गुरुवार, 13 फ़रवरी 2025

संत रैदास का बेगमपुरा : पहली व्याख्या

 

संत रैदास का बेगमपुरा : पहली व्याख्या

(कँवल भारती)


 

भारत की अवैदिक और भौतिकवादी चिन्तनधारा मूल रूप से समतावादी रही है। इसी को चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने भारत का मौलिक समाजवाद कहा है। इस मौलिक समाजवाद की अवधारणा हमें ‘बेगमपुर शहर’ में मिलती है, जो रैदास साहेब का बहुचर्चित पद है—

बेगमपुरा सहर को नाउ, दुखु-अंदोहु नहीं तिहि ठाउ

ना तसवीस खिराजु न मालु, खउफुन खता न तरसु जुवालु

अब मोहि खूब बतन गह पाई, ऊहां खैरि सदा मेरे भाई

काइमु-दाइमु सदा पातिसाही, दोम न सोम एक सो आही

आबादानु सदा मसहूर, ऊहाँ गनी बसहि मामूर

तिउ तिउ सैल करहिजिउ भावै, महरम महल न को अटकावै

कह ‘रविदास’ खलास चमारा, जो हम सहरी सु मीतु हमारा।

The regal realm with the sorrowless name

they call it Begumpura, a place with no pain,

no taxes or cares, none owns property there,

no wrongdoing, worry, terror, or torture.

Oh my brother, I've come to take it as my own,

my distant home, where everything is right...

They do this or that, they walk where they wish,

they stroll through fabled palaces unchallenged.

Oh, says Ravidas, a tanner now set free,

those who walk beside me are my friends.

(gururavidasstemplesacramento.com/begampura.html)

यह पद डेरा सच्चखंड बल्लां, जालन्धर के संत सुरिंदर दास द्वारा संग्रहित ‘अमृतवाणी सतगुरु रविदास महाराज जी’ से लिया गया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि असल नाम ‘रैदास’ है, ‘रविदास’ नहीं है। यह नामान्तर गुरु ग्रन्थ साहेब में संकलन के दौरान हुआ। जिज्ञासु जी ने इस सम्बन्ध में लिखा है, ‘यह पता नहीं चल सका कि गुरु ग्रन्थ साहेब में संत रैदास जी के जो 40 पद मिलते हैं, वे किसके द्वारा पहुंचे और उनमें रैदास को रविदास किसने किया? यह बात विचारणीय इसलिए है, क्योंकि ‘रैदास’ का ‘रविदास’ किया जाना संत प्रवर रैदास जी का ब्राह्मणीकरण है, जो रैदास-भक्तों में सूर्योपासना का प्रचार है।’ अन्य संग्रहों में रैदास साहेब का यह पद कुछ पाठान्तर के साथ मिलता है, और उसमें ‘रैदास’ छाप ही मिलती है। जिज्ञासु जी के संग्रह में इस पद के आरम्भ में यह पंक्ति आई है— ‘अब हम खूब वतन घर पाया, ऊँचा खैर सदा मन भाया।’

इस पद में रैदास साहेब ने अपने समय की व्यवस्था से मुक्ति की तलाश करते हुए जिस दुःखविहीन समाज की कल्पना की है, उसी का नाम बेगमपुरा या बेगमपुर शहर है। रैदास साहेब इस पद के द्वारा बताना चाहते हैं कि उनका आदर्श देश बेगमपुर है, जिसमें ऊँचनीच, अमीरगरीब और छूतछात का भेद नहीं है; जहाँ कोई टैक्स देना नहीं पड़ता है, जहाँ कोई संपत्ति का मालिक नहीं है; कोई अन्याय, कोई चिंता, कोई आतंक और कोई यातना नहीं है। रैदास साहेब अपने शिष्यों से कहते हैं, ऐ मेरे भाइयों, मैंने ऐसा घर खोज लिया है, यानी उस व्यवस्था को पा लिया है, जो हालाँकि अभी दूर है, पर उसमें सब कुछ न्यायोचित है। उसमें कोई भी दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक नहीं है, बल्कि सब एक समान हैं। वह देश सदा आबाद रहता है। वहां लोग अपनी इच्छा से जहाँ चाहें, जाते हैं, जो चाहे कर्म (व्यवसाय) करते हैं, उन पर जाति, धर्म या रंग के आधार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। उस देश में महल (सामन्त) किसी के भी विकास में बाधा नहीं डालते हैं। रैदास चमार कहते हैं कि जो भी हमारे इस बेगमपुरा के विचार का समर्थक है, वही हमारा मित्र है।

बेगमपुर’ की तुलना सर टामस मोर (1478-1535) की महत्वपूर्ण कृति ‘यूटोपिया’ से की जा सकती है, जो साम्यवादी काल्पनिक चिन्तन पर आधारित है। यह कृति ‘प्लेटो की परम्परा का नवीकरण करते हुए, स्वयं सोलहवीं सदी के पश्चात साम्यवादी कल्पना लोकों के सृजन में प्रेरणा का स्रोत बन गया। ‘यूटोपिया’ एक काल्पनिक द्वीप है, जिसका वर्णन एक पुर्तगाली यात्री रैफेल हिथलोडे प्रमुख पात्र के रूप में करता है। वह इंग्लैण्ड और पश्चिमी यूरोप में प्रचलित सामन्ती समाज के व्यवस्थागत दोषों की आलोचना करता है और यूटोपिया द्वीप की आदर्श साम्यवादी प्रणाली की प्रशंसा करता है।’

सर टामस मोर का यूटोपिया इतना लोकप्रिय हुआ कि उसी समय से यह दुनिया भर में एक आदर्श कल्पना के लिए रूढ़ हो गया। मोर का निष्कर्ष था कि सभी सरकारें धनिकों का षड्यंत्र हैं, जो जनहित के नाम पर धनिकों के लिए काम करती हैं। कल्पित समाजवाद पर आधारित यूटोपिया को दो खंडों में लिखा गया था। किन्तु रैदास साहेब की ‘बेगमपुर’ रचना केवल कुछ पंक्तियों की एक कविता है, जिसमें बेगमपुर देश के बाशिंदे उसी तरह दुःख से रहित हैं, जिस तरह यूटोपिया द्वीप के रहने वाले। अगर यूटोपिया इंग्लैण्ड की सामन्तवादी व्यवस्था की प्रतिक्रिया में लिखा गया था, तो ‘बेगमपुर’ सल्तनत काल की क्रूर राज्य-व्यवस्था और ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था के प्रतिरोध में उपजी कविता है। बेगमपुर में न कोई चिंता है, और न कोई घबराहट। यह इस बात को दर्शाता है कि सुल्तान के शासन में जनसामान्य को कितनी चिंताएं थीं, और भय तो हर वक्त बना रहता था— कि पता नहीं कब कौन किस अपराध में पकड़ लिया जायेगा। बेगमपुर में किसी तरह का कर नहीं देना पड़ता है. पर, सुल्तान के राज्य में कर देना पड़ता था। सबसे बड़ा जजिया कर था, जो गैर-मुसलमानों को देना पड़ता था। एफ. ई. की ने लिखा है कि गैर-मुसलमानों, ख़ास तौर से गरीब और कम पढ़े-लिखे हिन्दुओं पर जजिया कर का खौफ इतना ज्यादा था कि वे इससे बचने के लिए मुसलमान बनने के प्रलोभन से भी बच नहीं सकते थे। और कहना न होगा कि बहुत से गरीब हिन्दू जजिया से बचने के लिए मुसलमान बनकर अच्छी स्थिति को प्राप्त हो गए थे। बेगमपुर में कोई संपत्ति का मालिक नहीं है और न कोई दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक हैं, सभी समान हैसियत के हैं। जाहिर है कि सल्तनत काल में बड़ी संख्या में जमींदार, जागीरदार और भूस्वामी अस्तित्व में थे। वहां मुसलमानों को अव्वल, हिन्दुओं को दोयम तथा दलित-शूद्रों को तीसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता था। बेगमपुर हमेशा बुद्धिमान लोगों से आबाद रहता है, और वहां के लोग अपनी मूल आवश्यकताओं को पूरा करते हुए आनंद से जी रहे हैं। यह सल्तनत कालीन लोगों के अभाव-ग्रस्त जीवन और दारिद्रय का संकेत करता है, जहाँ श्रम करते हुए भी आम लोग अपनी मूल आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाते थे। बेगमपुर के निवासी स्वतंत्र हैं, वे कहीं भी घूम-फिर सकते हैं, उन पर (राज-) महल की कोई रोकटोक नहीं है। जाहिर है कि यह अस्पृश्यता के प्रतिबंधों को दर्शाता है, जिनके कारण बहुत से हिन्दुओं के स्थानों, कुओं, तालाबों और सरायों में दलित जातियों का प्रवेश सल्तनत काल में भी निषेध था।

इस प्रकार बेगमपुर शहर के ये निष्कर्ष हैं— (1) संपत्ति का स्वामी होना बुरा है, (2) कोई भी टैक्स देना बुरा है, (3) दोयम-सोयम दर्जे का नागरिक होना बुरा है, (4) अमीरी तथा गरीबी बुरी है, और (5) अस्पृश्यता बुरी है। इन निष्कर्षों को हम मार्क्स के समाजवादी तत्व-चिंतन की दृष्टि से नहीं देख सकते, हालाँकि संपत्ति पर वैयक्तिक स्वामित्व का विरोध उसके अनुकूल है, तथापि, एक समतामूलक समाज की दृष्टि से बेगमपुर सहर अपने समय से आगे की कल्पना थी। यह उस समय के दलित-चिंतन के लिहाज से क्रांतिकारी भी थी। इससे पता चलता है कि रैदास साहेब केवल कोरे कवि नहीं थे, बल्कि समाज-तत्व चिंतक भी थे, और उनके अंदर एक अर्थशास्त्री भी सक्रिय था. विचारणीय है कि बेगमपुर शहर की कल्पना किसी भी भक्तिकालीन हिन्दू संत कवि में नहीं मिलती है। इसके दो प्रमुख कारण हैं, एक, वे अमीरी और गरीबी को पूर्वजन्म का कर्मफल मानते थे, और दो, वे गरीब नहीं थे। ब्राह्मण सर्वत्र पूज्य था और दान में उसे भारी संपत्तियां मिलती थीं। क्षत्रिय भूस्वामी थे, और वैश्य व्यापारी था, इसलिए ये सभी वैयक्तिक संपत्ति के मालिक थे। यही वैयक्तिक संपत्ति कुछ लोगों की समृद्धि और बहुत से लोगों की गरीबी का कारण था। गरीबी एक बहुआयामी अवधारणा है, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तत्व शामिल हो सकते हैं। पूर्ण निर्धनता, अत्यधिक गरीबी, या अभाव का मतलब भोजन, वस्त्र और छत जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आवश्यक साधनों से पूर्णतया वंचित होना है। शूद्र-अतिशूद्र जातियों के लोग श्रम करके भी अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाते थे। इस प्रकार वर्णव्यवस्था ने एक ओर घोर सम्पन्नता पैदा कर दी थी, तो दूसरी ओर घोर विपन्नता, जिसका बहुत सजीव चित्रण कबीर ने किया है कि एक ओर गली गूदड़ी थी, और दूसरी ओर पलंग निवाड़ी थी, मोतियों के हार थे। रईसों के दरवाजों पर हाथी बंधे थे। यह उसी तरह का वर्णन है, जिस तरह सेंट बेसिल ने भोगविलास में लिप्त धनवानों के बारे में लिखा था कि ‘वे ऊँची नस्ल के घोड़ों को दूल्हों की तरह सजाकर रखते हैं, परन्तु अपने गरीब भाइयों को पहनने के लिए कपड़ा नहीं देते। उनके पास बहुत से रसोइए, हलवाई, नौकर, शिकारी, मूर्तिकार, चित्रकार और उन्हें हर तरह का सुख प्रदान करने वाले लोग होते हैं। वे ऊँटों, बैलों, भेड़ों और सुअरों के झुंडों के स्वामी हैं। वे दीवालों को फूलों से सजाते हैं, लेकिन गरीब साथियों को नंगा रहने देते हैं।’

पन्द्रहवीं सदी में अछूत जातियों की विपन्नता का अनुमान बीसवीं सदी में प्रकाशित दलित लेखकों की आत्मकथाओं से लगाया जा सकता है, जिनमें उनके आज़ादी के बाद के अभावपूर्ण जीवन का मार्मिक वर्णन मिलता है। उसकी तुलना में पांच सदी पहले दलित जातियों का जीवन कितना कष्टप्रद रहा होगा, यह सहज ही समझा जा सकता है। रैदास जिस चमार जाति से थे, उनका कुटुंब बनारस के आसपास मृतक ढोरों को उठाने का काम करता था। ऐसे परिवार में जन्मे रैदास का गरीब होना स्वाभाविक है। रैदास जी ने स्वयं लिखा है कि उनकी दशा ऐसी थी कि लोग उनकी गरीबी पर हँसते थे। डा. आंबेडकर का कथन है कि गरीब होना उतना बुरा नहीं है, जितना कि अछूत होना। गरीब व्यक्ति गर्व कर सकता है, पर एक अछूत नहीं। एक गरीब व्यक्ति ऊपर उठ सकता है, पर एक अछूत नहीं। रैदास गरीब भी थे, अछूत भी थे, इसलिए नीच भी. गरीबी विपन्नता के स्तर तक पहुँच गई थी। एक ही कपड़ा होता था, जो धोते-धोते फट जाता था। उसे वे जितना सीते थे, उतना फिर फट जाता था। नया बनाने की क्षमता नहीं होती थी। पर एक अछूत व्यक्ति को गरीबी के साथ-साथ सामाजिक अपमान भी झेलना होता है, जो पीड़ा देता है। अछूत की छूत सिर्फ कुछ लोगों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह पूरे जगत को लगती है। अछूत व्यक्ति जिस चीज को भी छूता है, वह अपवित्र हो जाती है। उसके स्पर्श से मन्दिर के देवता अपवित्र हो जाते हैं, सड़कें अपवित्र हो जाती हैं। उसके छूने से भोजन-पानी सब अपवित्र हो जाता है। यहाँ तक कि गंगा का पवित्र जल भी अपवित्र हो जाता है। ब्राह्मण निम्न जातियों के बर्तन में गंगा जल भी पीने से इनकार कर देते थे। उनके लिए अछूत घर में जन्म लेना ही अपराध था। एक ऐसा अपराध, जिसकी कहीं क्षमा नहीं थी। अछूत घर में जन्म लेते ही उस पर अस्पृश्यता के प्रतिबन्ध लागू हो जाते थे।

डा. आंबेडकर ने इसे हिन्दू कोड कहा है, जिसका उल्लंघन अपराध की श्रेणी में आता था। डा. आंबेडकर ने हिन्दू कोड के ऐसे पन्द्रह नियमों का उल्लेख किया है, जिनका उल्लंघन अपराध माना जाता था। उनमें मुख्य ये हैं, (1) सवर्ण हिन्दुओं की आबादी से अलग रहना, (2) दक्षिण दिशा में घर बनाकर रहना, (3) सवर्ण हिन्दू पर अपनी छाया नहीं पड़ने देना, (4) धन, जमीन या पशुओं के रूप में संपत्ति अर्जित नहीं करना, (5) घर पर छत नहीं डालना, (6) साफ़ वस्त्र, जूते, घड़ी और सोने के जेवर नहीं पहनना, (7) बच्चों के उच्चता बोधक नाम नहीं रखना, (😎 सवर्ण हिन्दू के सामने कुर्सी पर नहीं बैठना, (9) घोड़े और पालकी पर चढ़कर नहीं गुजरना, और (10) जुलुस या बरात नहीं निकालना। इन नियमों का उल्लंघन करने पर अछूतों की पूरी बस्ती को सज़ा दी जाती थी। और बेगार तो अछूत की नियति ही बनी हुई थी, जिसे प्रेमचन्द ने अपनी ‘सद्गति’ कहानी में अच्छी तरह दिखाया है। कोई भी सवर्ण अछूत को बेगार के लिए पकड़ लेता था, और काम कराने के बाद उसे पगार तक नहीं देता था। रैदास कहते हैं कि यह बेगार इतनी आतंकित थी कि जो चमार जूता गांठना (मरम्मत) नहीं भी जानता था, लोग उससे भी जबरन जूता गंठवाते थे.

रैदास साहेब के समय में सत्ता के दो केंद्र थे। एक केंद्र राजसत्ता का था और दूसरा धर्म की सत्ता का। धर्म की सत्ता के भी दो केंद्र थे, हिन्दू धर्म की सत्ता का केंद्र ब्राह्मणों के हाथों में था, तो इस्लाम की सत्ता का केंद्र काजी-मुल्ला के हाथों में। राजसत्ता में इन दोनों केन्द्रों का दखल रहता था। राजसत्ता दोनों के धार्मिक और सामाजिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती थी। ब्राह्मण और मुल्ला दोनों ही गरीबी और अमीरी को ईश्वरीय व्यवस्था मानते थे। हिन्दू धर्म के अनुसार अमीरी-गरीबी पूर्व जन्म का कर्मफल है। वह संसार को मिथ्या और ईश्वर को सत्य बताकर सांसारिक दुखों को माया कहता है। इसमें विश्वास करते हुए आज भी गरीब जनता को जो रूखी-सूखी मिलती है, वह उसी में संतोष करके भगवान को धन्यवाद देती है। इस्लाम भी लोक को अर्थात सांसारिक जीवन को वास्तविक जीवन नहीं मानता है। उसके अनुसार परलोक ही वास्तविक जीवन है। वह वर्तमान दुखों और अभावों के विरुद्ध संघर्ष को ‘बिगाड़’ कहता है, जिसे अल्लाह नापसंद करता है। कुरान में अल्लाह कहता है, ‘जो कुछ अल्लाह ने तुझे दिया है, उसके द्वारा ‘आखिरत’ (परलोक) में घर बनाने का उपाय कर। धरती पर बिगाड़ पैदा मत कर। अल्लाह बिगाड़ पैदा करने वालों को पसंद नहीं करता है।’ यहाँ बिगाड़ का अर्थ वर्ग-संघर्ष है। इस तरह हिन्दू धर्म की वर्णव्यवस्था जाति-संघर्ष को रोकती है, और इस्लाम वर्ग-संघर्ष को रोकता है। इस तरह ये दोनों धर्म-सत्ताएं समाजवाद की विरोधी हैं। हालाँकि, इस्लाम में इतना भाईचारा है कि उसमें अस्पृश्यता नहीं है, और मस्जिद में अमीर-गरीब सब साथ खड़े होते हैं। इस्लाम गरीबों, अनाथों, और कमजोरों के साथ अच्छा व्यवहार करने का आदेश देता है। किन्तु हिन्दू धर्म में यह उदारता भी नहीं थी। इसलिए सम्मान और समानता पाने के लिए अछूत जातियों के असंख्य लोग मुसलमान बन गए थे। इस धर्मांतरण को रोकने के लिए ही मध्यकाल में ब्राह्मणों ने भक्ति आन्दोलन खड़ा किया था, जिसका मकसद सिर्फ शूद्रों को कागजी वैष्णव बनाकर इस्लाम में जाने से रोकना था। किन्तु न तो इस तरह के वैष्णव बनने से और न मस्जिद की ऐसी समानता से, जो मस्जिद से निकलते ही लुप्त हो जाती थी, गरीबी और विपन्नता का निवारण हो गया था। शूद्र जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में भी कोई अंतर नहीं आया था। वह जस की तस थी। भक्ति-आन्दोलन के नेता जब यह कहते थे कि ‘हर का भजे सो हर का होई’ तो वे उनके बीच अमीर-गरीब और स्पृश्य-अस्पृश्य के भेदभाव की सच्चाई को नजरअंदाज कर देते थे। उनका यह कहना भी भ्रम था कि ईश्वर ने सबको समान पैदा किया है, क्योंकि समाज में अमीर और गरीब के साथ-साथ छोटे और बड़े लोग भी थे, जिनके बीच कोई समानता नहीं थी। ईश्वर की निर्मित दुनिया में शोषक लोग भी थे, जो धर्म-कर्म का ढोंग करते थे और उन्हें धर्म-सत्ता और राज-सत्ता दोनों में आदर प्राप्त था। ऐसी परिस्थितियों में निर्बल और अछूत जातियों पर शोषकों के अत्याचारों की कहीं सुनवाई नहीं थी। दास-प्रथा थी, और दासों की खरीद-फ़रोख्त होती थी। ‘तारीखे फीरोजशाही’ के अनुसार, दिल्ली सल्तनत के युग (1206-1526) में देश भर में दासों के क्रय-विक्रय की मंडियां थीं, जिनका मूल्य भी खिलजी ने तय किया हुआ था। किसानों की दशा तो अकथ थी, कहने से भी नहीं कही जा सकती थी। किसानों से बेगार लेते थे, उन्हें गालियाँ देते थे और अँधेरी कोठरियों में बंद करके उन्हें यातनाएं देते थे। कबीर साहेब ने एक ऐसे गाँव का वर्णन किया है, जिसमें ठाकुर खेत की गलत पैमाइश करता है, गाँव का काइथ (पटवारी) हिसाब-किताब नहीं रखता, और दोनों मिलकर किसान को मारते हैं। दीवान सुनता नहीं, और बलाहर उसे बंधकर ले जाता है। उनके भय से किसान गाँव छोड़कर भाग गए हैं।

रैदास साहेब के ‘बेगमपुरा’ की पृष्ठभूमि में इन्हीं उपर्युक्त वर्णित सत्ताओं का प्रतिरोध अभिव्यक्त हुआ है। इसलिए रैदास साहेब की ‘बेगमपुरा’ कविता, उनके निर्गुणवादी पदों की तुलना में, आध्यात्मिक अनुभूति की रचना नहीं है, वरन वह तत्कालीन समाज की सामन्तवादी व्यवस्था का साक्षात कराती है।यूटोपिया’ की संवाद शैली एक कठिनाई यह पैदा करती है कि प्रधान पात्र रैफेल के विचारों को किस सीमा तक टामस मोर का चिन्तन समझा जाए, परन्तु ‘बेगमपुरा’ के साथ यह समस्या नहीं है। उसमें व्यक्त विचारों का सीधा सम्बन्ध रैदास के विचारों से है, जिनमें वे एक ऐसी व्यवस्था की नींव रख रहे थे, जो समाजवाद की है। यह अद्भुत संयोग है कि मोर और रैदास दोनों समकालीन थे। मोर की मृत्यु 1535 में हुई थी और रैदास की 1520 में। और दोनों ने समाजवादी चिन्तन के इतिहास में पहली बार एक आदर्शोन्मुख समाजवाद की कल्पना की थी।

बेगमपुरा’ में रैदास साहेब अंत में कहते हैं, ‘जो हम सहरी सु मीतु हमारा।’ यह बड़ी प्यारी और दूर तक सन्देश देने वाली बात है। निश्चित रूप से पन्द्रहवीं सदी में शूद्र-अतिशूद्र वर्गों के लिए संगठनात्मक विद्रोह करना संभव नहीं रहा होगा। पर निर्गुणवाद में, जो समतामूलक समाज का दर्शन था, सामन्तवादी व्यवस्था के विरुद्ध संगठनात्मक विद्रोह के बीज बोए जा चुके थे। बेगमपुरा की अवधारणा पर सत्रहवीं शताब्दी में सतनामी नाम से एक हथियार-बंद संगठन का उदय उन्हीं बीजों का प्रस्फुटन था। पंजाब में रैदास के अनुयायियों ने ‘बेगमपुरा’’ के आधार पर ही वर्ष 2012 में एक राजनीतिक पार्टी ‘बेगमपुरा लोक पार्टी’ की स्थापना की थी, और अपने छह प्रत्याशियों को चुनाव लड़ाया था। यह कहना भी गलत न होगा कि रैदास साहेब की ‘बेगमपुरा’ की समाजवादी कल्पना ने ही डा. आंबेडकर को अभिभूत किया था, और उन्होंने उन्हें अपना गुरु स्वीकार किया था।

(25/1/2019)

 

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