भारत में दलित वर्ग का भविष्य
- भगवान दास
(23 अप्रैल, 1927 - 18 नवंबर,2010)
(नोट: यद्यपि भगवान दास जी ने यह लेख 2001 में लिखा था परंतु इस में उन्होंने दलित वर्ग की जिन कमियों और कमजोरियों को चिन्हित किया था तथा दलित वर्ग के अंधकारमय भविष्य की भविष्यवाणी की थी, वह आज पूरी तरह से सही साबित हो रही है। अतः दलित वर्ग को इस लेख से सीखना चाहिए तथा अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए बौद्ध धर्म अपना कर अपने अंदरूनी जातिभेद को समाप्त कर एक मजबूत संगठन बना कर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए। दलितों को याद रखना चाहिए कि बाबासाहेब के जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज की स्थापना की जिम्मेदारी उन पर ही है.- एस आर दारापुरी)
किसी भी व्यक्ति, समुदाय या समूह के बारे में भविष्यवाणी करना संभव नहीं। भविष्य के बारे में जानने या बताने का दावा ज्योतिषी ही करते हैं जो अधिकतर तुक्केबाजी पर आधारित होता है और गलत सिद्ध होता है। परंतु फिर भी हमारे देश में अधिकतर लोग विशेष कर हिन्दू ज्योतिष पर अधिक विश्वास करते हैं। विवाह ज्योतिषी से शुभ मुहूरत पूछ कर सम्पन्न होते हैं। इमारतों की बुनियादें ज्योतिषियों से पूछ कर रखी जाती है। इलेक्शन के कागज ज्योतिषियों से पूछ कर दाखिल किए जाते हैं। परंतु फिर भी औरतें विधवा होती हैं, शादियाँ फेल होती हैं। इमारतें ढह जाती हैं और इलेकशनों में लोग हारते भी हैं और जीतते भी हैं।
परंतु वर्तमान के रहजनों (नेताओं) को देखते हुए और इतिहास के अनुभवों को सामने रखते हुए कुछ अंदाजे लगाए जा सकते हैं। वे भी कभी कभी गलत साबित हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर 19वी शताब्दी के आखिर में जर्मनी में जन्में प्रसिद्ध विद्वान और चिंतक कार्ल मार्क्स के अनुसार कम्युनिस्ट क्रांति से पहले दौर में प्रोलतारी डिक्टेटरशिप (सर्वहारा का अधिनायिकवाद) स्थापित होगी। फिर वह सोशलिज़्म (समाजवाद) स्थापित करेगी और अंत में कम्यूनिज़्म आएगा जिस में न कोई शोषक होगा न शोषित होगा। परंतु ऐसा कुछ हुआ नहीं। इसके विपरीत रूस में किया गया पहला तजुरबा फेल हो गया।
फिर भी तथ्यों को ठीक ढंग से इकट्ठा करने और उनका विश्लेषण करने से कुछ अंदाजे काफी हद तक ठीक साबित होते हैं। उदाहरण के तौर पर 1940 में पाकिस्तान की स्थापना के बारे में डा. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर द्वारा लिखी पुस्तक Thoughts on Pakistan (पाकिस्तान पर विचार) है जो बहुत हद तक सही साबित हुए।
दलित और अल्प संख्यक ग्रुप अनुसूचित जातियों तथा अल्पसंख्यक ग्रुपों- मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, फारसी, यहूदी आदि- में एक अंतर है। अल्पसंख्यक लोगों को जोड़ने वाला धर्म या नस्ल की पहचान है परंतु अनुसूचित जातियों को जोड़ने वाली केवल संविधान में दी गई एक सूची है, अलग पहचान नहीं।
1935 से पहले अछूत और पिछड़ी जातियों की एक लंबी लिस्ट थी परंतु उस जमाने में शूद्र और अछूत मानी जाने वाली जातियों में सवर्ण हिन्दू कहलाने का जुनून सवार था। हर जाति ब्राह्मण/ ठाकुर होने का दावा करती थी। कांग्रेस और अन्य हिन्दू राजनीतिक तथा सामाजिक पार्टियों ने अछूतों और पिछड़ी जातियों की इस कमजोरी का लाभ उठाने के लिए खूब जोरदार प्रोपेगंडा किया।
उनका हित यह था कि दलितों की संख्या बड़ी न दिखे और हिंदुओं की जनसंख्या कम न हो जाए। ब्रिटिश सरकार ने अस्पृश्यता से पैदा होने वाली कठिनाइयों को आधार या मापदंड से जोड़ा और नई सूची बनाई गई जिसे Scheduled Castes Order (शैडयूलड कास्ट्स आर्डर) कहा गया। इसमें 429 जातियाँ शामिल की गईं। इसमें भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जाटव जाति ने कई जगह सभाएं कीं और अनुसूचित जातियों में शामिल किए जाने के खिलाफ विरोध किया क्योंकि आर्य समाज के प्रोपेगंडा के शिकार हुए कुछ नेताओं का दावा था कि वे कृष्ण के वंशज हैं और राजपूत हैं। उन्हें चमारों की सूची में शामिल नहीं किया जाए। कुछ जिलों में जाटवों का नाम अनुसूचित जाति से काट दिया गया। धानुकों ने भी कुछ इसी प्रकार का विरोध किया। उनका नाम भी कुछ प्रदेशों में सूची से काट दिया गया। यही कुछ धोबी जाति के लोगों के साथ भी हुआ। हिमाचल में कोली “छोटे राजपूत” बनने की कोशिश कर रहे थे क्योंकि उनके ऊपर आर्य समाज का काफी प्रभाव था।
1949 में नया संविधान बनाया गया जो 26.11.1949 से लागू हुआ। नए संविधान में भी एक अलग सूची जोड़ी गई जो पुराने संविधान के मुकाबले बहुत लम्बी थी। इसमें 900 से भी अधिक जातियाँ शामिल हैं। नए संविधान में अनुच्छेद 341 के तहत प्रेज़ीडेंट को अनुसूचित जातियों को निर्दिष्ट करने का अधिकार दिया गया है और संसद को नाम जोड़ने या काटने का अधिकार दिया गया है। इस बात का फैसला संसद करती है कि कौन अनुसूचित माना जाए और कौन नहीं। 1930-35 में बहुत सी जातियाँ डिप्रेस्ड क्लास की सूची से बाहर निकलना चाहती थीं आज बहुत सी शामिल की जाने की मांग कर रही हैं।
इस प्रकार अनुसूचित जातियों की पहचान केवल संसद या सुप्रीम कोर्ट पर निर्भर करती है। उनको जोड़ने वाली और कोई चीज नहीं है। सूची से नाम काटे जाने पर वे कानून की दृष्टि में अछूत नहीं रहेंगी।
डा. बाबासाहेब अंबेडकर ने समूचे भारत के दलितों को जोड़ने के लिए कई तरह के प्रयास किए। पहला प्रयास महाराष्ट्र के चौदार तालाब से पानी लेने के लिए जन आंदोलन के रूप में 1927 में किया। संघर्ष में महारों के अतिरिक्त अन्य कई अछूत जातियों ने उस में सहयोग किया परंतु इस आंदोलन के बाद मानव और नागरिक अधिकारों के लिए कोई दूसरा आंदोलन नहीं चलाया गया। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शिक्षा का प्रचार तथा राजनीतिक अधिकारों के लिए बाबासाहेब ने संघर्ष जारी रखा और सफलता प्राप्त की।
दूसरा प्रयास राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए किया गया। पहली राजनीतिक पार्टी Independent Labour Party (स्वतंत्र मजदूर पार्टी) थी जिसकी स्थापना 1936 में की गई परंतु यह केवल अछूतों की पार्टी नहीं थी। इसका उद्देश्य मजदूर वर्ग का अधिक उत्थान करना था। इसमें महार, चमार, मांग, मेहतर आदि जातियों के इलावा सवर्ण हिन्दू भी सदस्य विधायक बने परंतु इसका कार्यक्षेत्र बंबई प्रांत ही था।
दूसरा प्रयास 1942 में हुआ जब अछूतों के इतिहास में पहली बार अछूतों की एक स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की गई। इस पार्टी का नाम Scheduled Castes Federation (शैडयूलड कास्ट्स फेडरेशन) रखा गया। इस पार्टी में कई अछूत जातियों के लोग शामिल हुए और ऊपरी तौर पर एक संगठन बना। परंतु यह संगठन राजनीतिक लाभ के लिए था, इसकी बुनियाद कमजोर थी। सबसे बड़ी कमजोरी अछूतों की जाति व्यवस्था थी। चमार, खटीक, भंगी, मेहतर, धोबी, मला, मादिगा आदि जातियाँ केवल भिन्न भिन्न पेशों के आधार पर बनी हैं परंतु हिन्दू धर्म की शिक्षा और दुष्प्रभाव के कारण वे एक दूसरे को ऊंचा नीचा समझती हैं और छुआछूत भी करती हैं। ऐसी परिस्थिति में एक संगठन बनना संभव नहीं। इसी कारण जब अत्याचार होते हैं वे एकजुट हो कर न तो मुकाबला कर पाते हैं न ही सहायता।
जातियता के भाव इस कादर मजबूत हैं कि एक जाति के लोग एक धर्म में चले जाएं तो दूसरे धर्म के लोग उस धर्म से दूर रहेंगे। अगर एक जाति के लोग एक पार्टी में चले जाएं तो दूसरी जाति के लोग उससे दूर रहेंगे। पार्टी के अंदर भी पदों और टिकट बाँटते समय जाति का बहुत ख्याल रखा जाता है। इस कारण हर पार्टी एक जाति की पार्टी बन कर रह जाती है जैसाकि महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी या उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी। जातियता के कारण बहुत सी पार्टियां वजूद में आ जाती हैं पर अच्छा संगठन बन नहीं पाता।
बाबासाहेब ने तीसरा प्रयास धर्म परिवर्तन के जरिए करने की कोशिश की परंतु इस आंदोलन को चलाने के 53 दिन बाद ही उनका देहांत हो गया। और धर्म आंदोलन जो जाति व्यवस्था को तोड़ कर एक नई पहचान वाली इकाई बना सकता था, वह नहीं बन पाया। धर्म परिवर्तन उन्हीं कमजोरियों का शिकार हो गया जिसका शिकार राजनीतिक आंदोलन हुआ था।
इस आंदोलन की लीडरशिप में अधिकतर राजनीतिक नेता थे, वे धर्म परिवर्तन आंदोलन को सही दिशा नहीं दे सके। उन्होंने राजनीति और धर्म को एक ही तरीके से चलाने की कोशिश की। उससे धर्म के आंदोलन को अधिक नुकसान पहुँचा।
बाबासाहेब ने उन्नति और प्रगति के लिए कई तरीके बताए थे और संविधान में कई प्रावधान किए थे। उनका लाभ अछूत जातियों को पहुँचा है बावजूद इस बात के कि उन्होंने सभी अछूतों की जागृति और उत्थान के लिए काम किया। उनके अनुयायी बहुत कम थे। अधिकतर लोगों ने उन प्रावधानों और सुविधाओं का लाभ तो उठाया परंतु उनकी शिक्षा को स्वीकार नहीं किया। वे हिन्दू धर्म और जाति व्यवस्था की गुलामी से आजाद नहीं होना चाहते थे। सदियों से गुलामी का शिकार रहने के कारण वे गुलामी से प्यार करने लगे थे।
बाबरी मस्जिद तोड़ने के बाद पिछड़ी जातियों के भारतीय जनता पार्टी के मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के भाषण इस का अच्छा सुबूत हैं।
आज समूचे भारत में एक ओर तो दलितों पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं, आरक्षण का विरोध बढ़ता जा रहा है। निजीकरण के जरिए उन्नति के दरवाजे बंद होते जा रहे हैं, दूसरी ओर दलित किसी एक क्षेत्र में भी संगठित नहीं। वे नवयुवक जो राजनीति को अपना कर कार्यक्षेत्र बनाना चाहते हैं वे दरअसल राजनीति में नहीं बल्कि संसद और विधान सभा में दाखिल होना ही राजनीति समझते हैं। संघर्ष, त्याग, कुर्बानी तथा जन आंदोलन का कठिन रास्ता अपनाने की बजाए वे उन पार्टियों में शामिल हो जाते हैं जिनके द्वारा उन्हें जीतने की अधिक आशा है या जो उन्हें अधिक पैसे दे सकते हैं। संसद और विधान सभा में वे अपने स्वामियों के अधिक वफादार रहते हैं। दलितों की नज़रों में राम न तो उनके आदर्श पुरुष हीरो हैं न भगवान क्योंकि वह ब्राह्मणवाद और वर्णव्यवस्था का समर्थक था और जब होश आया तो सरजू नदी में जलसमाधि लेकर आत्महत्या करके मर गया परंतु शूद्र जातियों के लोग अज्ञानता और राजनीतिक स्वार्थवाश अपने स्वामियों से आवाज मिला कर उसके गुणगान कर रहे हैं। इससे बढ़ कर पिछड़ापन और गुलामी का और क्या सुबूत हो सकता है।
गरीब/मजदूर और कमजोर लोगों के हितों, जमीन का बंटवारा, बेकारी के खिलाफ लड़ाई, महंगाई, भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन यह पार्टियां नहीं चलाती है न “राजनैतिक नौकरियां” ढूँढने वाले नौजवान। वह तो इस किस्म के “फजूल” कामों में कोई विश्वास नहीं रखते। सत्ता हमारे हाथ में ऐसे आ जाएगी फिर हम जो चाहेंगे कर लेंगे। किसी जमाने में कांग्रेस भी ऐसे ही नारे लगाया करती थी। बहुजन समाज पार्टी भी ऐसे ही नारे लगाती थी परंतु हाथ में सत्ता आ जाने पर दलित उत्थान के लिए कुछ भी नहीं किया।
अछूत जमीन के बंटवारे का आंदोलन नहीं चला पाए जबकि रिपब्लिकन पार्टी ने इसके महत्व को समझते हुए एक बड़ा आंदोलन 1964-65 में चलाया था और बड़ी सफलता भी प्राप्त की थी। खेत मजदूर, छोटा किसान, दस्तकार, अछूत और पिछड़े वर्ग का व्यक्ति इसे अपनी पार्टी समझने लगा था परंतु उसका शहरी लीडर शहरी समस्याओं में उलझ कर रह गया। वह पार्टी लीडरशिप की कमजोरियों तथा जाति व्यवस्था और गलत इलेक्शन कानूनों के कारण टुकड़ों में बंट गई। कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों ने उसे तोड़ने में बड़ा काम किया क्योंकि वह उनके लिए बड़ा खतरा बनती जा रही थी।
जातियता के भाव के कारण अछूत संगठित नहीं हो सके। उन्हें जाति से इतना प्यार है कि वे विदेशों में जा कर भी इसका मोह नहीं छोड़ पाते। ऊंच-नीच, नफरत और घृणा के रहते संगठन संभव नहीं।
इलेक्शन द्वारा आज प्रचलित कानूनों और पद्धति के रहते वे कभी राजनीतिक शक्ति हासिल कर सकेंगे संभव नजर नहीं आता।
आरक्षण से कुछ लोगों को लाभ हुआ है परंतु आरक्षण से लाभ उठाने वालों में से बहुत कम लोगों ने समाज को उठाने का काम किया है परंतु आरक्षण हमेशा रहने वाली चीज नहीं है। यदि शिक्षित लोगों की संख्या बढ़ जाती है और शिक्षित नवयुवकों में बेरोजगारी बढ़ जाती है तो आरक्षण बेमानी हो जाएगा।
हिन्दू धर्म और वर्ण व्यवस्था को आदर्श मान कर चलने वाले लोग रोज बरोज शक्तिशाली बनते जा रहे हैं। वे रामराज्य (हिन्दू राष्ट्र) स्थापित करना चाहते हैं और काफी बड़ी संख्या में दलित और शूद्र जातियों के लोग रामराज्य स्थापित करने में उनकी मदद कर रहे हैं। राम राज्य का मतलब होगा वर्णव्यवस्था और सवर्णों का राज। यह संविधान जो समता का दावा करता है, अधिकारों की बात करता है राम राज में खत्म कर दिया जाएगा क्योंकि रामराज्य असमानता का राज्य था। अन्याय का राज्य था जिसमें शूद्र और स्त्री को इज्जत से जीने का अधिकार नहों था।
इन हालातों में अछूतों का भविष्य खतरे में है। उनका कोई मित्र नहीं और कोई सहयोगी नहीं। कुछ लोग छिटपुट तरीके से सत्ता में आने के लिए संगठन बना पा रहे हैं परंतु संगठित नहीं हो पाते। सबसे दयनीय हालत उनकी नजर आती है जो अम्बेडकरवादी होने का दावा करते हैं। अब लोग उन पर हंसने लगे हैं क्योंकि जहां वह मंच पर ब्राह्मणों की आलोचना करते हैं वहीं दैनिक जीवन में उन्हीं के बनाए हुए नियम, ऊंच- नीच, अंधविश्वास, रीति रिवाजों पर अमल करते हैं। वे बौद्ध धर्म को अपना कर भी महार, चमार, भंगी, खटीक बने रहने में कोई गलती नहीं मानते हैं। वे इतिहास से कुछ भी सीखना नहीं चाहते।
इन परिस्थितियों और कमजोरियों को देखते हुए दलितों का भविष्य अंधकारमय लगता है। “हिन्दुत्व” के नशीले और खतरनाक नारे दलितों को बहुत नुकसान पहुंचाएंगे। गांधी और कांग्रेस ने उन्हें संगठित होने से रोका था और अपनी पहचान बनाने में बाधाएं डाली थीं। उन्हें दूसरे अल्पसंख्यकों से दूर रखने की कोशिश की थी। उसका मुख्य कारण था कि वे हिन्दू धर्म को मजबूत बनाना चाहते थे। कांग्रेस में लीडरशिप तथाकथित ऊंची जातियों के लोगों के हाथों में थी।
अब हिन्दुत्व का नारा लगा कर सत्ता में आई पार्टी भी वही कर रही है जो कांग्रेस करती आई थी। अछूतों को सिक्खों से लड़ायो और फिर उनके मुंह पर कालिख पोत कर बदनाम करो। अछूतों को मुसलमानों से लड़ाओ ताकि वे इकट्ठा न हो सकें। अछूतों में हिन्दू रीति रिवाजों को और जातियता को बढ़ावा दो ताकि वे संगठित न हो सकें और उनके लिए खतरा पैदा न कर सकें। दोनों पार्टियों के तरीकों में फर्क हो सकता है परंतु उद्देश्यों में नहीं।
दलितों का हित इस बात में है कि वे बाबासाहेब अंबेडकर के दिखाए रास्ते पर चल कर जातियता, रूढ़िवाद, रीति रिवाज की गुलामी से आजाद हो कर अपनी अलग पहचान बनाएं। अपने जीवन से हिन्दू धर्म के असर और निशानों को जहर समझ कर निकाल दें। साफ शब्दों में वे अपने आप को हिन्दू धर्म की गुलामी से आजाद कर लें। अपने नाम, जीवन पद्धति, खान पान, लिबास सब कुछ अलग कर लें, अपनी अलग पहचान बनाएं। बौद्ध धर्म के उसूलों पर आधारित एक नए समाज, एक नई सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करें। तभी वे आने वाले समय में इज्जत के साथ जी सकेंगे और अपनी तरह के शोषण के शिकार लोगों को मुक्त करा सकेंगे।
हिन्दू धर्म दलितों की गुलामी, पिछड़ापन, गरीबी, अनपढ़ता, अज्ञानता, मानसिक और शारीरिक कमजोरी और असंगठन का मुख्य कारण हैं। उन्नति, प्रगति एवं सम्मान पूर्वक जीवन के लिए पूर्ण तौर पर इस गुलामी से आजाद होना इतना ही जरूरी है जितना एक गुलाम देश के लिए स्वतंत्र होना जरूरी है।
(भगवान दास डा. अंबेडकर के सहयोगी थे। उन्होंने ने ही भारतीय उपमहादीप में छुआछूत के मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया था। 1983 में उन्होंने इस मुद्दे को यूएनओ में प्रस्तुत किया था)
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