गुरुवार, 18 मई 2017

सहारनपुर में शब्बीरपुर के दलितों पर हमले की जांच रिपोर्ट

सहारनपुर में शब्बीरपुर के दलितों पर हमले की जांच रिपोर्ट



उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जनपद में शब्बीरपुर गाँव के दलितों पर हमलेआगजनी तथा तोड़फोड़ की घटना 5 मई, 2017 को घटित हुयी जिस में 14 दलित बुरी तरह से घायल हुए थेलगभग 60 घर जलाये गए तथा लूटपाट की गयी. इस घटना की जांच 8 राज्यों: दिल्लीहरियाणाराजस्थानमहाराष्ट्रपंजाब,छत्तीसगढ़तमिलनाडु तथा उत्तर प्रदेश के सामाजिक संगठनों के 28 प्रतिनिधियों के जांच दल द्वारा दिनांक 14  15 मई को सहारनपुर जाकर की गयी. जाँच से निमंलिखित तथ्य प्रकाश में आये:
घटनाक्रम:
दिनांक 5 मई को सहारनपुर जनपद के सिमलाना गाँव में राजपूतों द्वारा महाराणा प्रताप जयंती का आयोजन किया गया था जिस में स्थानीय प्रशासन द्वारा केवल जनसभा करने की अनुमति दी गयी थी तथा किसी भी प्रकार का जुलूस निकलने की मनाही थी. शब्बीरपुर गाँव में चमारों की लगभग 700 तथा राजपूतों की 1500 की आबादी है. कुछ दलितों के पास ज़मीन है तथा वे अपेक्षतया साधन संपन्न हैं और राजनीतिक तौर पर काफी सक्रिय हैं.
उस दिन ग्राम शब्बीरपुर के कुछ राजपूत लड़कों द्वारा बिना किसी अनुमति के डीजे आदि के साथ हाथ में तलवारें लेकर जुलूस निकाला गया. जब यह जुलूस दलित आबादी के पास पहुंचा तो उन्होंने जोर जोर से डीजे बजाना तथा महाराणा प्रताप की जय के साथ साथ आंबेडकर मुर्दाबाद के नारे लगाने शुरू कर दिए. इस पर दलितों ने आपत्ति की तथा पुलिस को सूचना दी. इस पर पुलिस ने आ कर डीजे बंद करवा दिया तथा जुलुस को आगे बढ़ा दिया.
इसके थोड़ी देर बाद वही लड़के 25-30 मोटर साईकलों पर दलित आबादी की तरफ वापस आये तथा वहां उपस्थित पुलिस तथा दलितों से झगड़ने लगे कि आप लोगों ने हमारा डीजे क्यों रुकवा दिया है. उस समय उनके हाथों में तलवारेंडंडे तथा असलाह आदि थे. उन्होंने रविदास मंदिर में लगी संत रविदास की मूर्ती तोड़ी तथा रविदास मंदिर में आग लगायी.  इस पर दलितों ने अपने घरों पर हमले की आशंका होने पर आत्मरक्षा में छत्तों से ईँट पत्थर आदि फेंकने शुरू कर दिए. इस पर उपस्थित पुलिस ने उन्हें खदेड़ कर वापस धकेल दिया.
ज्ञात हुआ है इस हमले के दौरान एक राजपूत लड़के (सुमित) जिसने मंदिर में घुस कर तोड़फोड़ की थी तथा आग लगायी थी बेहोश हो गया था और बाद में संदेहजनक परिस्थितियों में मौत हो गयी थी जिसकी मौत का कारण दम घुटना पाया गया था. घटनास्थल पर इस प्रकार की कोई भी परिस्थिति नहीं थी जिससे से यह कहा जा सके कि उस लड़के को दलितों ने ही मारा था. उसके शारीर पर किसी भी प्रकार की चोट नहीं पायी गयी थी तथा मृत्यु का कारण दम घुटना पाया गया था. उस समय हमलावर भीड़ उक्त लड़के को मोटर साईकल पर बैठा कर अपने साथ ले गयी थी और इस के बारे में हमलावरों ने जयंती सभा स्थल पर वापस जा कर यह अफवाह उड़ा दी कि दलितों ने दो राजपूत लड़कों को मार दिया है. इस पर डेढ़ दो हज़ार की भीड़ मोटर साईकलों पर सवार होकर हाथ में तलवार, भाले तथा बंदूकें लेकर दलित आबादी पर हमलावर हुयी. उन्होंने दलित आबादी में पहुँच कर घूरेखलिहान तथा घरमोटर साईकलेंकपड़ेअनाज जलाना तथा सामान तोड़ना शुरू कर दिया. इस हमले से डर कर अधिकतर दलित घर छोड़ कर खेतों की तरफ भाग गए. इस बीच हमलावरों ने चुन चुन कर दलितों के घरों में तोड़फोड़ कीऔरतोंबच्चों और बूढों को बुरी तरह से तलवारलाठी तथा डंडे आदि से घायल कियाऔरतों तथा लड़कियों के साथ बदतमीज़ी कीउनके कपड़े फाड़े तथा बचने के लिए भाग रही औरतों तथा लड़कियों का पीछा किया. हमलावरों ने जानवरों तक को भी नहीं बखशा तथा गाय और भैसों आदि को भी तलवारों से घायल किया. हमलावरों का यह तांडव दो तीन घंटे तक चलता रहा. वहां पर मौजूद पुलिस ने हमलावरों को रोकने के लिए कोई भी कार्रवाही की. हमलावरों ने फायर ब्रिगेड तथा एम्बुलेंस को भी घटनास्थल पर पहुँचने नहीं दिया. बाद में जिलाधिकारी तथा पुलिस अधीक्षक ने फोर्स सहित पहुँच कर हमलावरों को तितर बितर किया. यदि ऐसा नहीं होता तो शायद वहां पर और भी संगीन वारदात हो सकती थी. उसी भीड़ ने वापसी पर पास में महेशपुर गाँव में भी चुन चुन कर चमार जाति के लोगों की दुकानों को भी जलाया.
जाँच के दौरान ज्ञात हुआ है कि शब्बीरपुर में दलितों और कुछ राजपूतों में पहले से ही थोड़ा तनाव था. एक तो उस गाँव में ग्राम प्रधान की सामान्य सीट पर दलित ग्राम प्रधान ही जीत होना था. दूसरे पिछली आंबेडकर जयंती पर दलित रविदास मंदिर के प्रांगण में आंबेडकर की मूर्ति लगाना चाहते थे जिसके के लिए मूर्ति बनवा ली गयी थी और चबूतरा भी बना लिया गया था परन्तु गाँव के कुछ राजपूतों ने प्रशासन से बिना अनुमति के मूर्ति लगाने की स्थानीय विधायक से शिकायत करके उसकी स्थापना रुकवा दी थी. इस पर दलितों ने प्रशासन से अनुमति लेने के लिए प्रार्थना पत्र दे दिया था जिसके पक्ष में कुछ राजपूतों ने भी संस्तुति की थी. अभी यह मामला विचाराधीन ही था कि उक्त घटना घट गयी. दरअसल इस घटना की शुरुआत कुछ शरारती तत्वों द्वारा जबरदस्ती जुलूस निकाल कर तथा दलित आबादी के पास आंबेडकर के खिलाफ आपत्तिजनक नारे लगा कर की गयी थी. लगता है पुलिस प्रशासन को इस प्रकार की किसी घटना का कोई भी पूर्वानुमान नहीं था.
कार्रवाही:
पुलिस ने अभी तक 17 लोगों को गिरफ्तार किया है जिनमे 8 दलित हैं तथा 9 राजपूत हैं. घायलों का इलाज स्थानीय अस्पताल में चल रहा है. गंभीर रूप से घायल एक लड़का जौली ग्रांट अस्पताल में भर्ती है. इस सम्बन्ध में कुल 6 मुकदमें दर्ज किये गए हैं.
हमारा जांच दल स्थानीय जिलाधिकारी तथा पुलिस अधीक्षक से भी मिला तथा उनसे अब तक की गयी कार्रवाही की जानकारी प्राप्त की एवं उन्हें अपने सुझाव भी दिए. जिलाधिकारी ने बताया कि सभी घायलों को चोटों की गंभीरता के अनुसार आर्थिक सहायता दे दी गयी हैदलितों के घरों में हुए नुक्सान का आंकलन कर लिया गया है और घटना से प्रभावित दलितों को एससी/एसटी एक्ट के अंतर्गत भी मुयाव्ज़ा देने की कार्रवाही चल रही है. पुलिस अधीक्षक ने बताया कि इस मामले में शामिल सभी राजपूत हमलावरों की पहचान कर ली गयी है और उनकी शीघ्र ही गिरफ्तारियां की जाएँगी. हम लोगों ने उन्हें निर्दोष लोगों को बचाने का अनुरोध भी किया.
आंबेडकर जुलूस प्रकरण:
जांच दल की एक टीम ने सहारनपुर शहर से सटे ग्राम सड़क दूधली जाकर 20 अप्रैल को भाजपा सांसद राघव लखनपाल शर्मा द्वारा जबरदस्ती आंबेडकर जुलूस निकलवा कर दलितों और मुसलामानों को लड़वाने के प्रयास की भी जांच की. जांच से पाया गया की शर्मा द्वारा उक्त कृत्य आगामी स्थानीय निकाय के चुनाव में अपने भाई को मेयर का चुनाव लड़ाने के ध्येय से दलित-मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण करने के इरादे से किया गया था जिसमे दलितों ने उनका साथ नहीं दिया. पुलिस द्वारा जुलूस रोक देने पर उक्त सांसद द्वारा पुलिस अधीक्षक के आवास पर स्थित कार्यालय में घुस कर तोड़फोड़ की गयी थी परन्तु उसके लिए आज तक उसके विरुद्ध कोई भी कार्रवाही नहीं की गयी है. इस मामले में पुलिस द्वारा मुस्लिम तथा दूसरे पक्ष के 5-5 लोगों को गिरफ्तार किया गया है.
शब्बीरपुर के दलितों पर हमला पूर्वनियोजित था:
जांच के दौरान यह भी ज्ञात हुआ कि दलितों पर हमला पूर्वनियोजित था क्योंकि उस दिन प्रातः ही दलित ग्राम प्रधान शिव कुमार को यह सूचना मिली थी कि आज गड़बड़ी हो सकती है। इस पर उसने प्रशासन को तुरंत फोन करके सुरक्षा प्रबंध करने के लिए कहा था परंतु इस पर कोई भी कार्रवाही नहीं की गई।
दलितों पर हमले के पूर्वनियोजित होने का यह भी प्रमाण है कि दलितों के घरों को जलाने के लिए पेट्रोल के गुबारों का इस्तेमाल किया गया जो पूर्व योजना के बिना संभव नहीं है। इसकी पुष्टि हमले तथा आगजनी के दौरान घरों में मौजूद रहे औरतों तथा बच्चों ने की है। विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है उस दिन प्रातः उक्त गांव में जो राजपूत लड़के जुलूस लेकर चले थे उनकी मोटर साइकलों की डिग्गियों में पेट्रोल से भरे गुबारे रखे हुए थे जिनका इस्तेमाल घरों में आग लगाने के लिए किया गया। अतः दलितों पर हमले की इस साजिश की गहराई से जांच की जानी चाहिये।
पुलिस की संदेहजनक भूमिका:
इस प्रकरण में पुलिस की भूमिका भी बहुत आपत्तिजनक रही है क्योंकि राजपूतों द्वारा पहले 20-25 के झुंड तथा बाद में बड़ी भीड़ द्वारा हमले के दौरान पुलिस बराबर मौजूद थी परंतु उन्होंने हमलावरों को रोकने के लिए कोई भी कार्रवाही नहीं की। अतः इस प्रकरण में पुलिस की भूमिका की भी जांच करके दोषियों को दंडित किया जाना चाहिए।
भीम सेना प्रकरण:
जांच दल द्वारा 9 मई को भीम सेना के सदस्यों द्वारा शब्बीरपुर में दलितों पर हुए हमले को लेकर मीटिंग तथा प्रशासन से झड़प के सम्बन्ध में भी जानकारी प्राप्त की गयी. जांच के दौरान ज्ञात हुआ कि 9 मई को भीम सेना ने शब्बीरपुर के मामले में दोषियों के विरुद्ध कार्रवाही करने तथा दलितों को मुयाव्ज़ा आदि देने की मांग को लेकर रविदास छात्रावास में मीटिंग बुलाई थी परन्तु पुलिस द्वारा उन्हें उक्त मीटिंग नहीं करने दी गयी तथा उन्हें गाँधी मैदान जाने के लिए कहा गया. वहां पर भी पुलिस ने उन्हें बलपूर्वक खदेड़ दिया जिस पर वे शहर में बिखर गए. उन्होंने शहर में प्रवेश करने वाली सड़कों पर जाम लगा दिया जिसे खुलवाने के प्रयास में प्रशासन के साथ झडपें हुयीं जिसमे कुछ अधिकारियों को चोटें भी आयीं तथा कुछ वाहन भी जला दिए गए. वास्तव में यह टकराव दुर्भाग्यपूर्ण था और नहीं होना चाहिए था. पुलिस ने इस सम्बन्ध में भीम सेना के लोगों के विरुद्ध कई मामले दर्ज किये हैं और अब तक 31 गिरफ्तारियां की गयी हैं और प्रशासन भीम सेना के पदाधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाही करने के साक्ष्य जुटा रहा है. इस सम्बन्ध में हम लोगों ने पुलिस अधीक्षक से केवल दोषी व्यक्तियों के विरुद्ध ही कानून के अनुसार कार्रवाही करने तथा निर्दोषों को प्रताड़ित न करने का अनुरोध किया.
जांच के निष्कर्ष:
1.       जांच से पाया गया कि ग्राम शब्बीरपुर में घटना का मुख्य कारण गाँव के कुछ शरारती तत्वों द्वारा बिना अनुमति के जुलूस निकालनेदलित आबादी में जाकर आंबेडकर विरोधी नारे लगाने एवं डीजे बजा कर दलितों को आतंकित करनेडीजे को रोके जाने पर दलित बस्ती पर हमला करने और दलितों द्वारा दो राजपूत लड़कों को मारे जाने की अफवाह फ़ैलाना था जिस कारण सभा स्थल से भीड़ ने आ कर दलितों पर हमला किया.
2.       पुलिस द्वारा इस प्रकार की घटना का पूर्वानुमान न लगा पाना तथा हमलावरों के सामने रोकथाम की कार्रवाही न करने के कारण दलित बस्ती पर इतना वीभत्स हमला संभव हो सका.
3.       इस घटना के पीछे 20 अप्रैल को ग्राम सड़क दूधली में भाजपा के सांसद राघव लखनपाल शर्मा द्वारा आंबेडकर जुलूस निकाल कर दलित-मुस्लिम दंगा करवाने की साजिश के विफल होने तथा सांसद के विरुद्ध कोई भी कार्रवाही न होने के कारण हिंदुत्व की ताकतों का मनोबल बढ़ गया है जिस कारण उन्होंने बिना अनुमति के जुलूस निकाला और दलितों द्वारा विरोध करने पर उनकी बस्ती पर हमला किया गया. जांच दल का यह निश्चित मत है कि यदि इस मामले में सांसद के विरुद्ध सखत कार्रवाही हो गयी होती तो शब्बीरपुर काण्ड नहीं होता.
4. शब्बीरपुर के दलितों पर हमले के पूर्वनियोजित होने के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं.
5. दलितों द्वारा हमलावरों पर किया गया पथराव एटीएम रक्षा के अधिकार के अंतर्गत आता है जिसका लाभ उन्हें दिया जाना चाहिए.
6. उक्त घटना में मृतक सुमित की मौत दम घुटने से हुयी है जिसके लिए कोई भी दलित किसी भी तरह से ज़िम्मेदार नहीं है.
संस्तुतियां:
1 .    शब्बीरपुर में दलित बस्ती पर हमला करने वाले लोगों की जल्दी से जल्दी गिरफतारी की जाये.
2.   दलितों के जानमाल के नुक्सान का सही आंकलन करके उन्हें जल्दी से जल्दी पर्याप्त मुयाव्ज़ा दिया जाये. ज्ञात हुआ है कि अब तक जो मुयाव्ज़ा दिया गया है वह बहुत कम है. अतः हमले में हुए नुक्सान का पुनर्मुल्यांकन एक कमिटी बना कर करवाया जाये और दलितों की पूर्ण पुनर्स्थापन हेतु मुयाव्ज़ा दिया जाये.  
3.      इस घटना में प्रभावित दलितों को एससी/एसटी एक्ट के अंतर्गत मुयाव्ज़ा शीघ्र दिया जाये. उन्हें घटना के कारण मजदूरी आदि की हानि की क्षतिपूर्ति भी की जाये.
4.       दलितों/अल्पसंख्यकों पर हमले करने वाली साम्पदायिक ताकतों के विरुद्ध सख्त कानूनी कार्रवाही की जाये और प्रदेश में बढ़ती गुंडागर्दी को रोका जाये.
5.  दलितों पर हमले के पूर्व नियोजित होने तथा पूर्व साजिश की भी जांच की जाये.
6. दलितों को आत्मरक्षा में कार्रवाही करने का लाभ दिया जाय.
7.  इस पूरे प्रकरण में पुलिस की भूमिका की गहराई से जांच कर उत्तरदायित्व निर्धारण किया जाए.  
8.      दलितों में ऐसे हमलों के कारण व्याप्त असुरक्षा की भावना को दूर करने के लिए दलित उत्पीड़न के मामलों में दोषियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाही की जाये.
9.      उत्तर प्रदेश में दलित उत्पीड़न के लिए कुख्यात जनपदों को चिन्हित करके रोक थाम की कार्रवाही की जाये.
10.    दलितों के उत्पीड़न की घटनाओं एवं कार्रवाही के अनुश्रवण के लिए एससी/एसटी एक्ट नियमावली  के अंतर्गत जिला तथा प्रदेशस्तरीय अनुश्रवण कमेटियों को सक्रिय किया जाये तथा इसकी मुख्य मंत्री स्तर से मानीटरिंग की जाये.
11.   जाँच दल भीम सेना के पदाधिकारियों तथा सदस्यों से भी अपील करता है कि उन्हें अपना विरोध प्रदर्शन तथा मांगे शंतिपूर्ण एवं लोकतान्त्रिक तरीके से ही रखनी चाहिए तथा किसी भी प्रकार की हिंसातोड़फोड़ तथा भड़काऊ गतिविधियों से बचना चाहिए.
12.    जांच दल प्रशासन से भी अपील करता है कि शब्बीरपुर के मामले में केवल सही दोषी व्यक्तियों के ही विरुद्ध कार्रवाही की जाये.
13.  इसी प्रकार भीम आर्मी के मामले में भी इसके सभी सदस्यों को प्रताड़ित न करके केवल साक्ष्य के अनुसार दोषी व्यक्तियों के विरुद्ध ही कार्रवाही की जाये.  यह भी उल्लेखनीय है इस घटना के पूर्व भीम आर्मी के विरुद्ध कोई भी शिकायत दृष्टिगोचर नहीं हुयी थी. उस दिन भी शब्बीर पुर की घटना के सम्बन्ध में प्रशासन द्वारा पर्याप्त कार्रवाही न करने के भ्रम में तथा उन्हें शातिपूर्ण ढंग से मीटिंग न करने देने के कारण प्रतिक्रिया में उपजे आक्रोश की ही आकस्मिक अभिव्यक्ति थी. अतः भीम आर्मी के पदाधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाही करने में भी इस तथ्य को ध्यान में ज़रूर रखा जाये. इसमें किसी भी प्रकार के प्रतिशोध से बचा जाना चाहिए. ज्ञात हुआ है भीम आर्मी के गिरफ्तार किये गए सदस्यों में अधिकतर लड़के छात्र हैं जिन्होंने तात्कालिक आवेश में आ कर तोड़फोड़ की कार्रवाही की है. पुलिस कार्रवाही में उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया तथा उनके भविष्य को अवश्य ध्यान रखा जाये.    
एस.आर. दारापुरी
भूतपूर्व पुलिस महानिरीक्षक  एवं 
संयोजक जन मंच उत्तर प्रदेश
मोब: 9415164845


शुक्रवार, 12 मई 2017

डॉ. आंबेडकर और श्रमिक सरोकार

डॉ. आंबेडकर और श्रमिक सरोकार
-  बादल सरोज
डॉ. अम्बेडकर को सिर्फ जाति और वर्ण के प्रश्न तक बाँध कर रख देना एक बड़े ग्रैंड प्लान का हिस्सा है जो शासक वर्गों के लिए भी मुफीद है और उनके लिए भी जो बाबा नाम केवलम करके उन्हें एक मूर्ति में बदल कर भगवान बना देने पर आमादा हैं ।
जाति भेद और अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्षों के अनेक तजुर्बों के बाद डॉ. अम्बेडकर ने 1936 में एक राजनीतिक पार्टी बनाई और उसका नाम रखा -इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी । इसका झण्डा लाल था और घोषणापत्र का सार मोटा मोटी समाजवादी । इस पार्टी के गठन के समय उनकी साफ़ मान्यता थी कि वास्तविक समानता लानी है तो आर्थिक और सामाजिक शोषण से एक साथ लड़ना होगा ।
उनका मानना था कि भारत में वर्गों के निर्माण में जाति और वर्ण की अहम भूमिका रही है । वर्ण और जाति के विकास के बारे में यही समझदारी मार्क्सवादी इतिहासकार डी डी कौशाम्बी ने अपने तरीके से सूत्रबद्द की थी । मार्क्स के समकालीन रहे जोतिबा फुले, जिन्होंने दलित शब्द का पहली बार इस्तेमाल किया था, उस जमाने में ही इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि आर्थिक, सामाजिक शोषण और लैंगिक असमानता के विरुद्ध एक साथ ही लड़ा जा सकता है ।
मगर इन दिनों कुछ निहित स्वार्थों का जोर इस बात पर अधिक है कैसे शोषण के विरुद्ध जारी लड़ाईयों के बीच लड़ाई कराई जाए । ऐसा क्यों , कैसे, किसलिए है इस पर बाद में चर्चा की जरूरत है । अभी मई दिवस के मौके पर मजदूरों के बारे में डॉ आंबेडकर की चिंताओं और मौक़ा मिलने पर उनके लिए किये गए कामों पर नजर डालना ठीक होगा ।
अपने जीवन में डॉ आंबेडकर ने मजदूरों के बीच भी काम किया । रेलवे मजदूरों के बीच उनका भाषण उनकी समझ स्पष्ट कर देता है । इस भाषण में उन्होंने कहा था कि साझी यूनियन में, लाल झंडे की यूनियन में काम करो, उसी में अपनी समस्याये भी उठाओ । अगर यूनियन तुम्हारी नहीं सुनती है तब अलग से यूनियन बनाने पर विचार करो । टेक्सटाइल मजदूर आंदोलन में उनके और श्रमिक यूनियन के बीच संवाद से न जाने कितनी भूले, चूकें दुरुस्त हुयी थीं ।
डॉ. आंबेडकर 1942 से 46 तक वाइसराय की कार्यकारी परिषद् में लेबर मेंबर (आज के ढाँचे में श्रम मंत्री के समकक्ष ) रहे । इस अवधि में, अंगरेजी राज के चलते उपस्थित हुयी बंदिशों और सीमाओं के बावजूद डॉ. आंबेडकर ने उस समय में जारी तीखे मजदूर आंदोलनों की मांगों को अपने एजेंडे में लिया । उनमे से अनेक के बारे में दूरगामी निर्णय लिए, बाध्यकारी क़ानून बनवाये ।
सातवे भारतीय श्रम सम्मेलन में 27 नवम्बर 1942 को डॉ अम्बेडकर ने आठ घंटे काम का क़ानून रखा । इसे रखते हुए उनकी टिप्पणी थी कि "काम के घंटे घटाने का मतलब है रोजगार का बढ़ना ।" इस क़ानून के मसौदे को रखते हुए उन्होंने आगाह किया था कि कार्यावधि 12 से 8 घंटे किये जाते समय वेतन कम नहीं किया जाना चाहिए ।
महिलाओं के प्रति डॉ अम्बेडकर का सोच उस समय के (और आज के भी) कथित बड़े राष्ट्रीय नेताओं से काफी आगे था । श्रम सदस्य के रूप में भी उन्होंने इसी दिशा में प्रयत्न किये । खदान मातृत्व लाभ क़ानून, महिला कल्याण कोष, महिला एवं बाल श्रमिक संरक्षण क़ानून, महिला मजदूरों के लिए मातृत्व लाभ क़ानून के साथ उन्होंने भूमिगत कोयला खदानों में महिला मजदूरों से काम न कराने के क़ानून की बहाली करवाई ।
बिना किसी लैंगिक भेदभाव के समान काम के लिए समान वेतन का क़ानून भी इसी दिशा में एक कदम था ।
ट्रेड यूनियन एक्ट भले 1926 में बन गया था । मगर मालिकों द्वारा श्रमिक संगठनो को मान्यता देना अनिवार्य बनाने का क़ानूनी संशोधन 1943 में हुआ । यही वह समय था जब काम करते समय दुर्घटना के बीमा, जिसे बाद में ईएसआई का रूप मिला, का क़ानून बना - इसी समय बने कोयला तथा माइका कर्मचारियों के प्रोविडेंट फण्ड और सारे मजदूरों के प्रोविडेंट फंड्स ।
न्यूनतम वेतन क़ानून के निर्धारण की प्रक्रिया और उसकी शुरुआती ड्राफ्टिंग में डॉ आंबेडकर का प्रत्यक्ष योगदान था ।
मजदूरी के दूसरे पक्ष, ग्रामीण मजदूरों के सम्बन्ध में डॉ आंबेडकर की समझ साफ़ थी । वे उनके संरक्षण के साथ साथ भूमि सुधारों के हामी थे । भूमि के संबन्धो के पुनर्निर्धारण के मामले में डॉ अम्बेडकर का रुख अपने सहकर्मियों की तुलना में अलग था । वे राजकीय समाजवाद के हिमायती थे । भूमि सुधारों और आर्थिक गतिविधियों में राज्य के हस्तक्षेप के पक्षधर थे । संविधान सभा में बुनियादी अधिकारों में जोड़ने के लिए उन्होंने जो बिंदु सुझाये थे उनमे अन्य बातों के अलावा जो तीन विषय शामिल थे वे इस प्रकार थे :
प्रमुख केंद्रीय उद्योग सरकारी क्षेत्र में सरकार द्वारा संचालित हों ।
बुनियादी प्रमुख उद्योग (गैर रणनीतिक) भी सरकारी मालिकाने में रहें, इनका संचालन खुद सरकार या उसके नियंत्रण वाले निगमों द्वारा किया जाए । 
कृषि राजकीय उद्योग हो । इसका पुनर्संगठन करने के लिए सरकार सारी भूमि का अधिग्रहण करे फिर समुचित आकार में उन जमीनों को गाँव के लोगों के बीच बाँट दे । इस पर परिवारों के समूहों द्वारा सहकारी खेती की जाए ।
डॉ अम्बेडकर अंग्रेजों की राजस्व प्रणाली के कटु आलोचक थे । उनका मानना था कि किसी अर्थव्यवस्था के सामाजिक आर्थिक विकास के लिए जरूरी है पर्याप्त वित्त की उपलब्धता और उसका सही इस्तेमाल !! इस लिहाज से कर प्रणाली को वे महत्वपूर्ण मानते थे और इस बारे में उनका मानना था कि : टैक्स आमदनी और भुगतान क्षमता के आधार पर लगना चाहिए । इसकी दरे इस प्रकार से ऊपर की ओर बढ़ती हुयी तय की जानी चाहिए कि वे गरीब के लिए कम और अमीरों के लिए अधिक हों । एक ख़ास सीमा से कम आमदनी वालों को टैक्स से मुक्त रखा जाना चाहिए आदि आदि ।
मई दिवस के मौके पर इन सारी बातों के लिखे जाने की जरूरत इसलिए है ताकि हर तरह के शोषण के खिलाफ लड़ाई को एक सूत्र में पिरोया जा सके । इसलिए भी जरूरी है ताकि आंबेडकर के कुपाठ के आधार पर उदारीकरण की आर्थिक नीतियों को दलितों के लिए वैतरणी की राह बताने वाले, दलित चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स जैसे अपवाद शिगूफों के आधार पर कारपोरेट पूँजी की वन्दना करने वाले कुछ तथाकथित स्वयंभू अम्बेडकरवादियों की समझदारी का खोखलापन और उनके मकसद की वास्तविकता समझी जा सके । यह ठीक तरह से जाना जा सके कि इन दिनों , इनमे से कुछ भद्र पुरुष जिस शिद्दत से वामपंथ के विरोध के लिए बहाने ढूंढते हैं, उन्हें इस पुण्य काम के लिए सुपारी किसने दी है ।


डॉ. अम्बेडकर और वाम : ए शॉर्ट रीविजिट- बादल सरोज

डॉ. अम्बेडकर और वाम : ए शॉर्ट रीविजिट
- बादल सरोज 


हाल में एक प्रस्थापना पढ़ने में आयी कि : "अम्बेडकर ने जातिवाद को मजबूत किया - इतिहास के स्वाभाविक विकास-क्रम में जो जातिवाद नष्ट हो रहा था, उसे रोका - वर्ण-व्यवस्था को और आधार देते हुए वर्ण-विभाजन को बढ़ावा दिया - वर्ग-संघर्ष को कमजोर किया - जातिगत चेतना को पैदा किया और मजबूत किया !" यह आरोप नया नहीं है । इसका मजेदार पहलू यह है कि डॉ. अम्बेडकर पर इस तरह की तोहमत मढ़ने के मामले में दक्षिण और अति-वाम दोनों जुगलबंदी करते दिखाई देते हैं । इसलिए, इस बहाने अम्बेडकर और उनकी भूमिका का संक्षिप्त सा पुनरावलोकन उपयोगी होगा ।
इस प्रस्थापना में कई झोल हैं । जैसे एक यही कि कोई व्यक्ति, भले वह कितना असरदार क्यों न हो, कितना भी जोर क्यों न लगा ले "इतिहास के स्वाभाविक विकास-क्रम" को नहीं रोक सकता । उसकी गति को धीमा तेज मध्यम करने में भूमिका निबाह सकता है । मगर कुछ समय के लिए । क्योंकि इतिहास का विकास-क्रम व्यक्ति/व्यक्ति समूहों की इच्छाओं सदिच्छाओं से नहीं ठोस कारकों के पहियों पर चलता फिरता है । क्या सचमुच इतिहास के स्वाभाविक विकास-क्रम में जातिवाद नष्ट हो रहा था ? जिसे रोककर अम्बेडकर ने ''वर्ण-व्यवस्था को और आधार देते हुये वर्ण-विभाजन को बढ़ावा दिया - वर्ग-संघर्ष को कमजोर किया - जातिगत चेतना को पैदा किया और मजबूत किया ।"
सबसे पहले जाति की दीर्घायुता पर, उसकी जीवनी शक्ति पर !! पिछली दो सहस्राब्दियों में जाति नहीं गयी । तुर्क आये, मंगोल आये, यवन आये, उनके पहले शक आये, हूण आये, कुषाण आये । सदियों तक मुगलों ने राज किया । डेढ़ सदी अंग्रेजों ने राज किया । इनमे से किसी की पृष्ठभूमि-धर्म-विचार श्रृंखला में जाति नहीं थी । मगर इनमे से किसी ने भी जाति संरचना पर प्रहार नही किया । क्यों ? इसी दौरान पूँजीवाद आया, जिसे खुद के विकास की मान्य अवधारणा - बाजार के विस्तार और श्रम की अबाध उपलब्धता - के लिए जाति की बेड़ियां तोड़नी चाहिए थी । नहीं तोड़ी। यहां तक कि उनके मोस्ट मॉडर्न एडीशन वैश्वीकरण वाले साम्राज्यवाद ने भी इनसे छेड़छाड़ नहीं की । बल्कि ठीक उलट इन दोनों ने जाति को मजबूत बनाने में ही इन्वेस्ट किया । क्यों ?
इसलिए कि जाति सिर्फ और केवल सामाजिक संरचना नहीं है । यह मोटा मोटी, समय द्वारा जांची परखी जा चुकी आर्थिक संरचना भी है। डी डी कौशाम्बी के शब्दों में कहें तो " जाति उत्पादन के आदिम स्तर पर वर्ग का नाम है । सामाजिक चेतना का इस तरह से संयोजन करने वाली पद्वत्ति है जिसमे न्यूनतम बल प्रयोग के साथ उत्पादक को उसके अधिकार से वंचित कर दिया जाता है ।" इसलिए राज बदले, शासकों के धर्म-,विधान बदले, जमाना बदल गया, जाति नहीं बदली । शासक वर्ग इतने बुद्दू नहीं हैं कि वे अपने रेडीमेड फायदे को उगलने वाली गटर को बंद कर दें ।
तथ्य सत्य तक पहुंचने में मददगार होते हैं कुछ वर्ष पहले फोर्ब्स ने भारत के 55 डॉलर अरबपतियों की सूची जारी की थी । इनमे से ऊपर वाले 10 में 7 वैश्य जाति से हैं । बकाया 45 में भी वैश्यों का बहुमत है । जो वैश्य नहीं हैं वे खत्री हैं, बोहरा हैं, पारसी - सभी व्यापारी जातियां - हैं !! कुछ ब्राह्मण भी हैं । मगर भूले से भी कोई दलित या आदिवासी नहीं है ।
इन दिनों सत्ता का दूसरा नवद्विज है : मीडिया । मालिकाने में तो पूरा द्विज है ही, एक आधिकारिक सर्वेक्षण के अनुसार नई दिल्ली के निर्णय क्षमता वाले पत्रकारों के मामले में भी पूरी तरह द्विज है । उनमे एक भी दलित या आदिवासी नहीं । यह अनायास है ? नहीं । कोई फ़िल्टर है, कोई छन्नी हैं जो बहुत पतला छान रही है । छोटे व्यापार, भूमि स्वामित्व, नौकरशाही में हिस्सा, वंचितों-कुपोषितों-भूमिहीनों-आवासहीनों के जाति घनत्व का प्रोफाइल आदि इत्यादि के आंकड़ों के बोझ से दबाने का कोई अर्थ नहीं । छन्नी/फ़िल्टर सर्वत्र हैं। हाँ, निचले दर्जे की सरकारी नौकरियों में आज़ादी के बाद थोड़ी बहुत हलचल हुयी थी, जिसके कुछ सामाजिक राजनीतिक असर भी नजर आये, किन्तु नवउदार के बाद अब यह भी ठिकाने लगाई जा चुकी है ।
जाति रिश्ते उत्पादन के रिश्तों का हिस्सा हैं, इसे समझे बिना जाति को नहीं समझा जाना चाहिए । जाति में वर्ग छुपे हैं । भारतीय समाज में नए वर्गों का निर्माण जाति व्यवस्था की कोख से हुआ है !!
किताबें और भारत का सर्वहारा
ऐसा पढ़ते ही शुध्द (??) वाम एकदम बिलबिला जाता है । अरे, ऐसा कैसे हो सकता है । ऐसा तो किसी किताब में लिख्खाईच नहीं है !! तो किताबों में ये कहाँ लिखा है कि इन किताबों में अ से ज्ञ तक ए टू जेड "सब कुछ" लिखा है ? बल्कि किताबों में तो ठोक के इससे उलट और सावधान करते हुए लिखा है कि "सामाजिक विकास के ये नियम टूल हैं, औजार हैं, इन्हें हर देश, समाज की ठोस परिस्थितियों पर ठोस तरीके से लागू करके ही सही नतीजे निकलेंगे ।" किताब लिखने वालो के पास ज्यादातर प्राथमिक जानकारी विकसित होते यूरोपीय पूंजीवाद और वहीँ के उसके पूर्ववर्ती सामन्तवाद की थी । सर्वज्ञ या “खुदा” नहीं थे मार्क्स-एंगेल्स !! न उनकी पहुँच में था, ना ही इतनी दूर होने के चलते उनकी सामर्थ्य में था भारतीय जाति व्यवस्था का अध्ययन । इस बारे में उनकी जो भी थोड़ी बहुत माहिती थी वह किसी दूसरे तीसरे स्रोत/जरिये से हासिल की हुयी थी और मूलतः विवरणात्मक थी ।
उनका सर्वहारा, खांटी यूरोप का मजदूरवर्ग था । सीधा पूँजीवाद से लुटा पिटा, शोषित और उसके सामने खड़ा, जूझता । क्या भारत में रॉबर्ट, जॉनसन, मैथ्यू और एडवर्ड और फिलिप या मारिया या एडविना उसी तरह के शुध्द सर्वहारा हैं ? नहीं । वे कुछ अलग हैं, कुछ अनोखे हैं । इनके भारतीय क्लोन/पर्याय रामाश्रय शुकुल, कामेश्वर सिंह, हनुमंतलाल, रफीक खान, जगदीश राम सिदार, गुलज़ार सिंह मरकाम, बिहारीलाल जाटव या महादेवी और अनुसुइया उत्पादन की क्रिया में तो एक जैसे मजदूर वर्ग हैं, क्लासिकल टर्म में सर्वहारा । ट्रेड यूनियनों में भी -संभवतः - वे एक समान मजदूर वर्ग है, मगर टाउनशिप, बस्ती, दफाई, कॉलोनी, सेक्टर, गाँव, कसबे में वे वर्ण हैं, जाति हैं, गोत्र हैं, उपगोत्र हैं । अगर यह आधुनिक उत्पादन में लगे सर्वहारा का हाल है, तो ग्रामीण सर्वहारा का क्या होगा ?
तो ? तो क्या वर्ग संघर्ष फेल ? वर्ण संघर्ष शुरू ? या तो ये या फिर ये ही तो रास्ता नहीं होता । रास्ता है, वर्गीय शोषण के दोनों रूपों से एकसाथ लड़ना । दोनों स्तरों - आर्थिक शोषण और सामाजिक चेतना - पर एक साथ मोर्चा खोलना । पहले ये और उसके बाद वो करने से नहीं होने का । वर्ग को वर्ग बनाना होगा । न्यूक्लियर साइन्स की शब्दावली में कहें तो खांटी यूरेनियम नहीं है हमारे पास, मगर थोरियम बहुत सारा है । बड़ी हलचल - क्रान्ति - पैदा करनी है तो क्रिटिकलिटी की स्टेज तक आना जरूरी है । उसकी साइन्स भी सही है । जरूरी है । मगर यहां यूरेनियम वाली टेक्नोलॉजी नहीं चलेगी । थोरियम के अनुकूल तकनीक ढूंढनी होगी ।
प्रैक्टिसिंग पॉलिटिशियन अम्बेडकर और सोशल रेवोल्यूशनरी अम्बेडकर
सारे सवालों के उत्तर अम्बेडकर में तलाशने और न मिलने पर उन्हें पूरी तरह खारिज करने का रुख अवैज्ञानिक है । अम्बेडकर मार्क्सवादी नहीं थे, वे फेबियनवादी थे, प्रैग्मैटिस्ट थे । वर्ग की उनकी संकल्पना मार्क्स और बेबर से भिन्न थी । हालांकि वे विचार के रूप में मार्क्सवाद को अच्छा मानते थे । उनकी कुछ व्याख्याओं, धारणाओं को लेकर समस्यायें भी है । वे एक लगातार 'इवोल्व' होते हुए व्यक्तित्व हैं । अंतिम वर्षों में कई बार वे काफी झुंझलाये से, हताश से भी नजर आते हैं । शायद इसके पीछे तकरीबन अकेले दम, सिंगल हैंडेडली इतने बहुआयामी मोर्चों पर, बेहद मजबूत ताकतों से लड़ना और अपने ही जीवन में सारे नतीजे देख लेने की उम्मीद लगाना रहा हो । जो भी हो, उनके एक या दो वक्तव्यों के आधार पर न जाते हुए सार पर जाना होगा । प्रैक्टिसिंग पॉलिटिशियन अम्बेडकर और सोशल रेवोल्यूशनरी अम्बेडकर में अंतर करना होगा । इसके लिए कल्पित अम्बेडकरवाद के कथित अनुयायी और चालचलन में उनके ठीक विपरीत, स्वयंभू अम्बेडकरवादियों - जिनमे से कई जाति विरोधी कम वाम विरोधी अधिक हैं - के कहे, करे का संज्ञान लेने की बजाय खुद डॉक्टर साब की तरफ देखना होगा ।
जैसे उनका वस्तुपरक नजरिया । वे लिखते हैं : "....कुछ भी स्थिर नहीं है । कुछ भी शाश्वत नहीं है और ना ही कुछ सनातन है । हर चीज परिवर्तनशील है । व्यक्ति और समाज के लिए परिवर्तन जीवन का नियम है । एक बदलते हुए समाज में पुराने मूल्यों में सतत क्रांतिकारी बदलाव आना चाहिए .....। " यह बात वे बुद्द धर्म अपनाने के 20 वर्ष पहले कह रहे हैं ।
जैसे, आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह के शोषण से लड़ने के बारे में उनकी समझ कमोबेश व्यावहारिक थी । उन्होंने कास्ट और क्लास दोनों से लड़ने की बात की । एससी फेडरेशन तो उन्होंने 1942 में बनाया था । इससे पहले 1936 में उन्होंने पहली पार्टी - इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी - बनाई थी। इसका झण्डा लाल रखा । इसके मैनिफेस्टो में इसे किसी जाति की नही वर्किंग क्लास की पार्टी कहा गया। 1928 और उसके बाद की बॉम्बे के टेक्सटाइल मजदूरों की हड़ताल के वक़्त ट्रेडयूनियनो के साथ उनका संवाद शिक्षाप्रद और दिलचस्प तो है ही, आत्ममूल्यांकन के लिए भी विवश करता है । 1942 से 46 के दौरान वाइसरॉय की एग्जीक्यूटिव में लेबर मेंबर (श्रम मंत्री समकक्ष) की भूमिका में उनकी पहलें "क्रांतिकारी" हैं । (देखें . https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1424660400931597&id=100001629517443) ।
जैसे जाति के बारे में उनका दृष्टिकोण !! यह मान लेने में किसी की हेठी नहीं हो जायेगी कि डॉ. अम्बेडकर जाति के पहले व्याख्याकार थे । उन्होंने जाति व्यवस्था का तब तक का सबसे उन्नत विश्लेषण दिया था । वे अपने जमाने के बड़े नेताओं में अकेले थे जिसने जाति व्यवस्था के ध्वंस - ऐनीहिलेशन - की बात की । उसके धार्मिक मूलाधार को चिन्हांकित कर उसके भी निर्मूलन पर जोर दिया । वे कहते हैं : "एक आर्थिक संगठन के रूप में (भी) जातिप्रथा एक हानिकारक व्यवस्था है क्योंकि इसमें व्यक्ति की स्वाभाविक शक्तियों का दमन होता है और सामाजिक नियमों की तात्कालिक आवश्यकताओं की प्रवृत्ति होती है ।" (ऐनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट, 1936) । इसी में वे यह भी कहते हैं कि : " जाति एक ऐसा दैत्य है, जो आपके मार्ग में खड़ा है। जब तक आप इस दैत्य को नहीं मारोगे, आप न कोई राजनीतिक सुधार कर सकते हो, न आर्थिक सुधार ।" जो अम्बेडकर जातियों के ध्वंस की बात करते हैं उन पर "वर्ण-व्यवस्था को और आधार देते हुये वर्ण-विभाजन को बढ़ावा देने - वर्ग-संघर्ष को कमजोर करने- जातिगत चेतना को पैदा करने और मजबूत करने" का आरोप लगाना अम्बेडकर का कुपाठ ही नहीं सरासर पूर्वाग्रह भी है ।
फतवा ; “वर्ग संघर्ष की बुनियादी अवधारणा से भटकाव ,राजनीतिक अवसरवाद !!”
आख़िरी बात वह फतवा जो इन दिनों फैशन में है कि "भारत के संगठित वाम द्वारा जाति मुद्दों को सक्रियता के एजेंडे में शामिल करना वर्ग संघर्ष की बुनियादी अवधारणा से भटकाव है, राजनीतिक अवसरवाद है ।" इसमें से पहली बात पर ऊपर पर्याप्त चर्चा की जा चुकी है । रही दूसरी बात, तो इसे वे ही सिध्द पुरुष कह सकते हैं जिन्हें भारत के वामपंथ के बारे में जानकारी नहीं है । इस आरोप में कई झोल हैं ।
एक तो यही कि कम्युनिस्ट पार्टी अपने पहले सैध्दांतिक दस्तावेज (1930 के प्लेटफार्म ऑफ़ एक्शन) में ही कह चुकी थी कि "साम्राज्यवाद, सामन्तशाही, जातिप्रथा उन्मूलन, छुआछूत की समाप्ति के लिए साथ साथ संघर्ष चलाने होंगे ।" मन्दिर सहित सार्वजनिक स्थानों पर प्रवेश की बंदिशों के विरुद्ध आंदोलनों की अगुआई में कम्युनिस्ट थे । आंध्रा, तमिलनाडु, त्रिपुरा सहित कुछ राज्यों में आज भी वे इस अभियान के अगुआ हैं । बाद के दिनों में, दमन और तात्कालिकता के चलते यह मुद्दा प्राथमिकता क्रम में नीचे खिसका, तो जरूरी तो नही कि चूक जारी रखी जाये ।
दूसरे, हिन्दुत्वमार्का साम्प्रदायिकता के तीव्र उभार के बाद स्थिति नयी हुयी है । यह धार्मिक कट्टरपंथ और नवउदार का सांघातिक मेल है । आर्थिक और सामाजिक दोनों मामलो में घोर प्रतिगामी । ये एक हाथ में मनुस्मृति पकडे दूसरे हाथ से साम्राज्यवाद के साथ गलबहियां कर रहा है । चातुर्वर्ण की शुध्द बहाली से लेकर शुध्द आर्य नस्ल पैदा करने, महिलाओं को रसोई और प्रसूतिगृहो तक महदूद करने, शंबूको-एकलव्यों की श्रृंखला खड़ी करने तक की इसकी कार्यसूची है । जाति और वर्ण के आधार पर भेद का अंतर्विरोध जिस तेजी से उभरा है उसी तेजी से प्रतिवाद और प्रतिरोधकारी शक्तियों के पुनरेकीकरण की आवश्यकता उभरी है । लिहाजा यह काम प्राथमिकताओं में और ऊपर आया है ।
इसमें अनोखा कुछ नहीं है । जिन्हें 70 के दशक के अंत और 80 के दशक के पूर्वार्ध की याद है वे जानते हैं कि तब पंजाब से असम तक राष्ट्रीय एकता को लेकर उभरे अंतर्विरोध के अनुकूल कार्यनीति अपनाई गयी थी । व्यापकतम संभव लामबंदी और कुर्बानी दोनों में वामपंथ ही अगुआ था । उसके पहले इमरजेंसी के मुकाबले एक कार्यनीति बनी थी, जिसके नतीजे निकले । इस बार का प्रश्न तो सीधे सीधे रणनीति का भी है, कार्यनीति का भी है ।
अमानुषिक और हिंसक प्रतिक्रियावादी उभार की इस स्थिति के बिना भी अम्बेडकर प्रासंगिक थे । इसके चलते तो उनकी तथा जाति विरोधी आंदोलनों के उनके पूर्ववर्तियों की प्रासंगिकता और बढ़ी है ।

भारत में फासीवाद

 भारत में फासीवाद
-अखिलेन्द्र प्रताप सिंह


फासीवाद व नाजीवाद का मूल यूरोपीय है। बेनिटो मुसोलिनी इटली में फासीवाद का संस्थापक था, जो 1922 में सत्ता में पहुंचा और जर्मनी में नाजीवाद का नेता एडोल्फ हिटलर 1933 में सत्ता पर काबिज हुआ। इटली में फासीवाद और जर्मनी में नेशनल सोशलिज्म (नाजीवाद) कभी भी सुसंगत विचारों का समूह नहीं रहे। बौद्धिक ईमानदारी और सत्य के प्रति इनमें अनास्था व उदासीनता थी। इनकी जनता में व्यापक भावनात्मक अपील थी। फासीवाद को कारपोरेट राजनैतिक शासन की नग्न आतंकवादी तानाशाही के बतौर जाना जाता है। यह धारा नस्ल और राष्ट्र का महिमा मंडन करती है और अंध राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करती है। ये जनता से वामपंथी अपील करते हैं लेकिन कारपोरेट तथा वित्तीय पूंजी के साम्राज्यवादी तत्वों के हितों की सेवा करते हैं। ये कारपोरेट अर्थतंत्र का पोषण करते हैं तथा लघु उत्पादकों की अर्थव्यवस्था को तबाह करते हैं। यूरोप में फासीवाद ने एकाधिकारी पूंजी के लिए निम्न वर्गों, छोटे उत्पादकों, किसानों, दस्तकारों, आफिस के कर्मचारियों, नौकरशाहों आदि के बीच एक जनाधार बनाने का प्रयास किया। फासीवाद ने 18 वीं सदी की ज्ञानोदय की संपूर्ण विरासत को नकार दिया। इसने न सिर्फ मार्क्स को खारिज किया, वरन् वाल्टेयर और जान स्टुअर्ट मिल को भी। इसने न सिर्फ साम्यवाद को खारिज किया वरन् उदारवाद के सभी रूपों को भी। उदारवादियों, समाजवादियों, कम्यूनिस्टों, अकादमिक समुदायों, व्यक्तियों ने फासीवाद का मुकाबला किया। सोवियत संघ व पश्चिमी मित्र राष्ट्रों के हाथों फासीवाद की करारी शिकस्त हुई, हालाँकि हाल ही में संयुक्त राष्ट्र अभिलेखागार द्वारा जारी जानकारी के अनुसार द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिकी-ब्रिटिश सरकारों तथा नाजियों के बीच एक व्यवस्थित सांठ=गांठ थी। युद्ध में पराजय के बाद हिटलर ने आत्महत्या कर ली और मुसोलिनी को फांसी पर लटका दिया गया। 
भारत में आर.एस.एस. से लेकर देशजवादी समाज विज्ञानियों के एक हिस्से तक का विचार है कि फासीवाद पाश्चात्य मूल का है और भारत में फासीवादी राजनैतिक शासन की कोई संभावना नहीं है। हाल ही में कम्यूनिस्ट खेमे में यह बहस उभरी कि भारत में अधिनायकवादी राजनैतिक शासन आ रहा है कि फासीवादी। मिलिबैंड को उधृत किया गया कि नाज़ी जर्मनी में फासीवाद के संत्रास के खिलाफ सार्वजनिक घृणा के बाद अब पूंजीपतियों के लिए चरम संकट के क्षणों में भी फासीवाद के विकल्प के विषय में सोचना कठिन है। कहा जा रहा है कि नव उदारवादी प्रक्रिया के गर्भ से पैदा हुए अधिनायकवादी रूझान की अभिव्यक्ति हो रही है संविधान संशोधन के माध्यम से राजनैतिक बदलाव की मांग में। स्थिरता तथा मजबूत सरकारप्रमुख चिंता बन गई है। तुर्की की चर्चा की गई है जहां राजनैतिक इस्लाम के लिए राष्ट्रपति प्रणाली ने संसदीय व्यवस्था की जगह ले ली है। इस विचार के अनुसार भारत में फासीवाद नहीं बल्कि अधिनायकवाद की आहट है। यह कहा गया है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अधिनायकवादी हिन्दू राष्ट्र में विश्वास करता है। 
सच्चाई यह है कि हिन्दुत्व का राजनैतिक विचार राष्ट्रीय आंदोलन के दौर से लेकर आज तक लड़ रहा है। आर.एस.एस. उस हिन्दू राष्ट्र का आकांक्षी है तथा उसके लिए लगातार काम कर रहा है, जो और कुछ नहीं वरन् फासीवाद का भारतीय संस्करण है। फासीवाद राजनीति से अधिक कुछ है। राजनैतिक विचारधारा निश्चय ही अर्थव्यवस्था के धरातल पर काम करती है लेकिन उसकी अपनी स्वायत्तता भी है। ऐजाज अहमद ने सही ही कहा है कि फासीवाद की शास्त्रीय भूमि इटली का अनुभव दिखाता है कि बड़े पूंजीपति वर्ग ने न तो फासीवाद को खड़ा किया, न ही इसने सत्ता कायम करने या उसके सुदृढ़ीकरण में कोई उल्लेखनीय भूमिका निभाई अर्थात मुसोलिनी शासन की पूंजीपति वर्ग से सापेक्ष स्वायत्तता थी, बावजूद इसके कि दोनों के समान सरोकार थे। हिन्दुत्व का सैद्धांतिक सूत्रीकरण सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘‘हिन्दुत्व या हिन्दू कौन है’’ में किया। सावरकर ने कुछ खास उद्देश्य से हिन्दुत्वशब्द गढ़ा। उन्होंने कहा कि ‘‘ आर्य, जो इतिहास के ऊषाकाल में भारत में आबाद हुए, पहले से ही एक राष्ट्र थे जिन्होंने हिन्दुओं के रूप में मूर्त रूप ग्रहण किया।’’ इसी सूत्रीकरण के आधार पर द्विराष्ट्र सिद्धांतसावरकर ने गढ़ा। हिन्दुत्व आर.एस.एस. का मार्गदर्शक सिद्धांत रहा है। आर.एस.एस. का सिद्धांत आर्य नस्ल की श्रेष्ठता और प्रधानता पर आधारित है। आर.एस.एस. के सिद्धांतकार और दूसरे सर संघ संचालक गोलवलकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तथा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के राज्य-क्षेत्र आधारित राष्ट्रवाद के बीच फर्क करते हैं। गोलवलकर ने ‘‘वी आर नेशनहुड डिफाइंड’’ में लिखा‘‘ चतुर प्राचीन राष्ट्रों (नाज़ी जर्मनी और फासीवादी इटली) द्वारा स्वीकृत इस दृष्टि बिंदु के अनुसार विदेशी नस्लों को हिन्दुस्तान में या तो हिन्दु संस्कृति और भाषा को स्वीकार करना होगा, हिन्दू धर्म का सम्मान करना सीखना होगा, हिन्दू नस्ल और संस्कृति अर्थात हिन्दू राष्ट्र के महिमा मंडन से इतर अन्य कोई विचार मन में नहीं लाना होगा, हिन्दू नस्ल में समाहित हो जाने के लिए अलग अस्तित्व का त्याग करना होगा अथवा उन्हें हिन्दू राष्ट्र के पूरी तरह अधीन रहना होगा जहां वे किसी चीज के लिए दावा नहीं कर सकते हैं, किसी विशेषाधिकार की मांग नहीं कर सकते, किसी अतिरिक्त सुविधा की तो बात ही छोड़ दीजिए, यहां तक कि नागरिक के अधिकार भी उनके पास नहीं होंगे। उन्होंने “पितृ भूमि और पुण्य भूमि’’ का सिद्धांत पेश किया। उनके लिए केवल हिन्दू नस्ल ही भारतीय होने की अधिकारी है क्योंकि भारत उनके लिए पितृ भूमि और पुण्य भूमि दोनों है। भाजपा द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर कब्जे ने आर.एस.एस. को राज सत्ता की सभी संस्थाओं में अपनी जड़ें जमाने का अवसर दिया है। संस्थाओं को पुनर्परिभाषित किया जा रहा है, मतभेद और असहमति के साथ देश द्रोह जैसा बर्ताव किया जा रहा है। अल्पसंख्यकों, दलितों व आदिवासियों के खिलाफ खुलेआम हिंसक वारदातें संगठित की जा रही हैं। जो भी सरकार तथा उसके भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलता है, उसे हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है। सावरकर व गोलवलकर की ही तरह मोहन भागवत ने खुलेआम पुष्ट किया है कि ‘‘भारत एक हिन्दू राज्य है और हिंदुस्तान के नागरिकों को हिंदू के रूप में जाना जाना चाहिए।’’ मोदी अपनी छवि गरीब पक्षधर, मजबूत और वैश्विक स्तर के नेता के रूप में पेश करने में सफल हुए हैं। उनकी यह गढ़ी गई छवि जमीनी स्तर तक पहॅुची है। किसी विश्वसनीय राजनैतिक विपक्ष तथा राजनैतिक आंदोलन के अभाव में मोदी का प्रभाव व्यापक होता जा रहा है। अन्यथा कोई ऐसी ठोस चीज नहीं है जो मोदी सरकार ने अपने पिछले 3 वर्ष के शासनकाल में जनता को दी हो। विपक्ष के नव उदारवादी तथा उत्तर आधुनिकतावादी नुस्खे हिंदुत्व की ताकतों को फलने-फूलने का अवसर दे रहे हैं। सच्चाई यह है कि अनौपचारिक क्षेत्र की अर्थव्यवस्था बुरी तरह तबाह हो रही है, बेरोजगारी बढ़ रही है, किसानों की आत्महत्या की घटनायें बढ़ रही हैं। कश्मीर और सीमा प्रश्न अभी भी अनसुलझे हैं। भारतीय राजनैतिक तंत्र का वस्तुगत मूल्यांकन दिखाता है कि सत्ता प्रतिष्ठान गहरे संकट में है, संकट आर्थिक और राजनैतिक ही नहीं नैतिक भी है। 
भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के इस अभियान का मुकाबला करने के लिए उपयुक्त नीतियों तथा कार्यक्रम की जरूरत है। मोदी सरकार द्वारा पेश चुनौती का मुकाबला करने के लिए आंदोलन की ताकतों, तमाम विचारों, तबकों, व्यक्तियों का व्यापकतम संभव संश्रय बनना चाहिए। एक लोकप्रिय मोर्चा आज समय की मांग है। यह संयुक्त मोर्चा न सिर्फ बहुसंख्यकवादी कारपोरेट फासीवाद की आसन्न चुनौती का मुकाबला करेगा, वरन् भारतीय राज व समाज के संपूर्ण जनवादीकरण के लिए भी काम करेगा। मोर्चें को 1857 के राष्ट्रवाद कीे देशभक्ति को बुलंद करना चाहिए तथा हिन्दुत्व के राष्ट्रवाद के संकीर्ण चरित्र का पर्दाफाश करना चाहिए। नास्तिक भगत सिंह की धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता तो स्वयं सिद्ध है, सनातनी हिन्दू गांधी एक महान धर्मनिरपेक्षतावादी थे। मोर्चे को मोदी सरकार एवं कारपारेट के संश्रय को बेनकाब करने पर केन्द्रित करना चाहिए और इसे अपने को भ्रष्टाचार से आजादीजैसे आंदोलन से जोड़ना चाहिए। मोर्चे को युवाओं, किसानों अनौपचाारिक क्षेत्र के रोज-ब- रोज के मुद्दों पर भी हस्तक्षेप करना चाहिए। संघ परिवार के गुण्डों, अपराधियों, लम्पटों की सड़क की हिंसा का मुकाबला करने के लिए मोर्चे को विभिन्न स्तरों पर जुझारू जन प्रतिरोध विकसित करना चाहिए। यह आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण तत्व होना चाहिए। 
स्ंयुक्त मोर्चा का शासक विपक्ष के साथ रिश्ता कार्यनीतिक मामला है। परिस्थितयों के अनुसार हम तय कर सकते हैं कि किसके साथ क्या रिश्ता होगा। यह कार्यनीतिक प्रश्न है और उसी स्तर पर इसे हल किया जाना चाहिए।
अखिलेन्द्र प्रताप सिंह
सदस्य, राष्ट्रीय कार्य समिति, स्वराज अभियान
(स्वराज अभियान द्वारा आयोजित कार्यशाला में प्रस्तुत पर्चा)

क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है?

  क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है ? हाल ही में हुई बहसों में सवाल उठाया गया है कि क्या अनुसूचित जाति के उपसमूहों में सकारात्म...