बुधवार, 7 सितंबर 2016

दलित एवं आदिवासी तथा भूमि का प्रश्न



दलित एवं आदिवासी तथा भूमि का प्रश्न

-एस. आर. दारापुरी, भूतपूर्व पुलिस महानिरीक्षक एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

 भारत एक गाँव प्रधान देश है. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 6,40,867 गाँव हैं. इसी जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी 121 करोड़ में से 83.3 करोड़ देहात क्षेत्र में और केवल 37.7 करोड़ शहरी आबादी है. इस प्रकार आबादी का लगभग 70% हिस्सा ग्रामीण क्षेत्र में और 30% हिस्सा शहरी क्षेत्र में आवासित है.  देश की आबादी के कुल 24.39 करोड़ परिवारों में से 17.92 करोड़ परिवार ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं जिन में से 3.31 करोड़ अनुसूचित जाति (दलित) तथा 1.96 करोड़ अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) ग्रामीण क्षेत्र में हैं. भारत में दलितों की जनसंख्या 20.14 करोड़ है जो देश की कुल जनसंख्या का 16.6% है. आदिवासियों की जनसंख्या 10.42 करोड़ है जो देश की कुल जनसंख्या का 8.6% है.

 सामाजिक-आर्थिक एवं जाति जनगणना -2011 के आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण भारत में 56% परिवार भूमिहीन हैं जिन में से लगभग 73% दलित तथा 79%  आदिवासी परिवार हैं. ग्रामीण दलित परिवारों में से 45% तथा आदिवासियों में से 30% परिवार केवल हाथ की मजदूरी करते हैं. इसी प्रकार ग्रामीण दलित परिवारों में से 18.35% तथा आदिवासी परिवारों में 38% खेतिहर हैं. इस जनगणना से एक यह बात भी उभर कर आई है कि हमारी जनसंख्या का केवल 40% हिस्सा ही नियमित रोज़गार में है और शेष 60% हिस्सा अनियमित रोज़गार में है जिस कारण वे अधिक समय रोज़गारविहीन रहते हैं.

उपरोक्त आंकड़ों से दलितों तथा आदिवासियों के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण बातें उभर कर आती हैं. एक तो यह है कि ग्रामीण दलित परिवारों का लगभग 73% तथा आदिवासी  परिवारों का 79% हिस्सा हाथ की मजदूरी पर निर्भर हैं. दूसरे अधिकतर दलित एवं आदिवासी परिवार वंचित हैं. तीसरे उनके पास अपना उत्पादन का कोई साधन जैसे ज़मीन आदि नहीं है तथा कोई अन्य हुनर न होने के कारण वे अधिकतर केवल हाथ की मजदूरी पर निर्भर हैं. वे अधिकतर भूमिहीन हैं तथा बहुत थोड़े परिवार खेतिहर हैं. इस प्रकार अधिकतर दलित एवं आदिवासी परिवार कृषि मजदूर हैं जिसके लिए वे उच्च जातियों के भूमिधारकों पर निर्भर हैं. इतना ही नहीं वे अपने जानवरों के लिए घास पट्ठा तथा टट्टी पेशाब के लिए भी उन्हीं पर निर्भर हैं. उनके पास ज़मीन न होने तथा खेती में मौसमी सीमित रोज़गार होने के कारण उन्हें अधिक समय तक बेरोज़गारी का सामना करना पड़ता है.

यह भी सर्वविदित है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और इसकी लगभग 60% आबादी कृषि से खेतिहर तथा  खेतिहर मजदूर के तौर पर जुड़ी हुई है. उपरोक्त आंकड़ों से यह भी स्पष्ट है कि अधिकतर दलित एवं  आदिवासी भूमिहीन हैं और वे केवल हाथ की मजदूरी ही कर सकते हैं. भूमिहीनता और केवल हाथ की मजदूरी उनकी सब से बड़ी दुर्बलताएं हैं. इनके कारण न तो वे जातिभेद और छुआछूत के कारण अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों का मजबूती से सामना कर पाते हैं और न ही मजदूरी के सवाल पर सही ताकत से लड़ाई. क्योंकि खेती में रोज़गार केवल मौसमी होता है अतः उन्हें शेष समय मजदूरी के लिए रोजगार अन्यत्र खोजना पड़ता है या फिर बेरोजगार रहना पड़ता है. इसी कारण ग्रामीण क्षेत्र में 73% दलित तथा 79% आदिवासी परिवार वंचित एवं भूमिहीन हैं.

ग्रामीण क्षेत्र में यह भी एक यथार्थ है कि भूमि न केवल उत्पादन का साधन है बल्कि यह सम्मान और सामाजिक दर्जे का भी प्रतीक है. गाँव में जिस के पास ज़मीन है वह न केवल आर्थिक तौर पर मज़बूत है बल्कि सामाजिक तौर पर भी सम्मानित है. अब चूँकि अधिकतर दलितों के पास न तो ज़मीन है और न ही नियमित रोज़गार, अतः वे न तो सामाजिक तौर पर सम्मानित हैं और न ही आर्थिक तौर पर मज़बूत. ग्रामीण क्षेत्र में दलित तभी सशक्त हो सकते हैं जब उन के पास ज़मीन आये और उन्हें नियमित रोज़गार मिले. अतः भूमि वितरण और सुरक्षित रोज़गार की उपलब्धता दलितों और आदिवासियों तथा अन्य भूमिहीनों की प्रथम ज़रूरत है. 

भारत के स्वतंत्र होने पर देश में संसाधनों के पुनर्वितरण हेतु ज़मींदारी व्यवस्था समाप्त करके भूमि सुधार लागू किये गए थे. इस द्वारा देश में व्याप्त भूमि सीमारोपण कानून बनाये गए थे जिस से भूमिहीनों को आवंटन के लिए भूमि उपलब्ध करायी जानी थी. परन्तु इन कानूनों को लागू करने में बहुत बेईमानी की गयी क्योंकि उस समय सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस में अधिकतर नेता पुराने ज़मीदार ही थे और प्रशासन में भी इसी वर्ग का बर्चस्व था. इसी लिए एक तो इन कानूनों से बहुत कम ज़मीन निकली और जो निकली भी उसका भूमिहीनों को वितरण नहीं किया गया. परिणामस्वरूप इन कानूनों को लागू करने से पहले जिन लोगों के पास उक्त ज़मीन थी वह उनके पास ही बनी रही. आज भी विभिन्न राज्यों में बेनामी और ट्रस्टों व मंदिरों के नाम हजारों हजारों एकड़ ज़मीन बनी हुई है. इसी का परिणाम है कि आज देश में 18.53% लघु एवं 64.77% सीमांत जोत के किसान हैं जिन के पास कुल जोत क्षेत्र का केवल 41.52% हिस्सा है. शेष 59% क्षेत्रफल पर 17% मध्यम एवं बड़े किसानों का कब्ज़ा है.

सामाजिक-आर्थिक एवं जाति जनगणना के आंकड़ों के विश्लेषण से स्पष्ट है ग्रामीण क्षेत्र के दलितों एवं आदिवासियों के लिए भूमि का प्रश्न सब से महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसे भूमि सुधारों को सही ढंग से लागू किये बिना हल करना संभव नहीं है. परन्तु यह बहुत बड़ी बिडम्बना है कि भूमि सुधार और भूमि वितरण किसी भी दलित अथवा गैर दलित पार्टी के एजंडे पर नहीं है. अतः दलितों एवं आदिवासियों का तब तक सशक्तिकरण संभव नहीं है जब तक उन्हें भूमि वितरण द्वारा भूमि उपलब्ध नहीं कराई जाती. यह देखा गया है कि जिन राज्यों जैसे पच्छिमी बंगाल और केरल में भूमि सुधार लागू करके दलितों को भूमि उपलब्ध करायी गयी थी वहां पर उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बहुत सुधार हुआ है.  

यह ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश में  1995 से लेकर 2012 तक मायावती चार बार मुख्य मंत्री रही है. उसके शासन काल में केवल 1995 में उत्तर प्रदेश के मध्य तथा पच्छिमी क्षेत्र को छोड़ कर शेष भागों में कोई भी भूमि आवंटन नहीं किया गया. पूर्वी उत्तर प्रदेश जहाँ दलितों की सब से घनी आबादी है, में तो गोरखपुर को छोड़ कर कहीं भी भूमि आवंटन नहीं हुआ. ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश में आवंटन के लिए भूमि उपलब्ध नहीं थी. 1995 में उत्तर प्रदेश में सीलिंग की अतिरिक्त भूमि, ग्राम समाज तथा भूदान की इतनी भूमि उपलब्ध थी कि उससे  न केवल दलित बल्कि अन्य जातियों के भूमिहीनों को भी गुज़ारे लायक भूमि मिल सकती थी परन्तु मायावती ने उसका आवंटन नहीं किया. इतना ही नहीं जो आवंटन किया भी गया या जो भूमि पूर्व में आवंटित थी उसके कब्ज़े दिलाने के लिए भी कोई कार्रवाही नहीं की. 1995 के बाद तो फिर सर्वजन की राजनीति के चक्कर में न तो कोई आवंटन किया गया और न ही कोई कब्ज़ा ही दिलवाया गया. 2001 की जनगणना से यह एक बात उभर कर आई थी कि 1991-2001 के दशक में उत्तर प्रदेश के 23% दलित भूमिधारक से भूमिहीन की श्रेणी में आ गये थे. यह विचारणीय है कि इस अवधि में मायावती तीन बार उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री रही थी. 

उत्तर प्रदेश में जब 2002 में मुलायम सिंह यादव की सरकार आई तो उन्होंने राजस्व कानून में संशोधन करके दलितों की भूमि आवंटन की वरीयता को ही बदल दिया और उसे अन्य भूमिहीन वर्गों के साथ जोड़ दिया. उनकी सरकार में भूमि आवंटन तो हुआ परन्तु ज़मीन दलितों को न दे कर अन्य जातियों को दे दी गयी. इसके साथ ही उन्होंने कानून में संशोधन करके दलितों की ज़मीन को गैर दलितों द्वारा ख़रीदे जाने वाले प्रतिबंध को भी हटा दिया. उस समय तो यह कानूनी संशोधन टल गया था परन्तु अब उन्होंने इसे विधिवत कानून का रूप दे दिया है. इस प्रकार मायावती द्वारा दलितों को भूमि आवंटन न करने, मुलायम सिंह द्वारा कानून में दलितों की भूमि आवंटन की वरीयता को समाप्त करने के कारण उत्तर प्रदेश के दलितों को भूमि आवंटन नहीं हो सका और ग्रामीण क्षेत्र में उनकी स्थिति अति दयनीय बनी हुई है. 

आदिवासियों के सशक्तिकरण हेतु वनाधिकार कानून- 2006 तथा नियमावली 2008 में लागू हुई थी. इस कानून के अंतर्गत सुरक्षित जंगल क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों तथा गैर आदिवासियों को उनके कब्ज़े की आवासीय तथा कृषि भूमि का पट्टा दिया जाना था. इस सम्बन्ध में आदिवासियों द्वारा अपने दावे प्रस्तुत किये जाने थे. उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी परन्तु उसकी सरकार ने इस दिशा में कोई भी प्रभावी कार्रवाही नहीं की जिस का नतीजा यह हुआ कि 30.1.2012 को उत्तर प्रदेश में आदिवासियों द्वारा प्रस्तुत कुल 92,406 दावों में से 74,701 दावे अर्थात 80 % दावे रद्द कर दिए गए और केवल 17,705 अर्थात केवल 19% दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1,39,777 एकड़ भूमि आवंटित की गयी.

 मायावती सरकार की आदिवासियों को भूमि आवंटन में लापरवाही और दलित/आदिवासी विरोधी मानसिकता को देख कर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की थी जिस पर उच्च न्यायालय ने अगस्त, 2013 में राज्य सरकार को वनाधिकार कानून के अंतर्गत दावों को पुनः सुन कर तेज़ी से निस्तारित करने के आदेश दिए थे परन्तु उस पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया. इस प्रकार मायावती तथा अखिलेश सरकार की लापरवाही तथा दलित/आदिवासी विरोधी मानसिकता के कारण 80 % दावे रद्द कर दिए गए. उत्तर प्रदेश सरकार ने यह भी दिखाया है की सरकारी स्तर पर कोई भी दावा लंबित नहीं है. इसी प्रकार दिनांक 30.04.2016 तक राष्ट्रीय स्तर पर कुल 44,23,464 दावों में से 38,57,379 दावों का निस्तारण किया गया जिन में केवल 17,44,274 दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1.03,58,376 एकड़ भूमि आवंटित की गयी जो कि प्रति दावा लगभग 5 एकड़ बैठती है. राष्ट्रीय स्तर पर अस्वीकृत दावों की औसत 53.8 % है जब कि उत्तर प्रदेश में यह 80.15% है. इससे स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को लागू करने में घोर लापरवाही बरती गयी है जिस के लिए मायावती तथा मुलायम सरकार बराबर के ज़िम्मेदार हैं.

अब यदि गुजरात की स्थिति देखी जाये तो यह और भी भयावह है. गुजरात में दिनांक 30.04.2016 तक वनाधिकार कानून के अंतर्गत 1,90,097 दावे प्राप्त हुए थे जिन में से केवल 77.038 दावों को ही स्वीकार किया गया तथा कुल 11,92,351 एकड़ भूमि आवंटित की गयी. इस प्रकार 65% दावे अस्वीकृत कर दिए  गए. इससे स्पष्ट है कि मोदी के गुजरात के विकास माडल में केवल 35% आदिवासियों और वनवासियों को ही भूमि आवंटित की गयी. इसी लिए तो गुजरात दलित आन्दोलन में भूमिहीन दलितों को 5 एकड़ ज़मीन के साथ साथ वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों और वनवासियों को भूमि आवंटन की मांग भी उठानी पड़ी है.    

दलितों को भूमि आवंटन तथा आदिवासियों के मामले में वनाधिकार कानून को लागू करने में राज्यों तथा केन्द्रीय सरकार द्वारा जो लापरवाही एवं उदासीनता दिखाई गयी है उससे स्पष्ट है सत्ताधारी पार्टियाँ तथा दलित एवं गैर दलित पार्टियाँ नहीं चाहतीं कि दलितों/आदिवासियों का सशक्तिकरण हो. वे सभी दलितों/आदिवासियों  को निर्धन एवं अशक्त रख कर उनका जाति के नाम पर वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करना चाहती हैं. उत्तर प्रदेश इसकी सब से बड़ी उदाहरण है जहाँ चार वार दलित मुख्य मंत्री रही है परन्तु न तो दलितों को भूमि आवंटित की गयी और न ही आदिवासियों को वनाधिकार कानून के अंतर्गत ज़मीन के पट्टे दिए गए जैसा कि उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है. यह भी भारतीय राजनीति का दिवालियापन ही है कि वर्तमान में भूमि सुधार एवं भूमि आवंटन किसी भी पार्टी, चाहे वह दलित हो या गैर दलित, के एजंडे में नहीं हैं. सभी पार्टियाँ केवल जाति समीकरण व सम्प्रदाय की राजनीति करके सत्ता पाने की होड़ में लगी है. उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनाव में भी सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस केवल जाति एवं धर्म के गठजोड़ का ताना बाना बुनने में लगी हैं  परन्तु भूमि सुधार तथा भूमि आवंटन उनके एजंडे में कोई स्थान नहीं रखता है जो कि दलितों, आदिवासियों और अन्य भूमिहीन तबकों के सशक्तिकरण की बुनियादी ज़रुरत है.

अतः जब सरकारों और राजनीतिक पार्टियों का दलितों और आदिवासियों के सशक्तिकरण की बुनियादी ज़रुरत भूमि सुधार तथा भूमि आवंटन के प्रति घोर लापरवाही तथा जानबूझ कर उपेक्षा का रवैया है तो फिर इन वर्गों के सामने जनांदोलन के सिवाय क्या चारा बचता है. इतिहास गवाह है दलितों और आदिवासियों ने इससे पहले भी कई वार भूमि आन्दोलन का रास्ता अपनाया है. 1953 में डॉ. आंबेडकर के निर्देशन में हैदराबाद स्टेट के मराठवाड़ा क्षेत्र में तथा 1958 में महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में दलितों द्वारा भूमि आन्दोलन चलाया गया था. दलितों का सब से बड़ा अखिल भारतीय भूमि आन्दोलन रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआई) के आवाहन पर 6 दिसंबर, 1964 से 10 फरवरी, 1965 तक चलाया गया था जिस में लगभग 3 लाख सत्याग्रही जेल गए थे. यह आन्दोलन इतना ज़बरदस्त था कि तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री को दलितों की भूमि आवंटन तथा अन्य  मांगे माननी पड़ीं थीं.  इसके फलस्वरूप ही कांग्रेस सरकारों को भूमिहीन दलितों को कुछ भूमि आवंटन करना पड़ा. परन्तु इसके बाद आज तक कोई भी बड़ा भूमि आन्दोलन नहीं हुआ. इतना ज़रूर है कि सत्ता में आने से पहले कांशी राम ने “जो ज़मीन सरकारी है, वह ज़मीन हमारी है” का नारा तो दिया था परन्तु मायावती के कुर्सी पर बैठने पर उसे सर्वजन के चक्कर में पूरी तरह से भुला दिया गया.

दलितों के लिए भूमि के महत्त्व पर डॉ. आंबेडकर ने 23 मार्च, 1956 को आगरा के भाषण में कहा था, ”मैं गाँव में रहने वाले भूमिहीन मजदूरों के लिए काफी चिंतित हूँ. मैं उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाया हूँ. मैं उनके दुःख और तकलीफें सहन नहीं कर पा रहा हूँ. उनकी तबाहियों का मुख्य कारण यह है कि उनके पास ज़मीन नहीं है. इसी लिए वे अत्याचार और अपमान का शिकार होते हैं. वे अपना उत्थान नहीं कर पाएंगे. मैं इनके लिए संघर्ष करूँगा. यदि सरकार इस कार्य में कोई बाधा उत्पन्न करती है तो मैं इन लोगों का नेतृत्व करूँगा और इन की वैधानिक लड़ाई लडूंगा. लेकिन किसी भी हालत में भूमिहीन लोगों को  ज़मीन दिलवाने का प्रयास करूँगा. इस से स्पष्ट है कि बाबासाहेब दलितों के उत्थान के लिए भूमि के महत्व को जानते थे और इसे प्राप्त करने के लिए वे कानून तथा जनांदोलन के रास्ते को अपनाने वाले थे परन्तु वे इसे मूर्त रूप देने के लिए अधिक दिन तक जीवित नहीं रहे.

इस बीच देश के विभिन्न हिस्सों में आदिवासियों द्वारा “भूमि अधिकार आन्दोलन” चलाया जाता रहा है परन्तु दलितों द्वारा कोई भी बड़ा भूमि आन्दोलन नहीं चलाया गया है जिस कारण उन्हें कहीं भी भूमि आवंटन नहीं हुई  है. नक्सलबाड़ी आन्दोलन का मुख्य एजंडा दलितों/आदिवासियों को भूमि दिलाना ही था. दक्षिण भारत के  राज्यों जैसे तमिलनाडू तथा आन्ध्र प्रदेश में “पांच एकड़” भूमि का नारा दिया गया है. हाल में गुजरात दलित आन्दोलन के दौरान भी दलितों को पांच एकड़ भूमि तथा आदिवासियों को वनाधिकार कानून के अंतर्गत ज़मीन देने की मांग उठाई गयी है जो कि दलित राजनीति को जाति के मक्कड़जाल  से बाहर निकालने का काम कर सकती है. यदि इस मांग को अन्य राज्यों में भी अपना कर इसे दलित आन्दोलन और दलित राजनीति के एजंडे में प्रमुख स्थान दिया जाता है तो यह दलितों और आदिवासियों के वास्तविक सशक्तिकरण में बहुत कारगर सिद्ध हो सकता है. अब तो जिन राज्यों में दलितों/आदिवासियों को आवंटन के लिए सरकारी भूमि उपलब्ध नहीं है उसे अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति सब प्लान के बजट से खरीद कर दिया जा सकता है.

अतः अगर दलितों और आदिवासियों का वास्तविक सशक्तिकरण करना है तो वह भूमि सुधारों को कड़ाई से लागू करके तथा भूमिहीनों को भूमि आवंटित करके ही किया जा सकता है. इसके लिए वांछित स्तर की राजनीतिक इच्छा शक्ति की ज़रुरत है जिस का वर्तमान में सर्वथा अभाव है. अतः भूमि सुधारों को लागू कराने  तथा भूमिहीन दलितों/आदिवासियों को भूमि आवंटन कराने के लिए एक मज़बूत भूमि आन्दोलन चलाये जाने की आवश्यकता है. इस आन्दोलन को बसपा जैसी अवसरवादी और केवल जाति की राजनीति करने वाली पार्टी नहीं चला सकती है क्योंकि इसे सभी प्रकार के आंदोलनों से परहेज़ है. आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने भूमि सुधार और भूमि आवंटन को अपने एजंडे में प्रमुख स्थान दिया है और इसके लिए अदालत में तथा ज़मीन पर भी लड़ाई लड़ी है. इसी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को ईमानदारी से लागू कराने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर करके आदेश भी प्राप्त किया था जिसे मायावती और मुलायम की सरकार ने विफल कर दिया. आइपीएफ़ अब पुनः उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में भूमि आन्दोलन प्रारंभ करने जा रहा है. अतः आइपीएफ सभी दलित/आदिवासी हितैषी संगठनों और दलित/गैर दलित  राजनीतिक पार्टियों का आवाहन करता है कि वे अगर सहमत हों तो उत्तर प्रदेश के 2017 के चुनाव में भूमि सुधार और भूमि आवंटन को सभी राजनीतिक पार्टियों के एजंडे में शामिल कराने के लिए जन दबाव बनाने में सहयोग दें.

 

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