इतिहास के रैदास (रविदास)
(कँवल भारती)
संत रैदास पर बुद्धिवादी दृष्टि से पहला काम 1960 में चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने किया था। उनकी किताब का नाम था ‘संत प्रवर रैदास’, जो दो खंडों में थी, और इसमें उन्होंने इतिहास के रैदास को खोजा था। जिज्ञासु जी के अनुसार रैदास का रविदास नामकरण गुरुग्रन्थ साहेब से आरम्भ हुआ। उन्होंने लिखा है कि ‘रविदास’ शब्द को लेकर गद्य और पद्य में बहुत कुछ लिखा मिलता है। एक रविदास-पंथ चल गया, और रविदास-पंथी साधुओं ने सूर्योपासना का खूब प्रचार किया। इस सूर्योपासना का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है : ‘फरुक्खाबाद जिले के नारायणपुर निवासी महर्षि रामदास जी तो इसका प्रचार कर ही रहे हैं, इधर सहिजनपुर, जिला लखनऊ के अड़बड़दासजी ने भी कई पुस्तकें छपा डालीं। इनमें एक पुस्तक का नाम ‘हरे रवि भजन माला सुमिरन’ है। इसमें 68 साखियाँ और रविनाम कीर्तन है। कीर्तन यह है—हरे रवि, हरे रवि, रवि-रवि हरे-हरे। हरे सूर्य, हरे सूर्य, सूर्य-सूर्य हरे-हरे।’ (पृष्ठ 90-91)
मतलब यह कि रविदास नाम की एक नई समानांतर धारा चली, जो निकली तो पंजाब से, पर फ़ैल सब जगह गई. हालाँकि इस धारा का जोर अभी भी पंजाब में ही ज्यादा है।
इतिहास और साहित्य में मूल अंतर यही है कि साहित्य कल्पनाओं से चलता है, और इतिहास में समय, परिवेश और परिस्थितियों का वर्णन होता है। अगर इतिहास को कल्पनाओं से चलाया जायेगा, तो इतिहास का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, लेकिन साहित्य का कबाड़ा हो जायेगा। इतिहास को तोड़-मरोड़ कर कल्पनाओं से सजाने का काम नया नहीं है, अनेक हिंदू इतिहासकारों ने भी, खासकर आरएसएस से जुड़े इतिहासकारों ने यह काम खूब किया है। उन्होंने प्रतिरोध के लगभग सभी नायकों को ब्राह्मण-भक्त बनाकर उन्हें ठिकाने लगा दिया है। यह इतिहास-लेखन नहीं है, बल्कि इतिहास के साथ छल है। उनके इस छल से न बुद्ध बच सके, न कबीर-रैदास और न आंबेडकर। मैंने फेसबुक पर इस छल की कुछ झलकियाँ डा. मनोज दहिया के लेख से दिखाई थीं। उस पर कुछ लोगों ने पूछा कि ‘फिर सत्य क्या है? आप बताएं?’ इस तरह के सवालों से पीड़ा होती है। अगर इस बात का खंडन किया जाए कि रैदास साहेब ने मंदिर में बैठकर भजन गाया था या पेट चीरकर जनेऊ दिखाया था, तो वे सवाल करेंगे कि फिर सत्य क्या है? इस तरह के सवाल वही लोग पूछते हैं, जिनके पास बुद्धि और वैचारिकी दोनों का अभाव होता है। जिनके पास रैदास साहेब की वैचारिकी होगी, वे इस तरह के सवाल नहीं पूछ सकते। इसलिए सबसे पहले जरूरत इस बात की है कि रैदास साहेब की वैचारिकी को समझा जाए। जब वे उनकी वैचारिकी को समझ लेंगे, तो सत्य भी जान जायेंगे। अगर इतिहास-बोध और वैचारिकी सामने हो, तो तार्किक विश्लेषण से सत्य सामने आ जाता है, और यह न हो, तो कुतर्क करते रहिए, उससे हासिल कुछ नहीं होगा।
मनोज दहिया के अनुसार रैदास जी का चमड़े का व्यापार था, या जूतों की फैक्ट्री थी, और वह समृद्ध परिवार से थे। क्या यह सच है? यह जानने के लिए सही आधार यही हो सकता है कि स्वयं रैदास जी ने अपने बारे में क्या कहा है। इस बारे में रैदास जी की वाणी में कुछ खास नहीं मिलता। कबीर साहेब ने अपनी जाति, अपने व्यवसाय और अपने परिवार के बारे में काफी कुछ लिखा है। उन्होंने कपड़ा बुनने की पूरी विधि का वर्णन किया है, बाजार में बुनकर के माल को किस तरह औने-पौने दाम पर ख़रीदा जाता है, यह बताया है, करघा और औजारों का जिक्र किया है। किन्तु रैदास साहेब की वाणी में उनके व्यवसाय से सम्बन्धित कोई वर्णन नहीं मिलता। जूता बनाने में किस-किस विधि का इस्तेमाल होता है, उसका भी कोई जिक्र रैदास जी ने अपने पदों में नहीं किया है। उनके कर्म और जाति के बारे में हमें दो पद मिलते हैं। ये पद भी रविदासिया पंथ के संग्रह में ही मिलते हैं। एक पद में कहा गया है—
चमरटा गांठि न जानई, लोग गठावैं पानही।
आर नहीं जेहि तोपउ नहिं रावी ठाऊ रोपऊ।
लोग गठि गठि खरा विगूचा हउ बिन गोठे जाउ पहुंचा।
रविदास जपै राम नाम मोहियम सिउ नाहीं कामा।
संत सुरिंदर दास बाबाजी ने इस पद की अलौकिक व्याख्या इस प्रकार की है : ‘चमड़े से बने हुए शरीर के साथ मैं झूठी प्रीति करना नहीं जानता। सांसारिक लोग मेरे पास शरीर रूपी जूते को गंठवाने भाव पदार्थों के साथ झूठी गाँठ पाने के लिए आते हैं।’ (अमृत वाणी सतगुरु रविदास महाराजजी, पृष्ठ 54)
सुरिंदर दास ने इस पद का लौकिक अर्थ क्यों नहीं किया? यह गलत अलौकिक अर्थ क्यों किया? यह तो वह जानें, पर इस पद का लौकिक अर्थ यह है कि इसमें रैदास साहेब साफ़-साफ़ कह रहे हैं कि वह जूता बनाने या जूता गांठने (मरम्मत करने) का काम नहीं जानते हैं। वह कहते हैं कि उनके पास न रांपी है, न कटन्नी है। इससे पता चलता है कि रैदास साहेब का जूता बनाने या जूता गांठने का पेशा नहीं था। हिन्दू लोग उन्हें जातीय रूप से अपमानित करने के इरादे से मरम्मत के लिए जूते लेकर आते थे। उस दौर में इस तरह का अपमान असम्भव नहीं है। यह जरूरी नहीं है कि जो चमार है, वह जूता ही बनाएगा। यह रूढ़ धारणा है कि रैदास चमार थे, तो जरूर जूता बनाने या गांठने का ही काम करते होंगे। इस रूढ़ धारणा से मुक्त होने की जरूरत है।
कोई कानपुर के महात्मा राम चरन कुरील हुए हैं, जिन्होंने ‘भगवान रविदास की सत्य कथा’ (1947) लिखकर उन्हें अवतारी भगवान बनाने का काम किया था। उन्होंने ऐसी-ऐसी कहानियां लिखी हैं, जिनका कोई सिर-पैर ही नहीं है। रैदास साहेब के पिता का नाम उन्होंने भी नहीं दिया। जिज्ञासु ने उनके पिता का नाम रघुराम दिया है। किन्तु पंजाबी रविदासिया वाले उनके पिता का नाम संतोख दास कहते हैं। न रघुराम का कोई ऐतिहासिक आधार है और न सतोख दास का। रैदास ने भी अपनी वाणी में अपने मातापिता का उल्लेख नहीं किया है। इसलिए कल्पनाएँ गढ़ने से कोई लाभ नहीं।
रविदसिया पन्थ के लोग कहते हैं कि रैदास साहेब की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी, क्योंकि उनके पिता की फैक्ट्री थी। लेकिन यह बात रैदास जी की वाणी से झूठी साबित होती है। रविदसिया पंथ के संग्रह में ही उनका यह पद मिलता है, जिसमें रैदास जी कहते हैं कि हम इतने गरीब थे कि लोग हमारी दशा पर हँसते थे। यथा : ‘दारिदु देखि सभ कोइ हँसै ऐसी दसा हमारी।’ एक और पद में वे अपने मैले और फटे कपड़ों की बात करते हैं, जो जितना सिलते हैं, उतना ही फटता जाता है। यथा :
मैला मैला कपड़ा केता, एक धोउ आवे आवे नीद कहालो सोऊ।
ज्यों ज्यों जोड़े त्यों त्यों फाटे, झूठे से बनिज जरै उटि गयो हाटे।
एक अन्य पद में रैदास जी अपनी जाति का भी जिक्र करते हैं। यह पद भी रविदासिया-पंथ के संग्रह में मिलता है। इसमें रैदासजी कहते हैं कि उनकी जाति चमार के नाम से विख्यात है, जिसके कुटुंब के लोग बनारस के आसपास रहते हैं और (मरे हुए) ढोर ढोने का काम करते हैं। यथा :
नागर जना मेरी जाति बिख्यात चमार।
मेरी जाति कुटबांडला ढोर ढोवंता
नितही बनारसी आसा पासा।
कबीर साहेब के साथ-साथ रैदास साहेब के बारे में भी बहुत सारी कहानियां गढ़ी गई हैं, जो निराधार हैं और इतिहास से भी उनका कोई संबंध नहीं है। जैसे, रैदास जी पूर्व जन्म में ब्राह्मण ब्रह्मचारी थे, और एक बार एक ऐसे बनिए से भिक्षा लेकर आ गए थे, जिसका चमारों के साथ लेनदेन था। जब उस सामग्री से ठाकुर जी को भोग लगा, तो ठाकुर जी ने भोग ग्रहण करने से इंकार कर दिया। तब रामानन्द ने पता लगाया कि आखिर बात क्या है, तो पता चला, कि ठाकुर जी को चमारों से संबंध रखने वाले बनिए के यहाँ से लाई गई सामग्री से भोग लगा है। वह बहुत क्रोधित हुए, और रैदास जी को अगले जन्म में चमार के घर पैदा होने का शाप दे दिया। शाप के फलस्वरूप रैदास जी का पुनर्जन्म एक चमार के घर में हुआ। पर उन्हें अपने ब्राह्मण होने की प्रतीति थी, इसलिए उन्होंने पैदा होते ही चमारी माँ का दूध पीने से इंकार कर दिया। माँ परेशान हो गई। गांव में रामानन्द की ही ख्याति थी। माँ रोती हुई रामानन्द के पास गई कि देखिए महाराज इसे क्या हुआ, दूध नहीं पी रहा है? तब रामानंद को ख्याल आया कि अरे यह तो अपना ही चेला है। तब उन्होंने बालक रैदास के कान में मंत्र फूंका, और उसे माँ का दूध पीने की आज्ञा दी, और रैदास जी ने दूध पीना शुरू कर दिया। क्या इस बे-सिर-पैर की कहानी पर विश्वास किया जा सकता है? क्या यह संभव है कि एक दिन का बच्चा दूध पीने से इंकार कर दे? चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने लिखा है कि यह कहानी अस्वाभाविक, अवैज्ञानिक और मिथ्या है, जो केवल ब्राह्मणी शाप के आतंक को स्थापित करने के लिए गढ़ी गई है।
एक कहानी यह भी गढ़ी गई कि रैदास जी ने अपने आपको ब्राह्मण सिद्ध करने के लिए अपना पेट चीरकर जनेऊ दिखाया था। ऐसा मानने वाले मूर्खों की कोई कमी अब भी नहीं है। कोई इनसे पूछे कि जनेऊ शरीर के ऊपर पहना जाता है या शरीर के भीतर? और शरीर के भीतर किसने और कैसे पहनाया होगा? क्या यह माना जा सकता है कि रैदास जी ने जनेऊ दिखाने के लिए पेट चीरने की मूर्खता की होगी? यह कहानी रैदास जी की तलवार से काटकर हत्या करने की घटना की आध्यात्मिक लीपापोती है। रैदास जी की यह हत्या संभवत: चित्तोड़ में ब्राह्मणों की साजिश से सामंतों ने तब की थी, जब वह मीराबाई के निमंत्रण पर चित्तोड़ गए हुए थे। यहाँ भी यह कहानी गढ़ी गई कि चित्तोड़ में रैदास जी ने कृष्ण के मंदिर में भजन-कीर्तन करके सत्संग किया था। एक निर्गुणवादी संत किसी सगुण की पूजा-अर्चना क्यों करेगा? वह क्यों मंदिर जायेगा, जबकि पूरा निर्गुण आन्दोलन मंदिर-विरोधी था?
निर्गुण का अर्थ सिर्फ यही नहीं है कि ईश्वर का कोई रूप-रंग नहीं है, न वह अवतार लेता है, न किसी को जन्म देता और मारता है, बल्कि यह भी है कि न कोई परलोक है, और न मोक्ष. फिर कठोती में गंगा वाली कहानी भी झूठी है। एक तो इसलिए कि रैदास जी जूता ही नहीं बनाते थे, तो कठोती क्यों रखेंगे? और, दूसरे इसलिए कि निर्गुणवाद गंगा क्या किसी भी नदी-पहाड़ में देवत्व को नहीं मानता। उनकी दृष्टि में गंगा केवल एक नदी थी, इसके सिवा कुछ नहीं। अवश्य ही नदियों का लौकिक महत्व है, पर पारलौकिक महत्व कुछ नहीं है। तीसरी बात यह भी उल्लेखनीय है कि “मन चंगा तो कठोती में गंगा” पद रैदास जी ने कहा था, यह उनकी वाणी में कहीं नहीं मिलता। यह रविदासिया रैदास-वाणी में भी नहीं है। यही नहीं, अब तक जितने भी पद और शब्द रैदास जी के मिले हैं, उनमें कहीं भी यह पद नहीं आया है। यह पद असल में गुरु गोरखनाथ का है, जो इस प्रकार है—
अवधू मन चंगा तो कठौती ही गंगा।
बांध्या मेल्हा तौ जगत्र चेला।
बदंत गोरख सति सरूप,
तत बिचारै ते रेष न रूप।
(गोरखबानी, सबदी, 153, पृष्ठ 53)
पता नहीं, गोरखनाथ का यह पद रैदास साहेब के नाम से कैसे प्रचलित हो गया? निस्संदेह यह उन्हीं ब्राह्मणों की कारस्तानी है, जिन्होंने रैदास को चर्मकार के रूप में गढ़ा। असल में ऐतिहासिक दृष्टि से रैदास साहेब को स्थापित करने की जरूरत है, किंवदंतियों और कहानियों के रैदास साहेब को नहीं।
(13/2/2022)
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