बुधवार, 30 नवंबर 2011

मायावती का सत्ता खेल और दलित मुद्दे
राम पुनियानी
अनुवादक : एस. आर. दारापुरी
उत्तर प्रदेश में निकट भविष्य में होने वाले चुनाव के परिपेक्ष्य में हाल में मायावती ने घोषणा की है कि उसके मंत्रिमंडल ने उत्तर प्रदेश को चार छोटे राज्यों में बाँटने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है. उसने यह भी घोषणा की कि केवल दलित और पिछड़े वर्ग का मुख्या मंत्री ही दलितों और पिछड़ों की समस्याओं को हल कर सकता है. मुसलमानों को भी आरक्षण देने की चर्चा है. इस सभी ने राजनितिक हलकों में काफी उथल पुथल मचा दी है. पिछले दो दशकों में जिन नेताओं ने बहुत तेज़ी से तरक्की की है कांशी राम की सहयोगी के रूप में मायावती उनमे सब से अगर्गनी है. जब कि उसे कांशी राम का चलाया आन्दोलन विरासत में मिला, उसने भी राजनीतिक चुनौती के माहौल में सत्ता की सीट पर कब्ज़ा करने का धैर्य और हिम्मत दिखाई. वर्तमान में उसकी प्रधान मंत्री बनने की अभिलाषा उतनी मुखिर नहीं है जबकि पूर्व असेम्बली चुनाव को बहुमत से जितने के बाद वह " दलित की बेटी प्रधान मंत्री" का राग अलाप रही थी.
वह कई बार गलत कारणों से चर्चा में रही है. ताज कोरिडोर, उसकी आंबेडकर पार्क और पूर्व दलित पर्तीकों जैसे आंबेडकर और कांशी राम की कई मूर्तियों पर बहुत अधिक खर्च करने तथा अपनी मूर्तियाँ लगवाने के कारण वह मीडिया की आलोचना में रहीं. उसका अपना तर्क है कि वह यह सब दलितों के लिए कर रही है. दलितों को इस समय किस चीज़ की औ़र किस अनुपात में ज़रूरत है यह एक गंभीर चिंतन का विषय है. इधर कुछ समय से मायावती जाति के स्थान प़र आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत कर रही है और चुनाव के गणित के हिसाब से दलित ब्राह्मन भाईचारा के माध्यम से ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश भी कर रही है.
उसका सब से बड़ा सलाहकार सतीश चंद मिश्र है जो अपने कई रिश्तेदारों को बढ़िया जगह (मंत्री पद ) दिलाने और अपनी मां के नाम प़र एक विश्वविध्यालय बनवाने में सफल रहा है. मायावती अपने बहुजन के पूर्व नारे से सर्वजन के नारे की ओर और ब्राह्मण और उच्च जातियों को दूर भगाने की बजाय ब्राह्मणों को पटाने की ओर पलट गयी है. यद्यपि उत्तर प्रदेश में दलितों पर अत्याचारों के आंकड़ों में कमी आयी है परन्तु उस की बहुमत की सरकार होने के बावजूद भी दलितों को न्याय और आर्थिक सशक्तिकर्ण आज भी बहिस के मुद्दे हैं. दलितों का समता और सम्मान का एक लम्बा संघर्ष रहा है. आंबेडकर जो कि एक गंभीर विद्वान् भी थे ने दलितों के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में योगदान दिया.वे दलितों के अधिकारों के लिए लड़े जो कि उस समय तक शिक्षा से वंचित, भूमिहीन गुलाम और मंदिर के पुजारियों के चंगुल में फंसे और समाज के हाशिये पर रह रहे थे. उनकी इंडीपेंडेंट लेबर पार्टी, श्दुल्ड कास्ट्स फेडरशन तथा बाद में रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना दलितों को संघटित करने की दिशा में मील के पत्थर थे. उन के मूल्यों ने उनके भारतीय संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष बनने के माध्यम से ठोस रूप धारण किया. उन्होंने कई जटिल प्रशनों खास करके जाति के सामाजिक परिवर्तन के सभी प्रयासों को बड़ी दक्षता के साथ हाल किया. उन का मुख्य जोर दलित अधिकारों के लिए " शिक्षित हो, संघर्ष करो और संघठित हो" पर था.
बाद के समय में कुछ आन्दोलन और अधिक राजनीतिक सरगर्मी रही. इन में से दादा साहेब गायकवाड का भूमि सुधार आन्दोलन और दलित युवकों दुआरा अमेरिका के ब्लैक पैंथर्स की तर्ज पर दलित पैंथर्स का बनाना था. इन में से अधिकतर आन्दोलन टूट गए और दलित राजनीति अन्य सत्ताधारी पार्टियों दुआरा एक या दूसरे दलित नेता को पटाने के कारण कमज़ोर हो गयी. उन के गठजोड़ का एक दूसरा पहलू राजनीतिक अस्पष्टता था. उनमे से कुछ कांग्रेस की तरफ झुके जबकि कुछ उन हिन्दुत्ववादी पार्टियों की तरफ गए जो कि हिन्दू राष्ट्र की खुली समर्थक थीं और मनुसमृति और हिन्दू कौम की पक्षधर थीं. मायावती ने एक समय पर उत्तर प्रदेश में न केवल भाजपा से गठजोड़ ही किया बलिक गोधरा नरसंहार के बाद नरेंदर मोदी के पक्ष में चुनावी प्रचार करने भी गयीं.
जिस समय दलित पैंथर्स सड़कों पर आन्दोलन कर रहे थे उसी समय कांशी राम ने अपनी राजनीतिक यात्रा एक अलग तरीके से शुरू की. उस के तौर तरीके ऐसे थे कि दलित राजनीति का विघटन न हो सके. असहमति रखने वालों को बाहर कर दिया गया और मुख्य नेता कांशी राम और बाद में मायावती का ही सिक्का चला. कांशी राम ने पहले बामसेफ बनाई जो कि पड़े लिखे दलितों का संघठन था और जो समाज को वापस देने में विश्वास रखते थे. उन का मत था कि वे दलितों को मिले आरक्षण दुआरा ही आगे बढ़ सके हैं. बाद में कांशी राम ने बहुजन समाज पार्टी बनायीं और कांशी राम के बीमार हो जाने पर उसकी सबसे नजदीक सहयोगी मायावती उसकी मुखिया बन गयीं. कांशी राम और बाद में मायावती का दूसरा जोर इस बात पर था कि किसी भी तरह से सत्ता में आया जाये और अपने अजेंडा लागु करने की कोशिश की जाये.
बसपा के राजनीतिक सफ़र में मायावती चुनाव की सीडियां चढ़ती गयीं. उसने आर एस एस की उपज भाजपा से गठजोड़ किया. यहाँ पर दो विरोधी शक्तियां एक दूसरे के सामने खड़ी थीं: मायावती दलितों के अधिकारों के लिए और भाजपा ब्राह्मणवाद पर आधारित हिन्दू राष्ट्र के दूरगामी लक्ष्य पर. मायावती का यह गठजोड़ डॉ. आंबेडकर के मनुसमृति जलाने को पलट देने और मनु के खुले अनुयायिओं के साथ गठजोड़ करने का था. बसपा की शुरू की मीटिंगों में "तिलक, तराजू और तलवार इन को मारो जूते चार" का नारा लगता था जो कि अब " ब्राह्मन शंख बजाएगा हाथी बढता जायेगा " में बदल गया है.
अब बसपा का चुनाव चिन्ह हाथी " हाथी नहीं गणेश है ब्रह्मा , विष्णु, महेश है" में बदल गया है. राजनीतिक महत्व आकांक्षा के अजीब तर्क हैं. मायावती हाथियों और अपनी मूर्तियों पर करोड़ों खर्च कर रही है. इस से पहचान की राजनीति को फूहड़पन की सीमा तक ले जाने की बू आती है. यह मानना पड़ेगा कि दलितों को सामाजिक क्षेत्र में स्थान की ज़रूरत है और यह मूर्तियाँ शायद उन्हें सम्मान और धरोहर की भावना पेश करती हैं. प्रशन यह है कि जनता का कितना पैसा मूर्तियों पर और कितना पैसा दलितों के सामजिक कल्याण सम्बन्धी योजनाओं पर खर्च किया जाना चाहिए. इस समय दलित राजनीति एक नए चौराहे पर आ गयी है. दलितों के मुख्य मुद्दे ठोस तरीके से हाल होने से बहुत दूर हैं. यदि हल करना है तो गरीबी, स्वास्थ्य और रोज़गार की समस्याओं के लिए गंभीर संघर्ष करने की ज़रूरत है. क्या इस तरीके से सत्ता में आने से दलितों की समस्याएँ हल हो सकेंगी? डॉ. आंबेडकर के " शिक्षित हो, संघर्ष करो और संघठित हो" नारे का क्या होगा. दलित आन्दोलन को अलग अलग स्तरों पर चला रहे दलितों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. प्रशन यह है कि क्या सिर्फ सत्ता में आ जाना ही अपने आप में काफी है?

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

मायावती को सोनिया गाँधी पर गुस्सा क्यों आता है ? एस.आर. दारापुरी आई. पी. एस .( से.नि.)
कुछ महीने पहिले जब राहुल गाँधी अपने दोस्त ब्रिटेन के विदेश मंत्री के साथ अमेठी के दौरे के दौरान एक दलित के घर पर तखत पर सोया था और वहीँ पर रूखी सूखी रोटी खाई थी तो मायावती की प्रतिक्रिया थी कि राहुल का दलित प्रेम झूठा है. इसी प्रकार जब उसने बुन्देल खंड के दौरे के दौरान एक दलित लडके को अपने कन्धों पर उठाया था तो मायावाती ने कहा था कि राहुल का दलित प्रेम फरेब है. इसके साथ ही मायावती ने यह भी कहा था कि दलितों के घर जाने के बाद राहुल एक खास साबुन से नहाता है और उसका शुद्धिकरण किया जाता है. शायद मायावती जल्दी में साबुन का मार्का बताना भूल गई. इसी प्रकार जब १० से १२ अगस्त, २००९ को सोनिया गाँधी ने अपने संसदीय क्षेत्र रायबरेली के दौरे के दौरान दलित बस्तियों में गई और उसने चौपाल लगा कर दलितों का दुःख दर्द सुना तो मायावती चिल्लाई कि सोनिया गाँधी यानी कि कोंग्रेस का दलित प्रेम एक धोखा है. अब जब भी कोई गैर बसपाई नेता दलितों की बस्ती में जाकर उनका दुःख दर्द पूछने की हिमाकत करता है तो मायावती को गुस्सा आता है. इस के गहरे निहितार्थ हैं . आइये अब देखें कि सोनिया गाँधी अपने तीन दिवसीय दौरे के दौरान विभिन्न गावों की दलित बस्तियों में गईं तो दलितों ने उसके सामने अपना दुखडा कैसे रोया :- १० अगस्त को बछरावां विधान सभा क्षेत्र के सुधौली गढ़रियाँ खेडा गाँव में दलित कलावती के घर पर तखत पर बैठ कर चौपाल लगाई तो कलावती ने बताया कि बच्चों को स्कूल में सही खाना नहीं मिलता. दूसरे दलितों ने कहा कि उन्हें नरेगा के तहत जाब कार्ड नहीं मिले. रुस्तम खेडा में शीतलादीन के यहाँ व गजियापुर में शिवबरन ने नरेगा के तहत मजदूरी कम मिलने व कुछ काम न मिलने की बात कही. जब सोनिया समता इंटर कॉलेज के बगल में खोदे जा रहे तालाब पर गईं और पूछा कि तालाब की मिटटी कहाँ गई तो अमन और अंकुर ने बताया कि तालाब तो पहले से ही गहरा था, लोगों को काम नहीं दिया गया और मजदूरी भी पूरे दिनों की नहीं दी गई. रातों रात इस की पक्की बाउंड्री बनाई गई है. बड़ी संख्या में गरीबों के जाब कार्ड नहीं बने हैं. राजिंदर कुमार ने कहा कि जमीन और आवास के गलत पट्टे दिए गए हैं. शेषपुर समोधा गाँव में संतोष, मुन्नी देवी, सुधा देवी आदि ने कहा कि उन्हें गरीबी की रेखा से नीचे वाले राशन कार्ड न देकर गरीबी की रेखा से ऊपर वाले राशन कार्ड दिए गए हैं.नरेगा के कार्ड बनाने के लिए दौड़ रहें हैं. राजा मऊ की सड़क पर पानी भरा देख कर सोनिया ने पूछा कि यह सड़क कब बनी है तो सुखपाल ने बताया कि प्रधान मंत्री सड़क योजना के अर्न्तगत डेढ़ साल पहले बनी है. इस में साल भर पानी भरा रहता है. मुबारकपुर साँपों में भी दलितों ने उन्हें कई समस्याएँ बताईं. सतांव विधान सभा क्षेत्र के अघोर गाँव में दलित आत्मा राम के छप्पर के नीचे बैठ कर लगाई चौपाल में राजरानी, रमेशवरी, जगदीश ने राशन कार्ड गलत तरीके से बनाने के समस्या बताई. विद्यावती सोनिया का हाथ पकड़ कर अपने छप्पर वाले घार में ले गई और अपनी बदहाली दिखाई कि उनके घर बारिश में गिर गए थे अब तक मुआवजा नहीं मिल पैदेपुर गाँव में राजरानी ने कहा कि गाँव में दर्जनों परिवार जिस जमीन पर सालों से रह रहें हैं, अब उन के ऊपर अवैध रूप से सरकारी जमीन पर कब्जा कारने का मुकदमा लगा दिया गया है. इस पर सोनिया गाँधी ने एस. डी. ऍम को तलब कर के पूछा. जब ११ अगस्त को सोनिया गाँधी सराए दिगोसा गाँव में नारायण पासी के दरवाजे पर चौपाल में पहुंचीं तो ग्रामीणों ने राशन कार्ड, जाब कार्ड और सड़क न बनाने कि शिकायत की . सूखे के कारण और बिजली के न आने के कारण फसलें सूखने के बात बताई . सोनिया लोगों से बात कर ही रही थी कि एक दलित महिला चंदा फूट फूट कर रोने लगी. पूछने पर बताया कि उसके पति छेदी लाल जो टी.बी. का मरीज़ है को पुलिस सुबह उठा कर ले गई है. गुस्से से लाल हुई सोनिया ने पुलिस व् प्रशासन के अफसरों से कहा कि , "आखिर दलितों को क्यों परेशान किया जा रहा है?" थाना अध्यक्ष ने कहा कि अभी छोड़ देंगे. यहाँ से आगे बढ़कर जब सोनिया केसरुया गाँव पहुंची तो लोंगों ने बताया कि बिजली नहीं आती, नरेगा के कार्ड नहीं बने, सूखे से कैसे निपटेंगे. चीनी मिल के सदस्य सुरेंदर सिंह ने कहा कि मिल बंद नहीं होनी चाहिए वरना किसान भूखे मर जायेंगे. कुड्वल जाते समय रास्ते में लाल साहेब के पुरवा का संपर्क मार्ग का निर्माण नरेगा के तहत हो रहा था. यहाँ पर सोनिया रुकीं तो काम में हो रहीं सारी गड़बढियां उजागर हो गईं. सोनिया ने एडम प्रशासन से कहा कि यह सब ठीक नहीं है. ग्राम प्रधान ने सफाई देते हुए कहा कि उनके पास जॉब कार्ड नहीं हैं. साथ ही इन लोगों के बैंक खाता नंबर भी नहीं मिले हैं. नरेगा के कार्यों का प्रस्ताव अधिकारी पास नहीं करते. जब आप आती हैं तो काम कराने का दबाव होता है. ऐसे में वह दोनों ओ़र से फंस्तें हैं, बताएं हम क्या करें? सोनिया ने एडम की तरफ चकित हो कर देखा व् बोलीं के विकास कराइए. दौरे के तीसरे दिन १२ अगस्त को सोनिया गाँधी ने कछार गाँव में चारपाई पर बैठ क़र दलितों की समस्याएँ सुनी. कांपते हाथ थाम कर ढाढस बंधाया औ़र कहा, " चिंता मत करिये, धीमे धीमे विकास होगा. " वहां से चल कर सोनिया जब्बारी पुर गाँव पहुंची. वहां जगतपाल व् देश राज के दरवाजे पर पड़ी चारपाई पर बैठ कर समस्याएँ सुनी. लोगों ने पेयजल की किल्लत औ़र वर्षा न होने के कारण फसल न बो पाने की बात बताई. देश राज बोले, अब पेट भरने का इंतजाम नहीं है क्योंकि नरेगा में मजदूरी नहीं मिल रही है. दो साल पहले काम मिला था. प्रेमवती व् रामकली ने कहा कि उनका राशन कार्ड तक नहीं बना है. मिश्री लाल की पत्नी राधा ने बताया कि वह बहुत दिनों से जाब कार्ड बनाने के लिए दौड़ रही है, लेकिन कोई सुन नहीं रहा है. अब क्या करें? पास में खड़ी फूलमती के कपडे फटे देख क़र सोनिया ने उसे पास बुलाया और २०० रूपये दिए और कहा हम "कुछ जरुर करेंगे." टूटी फूटी सड़क से हो कर जब वह कदरावां गाँव पहुंची तो दलितों ने बताया कि एक हज़ार की बस्ती में तीन हैण्ड पम्प हैं लेकिन उन में से दो ख़राब है. पूछने पर पता चला की वहां लोगों को नरेगा के बारे में कोई जानकारी नहीं है. कुछ बेघर औरतों ने इंदिरा आवास की मांग की. सोनिया के पैर छू कर कहा कि हैण्ड पम्प लगवाएं वरना प्यासे मर जायेंगे . मिर्जा इनायात उल्लाह पुर गाँव की दलित्बस्ती में राम सूचित के दरवाजे पार प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठ क़र फरियाद सुनी. ग्रामीणों ने कहा कि खेती को सूखा मार गया है. अब तो प्यासे मरने की बारी है. सिर्फ एक हैण्ड पम्प है औ़र वह भी खराब रहता है. मैकू लाल ने कहा कि पास की नहर सालों से सूखी पड़ी है, उसे शारदा नहर से जोड़ दिया जाये तो पांनी आ जायेगा. रामकली रोई औ़र कहा कि उसका घर गिर गया है. बेटों को नरेगा में मजदूरी भी नहीं मिल रही. पूरे गाँव के लोगों ने कहा कि पीने का पानी दिलायें. शम्भू नाथ ने बिजली न आने का रोना रोया. अब सोनिया गाँधी के अपने संसदीय क्षेत्र के तीन दिवसीय दौरे के दौरान दलितों की चीख पुकार और समस्याओं की जो तस्वीर उभर कर सामने आई है और प्रेस एवं मीडिया ने उसे सब के सामने उजागर किया है, उस से मायावती के दलित प्रेम का पूरी तरह से भंडा फोड़ हो गया है. यह बात सही है कि अब तक कोंग्रेस का दलित प्रेम केवल एक राजनीतिक खेल ही रहा है. परन्तु; जहाँ तक सोनिया गाँधी और राहुल का प्रशन है फ़िलहाल उनकी ईमानदारी पर शक करने कोई गुंजाईश नहीं बनती. दलितों की जिन मूलभूत समस्याओं का निराकरण चौ़थी वार मुख्य मंत्री बनी मायावती को करना चाहिए था, वह उस में पूरी तरह विफल रही है जिस के फलस्वरूप वर्तमान में उत्तर प्रदेश के दलित बिहार, उडीसा और मध्य प्रदेश के दलितों को छोड़ कर शेष भारत के सभी दलितों से पिछडे हुए हैं. अब चूँकि दलितों को यह एहसास हो गया है कि अब तक 'दलित कि ' बेटी ' के नाम पर उनका भावनात्मक शोषण ही हुआ है, अत उन का मायावती से मोह भंग हो गया है. पिछले लोक सभा चुनाव में दलितों ने अपने इस मोह भंग और आक्रोश का इह्सास मायावती को करवा दिया है. इस चुनाव में मायावती को सब से अधिक समर्पित उपजाति ( चंमार/जाटव) के बड़े हिस्से ने मायावती को वोट नहीं दिया. जब लेखक ने हाल में एक गाँव के चमार जाति के व्यक्ति से मायावती को वोट न देने का कारण पूछा तो उस ने आक्रोश भरे लह्जेमें कहा, " मायावती ने हमारे लिए क्या किया ? उसने अपने लिए ही पैसा कमाया है, हमें तो राशन कार्ड और जब कार्ड भी नहीं मिला. वह करोडों ख़र्च क़र के अपनी मूर्तियाँ लगा रही है, उसे भूख से मरते दलित दिखाई नहीं देते हैं." अब जब राहुल और सोनिया गाँधी दलित बस्तियों में जा कर उनकी दुर्दशा जानने की कोशिश करते हैं तो दलितों की गरीबी , शोषण, भुखमरी और बदहाली के मुद्दे विराट रूप धारण करके उभरने लगते हैं जो मायावती के लिए कठिन सवाल खड़े कर देते हैं और जिनका जवाब उस के पास नहीं है . ऐसी विकट स्थिति पैदा करने के लिए मायवाती को राहुल और सोनिया पर गुस्सा नहीं तो क्या प्यार आएगा? S.R.Darapuri I.P.S.(Retd) email : srdarapurui@gmail.com 18/455, Indira Nagar, Lucknow (U.P.) - 226016
भारतीय पुलिस : खंडित व्यवस्था लेखक: एस.आर.दारापुरी आई.पी.एस.(से.नि.) ईमेल : srdarapuri@gmail.com " इस हफ्ते मुझे एक मुठभेड़ करने के लिए कहा गया," एक पुलिस अधिकारी ने जनवरी,२००९ में हयूमन राइट्स वाच को बताया | वह किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने और न्यायेत्तर ढंग से जान लेने के बारे में बता रहा था | जहाँ यह दावा कर दिया जाता है कि पीड़ित की पुलिस से मुठभेड़ में मृत्यु हुई | उसने कहा, मैं शिकर की तलाश में हूँ, मैं उसे ख़त्म कर दूंगा |" यह स्वीकारोक्ति उत्तर प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी की थी परन्तु यह भारत के किसी भी राज्य के पुलिस अधिकारी की हो सकती है | हयूमन राइट्स वाच (एच.आर.डब्ल्यू.) की रिपोर्ट जिसका शीर्षंक "ब्रोकेन सिस्टम डेसफंक्शनल, एव्यूज एंड इमप्युनिटी इन दा इंडियन पुलिस" (खंडित व्यवस्था दुष्क्रियावादी, दुर्व्यवहार, और अदंडित, भारतीय पुलिस)" है, कथन से आरंभ होती है | यह रिपोर्ट एच.आर.डब्ल्यू. द्वारा लखनऊ में ७ अगस्त को विमोचित की गई | इस रिपोर्ट का पहले विमोचन ४ अगस्त,२००९ को बंगलौर में हुआ था | इस ११८ पृष्ठ की रिपोर्ट में पुलिस द्वारा मानवाधिकार के हनन की घटनाओं, जिसमें स्वेच्छाचारी गिरफ्तारियां और हिरासत, यातना और न्यायेत्तर हत्याएं हैं का प्रलेखन है | यह रिपोर्ट विभिन्न रैंक के ८० पुलिस अधिकारियों पुलिस दुर्व्यवहार के शिकार हुए ६० व्यक्तियों तथा बहुत सारे विशेषज्ञों और नागरिक समाज के कार्यकर्त्ताओं से विचार विमर्श और साक्षात्कार पर आधारित है | इसमें राज्य पुलिस बलों, जो कि कानून के दायरे के बाहर कार्य करतें हैं, जिनमें पर्याप्त नैतिक और व्यवसायिक दक्षता के मापदंडों का आभाव है, अधिक कार्यभार और अपराधियों के मुकाबलें में पिछड़े हुए और बढती हुई मांग एवं जनता की अपेक्षाएं पूरी करने में असमर्थ, का ब्योरा दिया गया है | इस हेतु उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, हिमांचल प्रदेश और राजधानी दिल्ली के १९ पुलिस थानों में क्षेत्र अध्ययन किया गया | इस अवसर पर एच.आर.डब्ल्यू. की एशिया डिवीजन की नौरीन शाह ने कहा, " भारत का तेजी से आधुनिकीकरण हो रहा है परन्तु पुलिस दुर्व्यवहार और धमकियों के पुराने तरीकों से काम कर रही है | अब सरकार को सुधारों की बात करना छोड़ कर व्यवस्था को ठीक करना चाहिए |" रिपोर्ट में बनारस के एक फल विक्रेता की कहानी है जिसमें वह बताता है कि पुलिस ने उससे कई तथा असम्बद्ध आरोपों की स्वीकृति करने हेतु कैसे प्रताड़ित किया | "मेरे हाथ और पैर बांध दिए गए और मेरी टांगो के बीच एक लकड़ी डाल दी गई | उन्होंने मेरी टांगों पर लाठियों से पीटा और ठुड्डे मारे | वे कह रहे थे,तुम १३ सदस्यों वाली गैंग के लोगों के नाम बताओ|" उन्होंने मुझे तब तक पीटा जब तक कि मैं मदद के लिए चिल्लाने नहीं लगा"| एक सिपाही बोला," इस तरह की पिटाई से तो भूत भी भाग जायेगा | मैं जो जानना चाहता हूँ तुम मुझे वह क्यों नहीं बताते ? तब उन्होंने मुझे उल्टा लटका दिया ----------|" उन्होंने प्लास्टिक के जग से मेरे मुंह और नाक में पानी डाला और मैं बेहोश हो गया | एच.आर.डब्ल्यू. द्वारा साक्षात्कार किया गया हरेक अधिकारी कानून के दायरे को जानता था परन्तु बहुतों का यह विश्वास था कि गैर कानूनी तरीके जिनमें अवैध हिरासत और यातनाएं हैं अपराध की विवेचना और कानून लागू करने के लिए जरुरी हथकंडे हैं | एच.आर.डब्ल्यू. ने यह भी कहा कि यदि दुर्व्यवहार को नजर अंदाज न भी किया जाय, पुलिस अधिकारियों की दयनीय स्थितियों का भी इसमें योगदान है | निम्न स्तर के अधिकारी कठिन कार्य स्थितियों में काम करते हैं | उन्हें हर रोज २४ घंटे ड्यूटी हेतु उपलब्ध रहना पड़ता है | शिफ्ट के स्थान पर उन्हें बहुत सारे लम्बे घटों तक कई बार टेंटों या थाने की गन्दी बैरकों में रह कर काम करना पड़ता है | वे बहुत सारे लम्बे समय तक अपने परिवार से दूर रहते हैं | उनके पास जरुरी उपकरण जिसमें गाडियां, मोबाइल फ़ोन, विवेचना के औजार और प्रथम सूचना लिखने तथा नोट बनाने हेतु कागज शामिल हैं, का अभाव होता है | पुलिस अधिकारियों ने बताया कि वे अधिक कार्यभार और संसाधनों की कमी को पूरा करने के लिए शार्ट कट्स का प्रयोग करते हैं | उदाहरण के लिए उन्होंने बताया कि कैसे कार्यभार को कम रखने के लिए अपराध की रिपोर्ट नहीं लिखते | बहुत से अधिकारियों ने बयान किया कि उन्हें कैसे उच्च अधिकारियों के मामलों को जल्दी खोलने के लिए गैर यथार्थवादी दबाव का सामना करना पड़ता है | उन्हें फोरेंसिक साक्ष्य एकत्र करने और गवाहों के बयान आदि लेने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता | क्योंकि इसे लम्बी प्रक्रिया माना जाता है | अतः वे इसके स्थान पर संदिग्ध व्यक्तियों को हिरासत में लेने और उनसे जबरदस्ती कबूल कराने के लिए अक्सर यातना और दुर्व्यवहार का तरीका अपनाते हैं | मीनाक्षी गांगुली जो कि एच.आर.डब्ल्यू. की वरिष्ठ शोध कर्ता हैं, ने कहा," अधिकारियों की परिस्थितियां और प्रोत्साहन को बदलने की जरुरत है |" अधिकारियों को ऐसी स्थिति में न पहुँचाया जाय जहाँ वे सोचते हैं कि उन्हें वरिष्ठ अधिकारियों की मांगों को पूरा करने और आदेशों का अनुपालन करने के लिए दुर्व्यवहार करना पड़े | इसके स्थान पर उन्हें संसाधन, प्रशिक्षण और व्यावसायिक और नैतिक तौर पर कार्य करने हेतु प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए | "ब्रोकन सिस्टम" में पुलिस द्वारा परम्परागत रूप से हाशिये पर रहे लोगों से दुर्व्यवहार का भी विवरण है | इनमें गरीब, महिलाएं, दलित और धार्मिक एवं लैंगिक रूप से अल्प संख्यक हैं | पुलिस प्रायः उन पर हुए अपराधों की विवेचना भेदभाव, पीड़ित द्वारा रिश्वत न दे पाना, या उनके सामाजिक दर्द एवं राजनीतिक संबंधों का अभाव होने के कारण नहीं करती | इन समूहों के सदस्य अवैध गिरफ्तारी एवं यातना का शिकार पुलिस द्वारा आरोपित अपराधों की सजा के तौर पर भी झेलते हैं | पुलिस के उपनिवेश काल के पुलिस कानून, राज्य और स्थानीय राजनेताओं को रोजमर्रा कार्यों में दखल देने का मौका देते हैं | कई बार पुलिस अधिकारियों को राजनीतिक सम्बन्ध रखने वाले लोगों के विरुद्ध विवेचनाएँ बंद करने जिनमें ज्ञात अपराधी होते हैं तथा अपने राजनीतिक विरोधियों को परेशान करना भी होता है | इन तौर तरीकों से जनता का विश्वास कम हो जाता है | २००६ में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधारों सम्बन्धी एक ऐतिहासिक निर्णय में दिशा-निर्देश दिए थे | परन्तु दुर्भाग्यवश केंद्र सरकार और अधिकतर राज्य सरकारें मुख्य या पूरे तौर पर न्यायालय के आदेश का पालन करने में विफल रही हैं | इससे यह पता चलता है कि सरकारी अधिकारियों ने अब भी विधि सम्मत कानून को स्वीकार नहीं किया और न ही पुलिस व्यवस्था में व्यापक सुधार, जिसमें व्यापक मानवाधिकार उललंघन के लिए पुलिस को जवाबदेह ठहराना शामिल है, की जरुरत को समझा है | नौरीन शाह ने कहा,"भारत को विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के दर्जे को अपने आप को कानून से ऊपर समझने वाली पुलिस द्वारा क्षति पहुचाई जाती है | यह एक दुष्चक्र है | भारतीय नागरिक डर के कारण पुलिस से संपर्क नहीं करते | अतः अपराध असूचित एवं अदंडित रह जाते हैं और पुलिस को जनता का सहयोग नहीं मिलता जो कि अपराधों को रोकने और हल करने के लिए जरुरी है | "ब्रोकेन सिस्टम," पुलिस सुधार के लिए विस्तृत संस्तुतियां भी देता है जो कि सरकारी आयोगों, पूर्व पुलिस अधिकारियों एवं भारतीय समूहों से ली गयी हैं | इनमें मुख्य संस्तुतियां निम्नवत हैं -: संदिग्ध अपराधियों को किसी गिरफ्तारी या हिरासत होने पर उनके अधिकारों के बारे में बताना जिससे इन संरक्षणों की स्वीकृत बढेगी | न्यायालय में ऐसे किसी साक्ष्य को न माना जाए जो संदिग्ध पूंछतांछ के दौरान यातना या निर्दयता, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार से प्राप्त किया गया हो | पुलिस के गलत रवैये और दुर्व्यवहार के विरुद्ध राष्ट्रीय एवं राज्य मानवाधिकार आयोगों और पुलिस शिकायत अधिकारियों को स्वतंत्र जाँच करने हेतु सक्षम बनाए और इसे बढावा दें ! प्रशिक्षण और उपकरणों में सुधार हो जिसमें पुलिस महाविद्यालयों में अपराध-विवेचना पाठ्यक्रम को सुदृढ़ करना, कनिष्ठ स्तर के अधिकारियों को विवेचना में सहायता करने का प्रशिक्षण देना और हर एक पुलिस अधिकारी को फोरेंसिक उपकरण उपलब्ध कराना ! ऐसे कानून को समाप्त करें जिससे दंड से मुक्ति को बढावा मिलता हो | खासकरके दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १९७ जो कि लगातार दुर्व्यहार करने वाले उनके विरुद्ध मुकदमा चलने से बचाती रही है | यदि यह समाप्त नहीं की जाती है तो "अधिकारिक ड्यूटी" को इस प्रकार परिभाषित करें जिसमें असंवैधानिक व्यवहार जैसे मनमानी हिरासत, हिरासत के दौरान उत्पीड़न या दुर्व्यवहार और न्यायेत्तर हत्या को शामिल न किया गया हो | रिपोर्ट में उन लोगों का विवरण हो जिन्हें यातना दी गई थी और अवैध हिरासत में रखा गया था | कुछ कथन निम्नवत हैं- " उसे रात भर थाने में रखा गया | प्रातः जब हम उसे मिलने गए, उन्होंने कहा कि उसने अपने आप को मार लिया है | उन्होंने हमें उसकी लाश दिखाई जहाँ वह थाने के अन्दर पेड़ से लटक रही थी | पेड़ की शाखा इतनी नीची थी कि उससे लटकना असंभव है | उसके पैर साफ थे जबकि चारों तरफ कीचड था और उसे उसमें चल कर ही वहां पहुँचना होता | यह साफ है कि पुलिस ने उसे मारा और आत्महत्या दिखाने के लिए उसे पेड़ से लटका दिया |" गीता पासी के देवर ने अगस्त २००६ में उत्तर प्रदेश में पुलिस हिरासत में उसकी मौत के बारे में बताया | पुलिस अधिकारी अपना रोना इस प्रकार रोते हैं : "हमारे पास सोचने और सोने का कोई समय नहीं है | मैं अपने आदमियों को बताता हूँ कि पीड़ित हमारे पास इसलिए आतें हैं कि हम उसे न्याय दे सकते हैं, अतः हमें उसे डंडे से नहीं मारना चाहिए | परन्तु वे अक्सर थके मांदे और चिडचिडे होते हैं और गलतियाँ हो जाती हैं |" यह गंगाराम आजाद उपनिरीक्षक, पुलिस थाना उत्तर प्रदेश का कथन है | " वे कहते है कि २४ घंटे में विवेचना करो परन्तु वे कभी इस बात की ओर ध्यान नहीं देते कि यह कैसे हो सकता है; संसाधन क्या हैं-----, सनसनी खेज मामलों में बल प्रयोग किया जाता है क्योंकि हमारे पास विज्ञानी तरीके नहीं हैं | हमारे पास क्या बचता है ? हमारे मन में हमेशा भय बना रहता है कि अगर हम किसी नतीजे पर नहीं पहुंचेंगें तो हम निलंबित हो जायेंगे या दंडित हो जायेंगें | हमें इस मामले को खोलना ही है; हम तथ्यों की किसी भी तरह से पूर्ति जरुर करें |" उपनिरीक्षक, उत्तर प्रदेश में वाराणसी के नजदीक थाने वाले ने कहा | " प्रायः हमारे वरिष्ठ अधिकारी हमें गलत चीजें करने के लिए कहते हैं | हमारे लिए विरोध करना कठिन होता है | मुझे याद है एक बार मेरे अधिकारी ने मुझे किसी को पीटने के लिए कहा | मैंने कहा कि उस आदमी को जमानत नहीं मिलेगी और वह जेल में सड़ जायेगा तथा वह उसके लिए काफी सजा होगी | परन्तु इससे मेरा अधिकारी नाराज हो गया |" उत्तर प्रदेश के एक सिपाही ने कहा | बंगलौर के यौन कर्मियों ने पुलिस द्वारा पिटाई और यौन उत्पीड़न के बारे में बताया | एक महिला ने हयूमन राइट्स वाच से कहा; " मैं गली में खड़ी थी, वहां बहुत सन्नाटा था, एक पुलिस वाला आया उसने मुझे थप्पड़ मारा और फिर बुरी तरह से मेरी पिटाई की मैं जमीन पर गिर पड़ी | जब मैं पानी के लिए गिड़-गिडाई तो उसने अपनी पैंट की जिप खोलकर अपना लिंग पेश किया |" " तमाम दिमागी उलझनों,२४ घंटें कानून व्यवस्था ड्यूटी, राजनीतिक दबाव से एक आदमी हिंसा पर उतारू हो जाता है | एक आदमी कितना झेल सकता है ? ------हमें एक आरोपी व्यक्ति की निगरानी और उसके मानवाधिकारों का ख्याल रखना होता है, परन्तु हमारे बारे में क्या है ? हमें २४ घंटे इसी प्रकार रहना पड़ता है | हम यह दावा नहीं करते कि हमारी पॉवर हमें सभी समय इसी प्रकार काम करने के लिए पैदा करती है | कई बार हम पीटते हैं या अवैध रूप से हिरासत में रखते हैं | क्योंकि हमारी काम करने की परिस्थितियां और हमारी सुविधाएँ ख़राब हैं | अतः हम अपराधी और आतंकवादी बनाते हैं |" हिमाचल प्रदेश के कांगडा पुलिस स्टेशन के निरीक्षण ने कहा | उक्त अवसर पर श्री एस.आर.दारापुरी जो कि सेवा निवृत भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी तथा उत्तर प्रदेश पीयूसीएल के उपाध्यक्ष हैं तथा जिन्होंने लखनऊ से २००९ का सामान्य चुनाव लड़ा था, ने फ़र्जी मुठभेड़ के मामलों का विवरण देते हुए बताया कि " केवल घनश्याम केवट वाली १७ जून, २००९ की मुठभेड़ जैसी गिनी चुनी ही सही मुठभेड़ होती हैं जिसमें पुलिस की दक्षता का परीक्षण हो गया था, शेष ९९% मुठभेडें फर्जी होती हैं |" श्री दारापुरी ने कहा," मैं ३२ साल पुलिस अधिकारी रहा हूँ | मैं जानता हूँ कि फर्जी मुठभेडें कैसे की जाती हैं | प्रदेश में आम आदमी सुरक्षित नहीं है |" श्री लेनिन रघुवंशी, निदेशक पीपुल्स विजिलेंस कमेटी फार हयूमन राइट्स ने रिपोर्ट पेश करते हए कहा," हमने १२५ मामलों का अध्ययन किया | अधिकतर मामलों में न्याय या तो देर से मिला या फिर मिला ही नहीं क्योंकि इन गरीब लोगों की प्रथम सूचना दर्ज कराने के लिए पहुँच नहीं थी या फिर वे विवेचना की उचित पैरवी नहीं कर सकते थे | ऐसे उदाहरण हैं जहाँ पुलिस वालों ने पोस्टमार्टम नहीं करवाया और फर्जी मुठभेड़ का शिकार हुए लोगों की उनके घर वालों को लाश देने से मना कर दिया |" रिपोर्ट कहती है कि अब समय नष्ट करने की गुंजाईश नहीं है | भारत सरकार को वर्तमान पुलिस व्यवस्था जो कि मानवाधिकारों के उलंघन को प्रोत्साहित करती है, में व्यापक बदलाव लाना चाहिए | सदियों से विभिन्न सरकारें पुलिस को ज्यादतियों के लिए उत्तरदायी बनाने और अधिकारों का सम्मान करने वाला पुलिस बल बनाने में असफल रही हैं | यदि राज्य सरकारें पुलिस सुधार लागू करने से मना करती है तो नागरिक समाज, मानवाधिकार संगठन और सभी सही सोच वाले लोगों को राज्य सरकारों एवं राजनीतिक पार्टियों पर ऐसा करने के लिए दबाव डालना चाहिए | एक स्वतंत्र, उत्तरदायी और लोकतांत्रिक पुलिस व्यवस्था के बिना लोकतंत्र को बनाये रखना कठिन होगा |
हिन्दुत्व आतंकवाद का पर्दाफाश अनुवादक: एस. आर . दारापुरी जब सितम्बर २००६ को मालेगांव (महाराष्ट्र ) में बम्ब धमाका हुआ था, जिस में स्थानीय मस्जिद में जुम्मे की नमाज़ अदा करने के लिए एकत्तर हुए लोगों में से ४० लोग मारे गए थे और उस से अधिक घायल हुए थे, तो सब से पहली की गयी गिरफ्तारियों में मुस्लमान ही थे जिन का सम्बन्ध लश्कर-ए-तयबा से होने का दावा किया गया था. पुलिस ने इस मामले को खोलने का दावा किया था. बाद में एक साल से काम समय मई २००७ में जबी उसी प्रकार का बम्ब विस्फोट मक्का मस्जिद, जिस में ९ लोग मारे गए थे, तो पुलिस ने दावा किया था कि यह एक जटिल बम्ब था जिसमें बंगला देश स्थित सेलफोन से विस्फोट किया गया था और मुख्य आरोपी का सम्बन्ध हुजी से होना बताया गया था. पुलिस ने आनन फानन में शहर के कुछ मुस्लमान लड़कों को गिरफ्तार किया था और उन्हें प्रताड़ित करके अपराध की स्वीकारोक्ति करवाई थी. छ: माह बाद जब राजस्थान में अजमेर शरीफ दरगाह में आखरी शुक्रवार को बम्ब फटा तो इस का आरोप पुन: "जिहादी आतंकवादियों " प़र ही लगाया गया था. महाराष्ट्र में आतंकवाद विरोधी दस्ता के मुखिया हेमंत करकरे के एक साहसी एवं साधारण कदम ने उपलब्ध साक्ष्यों के आधार प़र मालेगांव बम्ब विस्फोट और हिंदुत्व से जुड़े समूहों के बीच सम्बन्ध स्थापित कर दिए थे. इस अकेले कृत्य के बिना शायद यह सम्बन्ध हमारे सुरक्षा बलों दुआरा घड़े गए झूठ एवं अर्ध सत्य के पीछे छुपे रह जाते. यह अब ज़ाहिर हो चुका है कि इस हमले के पीछे अभिनव भारत संगठन का हाथ था. इस संगठन में कुछ धार्मिक व्यक्ति और कुछ सेवारत सेना अधिकारी शामिल हैं. हिन्दुत्व संगठन का नांदेड, कानपुर , भोपाल और गोया में बम्ब बनाने में स्पष्ट रूप से हाथ रहा है. इस में से अधिक का सम्बन्ध बजरंग दल से है जो कि आर. एस. एस. का मुख्य घटक है . अब आर. एस. एस. और उस के मोहरे व्यक्तियों और बम्ब विस्फोट श्रृंखला में स्पष्ट सम्बन्ध स्थापित हो गया है. ये इस संगठन के विरुद्ध अनेक साम्प्रदायिक हत्याओं और गुजरात के २००२ के पिछले बड़े दंगे से सम्बन्ध के अतिरिक्त मजबूत साक्ष्य हैं. भारत में धार्मिक रुढ़िवाद आधारित आतंकवाद का मुख्यालय आर. एस. एस. ही है. इसके छोटे भाई इस्लामिक, सिक्ख और ईसाई रुढ़िवाद हैं. यद्यपि वे भी अपने तरह से खतरनाक हैं परन्तु वे आर. एस. एस. और उससे जुड़े व्यक्तिओं के सांगठनिक नेटवर्क, आर्थिक मजबूती और राजनीतिक वैधता का मुकाबला नहीं कर सकते. आखिरकार, भारत की मुख्य विरोधी पार्टी आर.एस. एस. की सौ फी सदी घटक है और इस परिवार की साम्प्रदायिक राजनीति ने ऐसा राजनीतिक माहौल बनाया है की किसी भी आतंकवादी घटना को तमाम सबुतों के बावजूद भी मुसलमानों से ही जोड़ा जाता है. तथापि मुसलमानों में इस्लामिक रुढ़िवाद एक गंभीर मुद्दा है. इस के खतरनाक परिणाम हैं .इस के न केवल मुसलमानों पर ही प्रतिगामी सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव हैं बल्कि इस से ज़ोरदार ढंग से लड़ने की ज़रूरत है. इस्लामिक रूढ़ीवाद ने भी आतंकवादी संगठनों को जन्म दिया है और हिंसक कार्रवाईयां की हैं, केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनियां में. इसे झुठलाया नहीं जा सकता और न ही इस्लामिक रूढ़ीवाद और आतंकवाद के विरुद्ध चौकसी को ही कम किया जा सकता है. फिर भी यह काफी स्पष्ट हो चुका है कि हमारी सुरक्षा एजंसीयां , सरकारी संस्थान और मंत्रालय, खास करके गृह मंत्रालय साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से बुरी तरह प्रभावित हैं. उपरोक्त वर्णित एवं अन्य कई मामलों में फोरेंसिक एवं प्रस्थितिजन्य साक्ष्य से हिंदुत्व संगठनों का हाथ होना सिद्ध हुआ है. फिर भी हिंदुत्व संगठनों के खिलाफ खुले औ़र संकेत देने वाले सबूतों के होते हुए भी उन प़र आगे बढ़ने की बजाए इस्लामिक आतंकवाद के इर्द गिर्द किस्से कहानियां गढ़ते रहे और कुछ मुस्लमान मर्दों और कुछ औरतों को उठा कर उन्हें प्रताड़ित कर स्वीकारोक्तियां करवा कर मामलों को हल करने का दावा करते रहे. आखिरकार इस साल पिछली जनवरी में मालेगांव बम्ब विस्फोट से हिन्दुत्व आतंकवाद का पूरी तरह से सम्बन्ध स्थापित हो गया और जब राजस्थान पुलिस अजमेर शरीफ विस्फोट से मक्का मस्जिद विस्फोट से सम्बन्ध के बारे में अभियुक्तों से पूछताछ कर रही थी, तो हैदराबाद पुलिस आराम से मुसलमानों को ग्रिफ्तार क़र रही थी जिनका सम्बन्ध मक्का मस्जिद से होना बताया जा रहा था. गुजरात, राजस्थान, और आंध्र पुलिस का हाथ सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी कौसर बी तथा इशरत जहाँ और उसके दोस्तों के कतल में होना पूरी तरह से सिद्ध हो चुका है . बाटला हाउस मुठभेड़ में भी दिल्ली पुलिस का सांप्रदायिक पूर्वाग्रह खुल कर सामने आ चुका है. यह खेदजनक है कि पुलिस और एजंसीयों के साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह वाले मामलों की सूची इतनी लम्बी है कि कई खंड भरे जा सकते हैं. जबकि जाति और लिंग सम्बन्धी पूर्वाग्रहों को पहचानने और दूर करने के सम्बन्ध में कुछ कदम उठाए गए हैं परन्तु अल्प संख्यकों खास करके मुसलमानों के विरुद्ध सांप्रदायिक पूर्वाग्रह और भेदभावों को स्वीकार करने और उन्हें दूर करने के बारे में एक हठीलापन दिखाया जाता रहा है. वर्तमान यू. पी. ए. सरकार ने सच्चर कमिटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट दुआरा इस मुद्दे प़र कुछ सराहनीय कार्रवाई की है. इस से मुसलमानों के विरुद्ध संरचनात्मक भेदभाव और पूर्वाग्रह और उन्हें दूर करने और क्षतिपूर्ति करने के सम्बन्ध में चर्चा के लिए कुछ जगह बनी है. इसी सरकार के कार्यकाल में ही हिन्दुत्व संगठनों और बम्ब विस्फोटों के अपराधिक कृत्यों के बीच सम्बन्ध भी उजागर हुए हैं. तथापि यह पर्याप्त नहीं है. हमारे सुरक्षा संस्थानों में व्याप्त सांप्रदायिक पूर्वाग्रह को दूर करने के लिए तुरंत कदम उठाए जाने क़ी जरुरत है. यह खुला प्रशन है कि क्या वर्तमान गृह मंत्री पी. चिदम्बरम इस कार्य को करा पायंगे. क्या कांग्रेस पार्टी प्रशासन और राज्य संगठनों में व्यापत हिन्दुत्व को बाहर निकालने हेतु वांछित इच्छा शक्ति जुटा पायेगी ? साभार: ई. पी. डवलयू आफ इंडिया S.R.Darapuri I.P.S.(Retd)
जाति जन गणना से कौन डरता है और क्यों ? एस. आर. दारापुरी
पिछले बजट सत्र के अंत में भारत सरकार को राजनीतिक दबाव के कारण जाति गणना के लिए राजी होना पड़ा. इस की मांग लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों ने की थी जिसे ठुकराना संभव नहीं था. यह मांग पूर्व में भी कुछ राजनीतिक पार्टियों दुआरा उठाई गयी थी परन्तु इसे शासक पार्टी दुआरा नजर- अंदाज का दिया गया था. परन्तु इस बार दबाव इतना अधिक था कि सरकार के लिए जाति जनगणना को स्वीकार करने के सिवा कोई चारा नहीं था. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने कई बार अन्य पिछड़ी जातियों के आरक्षण की मात्रा के आधार के सम्बन्ध में पूछा था परन्तु सरकार के पास यह नहीं था क्योंकि उसके पास इन जातियों की जनसंख्या के सही आंकड़े उपलब्ध नहीं थे. कुछ राज्यों ने इन वर्गों की जनसँख्या का पता लगाने के प्रयास किये थे परन्तु इसे पिछड़ी जातियों और आरक्षण विरोधियों द्वारा चुनौती दी गयी थी. काका कालेलकर और मंडल कमीशन द्वारा इन वर्गों की जातियों की पहचान के लिए माप दंड निर्धारित किये गए थे. इन वर्गों को आरक्षण देने के लिए राष्ट्रीय पिछड़ी जाति आयोग का गठन इन जातियों की सूचि तैयार करने की लिए किया गया था. इसी तरह राज्य स्तरीय नौकरियों में आरक्षण हेतु राज्य आयोगों का गठन किया गया था. यह सही है कि केंद्रीय और प्रांतीय आयोगों की सूचि में अंतर है. राष्ट्रीय स्तर पर अन्य पिछड़े वर्गों की जनसँख्या ५२% आंकी गयी है और उनके लिए केंद्रीय सरकार की नौकरियों में २७% का आरक्षण दिया गया है. यह वर्ष १९९० में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के फलस्वरूप हुआ है. यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पुनः उठा जब केन्द्रीय सरकार ने इन वर्गों को उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा में आरक्षण देने की घोषणा की. न्यायालय ने आरक्षण की मात्रा के आधार का प्रशन फिर से उठाया. अदालत ने सरकार को पुनः अन्य पिछड़े वर्गों की आबादी का सही आंकड़ा प्रस्तुत करने के लिए कहा परन्तु उसके पास यह उपलब्ध नहीं था. उपरोक्त के अलावा विभिन्न संगठनों और राजनीतिक पार्टियों ने खास करके पिछड़ी जातियों के आधिपत्य वाली पार्टियों ने भी इस मांग को कई बार उठाया था परन्तु तत्कालीन सरकार चाहे वह भाजपा अथवा कांग्रेस की रही हो, ने इसे ठुकरा दिया था. यह मांग २००१ की जनगणना में भी उठाई गयी थी परन्तु तत्कालीन न. डी. ए. की सरकार ने उसे नहीं माना था. परन्तु इस बार दबाव इतना अधिक था कि कांग्रेस की सरकार के लिए इसे टालना संभव नहीं था और उसे २०११ की जनगणना में इसे करने के लिए राजी होना पड़ा . २०११ की जनगणना में जाति गणना की घोषणा ने इस के समर्थकों और विरोधिओं में एक बहस खड़ी कर दी है. जाति जनगणना के विरुद्ध एक बड़ी आपत्ति यह है कि इस से जाति विभाजन मजबूत होगा और इसे स्थाइत्व मिलेगा. दूसरी आपत्ति किसी व्यक्ति की जाति का सही पता लगाने की व्यवहारिक कठिनाई को ले कर है क्योंकि जनगणना अधिकारियों के पास इस की कोई अंतिम सूचि नहीं है. यह सही है कि पिछली जाति जनगणना तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों दुआरा १९३१ में की गई थी और उसके बाद यह बंद कर दी गई थी. आज़ादी के बाद इसे किसी भी सरकार नें नहीं करना चाहा . बेशक अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की गणना प्रत्येक जनगणना में की जाती है क्योंकि इन जातियों सेवाओं, लोक सभा और विधान सभाओं में आरक्षण की मात्रा के निर्धारण हेतु यह जरुरी है. पिछड़ी जातियों की ५२% जनसँख्या का आंकड़ा १९३१ की जनगणना के आधार पर निकाला गया है जिस के बारे में अन्य पिछड़ी जातियों और आरक्षण विरोधी उच्च जातियों में भी मतभेद रहे हैं . अतः अब ओ. बी. सी. की सही जन संख्या का पता लगाना जरुरी हो गया है और इस के लिए २०११ की जनगणना से कोई अच्छा अवसर नहीं हो सकता है . आइए अब जाति विभाजन तेज करने और इसे स्थाइत्व प्रदान करने की आपत्ति को लें . इस संदर्भ में सर. जे.अच्. हट्टन जो १९३१ की जनगणना के जनगणना आयुक्त थे, की टिप्पणी अधिक सटीक होगी .उसने अध्याय १२, ' जाति, जनजाति, और नस्ल ' के 'जाति का विवरण ' में कहा है, " जनगणना में जाति का संज्ञान लेने को लेकर कुछ आलोचना की गयी है . यह आरोप लगाया गया है कि किसी व्यक्ति की जाति लिखने मात्र से जाति व्यस्था पक्की हो जाएगी. परन्तु यह समझना कठिन है कि कोई तथ्य जो कि मौजूद है को दर्ज कर देने से वह कैसे स्थाई हो जाएगा . यह तर्क और सत्य भी उतना ही सही है कि किसी संस्था को शुतरमुर्ग की तरह छुपाने से समाप्त नहीं किया जा सकता है ." हट्टन की इस टिप्पणी से जाति जनगणना के विरोधियों की यह आपत्ति स्वत निरस्त हो जाती है. जाति जनगणना में व्यावहारिक मुश्किलों के बारे में हट्टन ने भी बात की है . उसने कहा है," जनगणना ने जातिओं को सही दर्ज करने और उसका जनगणना के लिए आंकलन करने में व्यावहारिक कठिनाई को भी स्पष्टता से दर्शाया है जिसे बाद के समाजशास्त्रियों ने ' संस्कृतिकर्ण ' की संज्ञा दी है. हट्टन ने मद्रास के जनगणना अधीक्षक के हवाले से कहा है, "उदाहरण के लिए कूर्ग सीमा पर रहने वाले एक अति काले भिश्ती ने अपनी जाति ' सूर्यवंशी' 'लिखाई. बेशक इस प्रकार की व्यावहारिक मुश्किलें इस जनगणना में भी आ सकती हैं परन्तु इस बार यह इस के विपरीत प्रकार की होंगी. १९३१ की जनगणना में जातियों के उच्चीकरण के लिए मारामारी थी परन्तु इस यह 'असंस्कृतिकरण' अर्थात जातियों के निमनिकर्ण की होगी. उत्तर मंडल के कोटा युग में विभिन्न जातियां ओ. बी. सी. की सूची में शामिल होने के लिए अपनी अपनी जाति का निम्नीकरण करने की भरसक कोशिश करेंगी. गुजरों का अनुसूचित जनजाति में शामिल करने हेतु किया जा रहा आन्दोलन इस का ताजा उदाहरण है. उत्तर प्रदेश में राजनीतिक कारणों से भाजपा दुआरा ज़मीदार जाट जाति को पिछड़ा वर्ग की सूचि में डाल दिया गया है. जाति जनगणना के विरोधी यह आभास देने की कोशिश कर रहे हैं कि वर्तमान में जाति व्यवस्था ख़तम हो गयी है और जाति गणना से यह फिर से सर उठाने लगेगी. परन्तु यदि आप समाचार पत्रों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों को देखें तो पाएंगे कि न केवल जाति बल्कि उपजाति भी विवाह के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. इस से जाति गणना के विरोधियों का उक्त तर्क पूरी तरह से ध्वस्त हो जाता है. दरअसल जाति न केवल फलफूल रही है बल्कि लतिया भी रही है. यह एक सामाजिक सच्चाई है जो कि आदमी का सामाजिक दर्जा एवं उस के सामाजिक संबंधों की सीमा भी निर्धारित करती है. यह जीवन में प्रगति के अवसरों का निर्धारण भी करती है. आज़ादी के बाद हम लोगों ने नियोजित विकास व्यवस्था को अपनाया है जिस के लिए हमारी जनसँख्या. सामाजिक, शैक्षिक तथा आर्थिक पिछड़ापन सम्बन्धी सही आंकड़े होना जरुरी है. यह तथ्य है कि भारत में जाति और वर्ग समनुरुपी हैं. जो जातियां सामाजिक और आर्थिक रूप में पिछड़ी हैं वे ही अधिकतर आर्थिक रूप से भी पिछड़ी हैं. अतः सही नियोजन के लिए लक्षित समूहों की सही मात्रा सम्बन्धी आंकड़े आवश्यक हैं जो कि जाति जनगणना से ही प्राप्त हो सकते हैं. वास्तव में उच्च जातियों को जाति जनगणना से एलर्जी है क्योंकि इस से उनकी कम जनसँख्या एवं समाज के कमज़ोर तबकों की कीमत पर विकास के लाभों एवं राष्ट्रीय संपदा पर किये गए कब्जे का पर्दाफ़ाश हो जायेगा. उनका यह डर और भी बढ जाता है कि जनगणना से पिछड़े वर्गों की आने वाली बड़ी जनसँख्या विकास और राष्ट्रीय संपदा में अपने उचित हिस्से की मांग करेगी और उन्हें कब्जाए हिस्से छोड़ने पड़ सकते हैं. इसी कारण उच्च जातियां जाति जनगणना से डरतीं हैं. -- S.R.Darapuri I.P.S.(Retd)
डॉ. अंगने लाल मेरी नज़र में डॉ. अंगने लाल जी से मेरी पहली मुलाकात आज से लगभग २५ वर्ष पहले हुई थी जब मेरी नियुक्ति लखनऊ में हुई. उनसे बातचीत करके मैं उनकी विद्वता से बहुत परभावित हुआ था. उस समय वे शायद लखनऊ विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेस्सर के पद पर अध्यापन कार्य कर रहे थे. मैंने पाया कि उनका बौद्ध धर्म और उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म की धरोहर और उसके इतिहास का बहुत विस्तृत और गहरा ज्ञान था. क्योंकि वे इतिहास शास्त्र के ज्ञाता थे अत: उनका ज्ञान विस्तृत होना स्वाभाविक था. मैंने यह भी पाया कि डॉ. अंगने लाल एक कट्टर बौद्ध तथा अच्छे अम्बेडकरवादी थे. डॉ. अंगने लाल बौद्ध धर्म के केवल ज्ञाता ही नहीं थे बल्कि वे बौद्ध धर्म और अम्बेडकरवाद के कर्मठ प्रचारक भी थे. वे मेरे साथ भी कई मीटिंगों में रहे थे . मैंने पाया था कि अंगने लाल जी बौद्ध धर्म की व्याख्या बौद्ध गाथा सहित बहुत रोचक शब्दों में करते थे. वे डॉ. आंबेडकर के जीवन संघर्ष और उनकी शिक्षाओं को भी बहुत अच्छे ढंग से बताते थे. क्योंकि वे स्थानीय भाषा को बहुत अच्छी तरह से जानते थे अत: वे अपनी बात जनभाषा में बहुत सरल ढंग से रखते थे. डॉ. अंगने लाल ने बुद्ध, बौद्ध धर्म , डॉ. आंबेडकर और उत्त्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म क़ी धरोहर और उसके इतिहास के बारे में बहुत ज्ञानपूर्ण पुस्तकें लिखीं जो कि उस समय पर बौद्ध साहित्य और डॉ. आंबेडकर के बारे में पुस्तकों की कमी को दूर करने में बहुत सहायक रहीं . उन्होंने बौद्ध धर्म के उत्तर प्रदेश में विस्तार, बौद्ध स्मारकों तथा इतिहासिक बौद्ध स्थलों के बारे में बहुत खोज करके बौद्धों के ज्ञान और रूचि को बढाया.उन्होंने छोटी छोटी पुस्तकों का प्रकाशन करवाकर उन्हें जनसाधारण तक पहुँचाया. इस प्रकार उनका बौद्ध एवं अम्बेडकरी साहित्य में बहुत बड़ा योगदान रहा है. डॉ. अंगने लाल बहुत सी संस्थाओं जैसे भारतीय बौद्ध महासभा, डॉ. आंबेडकर महासभा आदि से जुड़े हुए थे. इनके माध्यम से उन्होंने बौद्ध धर्म तथा अम्बेडकरवाद के प्रचार का अदुतीय काम किया. वे इस विचारधारा को गाँव गाँव तक लेकर गए. अतः: यह निसंकोच कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश और उसके बहार भी बौद्ध धर्म और डॉ. आंबेडकर के सन्देश को पहुचाने में उनका इतिहासिक योगदान रहा है. डॉ. आंबेडकर पर उनकी पुस्तक का प्रकाशन डॉ. आंबेडकर शताब्दी वर्ष में उत्तर प्रदेश सरकार दुआरा कराया गया. उत्तर प्रदेश में बौद्ध स्थल नामिक पुस्तक का प्रकाशन उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान दुआरा कराया गया. उनकी ये तथा अन्य पुस्तकें इन विषयों पर शोधार्थियों के लिए बहुत उपयोगी पुस्तकें हैं. बौद्ध साहित्य और अम्बेडकरी तथा दलित साहित्य में उनका बहुत भारी योगदान रहा है. डॉ. अंगने लाल जी ने बौद्ध, आंबेडकर तथा दलित आन्दोलन में एक इतिहासिक योगदान दिया है जिस के लिए उन्हें हमेशा याद किया जायेगा. उनका यह योगदान न केवल पुस्तक रूप में ही था बल्कि वे इसके समर्पित प्रचारक भी थे . मुझे पूरा विश्वास है कि उनका परिवार उनकी इस परम्परा को और आगे बढायेगा. आइये हम सब लोग उनके इस कारवां को लगन तथा निष्ठा से आगे बढ़ाने का संकल्प लें और उनकी कमी को पूरा करने का प्रयास करें. -- S.R.Darapuri I.P.S.(Retd) www.dalitliberation.blogspot.com

क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है?

  क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है ? हाल ही में हुई बहसों में सवाल उठाया गया है कि क्या अनुसूचित जाति के उपसमूहों में सकारात्म...