गुरुवार, 3 नवंबर 2011

भारतीय पुलिस : खंडित व्यवस्था लेखक: एस.आर.दारापुरी आई.पी.एस.(से.नि.) ईमेल : srdarapuri@gmail.com " इस हफ्ते मुझे एक मुठभेड़ करने के लिए कहा गया," एक पुलिस अधिकारी ने जनवरी,२००९ में हयूमन राइट्स वाच को बताया | वह किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने और न्यायेत्तर ढंग से जान लेने के बारे में बता रहा था | जहाँ यह दावा कर दिया जाता है कि पीड़ित की पुलिस से मुठभेड़ में मृत्यु हुई | उसने कहा, मैं शिकर की तलाश में हूँ, मैं उसे ख़त्म कर दूंगा |" यह स्वीकारोक्ति उत्तर प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी की थी परन्तु यह भारत के किसी भी राज्य के पुलिस अधिकारी की हो सकती है | हयूमन राइट्स वाच (एच.आर.डब्ल्यू.) की रिपोर्ट जिसका शीर्षंक "ब्रोकेन सिस्टम डेसफंक्शनल, एव्यूज एंड इमप्युनिटी इन दा इंडियन पुलिस" (खंडित व्यवस्था दुष्क्रियावादी, दुर्व्यवहार, और अदंडित, भारतीय पुलिस)" है, कथन से आरंभ होती है | यह रिपोर्ट एच.आर.डब्ल्यू. द्वारा लखनऊ में ७ अगस्त को विमोचित की गई | इस रिपोर्ट का पहले विमोचन ४ अगस्त,२००९ को बंगलौर में हुआ था | इस ११८ पृष्ठ की रिपोर्ट में पुलिस द्वारा मानवाधिकार के हनन की घटनाओं, जिसमें स्वेच्छाचारी गिरफ्तारियां और हिरासत, यातना और न्यायेत्तर हत्याएं हैं का प्रलेखन है | यह रिपोर्ट विभिन्न रैंक के ८० पुलिस अधिकारियों पुलिस दुर्व्यवहार के शिकार हुए ६० व्यक्तियों तथा बहुत सारे विशेषज्ञों और नागरिक समाज के कार्यकर्त्ताओं से विचार विमर्श और साक्षात्कार पर आधारित है | इसमें राज्य पुलिस बलों, जो कि कानून के दायरे के बाहर कार्य करतें हैं, जिनमें पर्याप्त नैतिक और व्यवसायिक दक्षता के मापदंडों का आभाव है, अधिक कार्यभार और अपराधियों के मुकाबलें में पिछड़े हुए और बढती हुई मांग एवं जनता की अपेक्षाएं पूरी करने में असमर्थ, का ब्योरा दिया गया है | इस हेतु उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, हिमांचल प्रदेश और राजधानी दिल्ली के १९ पुलिस थानों में क्षेत्र अध्ययन किया गया | इस अवसर पर एच.आर.डब्ल्यू. की एशिया डिवीजन की नौरीन शाह ने कहा, " भारत का तेजी से आधुनिकीकरण हो रहा है परन्तु पुलिस दुर्व्यवहार और धमकियों के पुराने तरीकों से काम कर रही है | अब सरकार को सुधारों की बात करना छोड़ कर व्यवस्था को ठीक करना चाहिए |" रिपोर्ट में बनारस के एक फल विक्रेता की कहानी है जिसमें वह बताता है कि पुलिस ने उससे कई तथा असम्बद्ध आरोपों की स्वीकृति करने हेतु कैसे प्रताड़ित किया | "मेरे हाथ और पैर बांध दिए गए और मेरी टांगो के बीच एक लकड़ी डाल दी गई | उन्होंने मेरी टांगों पर लाठियों से पीटा और ठुड्डे मारे | वे कह रहे थे,तुम १३ सदस्यों वाली गैंग के लोगों के नाम बताओ|" उन्होंने मुझे तब तक पीटा जब तक कि मैं मदद के लिए चिल्लाने नहीं लगा"| एक सिपाही बोला," इस तरह की पिटाई से तो भूत भी भाग जायेगा | मैं जो जानना चाहता हूँ तुम मुझे वह क्यों नहीं बताते ? तब उन्होंने मुझे उल्टा लटका दिया ----------|" उन्होंने प्लास्टिक के जग से मेरे मुंह और नाक में पानी डाला और मैं बेहोश हो गया | एच.आर.डब्ल्यू. द्वारा साक्षात्कार किया गया हरेक अधिकारी कानून के दायरे को जानता था परन्तु बहुतों का यह विश्वास था कि गैर कानूनी तरीके जिनमें अवैध हिरासत और यातनाएं हैं अपराध की विवेचना और कानून लागू करने के लिए जरुरी हथकंडे हैं | एच.आर.डब्ल्यू. ने यह भी कहा कि यदि दुर्व्यवहार को नजर अंदाज न भी किया जाय, पुलिस अधिकारियों की दयनीय स्थितियों का भी इसमें योगदान है | निम्न स्तर के अधिकारी कठिन कार्य स्थितियों में काम करते हैं | उन्हें हर रोज २४ घंटे ड्यूटी हेतु उपलब्ध रहना पड़ता है | शिफ्ट के स्थान पर उन्हें बहुत सारे लम्बे घटों तक कई बार टेंटों या थाने की गन्दी बैरकों में रह कर काम करना पड़ता है | वे बहुत सारे लम्बे समय तक अपने परिवार से दूर रहते हैं | उनके पास जरुरी उपकरण जिसमें गाडियां, मोबाइल फ़ोन, विवेचना के औजार और प्रथम सूचना लिखने तथा नोट बनाने हेतु कागज शामिल हैं, का अभाव होता है | पुलिस अधिकारियों ने बताया कि वे अधिक कार्यभार और संसाधनों की कमी को पूरा करने के लिए शार्ट कट्स का प्रयोग करते हैं | उदाहरण के लिए उन्होंने बताया कि कैसे कार्यभार को कम रखने के लिए अपराध की रिपोर्ट नहीं लिखते | बहुत से अधिकारियों ने बयान किया कि उन्हें कैसे उच्च अधिकारियों के मामलों को जल्दी खोलने के लिए गैर यथार्थवादी दबाव का सामना करना पड़ता है | उन्हें फोरेंसिक साक्ष्य एकत्र करने और गवाहों के बयान आदि लेने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता | क्योंकि इसे लम्बी प्रक्रिया माना जाता है | अतः वे इसके स्थान पर संदिग्ध व्यक्तियों को हिरासत में लेने और उनसे जबरदस्ती कबूल कराने के लिए अक्सर यातना और दुर्व्यवहार का तरीका अपनाते हैं | मीनाक्षी गांगुली जो कि एच.आर.डब्ल्यू. की वरिष्ठ शोध कर्ता हैं, ने कहा," अधिकारियों की परिस्थितियां और प्रोत्साहन को बदलने की जरुरत है |" अधिकारियों को ऐसी स्थिति में न पहुँचाया जाय जहाँ वे सोचते हैं कि उन्हें वरिष्ठ अधिकारियों की मांगों को पूरा करने और आदेशों का अनुपालन करने के लिए दुर्व्यवहार करना पड़े | इसके स्थान पर उन्हें संसाधन, प्रशिक्षण और व्यावसायिक और नैतिक तौर पर कार्य करने हेतु प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए | "ब्रोकन सिस्टम" में पुलिस द्वारा परम्परागत रूप से हाशिये पर रहे लोगों से दुर्व्यवहार का भी विवरण है | इनमें गरीब, महिलाएं, दलित और धार्मिक एवं लैंगिक रूप से अल्प संख्यक हैं | पुलिस प्रायः उन पर हुए अपराधों की विवेचना भेदभाव, पीड़ित द्वारा रिश्वत न दे पाना, या उनके सामाजिक दर्द एवं राजनीतिक संबंधों का अभाव होने के कारण नहीं करती | इन समूहों के सदस्य अवैध गिरफ्तारी एवं यातना का शिकार पुलिस द्वारा आरोपित अपराधों की सजा के तौर पर भी झेलते हैं | पुलिस के उपनिवेश काल के पुलिस कानून, राज्य और स्थानीय राजनेताओं को रोजमर्रा कार्यों में दखल देने का मौका देते हैं | कई बार पुलिस अधिकारियों को राजनीतिक सम्बन्ध रखने वाले लोगों के विरुद्ध विवेचनाएँ बंद करने जिनमें ज्ञात अपराधी होते हैं तथा अपने राजनीतिक विरोधियों को परेशान करना भी होता है | इन तौर तरीकों से जनता का विश्वास कम हो जाता है | २००६ में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधारों सम्बन्धी एक ऐतिहासिक निर्णय में दिशा-निर्देश दिए थे | परन्तु दुर्भाग्यवश केंद्र सरकार और अधिकतर राज्य सरकारें मुख्य या पूरे तौर पर न्यायालय के आदेश का पालन करने में विफल रही हैं | इससे यह पता चलता है कि सरकारी अधिकारियों ने अब भी विधि सम्मत कानून को स्वीकार नहीं किया और न ही पुलिस व्यवस्था में व्यापक सुधार, जिसमें व्यापक मानवाधिकार उललंघन के लिए पुलिस को जवाबदेह ठहराना शामिल है, की जरुरत को समझा है | नौरीन शाह ने कहा,"भारत को विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के दर्जे को अपने आप को कानून से ऊपर समझने वाली पुलिस द्वारा क्षति पहुचाई जाती है | यह एक दुष्चक्र है | भारतीय नागरिक डर के कारण पुलिस से संपर्क नहीं करते | अतः अपराध असूचित एवं अदंडित रह जाते हैं और पुलिस को जनता का सहयोग नहीं मिलता जो कि अपराधों को रोकने और हल करने के लिए जरुरी है | "ब्रोकेन सिस्टम," पुलिस सुधार के लिए विस्तृत संस्तुतियां भी देता है जो कि सरकारी आयोगों, पूर्व पुलिस अधिकारियों एवं भारतीय समूहों से ली गयी हैं | इनमें मुख्य संस्तुतियां निम्नवत हैं -: संदिग्ध अपराधियों को किसी गिरफ्तारी या हिरासत होने पर उनके अधिकारों के बारे में बताना जिससे इन संरक्षणों की स्वीकृत बढेगी | न्यायालय में ऐसे किसी साक्ष्य को न माना जाए जो संदिग्ध पूंछतांछ के दौरान यातना या निर्दयता, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार से प्राप्त किया गया हो | पुलिस के गलत रवैये और दुर्व्यवहार के विरुद्ध राष्ट्रीय एवं राज्य मानवाधिकार आयोगों और पुलिस शिकायत अधिकारियों को स्वतंत्र जाँच करने हेतु सक्षम बनाए और इसे बढावा दें ! प्रशिक्षण और उपकरणों में सुधार हो जिसमें पुलिस महाविद्यालयों में अपराध-विवेचना पाठ्यक्रम को सुदृढ़ करना, कनिष्ठ स्तर के अधिकारियों को विवेचना में सहायता करने का प्रशिक्षण देना और हर एक पुलिस अधिकारी को फोरेंसिक उपकरण उपलब्ध कराना ! ऐसे कानून को समाप्त करें जिससे दंड से मुक्ति को बढावा मिलता हो | खासकरके दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १९७ जो कि लगातार दुर्व्यहार करने वाले उनके विरुद्ध मुकदमा चलने से बचाती रही है | यदि यह समाप्त नहीं की जाती है तो "अधिकारिक ड्यूटी" को इस प्रकार परिभाषित करें जिसमें असंवैधानिक व्यवहार जैसे मनमानी हिरासत, हिरासत के दौरान उत्पीड़न या दुर्व्यवहार और न्यायेत्तर हत्या को शामिल न किया गया हो | रिपोर्ट में उन लोगों का विवरण हो जिन्हें यातना दी गई थी और अवैध हिरासत में रखा गया था | कुछ कथन निम्नवत हैं- " उसे रात भर थाने में रखा गया | प्रातः जब हम उसे मिलने गए, उन्होंने कहा कि उसने अपने आप को मार लिया है | उन्होंने हमें उसकी लाश दिखाई जहाँ वह थाने के अन्दर पेड़ से लटक रही थी | पेड़ की शाखा इतनी नीची थी कि उससे लटकना असंभव है | उसके पैर साफ थे जबकि चारों तरफ कीचड था और उसे उसमें चल कर ही वहां पहुँचना होता | यह साफ है कि पुलिस ने उसे मारा और आत्महत्या दिखाने के लिए उसे पेड़ से लटका दिया |" गीता पासी के देवर ने अगस्त २००६ में उत्तर प्रदेश में पुलिस हिरासत में उसकी मौत के बारे में बताया | पुलिस अधिकारी अपना रोना इस प्रकार रोते हैं : "हमारे पास सोचने और सोने का कोई समय नहीं है | मैं अपने आदमियों को बताता हूँ कि पीड़ित हमारे पास इसलिए आतें हैं कि हम उसे न्याय दे सकते हैं, अतः हमें उसे डंडे से नहीं मारना चाहिए | परन्तु वे अक्सर थके मांदे और चिडचिडे होते हैं और गलतियाँ हो जाती हैं |" यह गंगाराम आजाद उपनिरीक्षक, पुलिस थाना उत्तर प्रदेश का कथन है | " वे कहते है कि २४ घंटे में विवेचना करो परन्तु वे कभी इस बात की ओर ध्यान नहीं देते कि यह कैसे हो सकता है; संसाधन क्या हैं-----, सनसनी खेज मामलों में बल प्रयोग किया जाता है क्योंकि हमारे पास विज्ञानी तरीके नहीं हैं | हमारे पास क्या बचता है ? हमारे मन में हमेशा भय बना रहता है कि अगर हम किसी नतीजे पर नहीं पहुंचेंगें तो हम निलंबित हो जायेंगे या दंडित हो जायेंगें | हमें इस मामले को खोलना ही है; हम तथ्यों की किसी भी तरह से पूर्ति जरुर करें |" उपनिरीक्षक, उत्तर प्रदेश में वाराणसी के नजदीक थाने वाले ने कहा | " प्रायः हमारे वरिष्ठ अधिकारी हमें गलत चीजें करने के लिए कहते हैं | हमारे लिए विरोध करना कठिन होता है | मुझे याद है एक बार मेरे अधिकारी ने मुझे किसी को पीटने के लिए कहा | मैंने कहा कि उस आदमी को जमानत नहीं मिलेगी और वह जेल में सड़ जायेगा तथा वह उसके लिए काफी सजा होगी | परन्तु इससे मेरा अधिकारी नाराज हो गया |" उत्तर प्रदेश के एक सिपाही ने कहा | बंगलौर के यौन कर्मियों ने पुलिस द्वारा पिटाई और यौन उत्पीड़न के बारे में बताया | एक महिला ने हयूमन राइट्स वाच से कहा; " मैं गली में खड़ी थी, वहां बहुत सन्नाटा था, एक पुलिस वाला आया उसने मुझे थप्पड़ मारा और फिर बुरी तरह से मेरी पिटाई की मैं जमीन पर गिर पड़ी | जब मैं पानी के लिए गिड़-गिडाई तो उसने अपनी पैंट की जिप खोलकर अपना लिंग पेश किया |" " तमाम दिमागी उलझनों,२४ घंटें कानून व्यवस्था ड्यूटी, राजनीतिक दबाव से एक आदमी हिंसा पर उतारू हो जाता है | एक आदमी कितना झेल सकता है ? ------हमें एक आरोपी व्यक्ति की निगरानी और उसके मानवाधिकारों का ख्याल रखना होता है, परन्तु हमारे बारे में क्या है ? हमें २४ घंटे इसी प्रकार रहना पड़ता है | हम यह दावा नहीं करते कि हमारी पॉवर हमें सभी समय इसी प्रकार काम करने के लिए पैदा करती है | कई बार हम पीटते हैं या अवैध रूप से हिरासत में रखते हैं | क्योंकि हमारी काम करने की परिस्थितियां और हमारी सुविधाएँ ख़राब हैं | अतः हम अपराधी और आतंकवादी बनाते हैं |" हिमाचल प्रदेश के कांगडा पुलिस स्टेशन के निरीक्षण ने कहा | उक्त अवसर पर श्री एस.आर.दारापुरी जो कि सेवा निवृत भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी तथा उत्तर प्रदेश पीयूसीएल के उपाध्यक्ष हैं तथा जिन्होंने लखनऊ से २००९ का सामान्य चुनाव लड़ा था, ने फ़र्जी मुठभेड़ के मामलों का विवरण देते हुए बताया कि " केवल घनश्याम केवट वाली १७ जून, २००९ की मुठभेड़ जैसी गिनी चुनी ही सही मुठभेड़ होती हैं जिसमें पुलिस की दक्षता का परीक्षण हो गया था, शेष ९९% मुठभेडें फर्जी होती हैं |" श्री दारापुरी ने कहा," मैं ३२ साल पुलिस अधिकारी रहा हूँ | मैं जानता हूँ कि फर्जी मुठभेडें कैसे की जाती हैं | प्रदेश में आम आदमी सुरक्षित नहीं है |" श्री लेनिन रघुवंशी, निदेशक पीपुल्स विजिलेंस कमेटी फार हयूमन राइट्स ने रिपोर्ट पेश करते हए कहा," हमने १२५ मामलों का अध्ययन किया | अधिकतर मामलों में न्याय या तो देर से मिला या फिर मिला ही नहीं क्योंकि इन गरीब लोगों की प्रथम सूचना दर्ज कराने के लिए पहुँच नहीं थी या फिर वे विवेचना की उचित पैरवी नहीं कर सकते थे | ऐसे उदाहरण हैं जहाँ पुलिस वालों ने पोस्टमार्टम नहीं करवाया और फर्जी मुठभेड़ का शिकार हुए लोगों की उनके घर वालों को लाश देने से मना कर दिया |" रिपोर्ट कहती है कि अब समय नष्ट करने की गुंजाईश नहीं है | भारत सरकार को वर्तमान पुलिस व्यवस्था जो कि मानवाधिकारों के उलंघन को प्रोत्साहित करती है, में व्यापक बदलाव लाना चाहिए | सदियों से विभिन्न सरकारें पुलिस को ज्यादतियों के लिए उत्तरदायी बनाने और अधिकारों का सम्मान करने वाला पुलिस बल बनाने में असफल रही हैं | यदि राज्य सरकारें पुलिस सुधार लागू करने से मना करती है तो नागरिक समाज, मानवाधिकार संगठन और सभी सही सोच वाले लोगों को राज्य सरकारों एवं राजनीतिक पार्टियों पर ऐसा करने के लिए दबाव डालना चाहिए | एक स्वतंत्र, उत्तरदायी और लोकतांत्रिक पुलिस व्यवस्था के बिना लोकतंत्र को बनाये रखना कठिन होगा |

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