भगत सिंह की क्रांति : एक पुनर्पाठ
(कँवल भारती)
एक लम्बे अरसे से मैं भगत सिंह (1907-1931) की देशभक्ति, क्रान्ति और वैचारिकी पर दलित नज़रिए से विचार करना चाहता था। एक-दो छोटी-छोटी टिप्पणियां फेसबुक पर लिखी भी थीं, जो ज्यादातर बुद्दिजीवियों को नागवार गुजरी थीं। भगत सिंह हमारे देश में क्रान्ति के पर्याय बन चुके हैं। क्या वामपंथी, और क्या दक्षिणपंथी सभी खेमों में उनकी स्वीकार्यता है। इसलिए उनकी आलोचना करना एक बड़ा जोखिम है, इसमें संदेह नहीं। किन्तु जोखिम के खतरों से डरकर अभिव्यक्ति को दबाना भी तो ठीक नहीं।
मेरे मूल्यांकन का आधार मुख्य रूप से दो किताबें हैं, एक राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित जगमोहन सिंह और चमन लाल द्वारा संपादित “भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज” और दूसरी राहुल फाउंडेशन, लखनऊ से प्रकाशित सत्यम द्वारा संपादित “भगत सिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज”। हालाँकि कुछ और पुस्तकें भी हैं, जैसे यशपाल की ‘सिंहावलोकन’, शिव वर्मा की ‘संस्मृतियाँ’ और मन्मथनाथ गुप्त की ‘भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन का इतिहास’। सुधीर विद्यार्थी की भी कुछ किताबें हैं। लेकिन इन पुस्तकों का मैंने अपने मूल्यांकन में उपयोग नहीं किया है।
मेरी दृष्टि में कांग्रेस द्वारा साइमन कमीशन का देशव्यापी विरोध, लाहौर में लाला लाजपतराय के प्रदर्शन में पुलिस की लाठियों से लालाजी की मृत्यु की प्रतिक्रिया में भगत सिंह द्वारा सांडर्स की हत्या कुछ ऐसे विषय हैं, जिन पर मैं भगत सिंह की कार्यवाही से कभी सहमत नहीं हो सकता। ट्रेन से सरकारी खजाना लूटना, हत्याएं करना और संसद में बम फोड़ना भी मेरी नजर में क्रान्ति नहीं है। हालाँकि मैं यह मानता हूँ कि हिंसा के बिना क्रान्ति नहीं हो सकती, और यह भी कि क्रान्ति में किसी की हत्या संभव भी है, पर मेरा सवाल है कि किसकी हत्या? किसी अंग्रेज अधिकारी की हत्या से कौन सी क्रान्ति हो गई? ट्रेन से खजाना क्यों लूटा? क्या डकैती को क्रान्ति कहा जायेगा? अगर डकैती क्रान्ति है, तो भगत सिंह और उनके साथियों से बड़ा क्रांतिकारी सुल्ताना डाकू को क्यों नहीं कहा जाए, जो अमीरों का धन लूटकर गरीबों को दान करता था, गरीब बेटियों की शादियाँ करवाता था? शस्त्र खरीदने के लिए धन की जरूरत होती है, यह बात समझ में आती है। पर इसके लिए सरकारी खजाने को लूटना समझ में नहीं आता। वे किसी जमींदार या सेठ को भी लूट सकते थे, जो अंग्रेजी राज में भी जनता के सबसे बड़े शोषक थे। वे अकाल जैसी महामारी में भी ठाठ से खाते-पीते थे। भगत सिंह और उनके साथियों के हथियार उन ज़मींदारों और सेठों की ओर क्यों नहीं मुड़े?
इसमें संदेह नहीं कि भगत सिंह के विचार परिवर्तनवादी थे। लेकिन उन्हें बहुत थोड़ा जीवन मिला था। मात्र 24 साल के जीवन में हो वह शहीद हो गए थे। अगर शुरू के लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा के कुछ साल निकाल दें, तो बारह-तेरह साल की आयु परिपक्वता के लिहाज से काफी नहीं कही जा सकती। हालांकि वह उन अपवादों में जरूर थे, जो इतनी कम आयु में भी वैचारिक रूप से परिपक्व थे। किंतु वह आयु भावुक भी होती है। जिस किस्म की देशभक्ति का उन्होंने परिचय दिया, वह उनकी कोरी भावुकता के सिवा कुछ नहीं था, जो उनकी वैचारिकी से मेल नहीं खाता।
भगत सिंह और उनके साथी प्रकाश में आते हैं सांडर्स की हत्या से। इस पूरे प्रकरण के मूल में है 1928 का कालखंड। और यह कहानी शुरू होती है भारत में साइमन कमीशन के आने और कांग्रेस और हिन्दू महासभा द्वारा उसके देशव्यापी विरोध से। साइमन कमीशन का विरोध और बहिष्कार क्यों किया गया था, इस पर चर्चा मैं आगे कभी करूँगा। फ़िलहाल चर्चा इसी घटना पर कि साइमन कमीशन जब लाहौर गया, तो लाला लाजपत राय के नेतृत्व में किए गए विरोध-प्रदर्शन में पुलिस के लाठी-चार्ज में लाला जी घायल हो गए थे, और उसी के कारण उनकी मृत्यु हुई। इतिहासकारों ने लाहौर में साइमन कमीशन के जाने की अलग-अलग तारीखें लिखी हैं। सुमित सरकार के अनुसार यह तारीख 30 अक्टूबर है , जबकि मन्मथनाथ गुप्त ने यह तारीख 20 अक्टूबर लिखी है। 17 नवम्बर 1928 को लालाजी की मृत्यु हुई, इस लिहाज से यह तारीख 20 अक्टूबर ही होनी चाहिए। जगमोहन सिंह और चमन लाल के अनुसार, ‘लाला लाजपत राय के प्रति बहुत अच्छी राय न होने के बावजूद, क्रांतिकारियों ने लालाजी की मृत्यु को राष्ट्रीय अपमान समझा और इसका बदला लालाजी पर लाठियां बरसाने वाले पुलिस अधिकारी सांडर्स को मारकर लिया।‘ बाकयदा 18 और 23 दिसम्बर 1928 को हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातान्त्रिक सेना के कमांडर-इन चीफ बलराज के हस्ताक्षर से दो नोटिस जारी करके कहा गया कि यह इस देश की राष्ट्रीयता का सबसे बड़ा अपमान था और अब इसका बदला ले लिया गया है। अगर हमारे शत्रु हमारा पता-ठिकाना बताने में पुलिस की सहायता करेंगे, तो उस पर सख्त कार्यवाही की जाएगी। 18 दिसंबर के नोटिस में यह भी लिखा गया था, ‘नौकरशाही सावधान! अत्याचारी सरकार सावधान! इस देश की दलित और पीड़ित जनता की भावनाओं को ठेस मत लगाओ। अपनी शैतानी हरकतें बंद करो। हमें हथियार न रखने देने के लिए बनाए तुम्हारे सब कानूनों और चौकसी के बावजूद पिस्तौल और रिवाल्वर इस देश की जनता के हाथ में आते ही रहेंगे। यदि वह हथियार सशस्त्र क्रांति के लिए पर्याप्त न भी हुए, तो भी राष्ट्रीय अपमान का बदला लेते रहने के लिए तो काफी रहेंगे ही। विदेशी सरकार चाहे हमारा कितना भी दमन कर ले, परन्तु हम राष्ट्रीय सम्मान की रक्षा करने और विदेशी अत्याचारों को सबक सिखाने के लिए सदा तत्पर रहेंगे। हम सब विरोध और दमन के बावजूद क्रान्ति की पुकार को बुलंद रखेंगे और फांसी के तख्तों पर से भी पुकार कर कहेंगे—इन्कलाब जिंदाबाद! हमें एक आदमी की हत्या करने का खेद है। परन्तु वह आदमी उस निर्दयी, नीच और अन्यायपूर्ण व्यवस्था का अंग था, जिसे समाप्त कर देना आवश्यक है। इस आदमी की हत्या हिंदुस्तान में ब्रिटिश शासन के कारिंदे के रूप में की गई है। यह सरकार संसार की सबसे अत्याचारी सरकार है। मनुष्य का रक्त बहाने के लिए हमें खेद है। परन्तु क्रांति की वेदी पर कभी-कभी रक्त बहाना अनिवार्य हो जाता है। हमारा उद्देश्य एक ऐसी क्रांति से है, जो मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अंत कर देगी।‘
इस नोटिस में दलित और पीड़ित जनता को व्यर्थ में ही बदनाम किया गया है, जबकि साइमन कमीशन के खिलाफ लाला जी के उस प्रदर्शन से बेचारे दलितों का कुछ भी लेना-देना नहीं था। भीड़ के रूप में कुछ मूर्ख दलितों को जरूर इकट्ठा कर लिया गया होगा। वह पूरा प्रदर्शन हिन्दुओं का अपनी नाक बचाने का था। हिन्दू साइमन कमीशन का विरोध इसलिए कर रहे थे, ताकि वह भारत के दलित वर्गों की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक स्थिति और उनकी मांगों के बारे में कुछ नहीं जान पाए। यह सच है कि साइमन कमीशन में कोई भारतीय सदस्य नहीं था। अगर होता तो कोई ब्राह्मण ही होता। और ब्राह्मणों में न्यायिक चरित्र नहीं होता, यह अंग्रेज भी जानते थे, और दलित वर्ग के लोग भी।
खैर, इस बात पर आते हैं कि राष्ट्रीय अपमान का बदला लेने के लिए खून बहाने को हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना ने अपने नोटिस में जायज माना है। बदला लेना किसी आन्दोलन की कोई अच्छी रणनीति नहीं है, पागलपन है। काश, दलितों ने भी हथियार उठाए होते, और ब्राह्मणों-ठाकुरों का खून बहाकर, उनसे अपने अत्याचारों का बदला लिया होता! क्योंकि भारत की एक बड़ी आबादी को धन-धान्य और शिक्षा से वंचित करके गरीब-दीनहीन बनाकर रखने के कुकर्मी यही लोग थे। यही भारत के सबसे अधिक शोषक और अत्याचारी लोग थे। अंग्रेजी सरकार दुनिया की सबसे अत्याचारी सरकार नहीं थी, बल्कि दुनिया के सबसे दरिन्दे और अत्याचारी लोग ब्राह्मण-ठाकुर थे। अगर भगत सिंह की तरह उस दौर में दलितों में भी कोई सशस्त्र क्रांतिकारी दल पैदा हो गया होता, और उसने हजार-दो हजार अत्याचारी ब्राह्मणों-ठाकुरों का कत्लेआम कर दिया होता, तो दलितों के भी दिन फिर गए होते। मगर दलितों की आस्था हिंसा में नहीं थी। वे लोकतंत्रवादी थे। आंबेडकर ने भी कभी दलितों को हथियार उठाने और हिंसा करने के लिए प्रेरित नहीं किया था; क्योंकि वह जानते थे कि वर्णव्यवस्था और उसमें शासक बनाए गए ब्राह्मण-ठाकुर और बनियों के गठजोड़ ने दलितों को इस स्थिति में छोड़ा ही नहीं था कि वे हथियार उठाते। उन्होंने कभी उस हल को भी ब्राह्मण-ठाकुरों के खिलाफ हथियार नहीं बनाया, जो वे रोज उनके खेतों में चलाते थे।
क्या भगत सिंह को अहसास नहीं था कि भारतीयों पर अंग्रेजों के जुल्म उतने बर्बर नहीं थे, जितने बर्बर जुल्म दलित जातियों पर बाह्मन-ठाकुरों के थे? अंग्रेज सरकार के जुल्म कानून-व्यवस्था की कार्यवाही थे, जो अंग्रेजों के बाद, आज भी कम नहीं हुए हैं। सरकार के खिलाफ उग्र प्रदर्शनों को कौन सी सरकार नहीं कुचलती है? क्या कांग्रेस की सरकारों ने जन-प्रतिरोध का दमन नहीं किया था? क्या आज की भाजपा सरकार जन-प्रतिरोध को नहीं कुचल रही है? लेकिन दलितों पर ब्राह्मण-ठाकुरों के जुल्म किसी प्रतिरोध का दमन नहीं थे, बल्कि उनको दबाकर रखने के लिए जानबूझकर किए गए षड्यंत्री जुल्म थे। क्या भगत सिंह की निगाह दलितों पर बर्बर अत्याचारों की उन ख़बरों पर नहीं पड़ती थी, जो उनके समय के अख़बारों में छपती थीं? क्या उन्होंने पंजाब में दलितों पर जुल्म होते नहीं देखे थे? फिर वह उनसे विचलित क्यों नहीं हुए? क्या वे उनके लिए राष्ट्रीय अपमान का विषय नहीं थे? अगर नहीं थे, तो क्यों नहीं थे?
भगत सिंह ने कैथरीन मेयो की किताब ‘मदर इंडिया’ जरूर पढ़ी होगी, जिसके जवाब में लाला लाजपत राय ने ‘अनहैप्पी इंडिया’ किताब लिखी थी। मेयो ने ‘मदर इंडिया’ में लिखा है कि सम्पूर्ण भारत के दलित, जिन्हें उस दौर में अछूत कहा जाता था, ब्रिटिश सरकार के शुक्रगुजार थे, जिसकी बदौलत भारत में पहली बार उन्हें नागरिक अधिकार मिले थे। आंबेडकर ने भी ब्रिटिश सरकार को दलित वर्गों के लिए वरदान कहा था, जबकि हिन्दू शासक वर्ग उनके लिए सदियों से अभिशाप बना हुआ था। भगत सिंह के भक्त आंबेडकर के नाम से बिदक सकते हैं, और ये आरोप लगा सकते हैं, बल्कि वे लगाते भी रहे हैं कि आंबेडकर अंग्रेज-सरकार के भक्त थे। लेकिन इससे सत्य पर फर्क नहीं पड़ता। मेयो ने लिखा है कि 1917 में मद्रास प्रेसिडेंसी में अछूतों ने स्वराज का विरोध करते हुए सरकार से अपील की थी कि ‘उन्हें ब्राह्मणों से बचाया जाए, जिनका उद्देश्य सरकार पर उसी तरह अधिकार प्राप्त करना है, जिस तरह गेंहुअन सांप मेढकों पर अधिकार चाहता है।‘ उसी प्रेसिडेंसी की 60 लाख जनजातियों के संगठन ‘मद्रास आदि द्रविड़ जनसभा ने कहा था कि ‘हम लोग स्वराज के प्रबल विरोधी हैं। हम अपने रक्त की अंतिम बूँद तक अंग्रेजों को भारत की सत्ता हिन्दुओं के हाथों में सौंपे जाने के प्रयास के खिलाफ लड़ेंगे। अंग्रेजों के कानून ही हमारे रक्षक हैं।‘ भारत के दलित वर्ग अंग्रेजों की सरकार को भारत्त में बनाए रखना चाहते थे, क्योंकि अंग्रेजों ने ही उनके मुक्ति के दरवाजे खोले थे। भगत सिंह अंग्रेजों से आज़ादी चाह रहे थे, पर उनका ध्यान उन अछूतों की ओर नहीं गया था, जिन्हें हिन्दुओं ने अपना गुलाम बनाकर रखा हुआ था। भारत अंग्रेजों के अधीन जरूर था, पर भारत के ब्राह्मण-ठाकुर गुलाम नहीं थे। वे पूरी आज़ादी और सामन्ती ठाठबाट से रहते थे। कैथरीन मेयो ने अपनी दूसरी किताब ‘स्लेव्स आफ दि गोड्स’ में बंगाल के एक समाज-सुधारक बनर्जी का उल्लेख किया है, जिनका ड्राइंग रूम बहुमूल्य विदेशी फर्नीचर, क्राकरी और अन्य दुर्लभ वस्तुओं से सजा हुआ था, और उनकी पत्नी इंग्लॅण्ड रहकर आई थीं। किन्तु उनके आलीशान ठाठबाट के दूसरी ओर ठीक उनके सामने गरीबों की बस्ती थी, बदहाल और अभावग्रस्त।
अब आते हैं सांडर्स की हत्या पर, जो भगत सिंह द्वारा की गई थी। इस मामले में दो बातें कही गई हैं, जिन पर विचार किया जाना जरूरी है। एक यह कि क्रांतिकारियों की लाला लाजपतराय के प्रति बहुत अच्छी राय नहीं थी, और दूसरी यह कि लालाजी की मृत्यु देश की राष्ट्रीयता का सबसे बड़ा अपमान था। दूसरी बात को लेकर हम यह मान सकते हैं कि लालाजी से विचार न मिलने के बावजूद मानवीय आधार पर उनसे सहानुभूति थी, क्योंकि वह राष्ट्र के बड़े नेता थे, इसलिए उनकी मृत्यु राष्ट्रीयता की क्षति थी। किन्तु उसे राष्ट्रीयता का अपमान कैसे कहा जा सकता है? क्या उस भीड़ में अकेले लालाजी को ही लाठियां खानी पड़ी थीं? भगत सिंह ने क्या कभी सोचा था कि अगर देश की सत्ता लाला लाजपतराय के हाथों में आ जाती, तो वह कैसा राष्ट्र बनाते और कौन-सी राष्ट्रीयता का सम्मान करते?
पहली बात पर आते हैं। लाला लाजपत राय के प्रति क्रांतिकारियों की राय बहुत अच्छी नहीं थी, पर वह राय क्या थी? यह जानना जरूरी है। इसे हम भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेजों से यहाँ प्रस्तुत करते हैं। सत्यम के अनुसार, लाहौर से प्रकाशित ‘किरती’ पत्रिका में नवम्बर 1927 में लाला लाजपत राय के नाम एक खुला पत्र छपा था। उसके बाद जनवरी 1928 में ‘लाला लाजपत राय और कुमारी स्मेडली’ नाम से एक लेख छपा और अगस्त 1928 में दूसरा लेख ‘लाला लाजपत राय और नौजवान आन्दोलन’ शीर्षक से छपा। 18 सितम्बर 1927 को ‘किरती’ में एक सम्पादकीय टिप्पणी भी प्रकाशित हुई। इस टिप्पणी में कहा गया था, “जिन सज्जनों को लाला लाजपत राय से राजनीतिक जीवन में अच्छी तरह वास्ता पड़ा है, वे लालाजी की नेतागिरी की कोरी इच्छा और देश के लिए सिवाए टर्र-टर्र करने तथा और कुछ न करने को अच्छी तरह जानते हैं। विदेशों में बसे भाइयों, विशेषत: अमेरिका व कनाडा निवासी सिखों का विश्वास 1914 में ही लालाजी से उठ गया था, जब आप कनाडा-अमेरिका गए थे और आपको उन हिन्दुस्तानी भाइयों ने अपने गाढ़े पसीने की कमाई का काफी रुपया हिंदुस्तान में आज़ादी के लक्ष्य के लिए दिया था, और उन भाइयों के अनुसार लालाजी ने वह रुपया अपनी मर्ज़ी से खर्च किया था और बहुत सा रुपया स्वयं ही हड़प गए थे।“
इस सम्पादकीय टिप्पणी के बाद अब उस खुले पत्र को लेते हैं, जिस पर 22 लोगों के हस्ताक्षर हैं। उन्होंने इस पत्र में लाला लाजपत राय पर पांच आरोप लगाए थे : राजनीतिक ढुलमुलपन, राष्ट्रीय शिक्षा के साथ विश्वासघात, स्वराज पार्टी के साथ विश्वासघात, हिन्दू-मुस्लिम-तनाव को बढ़ाना, और उदारवादी बन जाना। इस पत्र में लिखा है, ‘आप जैसे ही अन्य सज्जनों ने ‘मुसलमानों मारो’ का प्रचार किया था। जब मुसलमानों के मारे जाने का समय आया, तो उनके नेताओं ने यह कमजोरी दर्शाई और वे सिपाही वाला काम न कर सके। इस तरह उन्हें भी काफी मार पड़ी। लेकिन हमारा सिपाही उस समय बुजदिली दर्शाने में बहादुर निकला। जब हिन्दू मारे जाने लगे, तो आपने प्रथम श्रेणी के गद्दों पर बैठकर यूरोप चले जाना ही श्रेयस्कर समझा।‘ दंगों में मारे गए लोगों का जिक्र करते हुए पत्र में लिखा गया है, ‘अनेक युवतियों के सिर से पति का साया उठ गया और उनकी सारी उम्र दुखों भरी और एकांतमय रह गई। कई कुंवारी कन्याएँ अपना सतीत्व भंग होने के कारण अपने भीतर ही आंसुओं से रो रही हैं। कई मासूमों का क़त्ल किया गया। तीस लाख जिंदगियां भयावह नरक में से गुजर रही हैं। गवर्नर, पंजाब तो अपनी पहाड़ी आरामगाह छोड़कर इन लोगों के बोये हुए कांटे काटने के लिए लाहौर आ जाता है, लेकिन हमारा सिपाही लाला लाजपत राय इतना बीमार है कि वह अपनी ड्यूटी पर नहीं पहुँच सकता और कह देता है कि लाहौर में गर्मी बहुत है तथा रेलवे की सीटें पहले ही बुक हो चुकी हैं। रोने दो इन विधवा हो चुकी स्त्रियों को, यतीम हो चुके बच्चों को, हमें इनसे क्या लेना। मुसीबतें अजब-अजब लोगों को एकजुट कर देती हैं।‘
‘लाला लाजपत राय और एग्निस स्मेडली’ शीर्षक लेख में, जो या तो भगत सिंह ने लिखा था, या उनके साथी ने, (क्योंकि, वास्तविक लेखक न सत्यम पता लगा सके, और न जगमोहन सिंह और चमन लाल) यह कहा गया है कि लालाजी ने अपने पत्र ‘दि पीपल’ में एग्निस स्मेडली के लेखों को छापना बंद कर दिया था, क्योंकि अब उन्हें स्मेडली के विचार अच्छे नहीं लगते थे, और उनमें उन्हें बोल्शेविक वाली बू आती थी। इस लेख में आगे लिखा है, ‘लाला लाजपत राय मजदूरों के कट्टर समर्थक हैं। ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। आप जेनेवा की अंतर्राष्ट्रीय मजदूर कांग्रेस में मजदूरों के प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए थे। आप मिस्टर मैकाडोल्ड एंड कंपनी को पूंजीपति तथा तानाशाही समर्थक लिखते थे। लेकिन आप कौन हैं? मजदूर हैं? नहीं, बिल्कुल भी नहीं। आप तो असली पूंजीपति हैं तथा पूंजीपतियों से मित्रता रखते हैं। आप अपने स्वास्थ्य-लाभ के बहाने मिस्टर बिरला के साथ जेनेवा गए थे तथा वहां उसकी मदद करते रहे थे।‘
लेख आगे कहता है, ‘लालाजी, आप सर्वज्ञाता हैं। आपके समक्ष अनपढ़ सिख भाई अमेरिका से जत्थे बना-बनाकर यहाँ आए और उन्होंने जनता का आह्वान किया कि जनता जंग में कोई सहायता न करे। अब वक्त है, लोहा गर्म है, जबरदस्त चोट मारकर आज़ाद हो जाओ। उनकी किसी ने नहीं सुनी। लेकिन वे शहादत पाकर अपना कर्तव्य पूरा कर गए। उस समय आप सब कुछ जानते थे। आपके लिए तो कोई नई बात नहीं हुई। क्या आपके भीतर का सच मर गया था? (क्या) आपको हिंदुस्तान लौटने की चाह ने तड़पाया? दरअसल आप अंग्रेजों की नजर में भले बनकर हिंदुस्तान आना चाहते थे, इसलिए आप शांत रहे और मौन धारण कर लिया। अंग्रेजों के प्रति वफादार बनने के लिए आप जर्मन के विरुद्ध कलम उठाते रहे। क्यों, लालाजी, ठीक है ना?’
लेख में आगे और भी है। यथा, ‘क्या साम्यवाद स्वयं में, कम से कम आजकल की दुनिया में, फिरकेदारी नहीं है? क्या वह एक वर्ग का दूसरे वर्ग के विरुद्ध संगठित संघर्ष नहीं है? लालाजी तो यही कहते हैं। लेकिन लालाजी, आप स्वयं बताएं कि आप साम्यवाद को फिरकेदारी समझकर ही तो नहीं आए? दरअसल आपने सोचा होगा कि लो साम्यवादी क्या बनना, हिन्दू ही फिर बन जाते हैं।‘
लेख के अंत में कहा गया है, ‘यदि सच पूछें तो ‘पंजाब केसरी’ अब बूढ़ा हो गया है। अब तो यह सर्कस के एक पालतू शेर की तरह बेअसर हो गया है। किसी कवि ने ठीक कहा है, बदलता है रंग आसमां कैसे-कैसे?’
दूसरे लेख ‘लाला लाजपत राय और नौजवान’ में नौजवानों के प्रति लालाजी के विचारों की आलोचना की गई है। ये नौजवान कोई और नहीं, बल्कि भगत सिंह आदि क्रांतिकारी लोग थे, जिनकी लालाजी ने आलोचना की थी। लेख के दूसरे पैरे में लिखा है, पिछले कौंसिल के चुनावों में लालाजी ने कांग्रेस का साथ छोड़कर उसकी मुखालफत करनी आरम्भ कर दी और इसी दौरान ऐसी बातें कहते रहे, जो कि किसी भी तरह उन्हें शोभा नहीं देती थी। यह देखकर कुछ संवेदनशील नौजवानों ने आपके विरुद्ध आवाज़ उठाई। उसका बदला लेने के लिए लालाजी ने खुलेआम भाषणों में कहा, कि ये नौजवान बहुत ही खतरनाक एवं क्रांति-समर्थक हैं तथा लेनिन जैसा नेता चाहते हैं। साथ ही यह भी कह दिया कि इन नौजवानों को अगर पचास रूपये की भी नौकरी मिल गई, तो ये झाग की तरह बैठ जायेंगे। इसका क्या अर्थ है? क्या पचास रूपयों के लिए अपना आदर्श छोड़ने वाले नौजवान ही लेनिन के साथ थे? क्या लेनिन इसी स्तर का है? नहीं तो ऐसी बात क्यों कही गई? सिर्फ इसलिए कि लालाजी जहाँ एक ओर सरकार को इनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने के लिए उकसा रहे हैं, वहीँ जनता की नजरों में नौजवानों का सम्मान गिराने की कोशिश भी कर रहे हैं।‘
लेख में आगे लालाजी के एक लेख का हवाला दिया गया है, जिसमें भी नौजवानों का विरोध किया गया है। ‘लालाजी फरमाते हैं कि आजकल के उग्र विचारों वाले नौजवानों के भाषणों से जनता को बचना चाहिए। ये युगांतरकारी क्रांति समर्थक हैं। संपत्ति के लिए इनका प्रचार हानिकारक है, क्योंकि इससे वर्ग-संघर्ष छिड़ने का डर है। यह काम कुछ विदेशी तत्वों के उकसावे में आकर आरम्भ किया गया है। वह बाहरी तत्व हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन में फूट डालना चाहते हैं, इसलिए वह बहुत खतरनाक है।‘
लालाजी के विचारों का विरोध करते हुए, आगे लेख में कहा गया है, ‘सबसे पहले हम यह बताना चाहते हैं कि इस प्रचार के लिए कोई विदेशी हमें गुमराह नहीं कर रहा। नौजवान किसी के उकसावे में आकर ऐसी बातें नहीं कह रहे, बल्कि अब देश के भीतर से ही महसूस करने लगे हैं। लालाजी स्वयं बड़े आदमी हैं, प्रथम या द्वितीय श्रेणी में यात्रा करते हैं। उन्हें क्या मालूम कि तीसरे दर्जे में कौन सफ़र कर रहा है? वे क्या जानें कि तीसरे दर्जे के मुसाफिरखानों में किसे लातें खानी पड़ती हैं? वे मोटर में बैठकर अपने साथियों के साथ हँसते-खेलते हज़ारों गाँवों से गुजर जाते हैं। उन्हें क्या मालूम कि हजारों लोगों पर क्या गुजर रही है? क्या आज हम ‘अनहैप्पी इंडिया’ जैसी किताब के लेखक को हिंदुस्तान के करोड़ों मनुष्यों को देखकर, जो सुबह से शाम तक खून-पसीना एक करके पेट भी नहीं भर सकते, यह आवश्यकता शेष रह जाती है कि कोई बाहर से आकर हमें कहे कि उनके पेट भरने की कोई राह निकालो। हम गाँवों में गर्मी, सर्दी, बारिश, धूप, लू और कोहरे में रात-दिन किसानों को काम करते देखते हैं। लेकिन वे बेचारे रूखी-सूखी रोटी खाकर गुजारा कर रहे हैं, और क़र्ज़ के नीचे दबे हुए हैं। तब भी क्या हम तड़प नहीं उठते? उस समय हमारे दिलों में आग नहीं भड़क उठती? तब भी क्या हमें किसी की आवश्यकता रह जाती है, जो आकर यह बताए कि इस व्यवस्था को बदलने का प्रयास करो? जब हम नित्य-प्रति देखते हैं कि श्रमिक भूखे मरते हैं और निठल्ले बैठकर खाने वाले आनंद मना रहे हैं, तो क्या हम इस आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था की गड़बड़ियाँ अनुभव नहीं कर सकते?’
आगे लेख में अछूतों की स्थिति को भी महसूस करते हुए कहा गया है, ‘करोड़ों मनुष्यों को, जिन्हें हमने अछूत कहकर दूर किया हुआ है, उनकी दर्दनाक स्थितियां देखकर क्या क्रोध नहीं आता? (ये) करोड़ों लोग दुनिया का बहुत विकास कर सकते हैं, वे जनसेवा कर सकते थे, लेकिन आज वे हम पर भार महसूस होते हैं। उनकी इस स्थिति में सुधार के लिए, उन्हें पूर्ण रूप से मनुष्य बनाने के लिए और कुओं की जगत पर चढ़ाने मात्र के लिए क्या आन्दोलन की जरूरत नहीं है? क्या उन्हें ऐसी अवस्था में लाने की आवश्यकता नहीं थी कि वे हमारी तरह कमा-खा सकें? इसके लिए क्या सामाजिक और आर्थिक नियमों में क्रांति आवश्यक नहीं है?’
आगे उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि उन्हें रूसी क्रान्ति ने बदला है। यथा, ‘हम मानते हैं कि जिन बातों का हल शायद अभी हम स्वयं नहीं सोच सकते, रूसी विद्वानों ने उम्रभर कष्ट सहते हुए, तिल-तिल कर जीवन समाप्त करते हुए उनके बारे में अपने विचार दुनिया के सामने रखे। क्या हमें उसका लाभ नहीं मिलना चाहिए? क्या लालाजी की यह मंशा है कि अब अंग्रेजी शासन के विरुद्ध ही क्रान्ति की जाए, और शासन की बागडोर अमीरों के हाथों में दे दी जाए? करोड़ों जन इसी तरह नहीं, इससे भी अधिक बुरी स्थितियों में पड़ें, मरें और तब फिर सैकड़ों बरसों के खून-खराबे के पश्चात पुन: इस राह पर आयें कि और फिर हम अपने पूंजीपतियों के विरुद्ध क्रान्ति करें? यह अव्वल दर्जे की मूर्खता होगी।‘
इसके आगे लेख में वह महत्वपूर्ण बात कही गई है, जो डा. आंबेडकर ने भी कम्युनिस्टों से कही थी , और जिसे कम्युनिस्टों ने नज़रंदाज़ कर दिया था। यथा, ‘लालाजी को तो गांवों में जाने की फुर्सत ही नहीं। वे क्या जानें कि जनता के विचार क्या हैं? लोग साफ़ कहते हैं कि हमें इन्कलाब का क्या लाभ? जब इसी तरह मर-खपकर दो जून की रोटी जुटनी है, और तब भी नम्बरदार, तहसीलदार और थानेदार को इसी तरह अत्याचार करने हैं, इसी तरह किराए वसूल किए जाने हैं, तो हम अभी की रोटी क्यों गंवाएं? अच्छा, माना कि यहाँ क्रान्ति हो जाए, तब लालाजी के विचार से किसे शासन सौंपा जायेगा? क्या महाराजा वर्द्धमान या महाराजा पटियाला को और पूंजीपतियों के टोले को?’
ये विचार भगत सिंह और उनके साथियों को उस दौर का सबसे प्रखर समाजवादी चिंतक ठहराते हैं। किन्तु उन्होंने एक समाजवाद-विरोधी, घोर पूंजीवादी और हिंदूवादी नेता लाला लाजपत राय, जो आज होते, तो निश्चय ही आरएसएस और भाजपा के नेता होते, के लिए अपने जीवन की आहूति दे दी। ऐसे क्रांति-विरोधी नेता के लिए भगत सिंह और उनके साथियों ने शहादत देकर कौन सी क्रान्ति कर दी? क्या वह लालाजी के लिए शहादत देने के लिए बने थे, या देश को समाजवादी व्यवस्था देने के लिए? क्या भावुक राष्ट्रीयता के लिए फांसी पर चढ़ कर उन्होंने अपने शरीर के साथ-साथ, क्रान्ति के अपने सम्पूर्ण आन्दोलन को ही खत्म नहीं कर दिया था। उनकी शहादत के बाद क्या उनकी नौजवान सभा का आन्दोलन आगे बढ़ा? अपने जनेऊ का प्रदर्शन करने वाले चन्द्रशेखर आज़ाद, और अशफाक, बिस्मिल, सुखदेव, राजगुरु जैसे नौजवान सिर्फ भावुक राष्ट्रीयता के शिकार थे। वे भगत सिंह जैसे बौद्धिक नहीं थे, बस भावुक देशभक्त थे। किन्तु, अगर वे भावुक राष्ट्रीयता में न फंसे होते तो एक लम्बी उम्र जीते और भगतसिंह के नेतृत्व में जनता के बीच समाजवाद का ढांचा खड़ा करते। तब वह वास्तव में सच्ची क्रान्ति करते। वह लाला लाजपत राय के लिए नहीं बने थे, बल्कि दलितों, शोषितों, गरीबों, किसानों और मजदूरों का भाग्य बदलने के लिए बने थे। पर राष्ट्रीयता के गलत रास्ते पर जाकर वह अपने ही मिशन के विनाशक बने।
(28/4/2024)
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