डॉ. आंबेडकर और श्रमिक सरोकार
- बादल सरोज
डॉ. अम्बेडकर को सिर्फ जाति और वर्ण के प्रश्न तक बाँध
कर रख देना एक बड़े ग्रैंड प्लान का हिस्सा है जो शासक वर्गों के लिए भी
मुफीद है और उनके लिए भी जो बाबा नाम केवलम करके उन्हें एक मूर्ति में बदल कर
भगवान बना देने पर आमादा हैं ।
जाति भेद और अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्षों के अनेक
तजुर्बों के बाद डॉ. अम्बेडकर ने 1936 में एक राजनीतिक पार्टी
बनाई और उसका नाम रखा -इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी । इसका झण्डा लाल था और घोषणापत्र
का सार मोटा मोटी समाजवादी । इस पार्टी के गठन के समय उनकी साफ़ मान्यता थी कि
वास्तविक समानता लानी है तो आर्थिक और सामाजिक शोषण से एक साथ लड़ना होगा ।
उनका मानना था कि भारत में वर्गों के निर्माण में जाति और
वर्ण की अहम भूमिका रही है । वर्ण और जाति के विकास के बारे में यही समझदारी
मार्क्सवादी इतिहासकार डी डी कौशाम्बी ने अपने तरीके से सूत्रबद्द की थी । मार्क्स
के समकालीन रहे जोतिबा फुले, जिन्होंने दलित शब्द का पहली बार
इस्तेमाल किया था, उस जमाने में ही इस नतीजे पर पहुँच
चुके थे कि आर्थिक, सामाजिक शोषण और लैंगिक असमानता के
विरुद्ध एक साथ ही लड़ा जा सकता है ।
मगर इन दिनों कुछ निहित स्वार्थों का जोर इस बात पर अधिक
है कैसे शोषण के विरुद्ध जारी लड़ाईयों के बीच लड़ाई कराई जाए । ऐसा क्यों , कैसे, किसलिए
है इस पर बाद में चर्चा की जरूरत है । अभी मई दिवस के मौके पर मजदूरों के बारे में
डॉ आंबेडकर की चिंताओं और मौक़ा मिलने पर उनके लिए किये गए कामों पर नजर डालना ठीक
होगा ।
अपने जीवन में डॉ आंबेडकर ने मजदूरों के बीच भी काम किया ।
रेलवे मजदूरों के बीच उनका भाषण उनकी समझ स्पष्ट कर देता है । इस भाषण में
उन्होंने कहा था कि साझी यूनियन में, लाल झंडे की यूनियन में काम
करो, उसी में अपनी समस्याये भी उठाओ ।
अगर यूनियन तुम्हारी नहीं सुनती है तब अलग से यूनियन बनाने पर विचार करो ।
टेक्सटाइल मजदूर आंदोलन में उनके और श्रमिक यूनियन के बीच संवाद से न जाने कितनी
भूले, चूकें दुरुस्त हुयी थीं ।
डॉ. आंबेडकर 1942
से 46 तक
वाइसराय की कार्यकारी परिषद् में लेबर मेंबर (आज के ढाँचे में श्रम मंत्री के
समकक्ष ) रहे । इस अवधि में, अंगरेजी राज के चलते उपस्थित हुयी
बंदिशों और सीमाओं के बावजूद डॉ. आंबेडकर ने उस समय में जारी तीखे मजदूर आंदोलनों
की मांगों को अपने एजेंडे में लिया । उनमे से अनेक के बारे में दूरगामी निर्णय लिए, बाध्यकारी
क़ानून बनवाये ।
सातवे भारतीय श्रम सम्मेलन में 27 नवम्बर
1942 को डॉ अम्बेडकर ने आठ घंटे काम का क़ानून रखा । इसे रखते
हुए उनकी टिप्पणी थी कि "काम के घंटे घटाने का मतलब है रोजगार का बढ़ना
।" इस क़ानून के मसौदे को रखते हुए उन्होंने आगाह किया था कि कार्यावधि 12 से 8 घंटे
किये जाते समय वेतन कम नहीं किया जाना चाहिए ।
महिलाओं के प्रति डॉ अम्बेडकर का सोच उस समय के (और आज के
भी) कथित बड़े राष्ट्रीय नेताओं से काफी आगे था । श्रम सदस्य के रूप में भी
उन्होंने इसी दिशा में प्रयत्न किये । खदान मातृत्व लाभ क़ानून, महिला
कल्याण कोष, महिला एवं बाल श्रमिक संरक्षण क़ानून, महिला
मजदूरों के लिए मातृत्व लाभ क़ानून के साथ उन्होंने भूमिगत कोयला खदानों में महिला
मजदूरों से काम न कराने के क़ानून की बहाली करवाई ।
बिना किसी लैंगिक भेदभाव के समान काम के लिए समान वेतन का
क़ानून भी इसी दिशा में एक कदम था ।
ट्रेड यूनियन एक्ट भले 1926
में
बन गया था । मगर मालिकों द्वारा श्रमिक संगठनो को मान्यता देना अनिवार्य बनाने का
क़ानूनी संशोधन 1943 में हुआ । यही वह समय था जब काम
करते समय दुर्घटना के बीमा, जिसे बाद में ईएसआई का रूप मिला, का
क़ानून बना - इसी समय बने कोयला तथा माइका कर्मचारियों के प्रोविडेंट फण्ड और सारे
मजदूरों के प्रोविडेंट फंड्स ।
न्यूनतम वेतन क़ानून के निर्धारण की प्रक्रिया और उसकी
शुरुआती ड्राफ्टिंग में डॉ आंबेडकर का प्रत्यक्ष योगदान था ।
मजदूरी
के दूसरे पक्ष, ग्रामीण मजदूरों के सम्बन्ध में डॉ
आंबेडकर की समझ साफ़ थी । वे उनके संरक्षण के साथ साथ भूमि सुधारों के हामी थे ।
भूमि के संबन्धो के पुनर्निर्धारण के मामले में डॉ अम्बेडकर का रुख अपने
सहकर्मियों की तुलना में अलग था । वे राजकीय समाजवाद के हिमायती थे । भूमि सुधारों
और आर्थिक गतिविधियों में राज्य के हस्तक्षेप के पक्षधर थे । संविधान सभा में
बुनियादी अधिकारों में जोड़ने के लिए उन्होंने जो बिंदु सुझाये थे उनमे अन्य बातों
के अलावा जो तीन विषय शामिल थे वे इस प्रकार थे :
● प्रमुख केंद्रीय उद्योग सरकारी क्षेत्र में सरकार द्वारा संचालित हों ।
● बुनियादी प्रमुख उद्योग (गैर रणनीतिक) भी सरकारी मालिकाने में रहें, इनका संचालन खुद सरकार या उसके नियंत्रण वाले निगमों द्वारा किया जाए ।
● कृषि राजकीय उद्योग हो । इसका पुनर्संगठन करने के लिए सरकार सारी भूमि का अधिग्रहण करे फिर समुचित आकार में उन जमीनों को गाँव के लोगों के बीच बाँट दे । इस पर परिवारों के समूहों द्वारा सहकारी खेती की जाए ।
● प्रमुख केंद्रीय उद्योग सरकारी क्षेत्र में सरकार द्वारा संचालित हों ।
● बुनियादी प्रमुख उद्योग (गैर रणनीतिक) भी सरकारी मालिकाने में रहें, इनका संचालन खुद सरकार या उसके नियंत्रण वाले निगमों द्वारा किया जाए ।
● कृषि राजकीय उद्योग हो । इसका पुनर्संगठन करने के लिए सरकार सारी भूमि का अधिग्रहण करे फिर समुचित आकार में उन जमीनों को गाँव के लोगों के बीच बाँट दे । इस पर परिवारों के समूहों द्वारा सहकारी खेती की जाए ।
डॉ अम्बेडकर अंग्रेजों की राजस्व प्रणाली के कटु आलोचक थे
। उनका मानना था कि किसी अर्थव्यवस्था के सामाजिक आर्थिक विकास के लिए जरूरी है
पर्याप्त वित्त की उपलब्धता और उसका सही इस्तेमाल !! इस लिहाज से कर प्रणाली को वे
महत्वपूर्ण मानते थे और इस बारे में उनका मानना था कि : टैक्स आमदनी और भुगतान
क्षमता के आधार पर लगना चाहिए । इसकी दरे इस प्रकार से ऊपर की ओर बढ़ती हुयी तय की
जानी चाहिए कि वे गरीब के लिए कम और अमीरों के लिए अधिक हों । एक ख़ास सीमा से कम
आमदनी वालों को टैक्स से मुक्त रखा जाना चाहिए आदि आदि ।
मई दिवस के मौके पर इन सारी बातों के लिखे जाने की जरूरत
इसलिए है ताकि हर तरह के शोषण के खिलाफ लड़ाई को एक सूत्र में पिरोया जा सके ।
इसलिए भी जरूरी है ताकि आंबेडकर के कुपाठ के आधार पर उदारीकरण की आर्थिक नीतियों
को दलितों के लिए वैतरणी की राह बताने वाले, दलित चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स जैसे
अपवाद शिगूफों के आधार पर कारपोरेट पूँजी की वन्दना करने वाले कुछ तथाकथित स्वयंभू
अम्बेडकरवादियों की समझदारी का खोखलापन और उनके मकसद की वास्तविकता समझी जा सके ।
यह ठीक तरह से जाना जा सके कि इन दिनों , इनमे से कुछ भद्र पुरुष जिस
शिद्दत से वामपंथ के विरोध के लिए बहाने ढूंढते हैं,
उन्हें
इस पुण्य काम के लिए सुपारी किसने दी है ।
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