हाल में एक प्रस्थापना पढ़ने में आयी कि :
"अम्बेडकर ने जातिवाद को मजबूत किया - इतिहास के स्वाभाविक विकास-क्रम में जो जातिवाद नष्ट हो रहा था, उसे रोका - वर्ण-व्यवस्था को और आधार देते हुए वर्ण-विभाजन को बढ़ावा दिया - वर्ग-संघर्ष को कमजोर किया - जातिगत चेतना को पैदा किया और मजबूत किया !"
यह आरोप नया नहीं है । इसका मजेदार पहलू यह है कि डॉ. अम्बेडकर पर इस तरह की तोहमत मढ़ने के मामले में दक्षिण और अति-वाम दोनों जुगलबंदी करते दिखाई देते हैं । इसलिए, इस बहाने अम्बेडकर और उनकी भूमिका का संक्षिप्त सा पुनरावलोकन उपयोगी होगा ।
इस प्रस्थापना में कई झोल हैं ।
जैसे एक यही कि कोई व्यक्ति, भले वह कितना असरदार क्यों न हो, कितना भी जोर क्यों न लगा ले "इतिहास के स्वाभाविक विकास-क्रम" को नहीं रोक सकता । उसकी गति को धीमा तेज मध्यम करने में भूमिका निबाह सकता है । मगर कुछ समय के लिए । क्योंकि इतिहास का विकास-क्रम व्यक्ति/व्यक्ति समूहों की इच्छाओं सदिच्छाओं से नहीं ठोस कारकों के पहियों पर चलता फिरता है ।
क्या सचमुच इतिहास के स्वाभाविक विकास-क्रम में जातिवाद नष्ट हो रहा था ? जिसे रोककर अम्बेडकर ने ''वर्ण-व्यवस्था को और आधार देते हुये वर्ण-विभाजन को बढ़ावा दिया - वर्ग-संघर्ष को कमजोर किया - जातिगत चेतना को पैदा किया और मजबूत किया ।"
सबसे पहले जाति की दीर्घायुता पर, उसकी जीवनी शक्ति पर !!
पिछली दो सहस्राब्दियों में जाति नहीं गयी । तुर्क आये, मंगोल आये, यवन आये, उनके पहले शक आये, हूण आये, कुषाण आये । सदियों तक मुगलों ने राज किया । डेढ़ सदी अंग्रेजों ने राज किया । इनमे से किसी की पृष्ठभूमि-धर्म-विचार श्रृंखला में जाति नहीं थी । मगर इनमे से किसी ने भी जाति संरचना पर प्रहार नही किया । क्यों ?
इसी दौरान पूँजीवाद आया, जिसे खुद के विकास की मान्य अवधारणा - बाजार के विस्तार और श्रम की अबाध उपलब्धता - के लिए जाति की बेड़ियां तोड़नी चाहिए थी । नहीं तोड़ी। यहां तक कि उनके मोस्ट मॉडर्न एडीशन वैश्वीकरण वाले साम्राज्यवाद ने भी इनसे छेड़छाड़ नहीं की । बल्कि ठीक उलट इन दोनों ने जाति को मजबूत बनाने में ही इन्वेस्ट किया । क्यों ?
इसलिए कि जाति सिर्फ और केवल सामाजिक संरचना नहीं है । यह मोटा मोटी, समय द्वारा जांची परखी जा चुकी आर्थिक संरचना भी है। डी डी कौशाम्बी के शब्दों में कहें तो " जाति उत्पादन के आदिम स्तर पर वर्ग का नाम है । सामाजिक चेतना का इस तरह से संयोजन करने वाली पद्वत्ति है जिसमे न्यूनतम बल प्रयोग के साथ उत्पादक को उसके अधिकार से वंचित कर दिया जाता है ।" इसलिए राज बदले, शासकों के धर्म-,विधान बदले, जमाना बदल गया, जाति नहीं बदली । शासक वर्ग इतने बुद्दू नहीं हैं कि वे अपने रेडीमेड फायदे को उगलने वाली गटर को बंद कर दें ।
तथ्य सत्य तक पहुंचने में मददगार होते हैं
कुछ वर्ष पहले फोर्ब्स ने भारत के 55 डॉलर अरबपतियों की सूची जारी की थी । इनमे से ऊपर वाले 10 में 7 वैश्य जाति से हैं । बकाया 45 में भी वैश्यों का बहुमत है । जो वैश्य नहीं हैं वे खत्री हैं, बोहरा हैं, पारसी - सभी व्यापारी जातियां - हैं !! कुछ ब्राह्मण भी हैं । मगर भूले से भी कोई दलित या आदिवासी नहीं है ।
इन दिनों सत्ता का दूसरा नवद्विज है : मीडिया । मालिकाने में तो पूरा द्विज है ही, एक आधिकारिक सर्वेक्षण के अनुसार नई दिल्ली के निर्णय क्षमता वाले पत्रकारों के मामले में भी पूरी तरह द्विज है । उनमे एक भी दलित या आदिवासी नहीं । यह अनायास है ? नहीं । कोई फ़िल्टर है, कोई छन्नी हैं जो बहुत पतला छान रही है । छोटे व्यापार, भूमि स्वामित्व, नौकरशाही में हिस्सा, वंचितों-कुपोषितों-भूमिहीनों-आवासहीनों के जाति घनत्व का प्रोफाइल आदि इत्यादि के आंकड़ों के बोझ से दबाने का कोई अर्थ नहीं । छन्नी/फ़िल्टर सर्वत्र हैं। हाँ, निचले दर्जे की सरकारी नौकरियों में आज़ादी के बाद थोड़ी बहुत हलचल हुयी थी, जिसके कुछ सामाजिक राजनीतिक असर भी नजर आये, किन्तु नवउदार के बाद अब यह भी ठिकाने लगाई जा चुकी है ।
जाति रिश्ते उत्पादन के रिश्तों का हिस्सा हैं, इसे समझे बिना जाति को नहीं समझा जाना चाहिए । जाति में वर्ग छुपे हैं । भारतीय समाज में नए वर्गों का निर्माण जाति व्यवस्था की कोख से हुआ है !!
किताबें और भारत का सर्वहारा
ऐसा पढ़ते ही शुध्द (??) वाम एकदम बिलबिला जाता है । अरे, ऐसा कैसे हो सकता है । ऐसा तो किसी किताब में लिख्खाईच नहीं है !! तो किताबों में ये कहाँ लिखा है कि इन किताबों में अ से ज्ञ तक ए टू जेड "सब कुछ" लिखा है ? बल्कि किताबों में तो ठोक के इससे उलट और सावधान करते हुए लिखा है कि "सामाजिक विकास के ये नियम टूल हैं, औजार हैं, इन्हें हर देश, समाज की ठोस परिस्थितियों पर ठोस तरीके से लागू करके ही सही नतीजे निकलेंगे ।" किताब लिखने वालो के पास ज्यादातर प्राथमिक जानकारी विकसित होते यूरोपीय पूंजीवाद और वहीँ के उसके पूर्ववर्ती सामन्तवाद की थी । सर्वज्ञ या “खुदा” नहीं थे मार्क्स-एंगेल्स !! न उनकी पहुँच में था, ना ही इतनी दूर होने के चलते उनकी सामर्थ्य में था भारतीय जाति व्यवस्था का अध्ययन । इस बारे में उनकी जो भी थोड़ी बहुत माहिती थी वह किसी दूसरे तीसरे स्रोत/जरिये से हासिल की हुयी थी और मूलतः विवरणात्मक थी ।
उनका सर्वहारा, खांटी यूरोप का मजदूरवर्ग था । सीधा पूँजीवाद से लुटा पिटा, शोषित और उसके सामने खड़ा, जूझता । क्या भारत में रॉबर्ट, जॉनसन, मैथ्यू और एडवर्ड और फिलिप या मारिया या एडविना उसी तरह के शुध्द सर्वहारा हैं ? नहीं । वे कुछ अलग हैं, कुछ अनोखे हैं । इनके भारतीय क्लोन/पर्याय रामाश्रय शुकुल, कामेश्वर सिंह, हनुमंतलाल, रफीक खान, जगदीश राम सिदार, गुलज़ार सिंह मरकाम, बिहारीलाल जाटव या महादेवी और अनुसुइया उत्पादन की क्रिया में तो एक जैसे मजदूर वर्ग हैं, क्लासिकल टर्म में सर्वहारा । ट्रेड यूनियनों में भी -संभवतः - वे एक समान मजदूर वर्ग है, मगर टाउनशिप, बस्ती, दफाई, कॉलोनी, सेक्टर, गाँव, कसबे में वे वर्ण हैं, जाति हैं, गोत्र हैं, उपगोत्र हैं । अगर यह आधुनिक उत्पादन में लगे सर्वहारा का हाल है, तो ग्रामीण सर्वहारा का क्या होगा ?
तो ? तो क्या वर्ग संघर्ष फेल ? वर्ण संघर्ष शुरू ?
या तो ये या फिर ये ही तो रास्ता नहीं होता । रास्ता है, वर्गीय शोषण के दोनों रूपों से एकसाथ लड़ना । दोनों स्तरों - आर्थिक शोषण और सामाजिक चेतना - पर एक साथ मोर्चा खोलना । पहले ये और उसके बाद वो करने से नहीं होने का । वर्ग को वर्ग बनाना होगा । न्यूक्लियर साइन्स की शब्दावली में कहें तो खांटी यूरेनियम नहीं है हमारे पास, मगर थोरियम बहुत सारा है । बड़ी हलचल - क्रान्ति - पैदा करनी है तो क्रिटिकलिटी की स्टेज तक आना जरूरी है । उसकी साइन्स भी सही है । जरूरी है । मगर यहां यूरेनियम वाली टेक्नोलॉजी नहीं चलेगी । थोरियम के अनुकूल तकनीक ढूंढनी होगी ।
प्रैक्टिसिंग पॉलिटिशियन अम्बेडकर और सोशल रेवोल्यूशनरी अम्बेडकर
सारे सवालों के उत्तर अम्बेडकर में तलाशने और न मिलने पर उन्हें पूरी तरह खारिज करने का रुख अवैज्ञानिक है । अम्बेडकर मार्क्सवादी नहीं थे, वे फेबियनवादी थे, प्रैग्मैटिस्ट थे । वर्ग की उनकी संकल्पना मार्क्स और बेबर से भिन्न थी । हालांकि वे विचार के रूप में मार्क्सवाद को अच्छा मानते थे । उनकी कुछ व्याख्याओं, धारणाओं को लेकर समस्यायें भी है । वे एक लगातार 'इवोल्व' होते हुए व्यक्तित्व हैं । अंतिम वर्षों में कई बार वे काफी झुंझलाये से, हताश से भी नजर आते हैं । शायद इसके पीछे तकरीबन अकेले दम, सिंगल हैंडेडली इतने बहुआयामी मोर्चों पर, बेहद मजबूत ताकतों से लड़ना और अपने ही जीवन में सारे नतीजे देख लेने की उम्मीद लगाना रहा हो । जो भी हो, उनके एक या दो वक्तव्यों के आधार पर न जाते हुए सार पर जाना होगा । प्रैक्टिसिंग पॉलिटिशियन अम्बेडकर और सोशल रेवोल्यूशनरी अम्बेडकर में अंतर करना होगा । इसके लिए कल्पित अम्बेडकरवाद के कथित अनुयायी और चालचलन में उनके ठीक विपरीत, स्वयंभू अम्बेडकरवादियों - जिनमे से कई जाति विरोधी कम वाम विरोधी अधिक हैं - के कहे, करे का संज्ञान लेने की बजाय खुद डॉक्टर साब की तरफ देखना होगा ।
जैसे उनका वस्तुपरक नजरिया । वे लिखते हैं : "....कुछ भी स्थिर नहीं है । कुछ भी शाश्वत नहीं है और ना ही कुछ सनातन है । हर चीज परिवर्तनशील है । व्यक्ति और समाज के लिए परिवर्तन जीवन का नियम है । एक बदलते हुए समाज में पुराने मूल्यों में सतत क्रांतिकारी बदलाव आना चाहिए .....। " यह बात वे बुद्द धर्म अपनाने के 20 वर्ष पहले कह रहे हैं ।
जैसे, आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह के शोषण से लड़ने के बारे में उनकी समझ कमोबेश व्यावहारिक थी । उन्होंने कास्ट और क्लास दोनों से लड़ने की बात की । एससी फेडरेशन तो उन्होंने 1942 में बनाया था । इससे पहले 1936 में उन्होंने पहली पार्टी - इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी - बनाई थी। इसका झण्डा लाल रखा । इसके मैनिफेस्टो में इसे किसी जाति की नही वर्किंग क्लास की पार्टी कहा गया। 1928 और उसके बाद की बॉम्बे के टेक्सटाइल मजदूरों की हड़ताल के वक़्त ट्रेडयूनियनो के साथ उनका संवाद शिक्षाप्रद और दिलचस्प तो है ही, आत्ममूल्यांकन के लिए भी विवश करता है । 1942 से 46 के दौरान वाइसरॉय की एग्जीक्यूटिव में लेबर मेंबर (श्रम मंत्री समकक्ष) की भूमिका में उनकी पहलें "क्रांतिकारी" हैं । (देखें . https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1424660400931597&id=100001629517443) ।
जैसे जाति के बारे में उनका दृष्टिकोण !!
यह मान लेने में किसी की हेठी नहीं हो जायेगी कि डॉ. अम्बेडकर जाति के पहले व्याख्याकार थे । उन्होंने जाति व्यवस्था का तब तक का सबसे उन्नत विश्लेषण दिया था । वे अपने जमाने के बड़े नेताओं में अकेले थे जिसने जाति व्यवस्था के ध्वंस - ऐनीहिलेशन - की बात की । उसके धार्मिक मूलाधार को चिन्हांकित कर उसके भी निर्मूलन पर जोर दिया । वे कहते हैं : "एक आर्थिक संगठन के रूप में (भी) जातिप्रथा एक हानिकारक व्यवस्था है क्योंकि इसमें व्यक्ति की स्वाभाविक शक्तियों का दमन होता है और सामाजिक नियमों की तात्कालिक आवश्यकताओं की प्रवृत्ति होती है ।" (ऐनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट, 1936) । इसी में वे यह भी कहते हैं कि : " जाति एक ऐसा दैत्य है, जो आपके मार्ग में खड़ा है। जब तक आप इस दैत्य को नहीं मारोगे, आप न कोई राजनीतिक सुधार कर सकते हो, न आर्थिक सुधार ।" जो अम्बेडकर जातियों के ध्वंस की बात करते हैं उन पर "वर्ण-व्यवस्था को और आधार देते हुये वर्ण-विभाजन को बढ़ावा देने - वर्ग-संघर्ष को कमजोर करने- जातिगत चेतना को पैदा करने और मजबूत करने" का आरोप लगाना अम्बेडकर का कुपाठ ही नहीं सरासर पूर्वाग्रह भी है ।
फतवा ; “वर्ग संघर्ष की बुनियादी अवधारणा से भटकाव ,राजनीतिक अवसरवाद !!”
आख़िरी बात वह फतवा जो इन दिनों फैशन में है कि "भारत के संगठित वाम द्वारा जाति मुद्दों को सक्रियता के एजेंडे में शामिल करना वर्ग संघर्ष की बुनियादी अवधारणा से भटकाव है, राजनीतिक अवसरवाद है ।" इसमें से पहली बात पर ऊपर पर्याप्त चर्चा की जा चुकी है । रही दूसरी बात, तो इसे वे ही सिध्द पुरुष कह सकते हैं जिन्हें भारत के वामपंथ के बारे में जानकारी नहीं है । इस आरोप में कई झोल हैं ।
एक तो यही कि कम्युनिस्ट पार्टी अपने पहले सैध्दांतिक दस्तावेज (1930 के प्लेटफार्म ऑफ़ एक्शन) में ही कह चुकी थी कि "साम्राज्यवाद, सामन्तशाही, जातिप्रथा उन्मूलन, छुआछूत की समाप्ति के लिए साथ साथ संघर्ष चलाने होंगे ।" मन्दिर सहित सार्वजनिक स्थानों पर प्रवेश की बंदिशों के विरुद्ध आंदोलनों की अगुआई में कम्युनिस्ट थे । आंध्रा, तमिलनाडु, त्रिपुरा सहित कुछ राज्यों में आज भी वे इस अभियान के अगुआ हैं । बाद के दिनों में, दमन और तात्कालिकता के चलते यह मुद्दा प्राथमिकता क्रम में नीचे खिसका, तो जरूरी तो नही कि चूक जारी रखी जाये ।
दूसरे, हिन्दुत्वमार्का साम्प्रदायिकता के तीव्र उभार के बाद स्थिति नयी हुयी है । यह धार्मिक कट्टरपंथ और नवउदार का सांघातिक मेल है । आर्थिक और सामाजिक दोनों मामलो में घोर प्रतिगामी । ये एक हाथ में मनुस्मृति पकडे दूसरे हाथ से साम्राज्यवाद के साथ गलबहियां कर रहा है । चातुर्वर्ण की शुध्द बहाली से लेकर शुध्द आर्य नस्ल पैदा करने, महिलाओं को रसोई और प्रसूतिगृहो तक महदूद करने, शंबूको-एकलव्यों की श्रृंखला खड़ी करने तक की इसकी कार्यसूची है । जाति और वर्ण के आधार पर भेद का अंतर्विरोध जिस तेजी से उभरा है उसी तेजी से प्रतिवाद और प्रतिरोधकारी शक्तियों के पुनरेकीकरण की आवश्यकता उभरी है । लिहाजा यह काम प्राथमिकताओं में और ऊपर आया है ।
इसमें अनोखा कुछ नहीं है । जिन्हें 70 के दशक के अंत और 80 के दशक के पूर्वार्ध की याद है वे जानते हैं कि तब पंजाब से असम तक राष्ट्रीय एकता को लेकर उभरे अंतर्विरोध के अनुकूल कार्यनीति अपनाई गयी थी । व्यापकतम संभव लामबंदी और कुर्बानी दोनों में वामपंथ ही अगुआ था । उसके पहले इमरजेंसी के मुकाबले एक कार्यनीति बनी थी, जिसके नतीजे निकले । इस बार का प्रश्न तो सीधे सीधे रणनीति का भी है, कार्यनीति का भी है ।
अमानुषिक और हिंसक प्रतिक्रियावादी उभार की इस स्थिति के बिना भी अम्बेडकर प्रासंगिक थे । इसके चलते तो उनकी तथा जाति विरोधी आंदोलनों के उनके पूर्ववर्तियों की प्रासंगिकता और बढ़ी है ।
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