दलित-भाजपा गठजोड़
से उपजे खतरे
एस. आर. दारापुरी
हाल का लोकसभा
चुनाव कई मायनों में पिछले चुनावों से भिन्न रहा है. इस में जहाँ एक ओर बहुसंख्यक हिन्दुओं
का ध्रुवीकरण हुआ है वहीँ पहली बार दलितों के एक बड़े हिस्से ने अपने वर्ग शत्रु
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को बड़ी संख्या में वोट दिया है. दलितों के भाजपा के
नजदीक जाने से एक नया सामाजिक समीकरण बना है जिसकी प्रकृति साम्प्रदायिक है. अभी
तक तो अधिकतर पिछड़ी जातियां ही जो कि अपने आप को कट्टर हिन्दू मानती हैं भाजपा के
हिंदुत्व के पैदल सैनिक के रूप में काम करते रहे हैं. परन्तु अब तो उस में दलितों
की एक फ़ौज भी शामिल हो गयी है. यह भी सर्वविदित है कि अधिकतर दलित जातियां
भाजपा से राजनैतिक तौर पर एक दूरी बनाए रखती रही हैं.
वास्तव में दलित
जातियों में काफी समय से दो विपरीत धाराएँ चल रही हैं- एक अहिन्दुकरण की और दूसरी
हिन्दुकरण की. जो दलित डॉ. आंबेडकर की विचारधारा से प्रभावित हैं उनका काफी हद तक
अहिन्दुकरण हुआ है. उन में से बड़ी संख्या में दलितों ने बौद्ध धम्म को अपनाया है
जैसा कि 2001 की जनगणना से परिलक्षित हुआ है. इसके आंकड़ों के अनुसार 2001 में भारत
में बौद्धों की जनसख्या लगभग 80 लाख थी जो कि कुल जनसँख्या का 0.8 प्रतिशत थी जबकि
1951 में यह जनसँख्या केवल 1.42 लाख अर्थात कुल जनसँख्या का केवल 0.04 प्रतिशत थी.
2011 की जनगणना में इस जनसँख्या में बहुत अधिक वृद्धि होने की सम्भावना है क्योंकि
इस दशक में दलितों ने बहुत बड़ी संख्या में बौद्ध धम्म में प्रवेश किया है. काफी
दलित तो इसे बौद्ध धम्म में वापसी के रूप में भी मानते हैं क्योंकि डा. आंबेडकर की
स्थापना के अनुसार दलित (अछूत) पूर्व में बौद्ध ही थे और बाद में उन्हें बाध्य
करके हिन्दू बनाया गया. इस परिवर्तन के सम्बन्ध में एक ख़ास बात यह रही है कि जहाँ
दलितों की बड़ी उपजातियां जैसे महाराष्ट्र में महार, उत्तर प्रदेश में चमार और आन्ध्र प्रदेश में माला आदि डॉ. आंबेडकर से
प्रभावित हो कर बौद्ध धम्म की ओर आकर्षित हुयी हैं वहीँ दलितों की छोटी उपजातियां
जैसे महाराष्ट्र में चम्भार, उत्तर प्रदेश में पासी,धोबी, खटीक और बाल्मीकि तथा
आन्ध्र प्रदेश में मादिगा आदि हिन्दू धर्म की ओर गयी हैं. इस का एक कारण तो
राजनैतिक प्रतिद्वंदिता रही है और दूसरा कारण इन जातियों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक
संघ (आर.एस.एस) की घुसपैठ रही है जिस ने इन का निरंतर हिन्दूकरण किया है. जनसंघ और
अब तक भाजपा इन उपजातियों को पकड़ कर इन्हें आरक्षित सीटों पर जिता कर अपने खेमे
में बांधे रही है. कांग्रेस भी दलितों के उपजाति विभाजन का राजनीतिक इस्तेमाल करती
रही है. पर इस बार भाजपा ने न केवल इन उपजातियों का ही ध्रुवीकरण किया है बल्कि पूर्व
में भाजपा से दूर रहने वाली दलित उपजातियों के एक बड़े हिस्से को भी अपनी ओर
आकर्षित किया है. दलितों के भाजपा की तरफ इस ध्रुवीकरण के बहुत दूरगामी परिणाम
होने वाले हैं.
इस सन्दर्भ में दलितों
के भाजपा की तरफ इस झुकाव के कारणों को तलाशना बहुत ज़रूरी है. इसे तलाशने के लिए
वर्तमान में तथाकथित दलित पार्टियों के
कार्यकलाप का विश्लेषण करना बहुत ज़रूरी है. सब से पहले रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया
(आरपीआई) को देखा जाये तो यह बहुत से गुटों में बटी हुयी है. इसके प्रमुख गुट आरपीआई
अध्यक्ष गवई, आरपीआई (ए) अध्यक्ष रामदास अठावले, भारिप अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर और
जोगिन्दर कवाडे गुट आदि हैं. ये सभी गुट अपने आप को असली आरपीआई के वारिस बताते
हैं. ये सभी नेता अपने अपने स्वार्थ के लिए किसी भी पार्टी के साथ गठजोड़ करते रहते
हैं. इस में विचारधारा की कोई अड़चन नहीं है. इस चुनाव में गवई व कवाडे गुट
कांग्रेस, अठावले गुट शिवसेना, और प्रकाश आंबेडकर गुट छोटी पार्टियों के गठजोड़ से
चुनाव लड़ा था परन्तु किसी को कोई भी सीट नहीं मिली. रामदास अठावले किसी तरह से
शिवसेना भाजपा की सहायता से राज्य सभा के सदस्य बन सके हैं. इन नेतायों की
सिद्धान्तहीन और स्वार्थी सौदेबाजी से तंग आकर दलितों का काफी हिस्सा भाजपा और
शिवसेना की तरफ चला गया है.
उत्तर भारत में
दलितों की प्रमुख पार्टी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) जो कि दलितों की एक मजबूत
पार्टी के रूप में उभरी थी, से भी दलितों का मोहभंग हुआ है जिस के कारण दलितों की न
केवल हिंदूवादी उपजातियां जैसे पासी, धोबी, खटीक और बाल्मीकि बल्कि बसपा की सब से
पक्की वोट बैंक कहे जाने वाली जाति चमार/जाटव आदि के बड़े हिस्से ने भी भाजपा को
वोट दिया है. इस का मुख्य कारण यह है कि मायावती के चार बार के शासन से दलितों को
कोई भी भौतिक लाभ नहीं हुआ. इस का नतीजा यह है कि उत्तर प्रदेश के दलित विकास के
मापदंड जैसे महिला पुरुष अनुपात, शिक्षा दर और नियमित रोज़गार दर आदि पर बिहार,
ओड़िसा और मध्य प्रदेश के दलितों को छोड़ कर शेष सभी राज्यों के दलितों से पिछड़े हुए
हैं. इस के अतिरिक्त मायावती के व्यक्तिगत
भ्रष्टाचार, सिद्धान्तहीन सौदेबाज़ी और गुंडों, माफियाओं और पूंजीपतियों के पार्टी
में प्रवेश से दलित बहुत नाराज़ थे. मायावती ने कुर्सी हथियाने के लिए दलितों की
घोर विरोधी पार्टी भाजपा से तीन बार समझौता किया जिस के परिणाम स्वरूप दलितों के
लिए दोस्त और दुश्मन में पहचान करना मुश्किल हो गया. दरअसल मायावती ने दलित
राजनीति को उन्हीं गुंडों, माफियाओं और पूंजीपतियों के हाथों बेच दिया जिन से
दलितों की लडाई थी. दलितों ने मायावती से अपनी नाराज़गी पहले 2012 के विधान सभा
चुनाव में दिखाई थी और फिर 2014 के लोकसभा चुनाव में यह अलगाव और भी प्रखर हो गया
जिस कारण इस चुनाव में बसपा का पूरा सफाया हो गया. इस में कोई शक नहीं कि इस चुनाव
में भाजपा न केवल हिंदूवादी दलित उपजातियों बल्कि बसपा को समर्पित उपजाति
चमार/जाटव को भी अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हुयी है. उत्तर प्रदेश में निकट
भविष्य में होने वाले उपचुनावों में बसपा द्वारा किसी भी सीट पर चुनाव न लड़ने के
फैसले का लाभ भी भाजपा को ही जाएगा क्योंकि इस में दलित बाध्य होकर भाजपा को ही वोट
देंगे.
दलितों की कुछ अन्य
पार्टियां जैसे राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और राम राज की इंडियन
जस्टिस पार्टी की दलितों के अन्दर कोई बहुत पकड़ नहीं है. राम विलास पासवान को तो
गठजोड़ का चाणक्य कहा जाता है. वह तो किसी भी पार्टी से सौदा कर लेते हैं. इस बार
भाजपा के साथ उन का सौदा अच्छा पट गया है. राम राज भी सांसद बनने के लिए बहुत हाथ
पैर मारते रहे हैं. इस बार भाजपा के सहयोग से उनकी मनोकामना पूरी हो पाई है. इस
गठजोड़ से इन नेताओं को तो सत्तासुख मिल गया है परन्तु आम दलित को कोई लाभ नहीं हुआ
है.
उपरोक्त
संक्षिप्त विश्लेषण से सपष्ट है कि पिछले लोक सभा चुनाव में दलितों का काफी बड़ा
हिस्सा दलित पार्टियों से मोहभंग हो जाने के कारण दलितों की घोर विरोधी
हिन्दुत्ववादी पार्टी भाजपा की तरफ चला गया है. यह दलित राजनीति की सब से बड़ी
विफलता है और दलितों के लिए आत्मघाती है. इस से हिन्दुत्ववादी ताकतों का
बहुसंख्यकवाद और साम्प्रदायिकता ही मज़बूत होगी. भाजपा दलितों का इस्तेमाल पिछड़ी
जातियों की तरह हिंदुत्व के पैदल सैनिकों के रूप में करेगी इस की शुरुआत उत्तर
प्रदेश में हो चुकी है. इंडियन एक्सप्रेस द्वारा किये गए सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर
प्रदेश में लोक सभा चुनाव के बाद अब तक हुयी 605 साम्प्रदायिक घटनाओं में से 67 दलित
और मुसलमान टकराव की थीं. इन घटनाओं में यह बात उभर कर आई है कि जहाँ कहीं भी
दलितों और मुसलामानों के बीच कोई मामला होता है वहां पर आर.एस.एस के लोग तुरंत दखल
देते हैं और उस मामले को साम्प्रदायिक रंग दे देते हैं. मुरादाबाद के कांठ में जाटवों
के रविदास मंदिर में लाउड स्पीकर वाला मामला इस का ठोस उदाहरण है. इसी तरह अन्य मामले
जैसे दलित लड़की और मुसलमान लड़का या मुसलमान लड़की और दलित लड़का में भी संप्रदायीकरण
करके दलित और मुसलामानों को लड़ाया जा रहा है. वैसे भी यह विदित ही है कि मुरादाबाद
और मेरठ में बाल्मीकि तथा कानपुर में खटीक ही हिन्दू मुस्लिम दंगे में अगुआ होते
हैं. आर.एस.एस. बहुत होशियारी से दलितों की इन उपजातियों का इस्तेमाल मुसलामानों
के खिलाफ करती आई है. परन्तु अब तो वह इस को बहुत व्यापक रूप देने जा रही है.
दलित राजनैतिक पार्टियों
के नेतायों की सिद्धान्तहीन, स्वार्थी और अवसरवादी राजनीति से उपजे मोहभंग से
दलितों के एक बड़े हिस्से का भाजपा की तरफ चले जाना एक बहुत खतरनाक परिघटना है जो
कि न केवल लोकतंत्र बल्कि दलितों के लिए भी बहुत हानिकारक है. इस से न केवल
बहुसंख्यकवाद और साम्प्रदायिकता मज़बूत होगी बल्कि दलितों और अल्पसंख्यकों को आपस
में लड़ा कर उन पर शासन करने की साजिश भी सफल हो जाएगी. इस से हिंदुत्व की फासीवादी
ताकतें मज़बूत होंगी और लोकतंत्र और धर्म निरपेक्षता के लिए बहुत बड़ा खतरा पैदा हो
जायेगा.
अतः उस दलित
राजनीति और उन स्वार्थी नेताओं के कार्यकलापों की निर्मम समीक्षा की जानी चाहिए
जिन के कारण दलित अपनी घोर विरोधी पार्टी से समझौता करने के लिए मजबूर हुए हैं.
दरअसल असली ज़रूरत ऐसी पार्टियों और नेताओं को नकारने की है और एक नयी
अम्बेडकरवादी, प्रगतिशील और जनवादी राजनीति की आवश्यकता है. कुछ लोग हिन्दुत्ववादी
ताकतों का सामना करने के लिए मायावती-मुलायम तथा लालू-नितीश के गठजोड़ की बात कर
रहे हैं. परन्तु इन जातिवादी अवसरवादी गठजोड़ों से कुछ होने वाला नहीं है क्योंकि
ये सब इसी व्यवस्था की उपज हैं और इस के पोषक हैं. यह भी सर्विदित है कि जाति की
राजनीति साम्प्रदायिकता को ही मज़बूत करती है और इस में जनता के मुद्दे गौण हो जाते
हैं. व्यक्ति पूजा और अवसरवादिता संघर्ष और जन आन्दोलन का स्थान ले लेते हैं इसी
लिए डॉ. आंबेडकर ने शिक्षित करने और संघर्ष के माध्यम से संघठित करने पर बल दिया
था.
इस दिशा में हम
लोगों ने एक नया विकल्प देने के लिए ठोस कदम उठाया है. पिछले चार साल के लम्बे देशव्यापी
चिंतन मनन के बाद हम लोगों ने आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) नाम के नए
राजनैतिक दल का गठन किया है जो सही अर्थों में एक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष
पार्टी है. यह पार्टी समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आधार पर देश और सभी देशवासियों
का उत्थान करना चाहती है. यह पार्टी डॉ. आंबेडकर के “शिक्षित करो, संघर्ष करो और
संगठित करो” के सन्देश का अनुसरण करती है. यह पार्टी पूर्णतया लोकतान्त्रिक है और इस
के संगठन में 75 प्रतिशत पद दलितों, महिलायों और अल्प संख्यकों के लिए आरक्षित
किये गए हैं. यह पार्टी सामाजिक न्याय के मुद्दे पर डॉ. आंबेडकर की विचारधारा और
आदर्शों का इमानदारी से अनुसरण करती है. अतः सभी अम्बेडकरवादी, जनवादी और
प्रगतिशील साथियों से अनुरोध है कि वे इस राजनीतिक विकल्प पर गंभीरता से विचार
करें और यदि इस के सिद्धांतों और एजंडा से सहमत हों तो इस से ज़रूर जुड़ें.
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