देखिये यह होता है जन आन्दोलन का असर !
समाचार मिल रहा है कि गुजरात में चल रहे दलित आन्दोलन के प्रभाव से गुजरात के १६ जिलों में एस सी /एस टी एक्ट के मामलों के लिए विशेष अदालतों का गठन किया जा रहा है. इससे पहले ससौदा गाँव के २०० से अधिक दलित परिवारों को दो दिन पहले भूमि का कब्ज़ा देना शुरू कर दिया गया है जब कि इसके लिए दलित २००६ से आन्दोलन तथा न्यायालय से गुहार लगा रहे थे.
परन्तु दुर्भाग्य से दलित राजनीतिक पार्टियों के नेता जनांदोलन से डरते हैं क्योंकि जनांदोलन से नये नेता पैदा होते हैं जिन से इन नेताओं को खतरा महसूस होता है. दूसरा जनांदोलन का रास्ता संघर्ष का रास्ता होता है जिस में पुलिस की लाठी, गोली झेलना तथा जेल जाना पड़ता है. परन्तु दलित नेता जाति की राजनीति का आसान रास्ता अपनाते हैं.
१९९५ में जब मैंने कांशी राम जी से यह सवाल पूछा कि आप की पार्टी किसी दलित मुद्दे को लेकर जनांदोलन क्यों नहीं करती जिसमें आन्दोलनकारी पुलिस की लाठी गोली खा कर तथा जेल जा कर मज़बूत होते हैं और उनकी उस मुद्दे के प्रति प्रतिबद्धता बढ़ती है तो उन्होंने कहा था कि दलित बहुत कमज़ोर लोग हैं और वे पुलिस का डंडा नहीं झेल पायेंगे. इस पर मैंने कहा था कि मैं पुलिस वाला हूँ और जनता हूँ कि जब तक वे जनांदोलन में पुलिस का लाठी डंडा नहीं खायेंगे कमज़ोर ही बने रहेंगे. इसी लिए इस कमजोरी का असर उक्त पार्टी पर स्पष्ट दिखाई देता है.
दरअसल जनांदोलन से परहेज़ के पीछे दलित नेताओं का एक तो अपने आप को संघर्ष के कठिन रास्ते से बचाना है दूसरे इसमें किसी नेतृत्व को न उभरने देना है. इसके इलावा उनका इरादा दलितों को कमज़ोर और डरपोक बना कर केवल अपने ऊपर आश्रित रखना होता है जैसा कि दूसरी पार्टियों के नेता भी करते आये हैं.
परन्तु गुजरात के वर्तमान दलित आन्दोलन ने दलित नेताओं की इन नीतियों और अवधारणाओं को गलत सिद्ध कर दिया है. इसने यह दिखा दिया है कि जनांदोलन की ताकत ही सरकार को दलित समस्यायों का समाधान निकालने के लिए बाध्य कर सकती है. दूसरे जन आन्दोलन से कार्यकर्त्ता मज़बूत होते हैं और नया नेतृत्व उभरता है. इसने यह भी दिखा दिया है कि दलित न तो कमज़ोर और बुजदिल हैं और न ही नेताओं पर ही निर्भर हैं. वे अपनी लड़ाई खुद भी लड़ सकते हैं.
बाबासाहेब ने तो बहुत स्पष्ट तौर पर कहा था, "सदियों से छिने हुए अधिकार जालिमों की सदिच्छा को अपील करने से नहीं मिला करते. उन्हें तो सतत संघर्ष करके छीनना पड़ता है."
बाबासाहेब के सर्वप्रिय नारे "शिक्षित करो , संघर्ष करो और संघठित करो" में तो जनांदोलन के माध्यम से ही संगठित करने का आदेश है. मेरे विचार में अब दलितों को नेताओं का मुंह ताकना छोड़ कर अपने उद्दों के लिए स्वयम जनांदोलन का रास्ता अपनाना चाहिए जैसा कि गुजरात के दलितों ने अपनाया है.
इसके साथ ही हमें लेनिन की यह बात भी याद रखनी चाहिए कि "क्रांतिकारी विचार के बिना कभी क्रांति नहीं हो सकती." इसी लिए दलितों को क्रांति करने के लिए, जिसके बिना उनका उद्धार नहीं हो सकता, क्रांतिकारी विचार ग्रहण करना चाहिए. बाबासाहेब ने हमें व्यवस्था परिवर्तन और संघर्ष का क्रांतिकारी विचार दिया है. इसके इलावा दलितों को अन्य क्रन्तिकारियों से भी क्रांतिकारी विचार ग्रहण करने चाहिए. मेरा यह भी सुझाव है कि हरेक दलित को भगत सिंह का "अछूत समस्या" पर लेख http://dalitmukti.blogspot.in/…/achoot-samasya-bhagat-singh… ज़रूर पढ़ना चाहिए.
समाचार मिल रहा है कि गुजरात में चल रहे दलित आन्दोलन के प्रभाव से गुजरात के १६ जिलों में एस सी /एस टी एक्ट के मामलों के लिए विशेष अदालतों का गठन किया जा रहा है. इससे पहले ससौदा गाँव के २०० से अधिक दलित परिवारों को दो दिन पहले भूमि का कब्ज़ा देना शुरू कर दिया गया है जब कि इसके लिए दलित २००६ से आन्दोलन तथा न्यायालय से गुहार लगा रहे थे.
परन्तु दुर्भाग्य से दलित राजनीतिक पार्टियों के नेता जनांदोलन से डरते हैं क्योंकि जनांदोलन से नये नेता पैदा होते हैं जिन से इन नेताओं को खतरा महसूस होता है. दूसरा जनांदोलन का रास्ता संघर्ष का रास्ता होता है जिस में पुलिस की लाठी, गोली झेलना तथा जेल जाना पड़ता है. परन्तु दलित नेता जाति की राजनीति का आसान रास्ता अपनाते हैं.
१९९५ में जब मैंने कांशी राम जी से यह सवाल पूछा कि आप की पार्टी किसी दलित मुद्दे को लेकर जनांदोलन क्यों नहीं करती जिसमें आन्दोलनकारी पुलिस की लाठी गोली खा कर तथा जेल जा कर मज़बूत होते हैं और उनकी उस मुद्दे के प्रति प्रतिबद्धता बढ़ती है तो उन्होंने कहा था कि दलित बहुत कमज़ोर लोग हैं और वे पुलिस का डंडा नहीं झेल पायेंगे. इस पर मैंने कहा था कि मैं पुलिस वाला हूँ और जनता हूँ कि जब तक वे जनांदोलन में पुलिस का लाठी डंडा नहीं खायेंगे कमज़ोर ही बने रहेंगे. इसी लिए इस कमजोरी का असर उक्त पार्टी पर स्पष्ट दिखाई देता है.
दरअसल जनांदोलन से परहेज़ के पीछे दलित नेताओं का एक तो अपने आप को संघर्ष के कठिन रास्ते से बचाना है दूसरे इसमें किसी नेतृत्व को न उभरने देना है. इसके इलावा उनका इरादा दलितों को कमज़ोर और डरपोक बना कर केवल अपने ऊपर आश्रित रखना होता है जैसा कि दूसरी पार्टियों के नेता भी करते आये हैं.
परन्तु गुजरात के वर्तमान दलित आन्दोलन ने दलित नेताओं की इन नीतियों और अवधारणाओं को गलत सिद्ध कर दिया है. इसने यह दिखा दिया है कि जनांदोलन की ताकत ही सरकार को दलित समस्यायों का समाधान निकालने के लिए बाध्य कर सकती है. दूसरे जन आन्दोलन से कार्यकर्त्ता मज़बूत होते हैं और नया नेतृत्व उभरता है. इसने यह भी दिखा दिया है कि दलित न तो कमज़ोर और बुजदिल हैं और न ही नेताओं पर ही निर्भर हैं. वे अपनी लड़ाई खुद भी लड़ सकते हैं.
बाबासाहेब ने तो बहुत स्पष्ट तौर पर कहा था, "सदियों से छिने हुए अधिकार जालिमों की सदिच्छा को अपील करने से नहीं मिला करते. उन्हें तो सतत संघर्ष करके छीनना पड़ता है."
बाबासाहेब के सर्वप्रिय नारे "शिक्षित करो , संघर्ष करो और संघठित करो" में तो जनांदोलन के माध्यम से ही संगठित करने का आदेश है. मेरे विचार में अब दलितों को नेताओं का मुंह ताकना छोड़ कर अपने उद्दों के लिए स्वयम जनांदोलन का रास्ता अपनाना चाहिए जैसा कि गुजरात के दलितों ने अपनाया है.
इसके साथ ही हमें लेनिन की यह बात भी याद रखनी चाहिए कि "क्रांतिकारी विचार के बिना कभी क्रांति नहीं हो सकती." इसी लिए दलितों को क्रांति करने के लिए, जिसके बिना उनका उद्धार नहीं हो सकता, क्रांतिकारी विचार ग्रहण करना चाहिए. बाबासाहेब ने हमें व्यवस्था परिवर्तन और संघर्ष का क्रांतिकारी विचार दिया है. इसके इलावा दलितों को अन्य क्रन्तिकारियों से भी क्रांतिकारी विचार ग्रहण करने चाहिए. मेरा यह भी सुझाव है कि हरेक दलित को भगत सिंह का "अछूत समस्या" पर लेख http://dalitmukti.blogspot.in/…/achoot-samasya-bhagat-singh… ज़रूर पढ़ना चाहिए.
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