष 8 की कन्या से विवाह करे।’ यदि मनु का क़ानून लागू हो गया, तो कितने हिन्दू अपनी 8 और 12 वर्ष की कन्याओं का विवाह करने को तैयार होंगे? क्या 8 और 12 वर्ष की यौवन-पूर्व आयु में कन्याओं का विवाह उचित है? यह तो बाल-विवाह की ओर लौटना है, और उस युग की ओर लौटना है, जब लड़कियों का पढ़ना वर्जित था, और आठ साल की उम्र में उनकी शादी कर दी जाती थी। ऐसी लड़कियां कई बीमारियों से ग्रस्त होकर समय-पूर्व ही मर जाती थीं। आज स्त्रियाँ हर क्षेत्र में काम कर रही हैं। क्या अपने दमन का यह विधान सवर्ण स्त्रियाँ स्वीकार करेंगी?
मनुस्मृति के पांचवें अध्याय में कहा गया है कि ‘विधवा स्त्री मरते दम तक पुनर्विवाह नहीं करे।’ मनुस्मृति में ‘करे’ शब्द राजा के लिए आदेश है, यानी यह राज्य का दायित्व है कि उसे इस व्यवस्था में समाज को रखना ही है। मनु के ये कानून अगर लागू हो गए, तो हिन्दू समाज उसी अवस्था में पहुँच जायेगा, जहाँ से वह इन तमाम कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष करके यहाँ तक आया है।
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