मायावती के उत्तर
प्रदेश में उप चुनाव न लड़ने के निहितार्थ
-एस. आर.
दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
सभी अवगत हैं कि
अगले महीने उत्तर प्रदेश में 11 विधान सभा तथा एक लोकसभा सीट के लिए उप चुनाव होने
वाले हैं. एक ओर जहाँ समाजवादी पार्टी (सपा) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और
कांग्रेस इस के लिए अपनी अपनी ताल ठोक रही हैं वहीँ मायावती का इस चुनाव में भाग न
लेने का ऐलान आश्चर्यजनक है. चुनाव न लड़ने के पीछे मायावती ने यह तर्क दिया है कि
उत्तर प्रदेश में अगले साल तक सपा की सरकार भंग होकर समय से पहले चुनाव होने की
पूरी सम्भावना है इस लिए वह उप चुनाव न लड़ कर अभी से उस चुनाव की तैय्यारी में जुटने
वाली हैं और वह दिल्ली में रह कर अन्य राज्यों में होने वाले चुनाव की तैय्यारी के
लिए समय देंगी.
मायावती का चुनाव
न लड़ने का यह तर्क आसानी से गले उतरने वाला नहीं है क्योंकि यह उप चुनाव एक दो
सीटों पर न हो कर 12 सीटों पर हो रहा है जो कि एक बड़ी संख्या है. फिर ऐसी पार्टी
के लिए तो ऐसा चुनाव लड़ना और भी ज़रूरी है जो कि हाल के लोक सभा चुनाव में बुरी तरह
से हार चुकी हो. उस के लिए अपने काडर को पुनर्जीवित करने का एक अच्छा मौका है.
चुनाव पार्टी को जनता के बीच जा कर अपनी बात कहने का मौका देता है और जनता में आप
की उपस्थिति भी दर्ज होती है परन्तु मायावती इस मौके का जानबूझ कर इस्तेमाल नहीं
कर रही तो इस के कुछ न कुछ गहरे निहितार्थ ज़रूर होंगे.
मायावती द्वारा
उप चुनाव न लड़ने के बारे में कुछ लोगों का कहना है कि मायावती लोक सभा के चुनाव
में
अपनी पार्टी की
शर्मनाक हार से बहुत हतोत्साहित हो चुकी हैं और उन्हें डर है कि अगर इस चुनाव में
भी उस की फिर वैसी ही दुर्दशा हुयी तो यह उस के लिए बहुत बुरा होगा. परन्तु अगर
हार के डर से पार्टी चुनाव लड़ना ही छोड़ दे तो फिर पार्टी का भविष्य क्या होगा?
बसपा के कुछ
लोगों का कहना है कि मायावती मुलायम सिंह को कमज़ोर करने के इरादे से यह चुनाव नहीं
लड़ रही ताकि वोटों का बंटवारा न हो और भाजपा अधिक से अधिक सीटें जीत ले. यदि यह
तर्क सही भी मान लिया जाये तो इस से बसपा को तो कोई फायदा होने वाला नहीं है. सारा
फायदा तो भाजपा को ही होगा.
कुछ लोगों का
कहना है कि चुनाव न लड़ने का मुख्य कारण मायावती की भाजपा से गहरी सांठ गाँठ होना है
. हाल में मायावती ने जिस आत्मविश्वास के साथ अगली मुख्य मंत्री होने का दावा ठोका
है, उस से परिलक्षित होता है कि शायद पहले की तरह मायावती का भाजपा से कोई सौदा हो गया है. मायावती का पूरे विशवास
के साथ यह कहना कि निकट भविष्य में सपा की सरकार बर्खास्त होने वाली है और अगले
साल उत्तर प्रदेश में समय से पहले चुनाह हो सकते है, भी कुछ खास दिशा में संकेत
करते हैं. वैसे मायावती के भाजपा से पुराने रिश्ते हैं क्योंकि वह पूर्व में तीन
बार भाजपा से सहायता लेकर मुख्य मंत्री बन चुकी हैं और अब भी उसे भाजपा से हाथ
मिलाने में कोई गुरेज़ नहीं होगा.
अब चूँकि मायावती
यह उप चुनाव नहीं लड़ रही तो सवाल पैदा होता है कि बसपा के प्रत्याशी न होने पर
बसपा का वोट किसको जायेगा. स्पष्ट है वह सपा, कांग्रेस को न जा कर भाजपा को ही
जायेगा. यह दलित राजनीति के लिए और भी घातक होगा. एक तो पिछले चुनाव में ही दलितों
का बहुत बड़ा हिस्सा मायावती की गलतियों के कारण भाजपा की गोद में जा चुका है.
दूसरे बसपा द्वारा इस चुनाव को न लड़ने के
कारण भाजपा को दलितों के और नजदीक आने का मौका मिलेगा. यह भी हो सकता है कि भाजपा
और दलितों को प्रभावित करके बसपा से तोड़ने में सफल हो जाये क्योंकि मायावती ने
अपने साथ साथ अपने काडर को भी काफी हद तक भ्रष्ट कर दिया है जिसे भाजपा के लिए
खरीदना कठिन नहीं होगा.
अतः बसपा द्वारा
चुनाव न लड़ने के गहरे निहितार्थ हैं. मायावती चुनाव न लड़ के सपा को कमज़ोर करने के
बहाने भाजपा को मज़बूत कर रही है. इस में मायावती की भाजपा के साथ सांठ गाँठ भी
स्पष्ट दिखाई देती है. मायावती की इस तिकड़म से फिलहाल बसपा को तो कोई लाभ होने
वाला नहीं है बल्कि उस की कीमत पर भाजपा ज़रूर मज़बूत हो जाएगी. वैसे तो उत्तर भारत
में भाजपा को पुनर्जीवित करने का अधिक श्रेय मायावती को ही जाता है. मगर अब मायावती
को यह याद रखना चाहिए कि वर्मान भाजपा 1995 वाली नहीं है जब वह अपने असितित्व की लडाई लड़ रही थी. अब वह अपनी पूरी ताकत में है
और स्वतंत्र रूप से उत्तर प्रदेश में अगली सरकार बनाने का इरादा रखती है. ऐसा
प्रतीत होता है कि मायावती द्वारा वर्तमान चुनाव न लड़ना भाजपा के लिए वरदान सिद्ध
होगा और वह उत्तर प्रदेश में और मज़बूत हो जाएगी. कहीं ऐसा न हो कि मायावती पर
“चौबे छब्बे बनने चले थे दूबे बन कर लौटे“ वाली बात चरितार्थ न हो जाये.
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