दलित राजनीति की समस्याएं और समाधान
-एस.आर. दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल
इंडिया पीपुल्स फ्रंट
इधर वर्तमान दलित राजनीति के लिए एक नयी चुनौती खड़ी हुयी है. वह
चुनौती है दलित राजनीति के जनक डॉ. आंबेडकर को विभिन्न राजनैतिक पार्टियों द्वारा
हथियाए जाने की. इस में भाजपा सब से अधिक सक्रिय है. कांग्रेस भी इसमें बड़ी शिद्दत
से लगी हुयी है. समाजवादी पार्टी भी सरकारी तौर पर डॉ. आंबेडकर जयंती के माध्यम से
डॉ. आंबेडकर मानने वालों को लुभाने की कोशिश कर रही है. इन पार्टियों का आंबेडकर प्रेम उनका दलितों
अथवा डॉ आंबेडकर के प्रति कोई हृदय परिवर्तन नहीं है बल्कि उनके जातिवाद और
हिंदुत्व के विरुद्ध संघर्ष की धार को कुंद करने का प्रयास है. दरअसल
पिछले कुछ सालों से दलित नेताओं ने डॉ. आंबेडकर का राजनीतिक इस्तेमाल जिस तरह केवल
वोट बटोरने के प्रतीक के रूप में किया है और आंबेडकर की विचारधरा को उस के
क्रन्तिकारी सारतत्व से विरक्त कर दिया है उसी का यह दुष्परिणाम है कि भाजपा
आंबेडकर को हथियाने का साहस कर पा रही है जब कि यह उस के लिए संभव नहीं होगा.
कांग्रेस तो बहुत दिनों से इस प्रयास में लगी हुयी है परन्तु उसे भी कोई खास सफलता
नहीं मिल पाई है.
वर्तमान दलित राजनीति
के लिए किसी नए विकल्प की तलाश से पहले वर्तमान दलित राजनीति की दशा और दिशा का
विवेचन करना बहुत ज़रूरी है. दलित आबादी भारत की कुल आबादी का लगभग एक चौथाई हिस्सा
है. इतनी बड़ी आबादी की राजनीति की देश की राजनीति में प्रमुख भूमिका होनी चाहिए
परन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं. वर्तमान में दलितों की कई राजनीतिक पार्टिया
सक्रिय हैं. एक बहुजन समाज पार्टी है, दूसरी रिपब्लिकन पार्टी
है जिस के कई घटक हैं और तीसरी रामविलास पासवान की लोक जन शक्ति पार्टी है. दक्षिण
भारत में भी एक दो छोटी मोटी दलित पार्टियाँ हैं. फिलहाल बहुजन समाज पार्टी उत्तर
प्रदेश तक सिमट कर रह गयी है. रिपब्लिकन पार्टी महाराष्ट्र में सक्रिय है जिस के
एक गुट के नेता रामदास आठवले और दूसरे के प्रकाश आंबेडकर. इस का तीसरा गवई गुट
हमेशा से कांग्रेस के साथ रहा है. इसके शेष गुट कोई खास अहमियत नहीं रखते हैं.
इन सभी पार्टियों की
राजनीति व्यक्तिवादी, जातिवादी, अवसरवादी,
सिद्धान्तहीन, मुद्दाविहीन और अधिनायकवादी है.
इन पार्टियों के नेता आंबेडकर और दलितों के नाम पर व्यक्तिगत लाभ के लिए अलग अलग
पार्टियों के से गठजोड़ करते रहते हैं. इन पार्टियों की इसी राजनीति के फलस्वरूप आज
दलित राजनीति बहुत सी बुराईयों/कमजोरियों का शिकार हो गयी है जिस कारण दलित
राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में न होकर हाशिये पर पड़े हैं. एक ओर दलित नेता
दलितों का भावनात्मक शोषण करके उनका अपने लाभ के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. वहीँ
दूसरी ओर दूसरी राजनीतिक पार्टियाँ इन नेताओं की कमजोरियों से लाभ उठा कर इन्हें
तथा दलितों की विभिन्न उप जातियों को पटा कर उन के वोट हथिया ले रही हैं.
परिणामस्वरूप दलित बेचारे इन दलित नेताओं और दूसरी पार्टियों के लिए वोट बैंक बन
कर रह गए हैं जब कि उन के मुद्दे: गरीबी, भूमिहीनता, बेरोज़गारी, अशिक्षा, उत्पीड़न
और सामाजिक तिरस्कार किसी भी पार्टी के एजंडे पर नहीं हैं. वर्तमान दलित राजनीति
अपने जनक डॉ. आंबेडकर की विचारधारा, आदर्शों और लक्ष्यों से
पूरी तरह भटक चुकी है. अतः अब इसे एक नए रैडिकल विकल्प की ज़रुरत है.
इस से पहले वर्तमान दलित राजनीति की कमियों, कमजोरियों,
भटकाव और उलझनों पर दृष्टिपात करना समीचीन होगा. वर्तमान दलित
राजनीति की कुछ मुख्य व्याधियां/कमज़ोरियां निम्नलिखित हैं:
- व्यक्तिवादी/अधिनायकवादी राजनीति: वर्तमान दलित राजनैतिक पार्टियां कुछ व्यक्तियों की निजी जायदाद बन कर रह गयी हैं. वे किसी राजनीतिक सिद्धांत अथवा दलित हित की बजाये व्यक्तिगत लाभ के लिए किसी भी पार्टी से समझौता करने के लिए तैयार रहते हैं. वैसे तो वे सभी डॉ. आंबेडकर का नाम लेकर दलित हितों की राजनीति करने का दावा करते हैं परन्तु अंतर्वस्तु में वे विशुद्ध व्यक्तिगत लाभ की राजनीति करते हैं. उन के लिए डॉ. आंबेडकर और दलित केवल साधन मात्र हैं जिन का वे भावनात्मक शोषण करते है. रिपब्लिकन पार्टी के विभाजन का मुख्य कारण भी व्यक्तिवाद ही था. मायावती तो बसपा की एक मात्र मालिक है उस में कोई दूसरा नेता कोई अहमियत नहीं रखता है. बाकी पार्टियों में भी राष्ट्रीय अध्यक्ष के इलावा किसी अन्य नेता का कोई वजूद नहीं है. हम सब लोग जानते हैं कि डॉ. आंबेडकर व्यक्ति पूजा के बहुत खिलाफ थे. डॉ. आंबेडकर तो कहते थे कि मुझे भक्त नहीं अनुयायी चाहिए परन्तु इन पार्टियों में तो भक्तजनों की भरमार है. इसी प्रकार डॉ. आंबेडकर राजनीतिक पार्टी में आन्तरिक लोकतंत्र के प्रबल पक्षधर थे परन्तु दलित पार्टियों में तो घोर व्यक्तिवाद और अधिनायकवाद है.
- सिद्धान्तहीन गठजोड़: वर्तमान दलित राजनीति सिद्धान्तहीन एवं अवसरवादी गठजोड़ का शिकार है. इस का सब से बड़ा उदहारण बसपा द्वारा भाजपा से तीन बार किया गया गठजोड़ है और चौथे की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है. यह वही बसपा है जिस का नारा था: “तिलक, तराजू और तलवार; इनको मारो जूते चार” और “ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया चोर, बाकी हैं सब डीएसफोर” जो अब बदल कर “हाथी नहीं गणेश है; ब्रह्मा, विष्णु, महेश है” हो गया है. मायावती का बहुजन अब सर्वजन की शरण में नतमस्तक है और व्यवस्था परिवर्तन की जगह समरसता की घुट्टी पी कर मस्त है. इसी तरह से मनुवाद को पानी पी पी कर गाली देने वाले इंडियन जस्टिस पार्टी के रष्ट्रीय अध्यक्ष उदित राज अब भाजपा में शामिल हो कर राम नाम की माला जप रहे हैं. रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (ए) के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामदास आठवले ने भीम शक्ति और शिव शक्ति का गठजोड़ करके भाजपा की मदद से राज्य सभा में अपने लिए सीट प्राप्त कर ली है. लोक जन शक्ति के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामविलास पासवान ने भाजपा से गठजोड़ करके अपने लिए हमेशा की तरह मंत्री पद हथिया लिया है.
दलित नेताओं द्वारा किये गए गठजोड़ दलित हित में नहीं बल्कि व्यक्तिगत लाभ
के लिए किये जाते हैं. यह बात इस तथ्य से अधिक स्पष्ट हो जाती है कि इन्होने जिन
पार्टियों के साथ गठजोड़ किये हैं उनकी तथा इन की पार्टी की विचारधार और एजंडे में
कोई समानता नहीं है. दलित नेता अक्सर यह कहते हैं कि डॉ. आंबेडकर ने भी कांग्रेस
तथा अन्य पार्टियों के साथ गठजोड़ किये थे. परन्तु वे इस बात को भूल जाते हैं कि
उन्होंने यह गठजोड़ दलित हित में किये थे न के व्यक्तिगत लाभ के लिए. कांग्रेस के
साथ वे संविधान बनाने के लिए इस लिए जुड़े थे क्योंकि वे संविधान में दलितों को
उनका हक़ दिलाना चाहते थे. उन्होंने प्रथम चुनाव में दूसरी पार्टियों के साथ गठजोड़
विचारधारा और एजंडा की समानता के आधार पर ही किया था. डॉ. आंबेडकर का कांग्रेस के
साथ गठजोड़ एक अपवाद स्वरूप था. उन्होंने कभी भी अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहल के साथ
समझौता नहीं किया और जब ज़रुरत समझी कांग्रेस मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया.
3. मुद्दाविहीन राजनीति: वर्तमान दलित राजनीति मुद्दाविहीनता का
शिकार है. अपने आप को दलितों का मसीहा कहने वाली मायावती की पार्टी का आज तक कोई
भी दलित एजंडा सामने ही नहीं आया है. उन का कहना है कि आप हमें पहले सत्ता दिलाइये
फिर हम आप के लिए काम करेंगे. यह तो दलित राजनीति का दिवालियापन है जिस का न तो
कोई दलित एजंडा है और न ही कोई राष्ट्रीय एजंडा. इसी लिए दलित राजनीति न केवल
दिशाविहीन है बल्कि इसी कारण दलित नेता अपनी मनमर्जी करने में सफल हो जा रहे हैं.
एजंडा बनाने से नेता उस से बंध जाता है और उस से मुकर जाने पर उस की जवाबदेही हो
सकती है. इसी लिये दलित नेता अपने वोटरों से बिना कोई वादा किये आंबेडकर और जाति
के नाम पर वोट लेते हैं. दलित पार्टियों द्वारा कोई भी एजंडा घोषित न करने के कारण
दूसरी पार्टियाँ भी अपना कोई दलित एजंडा नहीं बनाती हैं और इतना बड़ा दलित समुदाय
राष्ट्रीय राजनीति में केवल वोटर हो कर रह गया है और उस के मुद्दे राष्ट्रीय
राजनीति का केंद्र बिंदु नहीं बनते. यह वर्तमान दलित राजनीति की सब से बड़ी विफलता
है.
4. पहचान की राजनीति : वर्तमान दलित राजनीति पहचान की राजनीति
की दलदल में फंसी हुयी है. दलित नेता अपनी राजनीति दलित मुद्दों को लेकर नहीं
बल्कि जाति समीकरणों को लेकर करते हैं. वे या तो अपनी अपनी उपजाति के वोटरों को
जाति के नाम पर लुभाते हैं या फिर डॉ. आंबेडकर के नाम को भुनाते हैं. मायावती तो
दलितों पर अपना एकाधिकार जताती है. वह यह बात भी बहुत अधिकारपूर्ण ढंग से कहती है
कि उस का वोट हस्तान्तरणीय है जैसे कि दलित वोटर उस की भेढ़ बकरियां हों जिन्हें वह
जिस मंडी में में चाहे मनचाहे दाम में बेच सकती है. मायावती ने एक बार दिल्ली
चुनाव में तो यहाँ तक कह दिया था कि “जो दलित बसपा को वोट
नहीं देगा मैं मानूंगी कि उस ने अपनी मां बहिन की इज्ज़त बेच दी है.” देखिये यह दलितों के लिए कितनी शर्मनाक चुनौती है कि उन का नेता उन्हें
किस तरह से ब्लैकमेल करता है. दलित वोटों पर इसी एकाधिकार के कारण ही तो वह अपने
टिकट किसी भी माफिया, गुंडे बदमाश और दलित विरोधी को मनचाहे
दाम पर बेच देती है और उसे दलित वोट दिलवा कर जिता देती है. इसी कारण बाद में
जीतने के बाद ये नेता दलितों का कोई काम नहीं करते है और खुले आम कहते हैं कि हम
ने मायावती को पैसा देकर टिकट लिया है और वोटरों को पैसा देकर वोट लिया है. दरअसल
मायावती ने दलित राजनीति को उन्हीं गुंडे बदमाशो, माफिययों
और दलित उत्पीड़कों के हाथों बेच दिया है जिन से उनकी लड़ाई थी. कुछ इसी प्रकार का
व्यवहार अन्य दलित पार्टियों के नेता भी अपने वोटरों के साथ करते हैं. मायावती
चाहे जो भी दावा करे वर्तमान में उस का दलित आधार बहुत हद तक खिसक गया है.
5. दलित राजनीति हिंदुत्व की पोषक: दलित नेताओं की जतिवादी राजनीति के कारण
जाति मज़बूत हुयी है जिस कारण हिन्दू धर्म मज़बूत हुआ है और हिंदुत्व की राजनीति
प्रबल हुयी है. भाजपा हिन्दू धर्म और हिंदुत्व की सब से बड़ी पैरोकार है और उस ने
हिंदुत्व की राजनीति को उभार कर सत्ता प्राप्त की है. यह सर्विदित है बहुसंख्यक
दलित अभी भी हिन्दू ही हैं. नव दीक्षित बौद्धों का प्रतिशत बहुत कम है. दलित
नेताओं ने जाति/उपजाति की राजनीति करके जातिगत पहचान को उभारा है जिस से दलितों का
उपजाति विभाजन प्रखर हुआ है जिस का फायदा भाजपा ने उठाया है. उस ने दलितों की छोटी
उपजातियों को बृहद हिन्दू छत्र के नाम पर बरगला कर तथा उन्हें
राजनीतिक प्रतिनिधित्व देकर बड़ी दलित उपजातियों के खिलाफ भड़काया है जिस से दलितों
में उपजाति विभाजन तथा टकराव तेज़ हुआ है. वर्तमान दलित उपजातियों की बहुत बड़ी
संख्या भाजपा की हिंदु पहचान में शामिल हो चुकी है. वैसे
भी दलित कोई एक संगठित समूह नहीं है क्योंकि दलित 500 से
अधिक उपजातियों में बंटे हुए हैं जो एक दूसरे से जातिभेद करते हैं. जाति की
राजनीति ने इस विभाजन को और भी उभार दिया है. इन दलित नेताओं की जाति की राजनीति
ने बाबा साहेब के जाति विनाश के एजंडे को बहुत पीछे धकेल दिया है.
6.
दलित राजनीति में भ्रष्टाचार: एक बार बाबा साहेब ने बातचीत के दौरान कहा था,” मेरे
विरोधी मेरे विरुद्ध तमाम आरोप लगाते रहे हैं परन्तु मेरे ऊपर कोई भी दो आरोप नहीं
लगा सका. एक मेरे चरित्र के बारे में और दूसरा मेरी ईमानदारी के बारे में.”
आज कितने दलित नेता इस प्रकार का दावा कर सकते हैं? मायावती का भ्रष्टाचार तो खुली किताब है. ताज कोरिडोर, आय से अधिक संपत्ति और अब यादव सिंह का मामला तो मायावती के भ्रष्टाचार के
कुछ प्रमुख उदहारण हैं. उस द्वारा अपनी और दलित महापुरुषों की मूर्तियां लगाने में
भी बड़े स्तर का भ्रष्टाचार उजागर हुआ है. मायावती द्वारा ऊँचे दामों पर टिकट बेचना,
अधिकारियों की पोस्टिंग/ट्रांसफर में पैसा लेना, रैलियों में थैली भेंट करवाना और करोड़ों के नोटों के हार स्वीकार करना खुला
नहीं है तो और क्या है. वैसे यह अलग बात है कि उस के कुछ अंध भक्त दूसरों के भ्रष्टाचार तथा
पार्टी खर्चे के लिए धन एकत्र करने की ज़रुरत बता कर इसे उचित ठहराने की कोशिश करते
हैं.
मायावती के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का पार्टी के कार्यकलापों और कार्यकर्ताओं
पर बहुत बुरा असर पड़ा है. इसके कारण बसपा के काफी कार्यकर्त्ता भ्रष्ट हो गए हैं.
इसका एक मुख्य कारण पैसे वाले लोगों द्वारा बसपा का टिकट खरीद कर चुनाव में पार्टी
कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को पैसा बाँट कर भ्रष्ट बनाना भी है. यह सर्वविदित
है कि भ्रष्टाचार जनविरोधी होता है और उसका सब से अधिक खामियाजा गरीब लोगों को
भुगतना पड़ता है. मायावती के भ्रष्टाचार का खामियाजा उत्तर प्रदेश के दलितों को
भुगतना पड़ा है जिस कारण वे राज्य द्वारा चलाई जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं के
वांछित लाभ से वंचित रह गए. परिणामस्वरूप 2001 की जनगणना के अनुसार
उत्तर प्रदेश के दलित विकास के मापदंडों (शिक्षा दर, स्त्री-पुरुष
अनुपात, शिशुओं का लिंग अनुपात और नियमित रोज़गार आदि) पर
बिहार, ओड़िसा और मध्य प्रदेश के दलितों को छोड़ कर देश के
अन्य सभी राज्यों के दलितों से पिछड़े हैं. इस से स्पष्ट है कि मायावती की सत्ता का
लाभ दलितों को नहीं बल्कि दूसरे लोगों को ही मिला है.
उपरोक्त विवेचन से
वर्तमान दलित राजनीति की जो कमियां, कमजोरियां, भटकाव और उलझनें दृष्टिगोचर हुयी हैं उन के
परिपेक्ष्य में एक नए रैडिकल विकल्प की ज़रुरत है जो परम्परागत सत्ता की राजनीति की
जगह व्यवस्था परिवर्तन की पक्षधर हो. इन के परिपेक्ष्य में उक्त रैडिकल विकल्प की
रूप रेखा निम्नवत हो सकती है:
- जनतान्त्रिक पार्टी : जैसा कि वर्तमान दलित पार्टियों की संरचना के विवेचन से स्पष्ट है कि वे एक व्यक्ति आधारित पार्टिया हैं जो उनकी व्यक्तिगत जागीर हैं जिसका इस्तेमाल एक व्यापारिक घराने की तरह किया जाता है. इन के अध्यक्ष ही इनके सर्वेसर्वा हैं और उन के इलावा पार्टी में किसी दूसरे नेता का कोई अस्तित्व नहीं है. इन में हद दर्जे का अधिनायकवाद है. इनकी कार्यकारिणी सम्मतियाँ केवल खाना पूर्ती मात्र है. पार्टी के अन्दर सामूहिक निर्णय लेने की कोई परम्परा नहीं है. अध्यक्ष का निजी मत ही पार्टी का मत है. पार्टी के अन्दर लोकतंत्र का सर्वथा अभाव है जब कि डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित पार्टियों की एक ख़ास विशेषता यह थी कि इन में सामूहिक नेतृत्त्व और अंदरूनी लोकतंत्र का विशेष प्रावधान था. पार्टी के अन्दर व्यक्ति पूजा के लिए कोई स्थान नहीं था. उनके अंदर नेतृत्व की द्वितीय तथा तृतीय कतार थी. सभी निर्णय सामूहिक विचारविमर्श उपरांत ही लिए जाते थे. अतः वर्तमान व्यक्ति आधारित पार्टियों की जगह सामूहिक नेतृत्व वाली पार्टी का होना बहुत ज़रूरी है..
- प्रतिशील एजंडा: जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि वर्तमान दलित पार्टियों का कोई स्पष्ट एजंडा नहीं है जिस कारण वे व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और दिशाहीनता का शिकार हैं. बाबा साहेब द्वारा स्थापित पार्टियों का एक रैडिकल राजनीतिक तथा आर्थिक एजंडा था जिस में दलितों के सामाजिक न्याय को प्रमुख स्थान दिया जाता था. चुनाव में जाति के नाम पर नहीं बल्कि एजंडे के आधार पर वोट मांगे जाते थे. अतः दलित पार्टियों का एक सपष्ट एजंडा होना ज़रूरी है जिस में दलितों के विशिष्ट मुद्दों के इलावा पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, किसानों, मजदूरों और महिलायों के मुद्दे भी शामिल हों. इस में आर्थिक, औद्योगिक और विदेश नीति का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए.
- सैद्धांतिक गठजोड़: ऊपर देखा गया है कि वर्तमान दलित पार्टियाँ दलित हितों की बजाये व्यक्तिगत लाभ के उद्देश्य से दूसरी दलित विरोधी पार्टियों के साथ अवसरवादी गठजोड़ करती हैं जिस से कुछ व्यक्तियों का तो लाभ हो जाता है परन्तु व्यापक दलित समुदाय को कोई लाभ नहीं होता है. यह भी एक सच्चाई है कि दलित एक कमज़ोर अल्पसंख्यक वर्ग हैं जिन के लिए अकेले सत्ता प्राप्त करना संभव नहीं है. अतः उन के लिए दूसरे वर्गों और पार्टियों के साथ गठबंधन करना एक ज़रुरत है परन्तु गठबंधन वर्तमान की तरह सिद्धान्तहीन और अवसरवादी नहीं होना चाहिए. वह डॉ. आंबेडकर की पार्टियों की तरह समान विचारधार और साँझा एजंडा के आधार पर होना चाहिए.
- जाति उन्मूलन एजंडा : बाबा साहेब ने कहा था कि जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज की स्थापना हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य है. उन्होंने यह भी कहा था कि दलितों के दो बड़े दुश्मन हैं: एक ब्राह्मणवाद और दूसरा पूंजीवाद. उन का यह भी निश्चित मत था कि मूलभूत क्रांति के बिना दलितों की मुक्ति संभव नहीं है. यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि जाति उन्मूलन किये बिना न केवल दलितों बल्कि सम्पूर्ण हिन्दू समाज की मुक्ति संभव नहीं है. दलितों का वर्तमान शोषण, पिछड़ापन और उत्पीड़न जाति व्यवस्था का ही दुष्परिणाम है. अतः न केवल दलितों बल्कि हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों और ईसाईयों में जातिभेद के उन्मूलन का एजंडा नयी पार्टी का मुख्य कार्यक्रम होना चाहिए. यह तथ्य भी बहुत महत्वपूर्ण है कि दलितों की मुक्ति में ही सब की मुक्ति है और सब की मुक्ति में ही दलितों की मुक्ति है.
- पार्टी की स्पष्ट भूमिका: 1952 में शैड्युल्ड कास्ट्स फेडेरशन के संविधान में राजनीतिक पार्टी की भूमिका की व्याख्या करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था, “राजनैतिक पार्टी का काम केवल चुनाव जीतना ही नहीं होता, बल्कि यह लोगों को शिक्षित करने, उद्देलित करने और संगठित करने का होता है.” इसी प्रकार दलित नेता के गुणों का बखान करते हुए उन्होंने कहा था, “आप के नेता का साहस और बुद्धिमत्ता किसी भी पार्टी के सर्वोच्च नेता से कम नहीं होनी चाहिए. दक्ष नेताओं के बिना पार्टी ख़त्म हो जाती है.” इस के विपरीत यह देखा गया है कि वर्तमान दलित पार्टियाँ दलितों को शिक्षित करने, उद्देलित करने और संगठित करने की बजाये उनका इस्तेमाल केवल जाति वोट बैंक के रूप में करती हैं. इसी तरह वर्तमान दलित नेताओं का कद्द और बुद्धिमत्ता डॉ. आंबेडकर के मापदंडों से कोसों दूर हैं. अतः दलित पार्टी की राजनीतिक और सामाजिक भूमिका बहुत स्पष्ट होनी चाहिए और उन के नेता सुयोग्य होने चाहिए.
उपरोक्त विवेचन के परिपेक्ष्य में हम
लोगों ने लम्बे विचार विमर्श के बाद दलित समुदाय तथा अन्य सभी समुदायों के हित्तों
को सामने रख कर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ)
के नाम से तीन साल पहले एक रेडिकल राजनीतिक विकल्प
खड़ा किया है. इस पार्टी ने पिछले लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश,
हरियाणा, और कर्नाटका
में चुनाव लड़ा था. वर्तमान में इस की उपस्थिति उत्तर प्रदेश के इलावा हरियाणा,
बिहार, कर्नाटका गुजरात और केरल
में है तथा इस का विस्तार अन्य राज्यों में भी किया जा रहा है. यह पार्टी आगामी
विधान सभा चुनाव में भी भाग लेगी. अतः सभी साथियों से
अनुरोध है कि वे वर्तमान दलित राजनीति के स्थान पर एक रैडिकल राजनीतिक विकल्प के
रूप में आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट को अपनाने पर विचार करें तथा अगर सहमत हों तो इस
से ज़रूर जुड़ें ताकि हाशिये
पर पड़े दलित एजंडे को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में लाया जा सके. इस के साथ ही
वर्तमान में व्यक्तिवाद, जातिवाद, अधिनायिक्वाद,
मुद्दाविहीनता, हिंदुत्वपोषक और भ्रष्टाचार की
दलदल में फंसी दलित राजनीति को एक नयी दिशा और एक न्या एजंडा देना भी समय की मांग
है जिस के आइपीएफ दृढ़संकल्प है. इस पार्टी के संविधान, उद्देश्यों
और एजंडा के बारे में आप www.aipfr.org पर विस्तार से पढ़ सकते हैं.
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