गुरुवार, 3 नवंबर 2011

जाति जन गणना से कौन डरता है और क्यों ? एस. आर. दारापुरी
पिछले बजट सत्र के अंत में भारत सरकार को राजनीतिक दबाव के कारण जाति गणना के लिए राजी होना पड़ा. इस की मांग लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों ने की थी जिसे ठुकराना संभव नहीं था. यह मांग पूर्व में भी कुछ राजनीतिक पार्टियों दुआरा उठाई गयी थी परन्तु इसे शासक पार्टी दुआरा नजर- अंदाज का दिया गया था. परन्तु इस बार दबाव इतना अधिक था कि सरकार के लिए जाति जनगणना को स्वीकार करने के सिवा कोई चारा नहीं था. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने कई बार अन्य पिछड़ी जातियों के आरक्षण की मात्रा के आधार के सम्बन्ध में पूछा था परन्तु सरकार के पास यह नहीं था क्योंकि उसके पास इन जातियों की जनसंख्या के सही आंकड़े उपलब्ध नहीं थे. कुछ राज्यों ने इन वर्गों की जनसँख्या का पता लगाने के प्रयास किये थे परन्तु इसे पिछड़ी जातियों और आरक्षण विरोधियों द्वारा चुनौती दी गयी थी. काका कालेलकर और मंडल कमीशन द्वारा इन वर्गों की जातियों की पहचान के लिए माप दंड निर्धारित किये गए थे. इन वर्गों को आरक्षण देने के लिए राष्ट्रीय पिछड़ी जाति आयोग का गठन इन जातियों की सूचि तैयार करने की लिए किया गया था. इसी तरह राज्य स्तरीय नौकरियों में आरक्षण हेतु राज्य आयोगों का गठन किया गया था. यह सही है कि केंद्रीय और प्रांतीय आयोगों की सूचि में अंतर है. राष्ट्रीय स्तर पर अन्य पिछड़े वर्गों की जनसँख्या ५२% आंकी गयी है और उनके लिए केंद्रीय सरकार की नौकरियों में २७% का आरक्षण दिया गया है. यह वर्ष १९९० में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के फलस्वरूप हुआ है. यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पुनः उठा जब केन्द्रीय सरकार ने इन वर्गों को उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा में आरक्षण देने की घोषणा की. न्यायालय ने आरक्षण की मात्रा के आधार का प्रशन फिर से उठाया. अदालत ने सरकार को पुनः अन्य पिछड़े वर्गों की आबादी का सही आंकड़ा प्रस्तुत करने के लिए कहा परन्तु उसके पास यह उपलब्ध नहीं था. उपरोक्त के अलावा विभिन्न संगठनों और राजनीतिक पार्टियों ने खास करके पिछड़ी जातियों के आधिपत्य वाली पार्टियों ने भी इस मांग को कई बार उठाया था परन्तु तत्कालीन सरकार चाहे वह भाजपा अथवा कांग्रेस की रही हो, ने इसे ठुकरा दिया था. यह मांग २००१ की जनगणना में भी उठाई गयी थी परन्तु तत्कालीन न. डी. ए. की सरकार ने उसे नहीं माना था. परन्तु इस बार दबाव इतना अधिक था कि कांग्रेस की सरकार के लिए इसे टालना संभव नहीं था और उसे २०११ की जनगणना में इसे करने के लिए राजी होना पड़ा . २०११ की जनगणना में जाति गणना की घोषणा ने इस के समर्थकों और विरोधिओं में एक बहस खड़ी कर दी है. जाति जनगणना के विरुद्ध एक बड़ी आपत्ति यह है कि इस से जाति विभाजन मजबूत होगा और इसे स्थाइत्व मिलेगा. दूसरी आपत्ति किसी व्यक्ति की जाति का सही पता लगाने की व्यवहारिक कठिनाई को ले कर है क्योंकि जनगणना अधिकारियों के पास इस की कोई अंतिम सूचि नहीं है. यह सही है कि पिछली जाति जनगणना तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों दुआरा १९३१ में की गई थी और उसके बाद यह बंद कर दी गई थी. आज़ादी के बाद इसे किसी भी सरकार नें नहीं करना चाहा . बेशक अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की गणना प्रत्येक जनगणना में की जाती है क्योंकि इन जातियों सेवाओं, लोक सभा और विधान सभाओं में आरक्षण की मात्रा के निर्धारण हेतु यह जरुरी है. पिछड़ी जातियों की ५२% जनसँख्या का आंकड़ा १९३१ की जनगणना के आधार पर निकाला गया है जिस के बारे में अन्य पिछड़ी जातियों और आरक्षण विरोधी उच्च जातियों में भी मतभेद रहे हैं . अतः अब ओ. बी. सी. की सही जन संख्या का पता लगाना जरुरी हो गया है और इस के लिए २०११ की जनगणना से कोई अच्छा अवसर नहीं हो सकता है . आइए अब जाति विभाजन तेज करने और इसे स्थाइत्व प्रदान करने की आपत्ति को लें . इस संदर्भ में सर. जे.अच्. हट्टन जो १९३१ की जनगणना के जनगणना आयुक्त थे, की टिप्पणी अधिक सटीक होगी .उसने अध्याय १२, ' जाति, जनजाति, और नस्ल ' के 'जाति का विवरण ' में कहा है, " जनगणना में जाति का संज्ञान लेने को लेकर कुछ आलोचना की गयी है . यह आरोप लगाया गया है कि किसी व्यक्ति की जाति लिखने मात्र से जाति व्यस्था पक्की हो जाएगी. परन्तु यह समझना कठिन है कि कोई तथ्य जो कि मौजूद है को दर्ज कर देने से वह कैसे स्थाई हो जाएगा . यह तर्क और सत्य भी उतना ही सही है कि किसी संस्था को शुतरमुर्ग की तरह छुपाने से समाप्त नहीं किया जा सकता है ." हट्टन की इस टिप्पणी से जाति जनगणना के विरोधियों की यह आपत्ति स्वत निरस्त हो जाती है. जाति जनगणना में व्यावहारिक मुश्किलों के बारे में हट्टन ने भी बात की है . उसने कहा है," जनगणना ने जातिओं को सही दर्ज करने और उसका जनगणना के लिए आंकलन करने में व्यावहारिक कठिनाई को भी स्पष्टता से दर्शाया है जिसे बाद के समाजशास्त्रियों ने ' संस्कृतिकर्ण ' की संज्ञा दी है. हट्टन ने मद्रास के जनगणना अधीक्षक के हवाले से कहा है, "उदाहरण के लिए कूर्ग सीमा पर रहने वाले एक अति काले भिश्ती ने अपनी जाति ' सूर्यवंशी' 'लिखाई. बेशक इस प्रकार की व्यावहारिक मुश्किलें इस जनगणना में भी आ सकती हैं परन्तु इस बार यह इस के विपरीत प्रकार की होंगी. १९३१ की जनगणना में जातियों के उच्चीकरण के लिए मारामारी थी परन्तु इस यह 'असंस्कृतिकरण' अर्थात जातियों के निमनिकर्ण की होगी. उत्तर मंडल के कोटा युग में विभिन्न जातियां ओ. बी. सी. की सूची में शामिल होने के लिए अपनी अपनी जाति का निम्नीकरण करने की भरसक कोशिश करेंगी. गुजरों का अनुसूचित जनजाति में शामिल करने हेतु किया जा रहा आन्दोलन इस का ताजा उदाहरण है. उत्तर प्रदेश में राजनीतिक कारणों से भाजपा दुआरा ज़मीदार जाट जाति को पिछड़ा वर्ग की सूचि में डाल दिया गया है. जाति जनगणना के विरोधी यह आभास देने की कोशिश कर रहे हैं कि वर्तमान में जाति व्यवस्था ख़तम हो गयी है और जाति गणना से यह फिर से सर उठाने लगेगी. परन्तु यदि आप समाचार पत्रों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों को देखें तो पाएंगे कि न केवल जाति बल्कि उपजाति भी विवाह के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. इस से जाति गणना के विरोधियों का उक्त तर्क पूरी तरह से ध्वस्त हो जाता है. दरअसल जाति न केवल फलफूल रही है बल्कि लतिया भी रही है. यह एक सामाजिक सच्चाई है जो कि आदमी का सामाजिक दर्जा एवं उस के सामाजिक संबंधों की सीमा भी निर्धारित करती है. यह जीवन में प्रगति के अवसरों का निर्धारण भी करती है. आज़ादी के बाद हम लोगों ने नियोजित विकास व्यवस्था को अपनाया है जिस के लिए हमारी जनसँख्या. सामाजिक, शैक्षिक तथा आर्थिक पिछड़ापन सम्बन्धी सही आंकड़े होना जरुरी है. यह तथ्य है कि भारत में जाति और वर्ग समनुरुपी हैं. जो जातियां सामाजिक और आर्थिक रूप में पिछड़ी हैं वे ही अधिकतर आर्थिक रूप से भी पिछड़ी हैं. अतः सही नियोजन के लिए लक्षित समूहों की सही मात्रा सम्बन्धी आंकड़े आवश्यक हैं जो कि जाति जनगणना से ही प्राप्त हो सकते हैं. वास्तव में उच्च जातियों को जाति जनगणना से एलर्जी है क्योंकि इस से उनकी कम जनसँख्या एवं समाज के कमज़ोर तबकों की कीमत पर विकास के लाभों एवं राष्ट्रीय संपदा पर किये गए कब्जे का पर्दाफ़ाश हो जायेगा. उनका यह डर और भी बढ जाता है कि जनगणना से पिछड़े वर्गों की आने वाली बड़ी जनसँख्या विकास और राष्ट्रीय संपदा में अपने उचित हिस्से की मांग करेगी और उन्हें कब्जाए हिस्से छोड़ने पड़ सकते हैं. इसी कारण उच्च जातियां जाति जनगणना से डरतीं हैं. -- S.R.Darapuri I.P.S.(Retd)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है?

  क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है ? हाल ही में हुई बहसों में सवाल उठाया गया है कि क्या अनुसूचित जाति के उपसमूहों में सकारात्म...