रविवार, 27 मार्च 2016
शनिवार, 26 मार्च 2016
भगवान दास मेरी नज़र में
भगवान दास मेरी नज़र में
-एस. आर. दारापुरी आई.पी.एस.
(से.नि.)
(23.04.1927-18.11.2010)
मैं भगवान दास जी को पिछले 42 वर्ष से जानता
था। उन्हें दिल्ली में बाबासाहेब के सबसे बड़े विद्वान् और
समर्पित पैरोकारों में से एक के तौर पर जाना जाता था। मैनें उन्हें पहली बार नई दिल्ली के लक्ष्मीबाई नगर में बौद्ध
उपासक संघ की मीटिंगों में
सुना था। कुछ वर्षों तक आंबेडकर भवन बौद्ध गतिविधियों का केंद्र रहा था। बुद्धिस्ट सोसाइटी आफ इंडिया द्वारा
साप्ताहिक धार्मिक मीटिंगें आयोजित
की जाती थीं। श्री वाई सी शंकरानंद शास्त्री तथा सोहन लाल शास्त्री दोनों पंजाब की एक आर्यसमाज संस्था ब्रह्म
विद्यालय की उपज थे और बौद्ध आन्दोलन के अगुआ थे। आर्य समाज की मीटिंगों की तरह ये लोग साप्तहिक मीटिंगें किया करते थे। कुछ कारणों से दोनों के बीच
मतभेद हो गए और वे एक दूसरे से अलग हो गए। श्री शंकरानंद शास्त्री ने अपने कुछ साथियों को लेकर बौद्ध उपासक संघ बना लिया और रिज़र्व बैंक आफ इंडिया
के एक कर्मचारी श्री रामाराव बागडे के फ्लैट के सामने आंगन में साप्ताहिक मीटिंगें शुरू कर दीं। श्री भगवान दास इन मीटिंगों में मुख्य वक्ता के रूप
में रहते थे।
उन्हें दलितों की एकता में रूचि थी और उन्होंने बहुत सी जातियों मसलन धानुक, खटीक, बाल्मीकि, हेला, कोली आदि को अम्बेडकरवादी आन्दोलन में लेने के प्रयास किये। ज़मीनी स्तर पर काम करते हुए भी उन्होंने दलितों एवं अल्पसंख्यकों के विभिन्न मुद्दों पर लेख लिखे जो पत्र पत्रिकायों में प्रकाशित होते रहे। उन्हें अंग्रेजी और उर्दू में महारत हासिल थी और सरल हिंदी तथा कुछ गुरमुखी लिपि में पंजाबी पढ़ सकते हे। बंगाल और अराकान में एयरफोर्स की नौकरी करते हुए उन्होंने बंगाली भाषा भी सीखी थी पर अब भूल गए थे ।मुझे नौकरी में रहते हुए लगभग पूरे भारत वर्ष में घूमने और अनुसूचित जातियों से सम्बधित अधिकारियों, प्रोफेस्सरों, अध्यापकों और नेताओं को जानने का मौका मिला। मेरा विश्वास है कि श्री दास के पास पुस्तकों का सबसे बड़ा भंडार था। वह कभी न थकने वाले पाठक थे और काम के अधिकाँश घंटे पढने में बिताते थे। पुस्तकों और पत्र पत्रिकायों पर उनका काफी पैसा खर्च होता था। उनके पुस्तक संग्रह में विदेशी और भारतीय लेखकों की दुर्लभ पुस्तकें शामिल थीं। उनकी फाईलों में अलग अलग विषियों पर अच्छे लेख और पर्चे थे जिन्हें या तो वे प्रकाशित नहीं करा सके या फिर उनके बारे में भूल गए।
उनसे बातचीत के दौरान मुझे पता चला कि उनका जन्म 23 अप्रैल, 1927 को भारत की गर्मियों की राजधानी शिमला के निकट छावनी जतोग में हुआ था और उनका परिवार काफी खुशहाल था लेकिन एक अछूत परिवार में जन्म के कारण अपमान और भेदभाव का वह शिकार होते रहे। उन्हें उनके पिता पर गर्व था जिन्होंने उनके चरित्र पर गहरा प्रभाव डाला। उनके पिता डॉ आंबेडकर के वह बहुत प्रशंसक थे और समाचार पत्र पढ़ने के शौक़ीन थे। उन्हें हिन्दू, ईसाई, इस्लाम और सिख धर्म के ग्रंथों के अलावा आयुर्वेद की पुस्तकें पढ़ने का शौक था। श्री दास को ज्ञान से प्रेम अपने पिता से विरासत में मिला था।
ऐसा लगता है कि दास साहेब अपने समय के अधिकतर अछूतों की तरह इसाईयत से प्रभावित हुए। बाद में उन्होंने आर्यसमाज साहित्य, कुरान और इस्लाम विचारधारा की अन्य पुस्तकें पढ़ीं। काफी समय तक उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य का अध्ययन किया और मार्क्सवाद पर लिखते भी रहे लेकिन कमियुनिस्ट नेताओं के जातिवादी चरित्र ने उनका मन खट्टा कर दिया। उन्होंने इन्गर्सेल, टाम पेन, वाल्टेयर, बर्नार्ड शा, और बर्टरैंड रस्सल का अध्ययन किया। बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर से सीधे संपर्क में आने से पहले उन्होंने धर्म के बारे में अपने विचार विकसित कर लिए थे। बाबा साहेब से उनकी जान पहचान पिछड़ी जातियों के प्रसिद्ध नेता शिव दयाल सिंह चौरसिया ने करवाई थी जो कि काका कालेलकर आयोग के सदस्य थे और राज्य सभा के सदस्य भी थे।
भगवान दास जी ने बाबासाहेब की रचनाओं और भाषणों का सम्पादन किया और उन पर पुस्तकें लिखीं। उनका " दस स्पोक आंबेडकर" शीर्षक से चार खण्डों में प्रकाशित ग्रन्थ देश और विदेश में अकेला दस्तावेज़ था जिनके जरिये डॉ आंबेडकर के विचार सामान्य लोगों और विद्वानों तक पहुंचे।
यह काम उन्होंने 1960 के दशक में शुरू किया था और जब अभी इस की तरफ महारष्ट्र सरकार का ध्यान भी नहीं गया था। उन्होंने सफाई कर्मचारियों और भंगी जाति पर चार पुस्तकें और धोबियों पर एक छोटी पुस्तक लिखी। उनकी बहुचर्चित पुस्तक "मैं भंगी हूँ" अनेक भारतीय भाषायों में अनूदित हो चुकी है और वह दलित जातियों के इतिहास का दस्तवेज़ है।
उनकी पुस्तकें और देश विदेश के सेमीनार आदि प्रस्तुत उनके पर्चों से पता चलता है कि उनका अध्ययन कितना विस्तृत था और वह दबे कुचले लोगों के हित के प्रति कितने समर्पित थे। अगर मार्क्स ने दुनियां के मजदूरों को एक होने का आह्वान किया था तो भगवान दास ने भारत और एशिया के दलितों को एक होने का सन्देश दिया। मुझे नहीं लगता कि उनके अलावा कोई ऐसा व्यक्ति है जिसने एशिया के सभी दलितों को एक मंच पर लाने के लिए, उनकी मुक्ति के लिए और स्वाभिमान से उनके जीने के अधिकार के लिए इतना प्रयास किया हो। उन्होंने कुल 23 पुस्तकें लिखीं। श्री भगवान दास ने भारत में दलितों के प्रति छुआछूत और भेदभाव के मामले को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाने का ऐतहासिक काम किया। भारत, नेपाल, पाकिस्तान , बांग्लादेश और के मामले को उन्होंने 1983 में यू. एन. ओ. (संयुक्त राष्ट्र संघ) में पेश किया और जापान के अछूतों बुराकुमिन के मामले को भी उठाया।
डॉ आंबेडकर भी इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाना चाहते थे पर कुछ कारणों से यह संभव नहीं हो पाया था। श्री दास के प्रयासों का ही यह फल है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने छुआछुत को मानवाधिकारों का हनन मान कर भारत सरकार की जवाबदेही तय की है और अपनी ओर से भारत के लिए दो रिपोर्टर नियुक्त किये हैं। इस के बाद वह 2001 में डरबन में नसल भेद पर संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन में भी गए थे। वास्तव में छुआछुत के मामले को अंतर्राष्टीय मंच पर पहुँचाने का सारा श्रेय श्री भगवान दास को ही जाता है। इस के लिए एशिया के दलित और जापान के बुराकुमिन उनके सदैव ऋणी रहेंगें. श्री भगवान दास ने बहुत साधारण जीवन जिया। वह बहुत विनम्र थे और भदंत आनंद कौशल्यायन कहा करते थे, "आप में बहुत नम्रता है।" वकील के रूप में वह बहुत मेहनत करते थे। उनके ज्यादा दोस्त नहीं थे और न ही सामाजिक समारोहों में जाने में उन्हें कोई खास ख़ुशी होती थी। लायब्रेरी में या दलित शोषित लोगों की बेहतरी के लिए काम कर रहे बुद्धिजीवियों की सांगत में उन्हें अधिक ख़ुशी मिलती थी
उन्हें दलितों की एकता में रूचि थी और उन्होंने बहुत सी जातियों मसलन धानुक, खटीक, बाल्मीकि, हेला, कोली आदि को अम्बेडकरवादी आन्दोलन में लेने के प्रयास किये। ज़मीनी स्तर पर काम करते हुए भी उन्होंने दलितों एवं अल्पसंख्यकों के विभिन्न मुद्दों पर लेख लिखे जो पत्र पत्रिकायों में प्रकाशित होते रहे। उन्हें अंग्रेजी और उर्दू में महारत हासिल थी और सरल हिंदी तथा कुछ गुरमुखी लिपि में पंजाबी पढ़ सकते हे। बंगाल और अराकान में एयरफोर्स की नौकरी करते हुए उन्होंने बंगाली भाषा भी सीखी थी पर अब भूल गए थे ।मुझे नौकरी में रहते हुए लगभग पूरे भारत वर्ष में घूमने और अनुसूचित जातियों से सम्बधित अधिकारियों, प्रोफेस्सरों, अध्यापकों और नेताओं को जानने का मौका मिला। मेरा विश्वास है कि श्री दास के पास पुस्तकों का सबसे बड़ा भंडार था। वह कभी न थकने वाले पाठक थे और काम के अधिकाँश घंटे पढने में बिताते थे। पुस्तकों और पत्र पत्रिकायों पर उनका काफी पैसा खर्च होता था। उनके पुस्तक संग्रह में विदेशी और भारतीय लेखकों की दुर्लभ पुस्तकें शामिल थीं। उनकी फाईलों में अलग अलग विषियों पर अच्छे लेख और पर्चे थे जिन्हें या तो वे प्रकाशित नहीं करा सके या फिर उनके बारे में भूल गए।
उनसे बातचीत के दौरान मुझे पता चला कि उनका जन्म 23 अप्रैल, 1927 को भारत की गर्मियों की राजधानी शिमला के निकट छावनी जतोग में हुआ था और उनका परिवार काफी खुशहाल था लेकिन एक अछूत परिवार में जन्म के कारण अपमान और भेदभाव का वह शिकार होते रहे। उन्हें उनके पिता पर गर्व था जिन्होंने उनके चरित्र पर गहरा प्रभाव डाला। उनके पिता डॉ आंबेडकर के वह बहुत प्रशंसक थे और समाचार पत्र पढ़ने के शौक़ीन थे। उन्हें हिन्दू, ईसाई, इस्लाम और सिख धर्म के ग्रंथों के अलावा आयुर्वेद की पुस्तकें पढ़ने का शौक था। श्री दास को ज्ञान से प्रेम अपने पिता से विरासत में मिला था।
ऐसा लगता है कि दास साहेब अपने समय के अधिकतर अछूतों की तरह इसाईयत से प्रभावित हुए। बाद में उन्होंने आर्यसमाज साहित्य, कुरान और इस्लाम विचारधारा की अन्य पुस्तकें पढ़ीं। काफी समय तक उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य का अध्ययन किया और मार्क्सवाद पर लिखते भी रहे लेकिन कमियुनिस्ट नेताओं के जातिवादी चरित्र ने उनका मन खट्टा कर दिया। उन्होंने इन्गर्सेल, टाम पेन, वाल्टेयर, बर्नार्ड शा, और बर्टरैंड रस्सल का अध्ययन किया। बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर से सीधे संपर्क में आने से पहले उन्होंने धर्म के बारे में अपने विचार विकसित कर लिए थे। बाबा साहेब से उनकी जान पहचान पिछड़ी जातियों के प्रसिद्ध नेता शिव दयाल सिंह चौरसिया ने करवाई थी जो कि काका कालेलकर आयोग के सदस्य थे और राज्य सभा के सदस्य भी थे।
भगवान दास जी ने बाबासाहेब की रचनाओं और भाषणों का सम्पादन किया और उन पर पुस्तकें लिखीं। उनका " दस स्पोक आंबेडकर" शीर्षक से चार खण्डों में प्रकाशित ग्रन्थ देश और विदेश में अकेला दस्तावेज़ था जिनके जरिये डॉ आंबेडकर के विचार सामान्य लोगों और विद्वानों तक पहुंचे।
यह काम उन्होंने 1960 के दशक में शुरू किया था और जब अभी इस की तरफ महारष्ट्र सरकार का ध्यान भी नहीं गया था। उन्होंने सफाई कर्मचारियों और भंगी जाति पर चार पुस्तकें और धोबियों पर एक छोटी पुस्तक लिखी। उनकी बहुचर्चित पुस्तक "मैं भंगी हूँ" अनेक भारतीय भाषायों में अनूदित हो चुकी है और वह दलित जातियों के इतिहास का दस्तवेज़ है।
उनकी पुस्तकें और देश विदेश के सेमीनार आदि प्रस्तुत उनके पर्चों से पता चलता है कि उनका अध्ययन कितना विस्तृत था और वह दबे कुचले लोगों के हित के प्रति कितने समर्पित थे। अगर मार्क्स ने दुनियां के मजदूरों को एक होने का आह्वान किया था तो भगवान दास ने भारत और एशिया के दलितों को एक होने का सन्देश दिया। मुझे नहीं लगता कि उनके अलावा कोई ऐसा व्यक्ति है जिसने एशिया के सभी दलितों को एक मंच पर लाने के लिए, उनकी मुक्ति के लिए और स्वाभिमान से उनके जीने के अधिकार के लिए इतना प्रयास किया हो। उन्होंने कुल 23 पुस्तकें लिखीं। श्री भगवान दास ने भारत में दलितों के प्रति छुआछूत और भेदभाव के मामले को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाने का ऐतहासिक काम किया। भारत, नेपाल, पाकिस्तान , बांग्लादेश और के मामले को उन्होंने 1983 में यू. एन. ओ. (संयुक्त राष्ट्र संघ) में पेश किया और जापान के अछूतों बुराकुमिन के मामले को भी उठाया।
डॉ आंबेडकर भी इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाना चाहते थे पर कुछ कारणों से यह संभव नहीं हो पाया था। श्री दास के प्रयासों का ही यह फल है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने छुआछुत को मानवाधिकारों का हनन मान कर भारत सरकार की जवाबदेही तय की है और अपनी ओर से भारत के लिए दो रिपोर्टर नियुक्त किये हैं। इस के बाद वह 2001 में डरबन में नसल भेद पर संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन में भी गए थे। वास्तव में छुआछुत के मामले को अंतर्राष्टीय मंच पर पहुँचाने का सारा श्रेय श्री भगवान दास को ही जाता है। इस के लिए एशिया के दलित और जापान के बुराकुमिन उनके सदैव ऋणी रहेंगें. श्री भगवान दास ने बहुत साधारण जीवन जिया। वह बहुत विनम्र थे और भदंत आनंद कौशल्यायन कहा करते थे, "आप में बहुत नम्रता है।" वकील के रूप में वह बहुत मेहनत करते थे। उनके ज्यादा दोस्त नहीं थे और न ही सामाजिक समारोहों में जाने में उन्हें कोई खास ख़ुशी होती थी। लायब्रेरी में या दलित शोषित लोगों की बेहतरी के लिए काम कर रहे बुद्धिजीवियों की सांगत में उन्हें अधिक ख़ुशी मिलती थी
।इस महान व्यक्ति को हम लोगों ने 18 नवम्बर, 2010 को खो दिया जिससे अम्बेडकरवादी आन्दोलन की अपूर्णीय क्षति हुई
है। उनके दिखाए गए मार्ग पर चलकर
बाबा साहेब के मिशन को अगर हम पूरा कर सकें तो यही उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी।
शुक्रवार, 25 मार्च 2016
वर्तमान चुनौतियां और बहुजन समाज पार्टी
वर्तमान चुनौतियां और बहुजन समाज पार्टी
(कॅंवल भारती)
सच तो यह है कि जातिवादी पार्टियों के सामने कोई चुनौती नहीं होती है। वे हमेशा दर्शन-चिन्तन से दूर रहती हैं। उनके सामने सिर्फ राजनीतिक परिवर्तन का लक्ष्य रहता है, समाज को गतिशील और चेतनशील बनाने में वे यकीन नहीं करती हैं। उनके लिए इतिहास में ठहराव ही सब कुछ है, और वर्तमान चुनौतियां उनके लिए मायने ही नहीं रखती हैं। यह वस्तुतः दक्षिणपंथी राजनीति ही है, जिसके सिक्के के दो पहलू होते हैं, पहला धर्म और दूसरा जाति। ऐसी राजनीति निरन्तर इतिहास को धार देती है, और सारी समस्याओं का समाधान अतीत में ही देखती है। यही नहीं, दक्षिणपंथी राजनीति की तरह ही जातिवादी राजनीति भी पूंजीवादी व्यवस्था के लिए काम करती है।
बहुजन समाज पार्टी (बसपा), जिसका नेतृत्व वर्तमान में मायावती जी के हाथों में है, ऐसी ही जातिवादी पार्टी है, जिसका लक्ष्य जातीय समीकरणों के द्वारा सत्ता हासिल करना है। इन समीकरणों को साधने के लिए इसका नेतृत्व किसी भी हद से गुजरने के लिए तैयार रहता है। उदाहरण के लिए, मायावती जी ने उत्तर प्रदेश में अपने पिछले शासन में सवर्णों को सन्तुष्ट करने के लिए अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण कानून को कमजोर करने के लिए पुलिस अधिकारियों को विशेष दिशा-निर्देश जारी किए थे। वे अपने जनाधार के लिए जातीय गौरव के उभार को ही पर्याप्त मानती हैं। अपने पहले शासन में मायावती जी ने दलित वर्गों के नायकों के स्मारक इसी मकसद से बनवाए थे। ये स्मारक हमेशा दलितों में जातीय गौरव की चेतना विकसित करते हैं।
लेकिन जातीय गौरव की यह राजनीति सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की दिशा में कोई भूमिका नहीं निभा सकी, और न निभा सकती है, क्योंकि वह उसके एजेण्डे में नहीं है। जिस तरह पूंजीवादी व्यवस्था में दलित और कमजोर वर्ग एक लाभार्थी माने जाते हैं, जिन्हें सरकार के विशेष संरक्षण और प्रोत्साहन की आवश्यकता है, उसी तरह बसपा के लिए भी वे लाभार्थी ही हैं। वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, विकलांग पेंशन, छात्रवृत्ति, अनुदान, ऋण और आवास योजनाओं के लक्ष्य ऐसे ही संरक्षण और प्रोत्साहन हैं, जो उन्हें लाभान्वित करने के लिए हैं। और ये सारी योजनाएँ सीमित बजट के अन्तर्गत चलाई जाती हैं, जिससे सीमित लोग ही लाभान्वित होते हैं, और लाभार्थियों की संख्या दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ती जाती है।
यही राजनीतिक विजन मायावती जी के पास भी है। इसलिए वे सांस्कृतिक और सामाजिक आन्दोलनों से हमेशा दूरी बनाए रहती हैं। जातीय उत्पीड़न के मामलों में भी, जो देश में लगातार बढ़ रहे हैं, उनकी पार्टी कभी आन्दोलन नहीं करती। ऐसे आन्दोलनों में, चूंकि, जेल जाने का खतरा रहता है, इसलिए, वे जोखिम-रहित सुरक्षित राजनीति पसन्द करती हैं। उनके लिए रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या एक ऐसा मुद्दा हो सकता था, जहाँ से वे देश भर में अपनी रेडिकल राजनीति के लिए एक बड़ा सांस्कृतिक आन्दोलन आरम्भ कर सकती थीं। लेकिन, इस अहम मुद्दे पर, जहाँ देश भर के सामाजिक संगठन सड़कों पर धरना-प्रदर्शन कर रहे थे, वहाँ मायावती जी ने न स्वयं भाग लिया और न अपनी पार्टी को उसमें भाग लेने दिया। राष्ट्रवाद के प्रश्न पर भी, जो आज का सबसे ज्वलन्त प्रश्न है, वे दलित वर्गों को चेतनशील बनाने के कार्यक्रम चला सकती थीं, परन्तु उन्होंने यहाँ भी अपनी पार्टी का कोई कार्यक्रम तय नहीं किया।
वे वस्तुतः राजनीतिक के तौर पर सिर्फ कभी कभार प्रेस वार्ता तक, अथवा राज्यसभा में बोलने तक सीमित रहती हैं। राज्यसभा में भी वे अपने लिखित भाषण में उन मुद्दों पर बोलती हैं, जिन पर वे समझती हैं कि उसका उन्हें राजनीतिक लाभ मिलेगा। किन्तु, हकीकत यह है कि उन मुद्दों पर बोलकर वे जातीय धुव्रीकरण की राजनीति करना चाहती हैं, और उसकी भी वे सिर्फ भ्रामक कल्पना करती हैं। उदाहरण के तौर पर, उन्होंने रोहित वेमुला के मुद्दे पर केवल यह सवाल पूछा था कि सरकार ने जाँच समिति में किसी दलित को रखा है या नहीं? वे इतने से ही सन्तुष्ट हो गईं कि समिति में दलित को रखा गया है। हैरानी की बात तो यह है कि उनके इस सवाल पर उनके दलित अनुयायी भी उनसे खुश हैं, जबकि इससे उन्हें कोई लेनादेना नहीं कि वह सदस्य भाजपा का हो, या भापजा के कोटे का हो।
यह दुखद अनुभव है कि अतीत में बसपा प्रमुख मायावती जी तीन बार भाजपा से हाथ मिलाकर सत्ता हासिल कर चुकी हैं। 2017 के उत्तर प्रदेश विधान सभा के आम चुनावों में उसकी पुनरावृत्ति नहीं होगी, इसका दावा अब भी कोई नहीं कर सकता। इस पर परदा डालते हुए यह कहा जाता है कि मायावती जी के शासन में कानून-व्यवस्था दुरस्त थी, और गुण्डागर्दी नहीं थी। पर ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि मायावती के उसी शासन में भाजपा और संघ का सांस्कृतिक ऐजेण्डा मजबूत हुआ था और शिक्षण संस्थाओं तथा सहकारी मिलों का निजीकरण हुआ था। माना कि कानून-व्यवस्था दुरस्त थी, और गुण्डागर्दी नहीं थी, परन्तु लूट तो थी। लूट का बादशाह यादव सिंह उन्हीं के राज में पैदा हुआ था, और आलम यह था कि अधिकारियों से लेकर बसपा के छुटभैए नेता तक लूट का ऐसा तन्त्र चलाए हुए थे, कि चपरासी तक की नौकरी के लिए भारी लूट मची हुई थी। क्या लूट को सुशासन कहा जा सकता है?
अगर जातीय गौरव मायने रखता, तो उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में सपा पांच और बसपा शून्य पर नहीं सिमटी होती। वे कौन-से कारक थे, जिसने भाजपा को भारी बहुमत से जिताया? निस्सन्देह, वे रोजी-रोटी और अच्छे दिनों के सपने थे, जो नरेंन्द्र मोदी ने जनता को दिखाए थे। दलित वर्गों ने भी इन्हीं सपनों को देखते हुए भाजपा के कमल को खिलाने में दिलचस्पी दिखाई थी। कहने का तात्पर्य यह है कि जातीय गौरव से पेट नहीं भरता, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की समस्याएं हल नहीं होती। बिहार में इसीलिए भाजपा को कामयाबी नहीं मिली, क्योंकि जनता ने साल भर में ही मोदी जी के जुमलों की वास्तविकता को समझ लिया था। पर, इसके लिए भी बिहार में एक बड़े भाजपा-विरोधी गठबन्धन ने काम किया था। इस महा गठबन्धन ने साम्प्रदायिक शक्तियों को बिहार में जरूर रोक दिया है, परन्तु, अगर जनता की रोजी-रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की समस्याएं हल नहीं हुईं, तो धर्मनिरपेक्ष राजनीति भी ज्यादा समय तक टिकने वाली नहीं है।
लेकिन उत्तर प्रदेश में भाजपा के विरुद्ध न कोई महागठबन्धन अभी बना है, और न मायावती जी ऐसे किसी गठबन्धन में, अगर बनता है, (तो) शामिल होने वाली हैं। वे अकेले ही सभी सीटों पर लड़ने की घोषणा कर चुकी हैं। जातीय समकरणों की स्थिति यह है कि चमार और जाटव के सिवाए अन्य दलित जातियां बसपा के साथ नहीं हैं। उनमें अधिकांश भाजपा के साथ हैं, तो कुछ सपा के साथ हैं। जहाँ तक मुसलमानों और पिछड़ी जातियों का सवाल है, तो बसपा के पक्ष में न मुसलमान हैं, और न पिछड़ी जातियां हैं। उनमें अधिकांश मुसलमान और यादव सपा के वोटर हैं, जबकि अधिकांश पिछड़ी जातियों पर हिन्दुत्व का भगवा रंग चढ़ चुका है। ऐसी स्थिति में बसपा, जिसकी वर्तमान चुनौतियों से निपटने की कोई तैयारी नहीं है, सत्ता में वापसी का स्वप्न देख रही है, तो हो सकता है, वह किसी चमत्कार के सहारे हो।
(12 मार्च 2016)
(कॅंवल भारती)
सच तो यह है कि जातिवादी पार्टियों के सामने कोई चुनौती नहीं होती है। वे हमेशा दर्शन-चिन्तन से दूर रहती हैं। उनके सामने सिर्फ राजनीतिक परिवर्तन का लक्ष्य रहता है, समाज को गतिशील और चेतनशील बनाने में वे यकीन नहीं करती हैं। उनके लिए इतिहास में ठहराव ही सब कुछ है, और वर्तमान चुनौतियां उनके लिए मायने ही नहीं रखती हैं। यह वस्तुतः दक्षिणपंथी राजनीति ही है, जिसके सिक्के के दो पहलू होते हैं, पहला धर्म और दूसरा जाति। ऐसी राजनीति निरन्तर इतिहास को धार देती है, और सारी समस्याओं का समाधान अतीत में ही देखती है। यही नहीं, दक्षिणपंथी राजनीति की तरह ही जातिवादी राजनीति भी पूंजीवादी व्यवस्था के लिए काम करती है।
बहुजन समाज पार्टी (बसपा), जिसका नेतृत्व वर्तमान में मायावती जी के हाथों में है, ऐसी ही जातिवादी पार्टी है, जिसका लक्ष्य जातीय समीकरणों के द्वारा सत्ता हासिल करना है। इन समीकरणों को साधने के लिए इसका नेतृत्व किसी भी हद से गुजरने के लिए तैयार रहता है। उदाहरण के लिए, मायावती जी ने उत्तर प्रदेश में अपने पिछले शासन में सवर्णों को सन्तुष्ट करने के लिए अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण कानून को कमजोर करने के लिए पुलिस अधिकारियों को विशेष दिशा-निर्देश जारी किए थे। वे अपने जनाधार के लिए जातीय गौरव के उभार को ही पर्याप्त मानती हैं। अपने पहले शासन में मायावती जी ने दलित वर्गों के नायकों के स्मारक इसी मकसद से बनवाए थे। ये स्मारक हमेशा दलितों में जातीय गौरव की चेतना विकसित करते हैं।
लेकिन जातीय गौरव की यह राजनीति सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की दिशा में कोई भूमिका नहीं निभा सकी, और न निभा सकती है, क्योंकि वह उसके एजेण्डे में नहीं है। जिस तरह पूंजीवादी व्यवस्था में दलित और कमजोर वर्ग एक लाभार्थी माने जाते हैं, जिन्हें सरकार के विशेष संरक्षण और प्रोत्साहन की आवश्यकता है, उसी तरह बसपा के लिए भी वे लाभार्थी ही हैं। वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, विकलांग पेंशन, छात्रवृत्ति, अनुदान, ऋण और आवास योजनाओं के लक्ष्य ऐसे ही संरक्षण और प्रोत्साहन हैं, जो उन्हें लाभान्वित करने के लिए हैं। और ये सारी योजनाएँ सीमित बजट के अन्तर्गत चलाई जाती हैं, जिससे सीमित लोग ही लाभान्वित होते हैं, और लाभार्थियों की संख्या दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ती जाती है।
यही राजनीतिक विजन मायावती जी के पास भी है। इसलिए वे सांस्कृतिक और सामाजिक आन्दोलनों से हमेशा दूरी बनाए रहती हैं। जातीय उत्पीड़न के मामलों में भी, जो देश में लगातार बढ़ रहे हैं, उनकी पार्टी कभी आन्दोलन नहीं करती। ऐसे आन्दोलनों में, चूंकि, जेल जाने का खतरा रहता है, इसलिए, वे जोखिम-रहित सुरक्षित राजनीति पसन्द करती हैं। उनके लिए रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या एक ऐसा मुद्दा हो सकता था, जहाँ से वे देश भर में अपनी रेडिकल राजनीति के लिए एक बड़ा सांस्कृतिक आन्दोलन आरम्भ कर सकती थीं। लेकिन, इस अहम मुद्दे पर, जहाँ देश भर के सामाजिक संगठन सड़कों पर धरना-प्रदर्शन कर रहे थे, वहाँ मायावती जी ने न स्वयं भाग लिया और न अपनी पार्टी को उसमें भाग लेने दिया। राष्ट्रवाद के प्रश्न पर भी, जो आज का सबसे ज्वलन्त प्रश्न है, वे दलित वर्गों को चेतनशील बनाने के कार्यक्रम चला सकती थीं, परन्तु उन्होंने यहाँ भी अपनी पार्टी का कोई कार्यक्रम तय नहीं किया।
वे वस्तुतः राजनीतिक के तौर पर सिर्फ कभी कभार प्रेस वार्ता तक, अथवा राज्यसभा में बोलने तक सीमित रहती हैं। राज्यसभा में भी वे अपने लिखित भाषण में उन मुद्दों पर बोलती हैं, जिन पर वे समझती हैं कि उसका उन्हें राजनीतिक लाभ मिलेगा। किन्तु, हकीकत यह है कि उन मुद्दों पर बोलकर वे जातीय धुव्रीकरण की राजनीति करना चाहती हैं, और उसकी भी वे सिर्फ भ्रामक कल्पना करती हैं। उदाहरण के तौर पर, उन्होंने रोहित वेमुला के मुद्दे पर केवल यह सवाल पूछा था कि सरकार ने जाँच समिति में किसी दलित को रखा है या नहीं? वे इतने से ही सन्तुष्ट हो गईं कि समिति में दलित को रखा गया है। हैरानी की बात तो यह है कि उनके इस सवाल पर उनके दलित अनुयायी भी उनसे खुश हैं, जबकि इससे उन्हें कोई लेनादेना नहीं कि वह सदस्य भाजपा का हो, या भापजा के कोटे का हो।
यह दुखद अनुभव है कि अतीत में बसपा प्रमुख मायावती जी तीन बार भाजपा से हाथ मिलाकर सत्ता हासिल कर चुकी हैं। 2017 के उत्तर प्रदेश विधान सभा के आम चुनावों में उसकी पुनरावृत्ति नहीं होगी, इसका दावा अब भी कोई नहीं कर सकता। इस पर परदा डालते हुए यह कहा जाता है कि मायावती जी के शासन में कानून-व्यवस्था दुरस्त थी, और गुण्डागर्दी नहीं थी। पर ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि मायावती के उसी शासन में भाजपा और संघ का सांस्कृतिक ऐजेण्डा मजबूत हुआ था और शिक्षण संस्थाओं तथा सहकारी मिलों का निजीकरण हुआ था। माना कि कानून-व्यवस्था दुरस्त थी, और गुण्डागर्दी नहीं थी, परन्तु लूट तो थी। लूट का बादशाह यादव सिंह उन्हीं के राज में पैदा हुआ था, और आलम यह था कि अधिकारियों से लेकर बसपा के छुटभैए नेता तक लूट का ऐसा तन्त्र चलाए हुए थे, कि चपरासी तक की नौकरी के लिए भारी लूट मची हुई थी। क्या लूट को सुशासन कहा जा सकता है?
अगर जातीय गौरव मायने रखता, तो उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में सपा पांच और बसपा शून्य पर नहीं सिमटी होती। वे कौन-से कारक थे, जिसने भाजपा को भारी बहुमत से जिताया? निस्सन्देह, वे रोजी-रोटी और अच्छे दिनों के सपने थे, जो नरेंन्द्र मोदी ने जनता को दिखाए थे। दलित वर्गों ने भी इन्हीं सपनों को देखते हुए भाजपा के कमल को खिलाने में दिलचस्पी दिखाई थी। कहने का तात्पर्य यह है कि जातीय गौरव से पेट नहीं भरता, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की समस्याएं हल नहीं होती। बिहार में इसीलिए भाजपा को कामयाबी नहीं मिली, क्योंकि जनता ने साल भर में ही मोदी जी के जुमलों की वास्तविकता को समझ लिया था। पर, इसके लिए भी बिहार में एक बड़े भाजपा-विरोधी गठबन्धन ने काम किया था। इस महा गठबन्धन ने साम्प्रदायिक शक्तियों को बिहार में जरूर रोक दिया है, परन्तु, अगर जनता की रोजी-रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की समस्याएं हल नहीं हुईं, तो धर्मनिरपेक्ष राजनीति भी ज्यादा समय तक टिकने वाली नहीं है।
लेकिन उत्तर प्रदेश में भाजपा के विरुद्ध न कोई महागठबन्धन अभी बना है, और न मायावती जी ऐसे किसी गठबन्धन में, अगर बनता है, (तो) शामिल होने वाली हैं। वे अकेले ही सभी सीटों पर लड़ने की घोषणा कर चुकी हैं। जातीय समकरणों की स्थिति यह है कि चमार और जाटव के सिवाए अन्य दलित जातियां बसपा के साथ नहीं हैं। उनमें अधिकांश भाजपा के साथ हैं, तो कुछ सपा के साथ हैं। जहाँ तक मुसलमानों और पिछड़ी जातियों का सवाल है, तो बसपा के पक्ष में न मुसलमान हैं, और न पिछड़ी जातियां हैं। उनमें अधिकांश मुसलमान और यादव सपा के वोटर हैं, जबकि अधिकांश पिछड़ी जातियों पर हिन्दुत्व का भगवा रंग चढ़ चुका है। ऐसी स्थिति में बसपा, जिसकी वर्तमान चुनौतियों से निपटने की कोई तैयारी नहीं है, सत्ता में वापसी का स्वप्न देख रही है, तो हो सकता है, वह किसी चमत्कार के सहारे हो।
(12 मार्च 2016)
होली : एक मिथकीय अध्ययन
होली : एक मिथकीय अध्ययन
(कँवल भारती)
डा. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक “फिलोसोफी ऑफ हिन्दुइज्म” में एक जगह लिखा है, “आज के हिंदू सबसे प्रबल विरोधी मार्क्सवाद के हैं. और इसलिए हैं, क्योंकि वे उसके वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत से भयभीत हैं. लेकिन वे भूल जाते हैं कि भारत न केवल वर्ग-संघर्ष की भूमि रहा है, बल्कि वर्ग-संग्राम की भी भूमि रहा है.”
अब एक साक्षी ऋग्वेद (१०,२२-८) से लेते हैं, “हे इंद्र! हमारे चारों ओर यज्ञ-कर्म से शून्य, किसी (ईश्वरीय सत्ता) को न मानने वाले, वेद-स्तुति के प्रतिकूल कर्म करने वाले दस्यु हैं, वे मनुष्य नहीं हैं. उनका नाश करो.”
स्पष्ट है कि यह वर्गसंघर्ष और वर्गसंग्राम भारत के लिए नया नहीं हैं. वैदिक काल में जो देवासुर संग्राम शुरू हुआ, वह आज तक, इस इक्कीसवीं सदी के लोकतंत्र में भी, चल रहा है. देवों ने न केवल अपने विरोधी असुरों को मारा, बल्कि उसे उन्होंने अपने धर्म की जीत भी घोषित किया और व्यापक स्तर पर उसका जश्न मनाया. लगभग सभी हिंदू त्यौहारों की बुनियाद में यही देवासुरसंग्राम है, चाहे वह दुर्गापूजा हो, दशहरा हो, दिवाली हो, या होली हो. ये सारे त्यौहार असुरों की मौत पर देवों अर्थात ब्राह्मणों के जश्न हैं. ब्राह्मणों ने अपने विरुद्ध चलने वाली विचारधारा को पसंद नहीं किया. भारत के जनजातीय क्षेत्रों में ब्राह्मणों ने अपना ब्राह्मण राज्य कायम करने की हर संभव कोशिश की. इस योजना में वे सबसे पहले अपने धर्मगुरुओं को वहाँ भेजते थे, जो वहाँ अपने आश्रम बनाकर यज्ञयागादि की गतिविधियों आरंभ करते थे, उनका जो विरोध करते, उनको वे मरवा देते थे, कुछ जन जातीय लोगों को वे प्रलोभन देकर मिशन से भी जोड़ लेते थे. ऐसा वे आज भी करते हैं. आज भी दलित-पिछड़े समुदायों के बहुत से बुद्धिजीवी ब्राह्मणवाद के फोल्ड में हैं. उन्हीं की मदद से उन्होंने अपनी योजना को आगे बढ़ाया और विरोधियों का राज्य समाप्त करके वहाँ अपना उपनिवेश कायम किया. बलि, हिरण्यकश्यप, शम्बर, दिवोदास, रावण से लेकर मौर्य राज्य की स्थापना तक उनका यही मिशन चला. किसी ने ठीक ही कहा है, इतिहास अपने को दुहराता है. ठीक उसी मिशनरी रास्ते से मुगलों और ब्रिटिश ने भी भारत को अपना उपनिवेश बनाया. हालाँकि उन उपनिवेशों में भी ब्राह्मण ही प्रभुत्त्वशाली थे.
आज जिस तरह हिन्दूराष्ट्रवादी वर्ग ने अपनी विद्यार्थी परिषद के द्वारा देशभर के शिक्षण संस्थानों में दलित-वाम शक्ति के खिलाफ वर्गयुद्ध छेड़ा हुआ है, ठीक वैसा ही वर्गयुद्ध हमें पुराणों में असुर राजाओं और उनकी संस्थाओं के खिलाफ मिलता है. मैं यहाँ हिरण्यकशिपु और प्रह्लाद की कथा का विश्लेषण करूँगा. महाभारत के अनुसार, प्रह्लाद ने देवासुरसंग्राम में इंद्र को परस्त कर उसके राज्य पर कब्जा कर लिया था. वह अपनी जनता में अपने धार्मिक सद्गुणों से इतना लोकप्रिय था कि इंद्र उससे अपना राज्य वापिस नहीं ले सकता था. अत: इंद्र ब्राह्मण का भेष बनाकर प्रहलाद के पास गया, और उससे अपना धर्म सिखाने की प्रार्थना की. इंद्र की प्रार्थना पर प्रह्लाद ने इंद्र को अपने सनातन धर्म की शिक्षा दी. अपने शिष्य से प्रसन्न होकर प्रह्लाद ने इंद्र से वरदान मांगने को कहा, और ब्राह्मण भेष बनाए हुए इंद्र ने कहा, ‘मेरी इच्छा तुम्हारे सद्गुण पाने की है,’ इंद्र प्रहलाद का गुण और धर्म अपने साथ लेकर चला गया. और प्रह्लाद के धर्म पर चलकर इंद्र ने उसकी सारी कीर्ति खत्म कर दी.
देव-विरोधी असुरों के साथ ब्राह्मण-छल की यह कोई पहली घटना नहीं है, हिंदू कथाओं में, जिसे वे इतिहास कहते हैं, ब्राह्मणों के छल की ऐसी अनेक कहानियां हैं. यही छल एकलव्य के साथ किया गया था, जिसका अंगूठा मांगकर गुरु द्रोणाचार्य ने उसको विद्या-रहित कर दिया था. ठीक उसी तरह प्रहलाद से उसका धर्म लेकर उसका सर्वस्व ले लिया गया था. प्रहलाद ने जिस सनातन धर्म की शिक्षा दी थी, वह वैदिक वर्णव्यवस्था वाला धर्म नहीं था, क्योंकि इंद्र उसे क्यों सीखता, जबकि वह उसी धर्म से आता था? दरअसल, इंद्र ने प्रहलाद से देव-विरोधी असुर धर्म को त्यागने का वरदान माँगा था. अपने धर्म को त्यागने के बाद प्रह्लाद अपने समुदाय की नजर में गिर गया था, और इंद्र ने अपना खोया राज्य पुनः प्राप्त कर लिया था. ठीक यही तरीका हमें बलि की कहानी में मिलता है, जिसमे विष्णु ने बौने वामन का रूप धारण करके एक वरदान के जरिये उसका समस्त राज्य छीन लिया था. बलि राजा से जुड़े अनेक मिथकों से पता चलता है कि प्रह्लाद ने, जो रिश्ते में बलि का दादा था, बलि को सावधान किया था कि यह बौना वामन असल में विष्णु है. एक अन्य कथा में प्रह्लाद बहुत ही तीखे शब्दों में प्रतिवाद करता है कि विष्णु ने बौना बनकर उसके पोते बलि के साथ धोखा किया है और उसे लूटा है. (देवीभागवतपुराण). एक और मिथक, जो एकलव्य से जुड़ा है, बताता है कि किस तरह स्वयं इंद्र ने बलि के पिता विरोचन से भी वरदान के जरिये उसका सिर मांग लिया था. इंद्र ने कहा था, “मुझे अपना सिर दे दो.” और विरोचन ने तुरंत अपना सिर काटकर इंद्र को सौंप दिया था. (स्कन्दपुराण).
मिथक इतिहास नहीं हैं, यह सच है, पर उनमें भारत के मूल निवासी असुरों के साथ हुए वर्गयुद्धों और उस युद्ध में शहीद हुए असुर राजाओं की नृशंस हत्याओं का पूरा राजनीतिशास्त्र है. कोई भी व्यक्ति न अपने हाथ से अपना अंगूठा काटकर किसी को देगा, और न अपना सिर काटकर देगा. किसी का भी अपने हाथ से अपना सिर काटना, और फिर, उस कटे सिर को अपने ही हाथ में लेकर दूसरे को सौंपना—ये दोनों ही बातें अविश्वसनीय है. हकीकत में एकलव्य का जबरन अंगूठा काटा गया था, और विरोचन की हत्या की गयी थी. आज भी धर्म के लिए की गयीं हत्याओं को मिथकीय रंग दे दिया जाता है, पुराणों ने भी यही काम किया था. पर उसने एक कदम आगे बढ़कर देव-विरोधी असुरों को जनता का खलनायक बनाने का भी काम किया.
प्रह्लाद के पिता हिरण्यकशिपु की हत्या तो और भी बड़ी क्रूरता है. उसे उसी के महल में घुसकर नरसिंह ने मारा था. ऐसा प्रतीत होता है कि इस असुर राजा का पूरा वंश ही ब्राह्मणों के निशाने पर था, और उसका बीजनाश करके ही उन्होंने दम लिया था. इसकी जो मिथकीय कथा विष्णु पुराण और भागवत पुराण में मिलती, उसके अनुसार, देवविरोधी हिरण्यकशिपु को ब्रह्मा से यह वरदान मिला हुआ था कि वह न मनुष्य के द्वारा, न देवताओं के द्वारा, न पशु के द्वारा, न भीतर, न बाहर, न दिन में, न रात में, न पृथ्वी पर, न आकाश में, न शस्त्र से, न अस्त्र से मारा जायेगा. अपनी अमृत्यु से निश्चिंत होकर उसने पृथ्वी और स्वर्ग में उत्पात मचाना शुरू कर दिया. किन्तु, उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु का भक्त था. सो, हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मारने की धमकी दी, जो विष्णु को सर्वव्यापी ईश्वर मानने पर जोर देता था. तब हिरण्यकशिपु ने एक खम्बे में लात मारकर पूछा, “क्या वह इसमें भी है?” अचानक उसी समय खम्बा फाड़कर शेर जैसा मनुष्य (नरसिंह) प्रगट हुआ. और उसने हिरण्यकशिपु को अपने घुटनों पर रखकर अपने लम्बे नाखूनों से फाड़कर मार डाला. उसके बाद विष्णु-भक्त प्रह्लाद असुरों का राजा बना और अपनी देवविरोधी प्रकृति को त्यागकर देवों के प्रति समर्पित हो गया.
यह बहुत ही सामान्य कहानी है, जो अनेक असुरों पर दुहराई गयी है. महाभारत में वर्णित इंद्र और असुर वृत्र (अथवा नमुची) की कहानी भी इसी तरह की है, जिसे गोधूलि (न दिन और रात) में समुद्र के किनारे (न भूमि और न समुद्र) मारा गया था. रावण और महिष की हत्याओं की कहानी भी कुछ इसी तरह की है.
इस कहानी में प्रकृति को ही चुनौती दी गयी है. सभी वस्तुएं और जीवजन्तु मरणशील हैं, कोई भी अमर नहीं है. इस पौराणिक कहानी में इसी प्रकृति का खंडन किया गया है. यह माया हिन्दूधर्म में ही है कि देवता मनुष्यों को अमर होने का वरदान देते हैं, पर इसके बावजूद कोई अमर नहीं रहता है. दूसरी बात यह विचारणीय है कि जो प्रह्लाद राजा बलि को चेता रहा है, वह खुद विष्णु-भक्त कैसे हो सकता है? तीसरी बात यह कि अगर प्रह्लाद इतना परम विष्णु-भक्त था कि उसके लिए वह खम्बा फाड़ कर नरसिंह के रूप में प्रगट हुए, तो उसने अपने पिता को बचाने को क्यों नहीं कहा? उसने अपने पिता की हत्या कैसे बर्दाश्त कर ली? यह कहानी यह साबित करने की कोशिश है कि प्रह्लाद ने अपनी ब्राह्मण-भक्ति में अपने असुर-धर्म, अपनी असुर-संस्कृति और अपने पिता तक को कुर्बान कर दिया.
हकीकत यह है कि हिरण्यकशिपु ने बलि और विरोचन की तरह ब्राह्मणों के आगे घुटने नहीं टेके थे, और उसने अंत तक असुरों के हित में संघर्ष और युद्ध किया था. जब उसके पुत्र प्रहलाद को ब्राह्मणों ने राज्य का लालच देकर अपने ब्राह्मण राष्ट्रवाद में शामिल कर लिया था, तो भी हिरण्यकशिपु ने हथियार नहीं डाले थे. किन्तु यही विष्णु-भक्ति प्रह्लाद के भी पतन का कारण बनी थी. ब्राह्मण-भक्ति की जो भूमिका विभीषण ने निभाई थी, वही प्रह्लाद ने निभाई थी.
इस सम्बन्ध में महात्मा जोतिबा फुले का मत भी गौरतलब है. सम्भवतः फुले पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने हिन्दू मिथकों का बहुत ही वैज्ञानिक विश्लेषण किया है. वे नरसिंह के विषय में “गुलामगीरी” में लिखते हैं, ‘वराह के मरने के बाद द्विजों का मुखिया नरसिंह बना था. सबसे पहले उसके मन में हिरण्यकशिपु की हत्या करने का विचार आया. उसने यह अच्छी तरह समझ लिया था कि उसको मारे वगैर उसका उसे मिलने वाला नहीं था. उसने अपने एक द्विज शिक्षक के माध्यम से हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद के अबोध मन पर अपना धर्म-सिद्धांत थोपना शुरू किया. इसकी वजह से प्रह्लाद ने अपने हरहर नाम के कुलस्वामी की पूजा करनी बंद कर दी. प्रह्लाद पर द्विज रंग ऐसा चढ़ा कि हिरण्यकशिपु की उसे समझाने की सारी कोशिशें बेकार गयीं. तब नरसिंह ने प्रह्लाद को अपने पिता की हत्या करने को उकसाया. पर ऐसा करने की प्रह्लाद की हिम्मत नहीं हुई. अंत में नरसिंह ने अपने शरीर को रंगवाकर मुंह में नकली शेर का मुखोटा लगाकर अपने शरीर को साड़ी से ढककर प्रह्लाद की मदद से हिरण्यकशिपु के महल में एक खम्बे की आड़ में छिपकर खड़ा हो गया. और जब हिरण्यकशिपु आराम के लिए पलंग पर लेटा, तो शेर बना नरसिंह उस पर टूट पड़ा, और बखनखा से उसका पेट फाड़कर उसकी हत्या कर दी.’ महात्मा फुले ने यह भी लिखा है कि हिरण्यकशिपु की हत्या के बाद नरसिंह सभी द्विजों को साथ लेकर अपने मुल्क भाग गया. जब क्षत्रियों को पता चला तों वे आर्यों को द्विज कहना छोड़कर ‘विप्रिय’ (अप्रिय, धोखेबाज़, दुष्ट) कहना शुरू कर दिया. बाद में इसी ‘विप्रिय’ शब्द से उनका नाम ‘विप्र’ पड़ा.
हिरण्यकशिपु के प्रकरण में अभी होलिका का प्रवेश होना बाकी है. यह शायद किंवदंती है, जिसमें कहा जाता है कि हिरण्यकशिपु की बहिन होलिका को अग्नि से बचने का वरदान प्राप्त था. उसको वरदान में एक ऐसी चादर मिली हुई थी, जो आग में नहीं जलती थी. हिरण्यकशिपु ने अपनी इसी बहिन की सहायता से प्रह्लाद को मारने की योजना बनाई. होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर धू-धू करती आग में जा बैठी. किन्तु विष्णु की कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ, और होलिका जलकर भस्म हो गयी. कहते हैं कि तभी से होली का त्यौहार मनाया जाने लगा.
क्या इस कहानी पर यकीन किया जा सकता है? वास्तव में इसकी अंतर्कथा यह है कि हिरण्यकशिपु की हत्या के बाद उसकी बहिन ने देवों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था और प्रह्लाद को भी उसने चेताया था कि ब्राह्मण राष्ट्रवाद समस्त असुर संस्कृति के विनाश का दर्शन है. वह देवों और ब्राह्मणों के रास्ते की अंतिम बाधा थी, जिसे हटाकर ही वे प्रह्लाद के मुखोटे से ब्राह्मण-राज्य कायम कर सकते थे. अत: एक दिन अवसर पाकर लाठी-डंडों से लैस ब्राह्मणों ने होलिका को जिन्दा जलाकर मार डाला. उसकी मौत पर ढोल-नगाड़े बजाए गए. आज उसी तर्ज पर हिंदू हर वर्ष होलिका के रूप में होली जलाकर ब्राह्मणवाद की विजय का जश्न मनाते हैं. आज लाठी-डंडों की जगह उनके हाथों में गन्ने होते हैं, पर ढोल-डीजे का शोर तो होता ही हैं.
(23 March, 2016)
(कँवल भारती)
डा. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक “फिलोसोफी ऑफ हिन्दुइज्म” में एक जगह लिखा है, “आज के हिंदू सबसे प्रबल विरोधी मार्क्सवाद के हैं. और इसलिए हैं, क्योंकि वे उसके वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत से भयभीत हैं. लेकिन वे भूल जाते हैं कि भारत न केवल वर्ग-संघर्ष की भूमि रहा है, बल्कि वर्ग-संग्राम की भी भूमि रहा है.”
अब एक साक्षी ऋग्वेद (१०,२२-८) से लेते हैं, “हे इंद्र! हमारे चारों ओर यज्ञ-कर्म से शून्य, किसी (ईश्वरीय सत्ता) को न मानने वाले, वेद-स्तुति के प्रतिकूल कर्म करने वाले दस्यु हैं, वे मनुष्य नहीं हैं. उनका नाश करो.”
स्पष्ट है कि यह वर्गसंघर्ष और वर्गसंग्राम भारत के लिए नया नहीं हैं. वैदिक काल में जो देवासुर संग्राम शुरू हुआ, वह आज तक, इस इक्कीसवीं सदी के लोकतंत्र में भी, चल रहा है. देवों ने न केवल अपने विरोधी असुरों को मारा, बल्कि उसे उन्होंने अपने धर्म की जीत भी घोषित किया और व्यापक स्तर पर उसका जश्न मनाया. लगभग सभी हिंदू त्यौहारों की बुनियाद में यही देवासुरसंग्राम है, चाहे वह दुर्गापूजा हो, दशहरा हो, दिवाली हो, या होली हो. ये सारे त्यौहार असुरों की मौत पर देवों अर्थात ब्राह्मणों के जश्न हैं. ब्राह्मणों ने अपने विरुद्ध चलने वाली विचारधारा को पसंद नहीं किया. भारत के जनजातीय क्षेत्रों में ब्राह्मणों ने अपना ब्राह्मण राज्य कायम करने की हर संभव कोशिश की. इस योजना में वे सबसे पहले अपने धर्मगुरुओं को वहाँ भेजते थे, जो वहाँ अपने आश्रम बनाकर यज्ञयागादि की गतिविधियों आरंभ करते थे, उनका जो विरोध करते, उनको वे मरवा देते थे, कुछ जन जातीय लोगों को वे प्रलोभन देकर मिशन से भी जोड़ लेते थे. ऐसा वे आज भी करते हैं. आज भी दलित-पिछड़े समुदायों के बहुत से बुद्धिजीवी ब्राह्मणवाद के फोल्ड में हैं. उन्हीं की मदद से उन्होंने अपनी योजना को आगे बढ़ाया और विरोधियों का राज्य समाप्त करके वहाँ अपना उपनिवेश कायम किया. बलि, हिरण्यकश्यप, शम्बर, दिवोदास, रावण से लेकर मौर्य राज्य की स्थापना तक उनका यही मिशन चला. किसी ने ठीक ही कहा है, इतिहास अपने को दुहराता है. ठीक उसी मिशनरी रास्ते से मुगलों और ब्रिटिश ने भी भारत को अपना उपनिवेश बनाया. हालाँकि उन उपनिवेशों में भी ब्राह्मण ही प्रभुत्त्वशाली थे.
आज जिस तरह हिन्दूराष्ट्रवादी वर्ग ने अपनी विद्यार्थी परिषद के द्वारा देशभर के शिक्षण संस्थानों में दलित-वाम शक्ति के खिलाफ वर्गयुद्ध छेड़ा हुआ है, ठीक वैसा ही वर्गयुद्ध हमें पुराणों में असुर राजाओं और उनकी संस्थाओं के खिलाफ मिलता है. मैं यहाँ हिरण्यकशिपु और प्रह्लाद की कथा का विश्लेषण करूँगा. महाभारत के अनुसार, प्रह्लाद ने देवासुरसंग्राम में इंद्र को परस्त कर उसके राज्य पर कब्जा कर लिया था. वह अपनी जनता में अपने धार्मिक सद्गुणों से इतना लोकप्रिय था कि इंद्र उससे अपना राज्य वापिस नहीं ले सकता था. अत: इंद्र ब्राह्मण का भेष बनाकर प्रहलाद के पास गया, और उससे अपना धर्म सिखाने की प्रार्थना की. इंद्र की प्रार्थना पर प्रह्लाद ने इंद्र को अपने सनातन धर्म की शिक्षा दी. अपने शिष्य से प्रसन्न होकर प्रह्लाद ने इंद्र से वरदान मांगने को कहा, और ब्राह्मण भेष बनाए हुए इंद्र ने कहा, ‘मेरी इच्छा तुम्हारे सद्गुण पाने की है,’ इंद्र प्रहलाद का गुण और धर्म अपने साथ लेकर चला गया. और प्रह्लाद के धर्म पर चलकर इंद्र ने उसकी सारी कीर्ति खत्म कर दी.
देव-विरोधी असुरों के साथ ब्राह्मण-छल की यह कोई पहली घटना नहीं है, हिंदू कथाओं में, जिसे वे इतिहास कहते हैं, ब्राह्मणों के छल की ऐसी अनेक कहानियां हैं. यही छल एकलव्य के साथ किया गया था, जिसका अंगूठा मांगकर गुरु द्रोणाचार्य ने उसको विद्या-रहित कर दिया था. ठीक उसी तरह प्रहलाद से उसका धर्म लेकर उसका सर्वस्व ले लिया गया था. प्रहलाद ने जिस सनातन धर्म की शिक्षा दी थी, वह वैदिक वर्णव्यवस्था वाला धर्म नहीं था, क्योंकि इंद्र उसे क्यों सीखता, जबकि वह उसी धर्म से आता था? दरअसल, इंद्र ने प्रहलाद से देव-विरोधी असुर धर्म को त्यागने का वरदान माँगा था. अपने धर्म को त्यागने के बाद प्रह्लाद अपने समुदाय की नजर में गिर गया था, और इंद्र ने अपना खोया राज्य पुनः प्राप्त कर लिया था. ठीक यही तरीका हमें बलि की कहानी में मिलता है, जिसमे विष्णु ने बौने वामन का रूप धारण करके एक वरदान के जरिये उसका समस्त राज्य छीन लिया था. बलि राजा से जुड़े अनेक मिथकों से पता चलता है कि प्रह्लाद ने, जो रिश्ते में बलि का दादा था, बलि को सावधान किया था कि यह बौना वामन असल में विष्णु है. एक अन्य कथा में प्रह्लाद बहुत ही तीखे शब्दों में प्रतिवाद करता है कि विष्णु ने बौना बनकर उसके पोते बलि के साथ धोखा किया है और उसे लूटा है. (देवीभागवतपुराण). एक और मिथक, जो एकलव्य से जुड़ा है, बताता है कि किस तरह स्वयं इंद्र ने बलि के पिता विरोचन से भी वरदान के जरिये उसका सिर मांग लिया था. इंद्र ने कहा था, “मुझे अपना सिर दे दो.” और विरोचन ने तुरंत अपना सिर काटकर इंद्र को सौंप दिया था. (स्कन्दपुराण).
मिथक इतिहास नहीं हैं, यह सच है, पर उनमें भारत के मूल निवासी असुरों के साथ हुए वर्गयुद्धों और उस युद्ध में शहीद हुए असुर राजाओं की नृशंस हत्याओं का पूरा राजनीतिशास्त्र है. कोई भी व्यक्ति न अपने हाथ से अपना अंगूठा काटकर किसी को देगा, और न अपना सिर काटकर देगा. किसी का भी अपने हाथ से अपना सिर काटना, और फिर, उस कटे सिर को अपने ही हाथ में लेकर दूसरे को सौंपना—ये दोनों ही बातें अविश्वसनीय है. हकीकत में एकलव्य का जबरन अंगूठा काटा गया था, और विरोचन की हत्या की गयी थी. आज भी धर्म के लिए की गयीं हत्याओं को मिथकीय रंग दे दिया जाता है, पुराणों ने भी यही काम किया था. पर उसने एक कदम आगे बढ़कर देव-विरोधी असुरों को जनता का खलनायक बनाने का भी काम किया.
प्रह्लाद के पिता हिरण्यकशिपु की हत्या तो और भी बड़ी क्रूरता है. उसे उसी के महल में घुसकर नरसिंह ने मारा था. ऐसा प्रतीत होता है कि इस असुर राजा का पूरा वंश ही ब्राह्मणों के निशाने पर था, और उसका बीजनाश करके ही उन्होंने दम लिया था. इसकी जो मिथकीय कथा विष्णु पुराण और भागवत पुराण में मिलती, उसके अनुसार, देवविरोधी हिरण्यकशिपु को ब्रह्मा से यह वरदान मिला हुआ था कि वह न मनुष्य के द्वारा, न देवताओं के द्वारा, न पशु के द्वारा, न भीतर, न बाहर, न दिन में, न रात में, न पृथ्वी पर, न आकाश में, न शस्त्र से, न अस्त्र से मारा जायेगा. अपनी अमृत्यु से निश्चिंत होकर उसने पृथ्वी और स्वर्ग में उत्पात मचाना शुरू कर दिया. किन्तु, उसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु का भक्त था. सो, हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मारने की धमकी दी, जो विष्णु को सर्वव्यापी ईश्वर मानने पर जोर देता था. तब हिरण्यकशिपु ने एक खम्बे में लात मारकर पूछा, “क्या वह इसमें भी है?” अचानक उसी समय खम्बा फाड़कर शेर जैसा मनुष्य (नरसिंह) प्रगट हुआ. और उसने हिरण्यकशिपु को अपने घुटनों पर रखकर अपने लम्बे नाखूनों से फाड़कर मार डाला. उसके बाद विष्णु-भक्त प्रह्लाद असुरों का राजा बना और अपनी देवविरोधी प्रकृति को त्यागकर देवों के प्रति समर्पित हो गया.
यह बहुत ही सामान्य कहानी है, जो अनेक असुरों पर दुहराई गयी है. महाभारत में वर्णित इंद्र और असुर वृत्र (अथवा नमुची) की कहानी भी इसी तरह की है, जिसे गोधूलि (न दिन और रात) में समुद्र के किनारे (न भूमि और न समुद्र) मारा गया था. रावण और महिष की हत्याओं की कहानी भी कुछ इसी तरह की है.
इस कहानी में प्रकृति को ही चुनौती दी गयी है. सभी वस्तुएं और जीवजन्तु मरणशील हैं, कोई भी अमर नहीं है. इस पौराणिक कहानी में इसी प्रकृति का खंडन किया गया है. यह माया हिन्दूधर्म में ही है कि देवता मनुष्यों को अमर होने का वरदान देते हैं, पर इसके बावजूद कोई अमर नहीं रहता है. दूसरी बात यह विचारणीय है कि जो प्रह्लाद राजा बलि को चेता रहा है, वह खुद विष्णु-भक्त कैसे हो सकता है? तीसरी बात यह कि अगर प्रह्लाद इतना परम विष्णु-भक्त था कि उसके लिए वह खम्बा फाड़ कर नरसिंह के रूप में प्रगट हुए, तो उसने अपने पिता को बचाने को क्यों नहीं कहा? उसने अपने पिता की हत्या कैसे बर्दाश्त कर ली? यह कहानी यह साबित करने की कोशिश है कि प्रह्लाद ने अपनी ब्राह्मण-भक्ति में अपने असुर-धर्म, अपनी असुर-संस्कृति और अपने पिता तक को कुर्बान कर दिया.
हकीकत यह है कि हिरण्यकशिपु ने बलि और विरोचन की तरह ब्राह्मणों के आगे घुटने नहीं टेके थे, और उसने अंत तक असुरों के हित में संघर्ष और युद्ध किया था. जब उसके पुत्र प्रहलाद को ब्राह्मणों ने राज्य का लालच देकर अपने ब्राह्मण राष्ट्रवाद में शामिल कर लिया था, तो भी हिरण्यकशिपु ने हथियार नहीं डाले थे. किन्तु यही विष्णु-भक्ति प्रह्लाद के भी पतन का कारण बनी थी. ब्राह्मण-भक्ति की जो भूमिका विभीषण ने निभाई थी, वही प्रह्लाद ने निभाई थी.
इस सम्बन्ध में महात्मा जोतिबा फुले का मत भी गौरतलब है. सम्भवतः फुले पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने हिन्दू मिथकों का बहुत ही वैज्ञानिक विश्लेषण किया है. वे नरसिंह के विषय में “गुलामगीरी” में लिखते हैं, ‘वराह के मरने के बाद द्विजों का मुखिया नरसिंह बना था. सबसे पहले उसके मन में हिरण्यकशिपु की हत्या करने का विचार आया. उसने यह अच्छी तरह समझ लिया था कि उसको मारे वगैर उसका उसे मिलने वाला नहीं था. उसने अपने एक द्विज शिक्षक के माध्यम से हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद के अबोध मन पर अपना धर्म-सिद्धांत थोपना शुरू किया. इसकी वजह से प्रह्लाद ने अपने हरहर नाम के कुलस्वामी की पूजा करनी बंद कर दी. प्रह्लाद पर द्विज रंग ऐसा चढ़ा कि हिरण्यकशिपु की उसे समझाने की सारी कोशिशें बेकार गयीं. तब नरसिंह ने प्रह्लाद को अपने पिता की हत्या करने को उकसाया. पर ऐसा करने की प्रह्लाद की हिम्मत नहीं हुई. अंत में नरसिंह ने अपने शरीर को रंगवाकर मुंह में नकली शेर का मुखोटा लगाकर अपने शरीर को साड़ी से ढककर प्रह्लाद की मदद से हिरण्यकशिपु के महल में एक खम्बे की आड़ में छिपकर खड़ा हो गया. और जब हिरण्यकशिपु आराम के लिए पलंग पर लेटा, तो शेर बना नरसिंह उस पर टूट पड़ा, और बखनखा से उसका पेट फाड़कर उसकी हत्या कर दी.’ महात्मा फुले ने यह भी लिखा है कि हिरण्यकशिपु की हत्या के बाद नरसिंह सभी द्विजों को साथ लेकर अपने मुल्क भाग गया. जब क्षत्रियों को पता चला तों वे आर्यों को द्विज कहना छोड़कर ‘विप्रिय’ (अप्रिय, धोखेबाज़, दुष्ट) कहना शुरू कर दिया. बाद में इसी ‘विप्रिय’ शब्द से उनका नाम ‘विप्र’ पड़ा.
हिरण्यकशिपु के प्रकरण में अभी होलिका का प्रवेश होना बाकी है. यह शायद किंवदंती है, जिसमें कहा जाता है कि हिरण्यकशिपु की बहिन होलिका को अग्नि से बचने का वरदान प्राप्त था. उसको वरदान में एक ऐसी चादर मिली हुई थी, जो आग में नहीं जलती थी. हिरण्यकशिपु ने अपनी इसी बहिन की सहायता से प्रह्लाद को मारने की योजना बनाई. होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर धू-धू करती आग में जा बैठी. किन्तु विष्णु की कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ, और होलिका जलकर भस्म हो गयी. कहते हैं कि तभी से होली का त्यौहार मनाया जाने लगा.
क्या इस कहानी पर यकीन किया जा सकता है? वास्तव में इसकी अंतर्कथा यह है कि हिरण्यकशिपु की हत्या के बाद उसकी बहिन ने देवों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था और प्रह्लाद को भी उसने चेताया था कि ब्राह्मण राष्ट्रवाद समस्त असुर संस्कृति के विनाश का दर्शन है. वह देवों और ब्राह्मणों के रास्ते की अंतिम बाधा थी, जिसे हटाकर ही वे प्रह्लाद के मुखोटे से ब्राह्मण-राज्य कायम कर सकते थे. अत: एक दिन अवसर पाकर लाठी-डंडों से लैस ब्राह्मणों ने होलिका को जिन्दा जलाकर मार डाला. उसकी मौत पर ढोल-नगाड़े बजाए गए. आज उसी तर्ज पर हिंदू हर वर्ष होलिका के रूप में होली जलाकर ब्राह्मणवाद की विजय का जश्न मनाते हैं. आज लाठी-डंडों की जगह उनके हाथों में गन्ने होते हैं, पर ढोल-डीजे का शोर तो होता ही हैं.
(23 March, 2016)
बुधवार, 23 मार्च 2016
सोमवार, 21 मार्च 2016
मोदी जी कितने सच्चे आंबेडकर भक्त?
मोदी जी कितने सच्चे आंबेडकर भक्त?
-एस.आर. दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
-एस.आर. दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
अपने प्रसिद्ध लेख “राज्य और क्रांति” में लेनिन ने कहा है, “मार्क्स की
शिक्षा के साथ आज वही हो रहा है, जो उत्पीड़ित वर्गों के मुक्ति-संघर्ष में
उनके नेताओं और क्रन्तिकारी विचारकों की शिक्षाओं के साथ इतिहास में अक्सर
हुआ है. उत्पीड़क वर्गों ने महान क्रांतिकारियों को उनके जीवन भर लगातार
यातनाएं दीं, उनकी शिक्षा का अधिक से अधिक बर्बर द्वेष, अधिक से अधिक
क्रोधोन्मत घृणा तथा झूठ बोलने और बदनाम करने के अधिक से अधिक अंधाधुंध
मुहिम द्वारा स्वागत किया. लेकिन उन की मौत के बाद उनकी क्रान्तिकारी शिक्षा
को सारहीन करके, उसकी क्रन्तिकारी धार को कुंद करके, उसे भ्रष्ट करके
उत्पीडित वर्गों को “बहलाने”, तथा धोखा देने के लिए उन्हें अहानिकर
देव-प्रतिमाओं का रूप देने, या यूँ कहें, उन्हें देवत्व प्रदान करने और
उनके नामों को निश्चित गौरव प्रदान करने के प्रयत्न किये जाते हैं.” क्या
आज आंबेडकर के साथ भी यही नहीं किया जा रहा है?
आज हमारे प्रधान
मंत्री नरेंद्र मोदी जी ने आंबेडकर राष्ट्रीय मेमोरियल के शिलान्यास के
अवसर पर डॉ. आंबेडकर मेमोरियल लेक्चर दिया जिस में उन्होंने डॉ. आंबेडकर के
कृत्यों की प्रशंसा करते हुए अपने आप को आंबेडकर भक्त घोषित किया है. उनकी
यह घोषणा भाजपा की हिंदुत्व की भक्ति के अनुरूप ही है क्योंकि भक्ति में
आराध्य का केवल गुणगान करके काम चल जाता है और उस की शिक्षाओं पर आचरण करने
की कोई ज़रुरत नहीं होती. आज मोदी जी ने भी डॉ. आंबेडकर का केवल गुणगान
किया है जबकि उन की शिक्षाओं पर आचरण करने से उन्हें कोई मतलब नहीं है. यह
गुणगान भी लेनिन द्वारा उपर्युक्त रणनीति के अंतर्गत किया जा रहा है. कौन
नहीं जानता कि भाजपा की हिन्दुत्ववादी विचारधारा और आंबेडकर की समतावादी
विचारधारा में छत्तीस का आंकड़ा है.
आइये इस के कुछ पह्लुयों का विवेचन
करें-
मोदी जी ने अपने भाषण में कहा है कि वह आंबेडकर भक्त है जब कि डॉ.
आंबेडकर तो कहते थे कि उन्हें भक्त नहीं अनुयायी चाहिए. डॉ. आंबेडकर ने तो यह भी
कहा था कि धर्म में भक्ति मुक्ति का साधन हो सकती है परन्तु राजनीति में भक्ति तो
निश्चित तौर पर पतन का मार्ग है. परन्तु मोदी जी आप की पार्टी तो भक्तजनों की
पार्टी है और आप स्वयम भक्तों के पूज्य हैं.
अपने भाषण में मोदी जी ने कहा है कि डॉ. आंबेडकर ने जाति के
विरुद्ध लडाई लड़ी थी परन्तु कौन नहीं जानता कि भाजपा का जाति और वर्ण
व्यवस्था के बारे में क्या नजरिया है. डॉ. आंबेडकर ने तो कहा था कि
जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज की स्थापना हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य है परन्तु
भाजपा और उसकी जननी आर.एस.एस. तो समरसता के नाम पर जाति और वर्ण की
संरक्षक है. मोदी जी का जीभ कटने पर दांत न तोड़ने का दृष्टान्त भी इसी
समरसता अर्थात यथास्थिति का ही प्रतीक है.
मोदी जी ने अपने भाषण
में बाबा साहेब की मजदूर वर्ग के संरक्षण के लिए श्रम कानून बनाने के लिए
प्रशंसा की है. परन्तु मोदी जी तो मेक- इन -इंडिया के नाम पर सारे श्रम
कानूनों को समाप्त करने पर तुले हुए हैं. जिन जिन प्रदेशों में भाजपा की
सरकारें हैं वहां वहां पर श्रम कानून समाप्त कर दिए गए हैं. पूरे देश में
सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र में नियमित मजदूरों की जगह ठेकेदारी प्रथा
लागू कर दी गयी है जिस से मजदूरों का भयंकर शोषण हो रहा है. बाबा साहेब तो
मजदूरों की राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी के पक्षधर थे.
बाबा साहेब
के बहुचर्चित “शिक्षित करो, संघर्ष करो और संगठित करो” के नारे को बिगाड़ कर
“शिक्षित हो, संगठित हो और संघर्ष करो” के रूप में प्रस्तुत करते हुए मोदी
जी ने कहा कि बाबा साहेब शिक्षा को बहुत महत्व देते थे और उन्होंने
शिक्षित हो कर संगठित होने के लिए कहा था ताकि संघर्ष की ज़रुरत न पड़े. इस
में भी मोदी जी का समरसता का फार्मूला ही दिखाई देता है जबकि बाबा साहेब ने
तो शिक्षित हो कर संघर्ष के माध्यम से संगठित होने का सूत्र दिया था. बाबा
साहेब तो समान, अनिवार्य और सार्वभौमिक शिक्षा के पैरोकार थे. इस के
विपरीत वर्तमान सरकार शिक्षा के निजीकरण की पक्षधर है और शिक्षा के लिए बजट
में निरंतर कटौती करके गुणवत्ता वाली शिक्षा को आम लोगों की पहुँच से बाहर
कर रही है.
अपने भाषण में आरक्षण को खरोच भी न आने देने की बात पर
मोदी जी ने बहुत बल दिया है. परन्तु वर्तमान में आरक्षण पर सब से बड़े संकट
पदोन्नति में आरक्षण सम्बन्धी संविधान संशोधन का कोई उल्लेख नहीं किया.
इसके साथ ही दलितों की निजी क्षेत्र और न्यायपालिका में आरक्षण की मांग को
बिलकुल नज़रंदाज़ कर दिया. उन्होंने यह भी नहीं बताया कि निजीकरण के कारण
आरक्षण के निरंतर घट रहे दायरे के परिपेक्ष्य में दलितों को रोज़गार कैसे
मिलेगा?
मोदी जी ने इस बात को भी बहुत जोर शोर से कहा है कि डॉ
आंबेडकर औद्योगीकरण के पक्षधर थे परन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि वे निजी
या सरकारी किस औद्योगीकरण के पक्षधर थे. यह बात भी सही है कि भारत के
औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण में जितना योगदान डॉ. आंबेडकर का है उतना शायद ही
किसी और का हो. डॉ. आंबेडकर ने ही उद्योग के लिए सस्ती बिजली, बाढ़ नियंतरण
और कृषि सिचाई के लिए ओडिसा में दामोदर घाटी परियोजना बनाई थी. इस के
अतिरिक्त "सेंट्रल वाटर एंड पावर कमीशन" तथा "सेंट्रल वाटरवेज़ एंड नेवीगेशन
कमीशन" की स्थापना की थी. हमारा वर्तमान पावर सप्लाई सिस्टम भी उनकी ही देन
है.
यह सर्विदित है कि बाबासाहेब राजकीय समाजवाद के प्रबल समर्थक थे जब कि
मोदी जी तो निजी क्षेत्र और न्यूनतम गवर्नेंस के सब से बड़े पैरोकार हैं.
बाबासाहेब तो पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद को दलितों के सब से बड़े दुश्मन मानते
थे. मोदी जी का निजीकरण और भूमंडलीकरण बाबासाहेब की समाजवादी अर्थव्यवस्था
की विचारधारा के बिलकुल विपरीत है.
मोदी जी ने डॉ. आंबेडकर की एक
प्रख्यात अर्थशास्त्री के रूप में जो प्रशंसा की है वह तो ठीक है. परन्तु
बाबासाहेब का आर्थिक चितन तो समाजवादी और कल्याणकारी अर्थव्यस्था का था जिस
के लिए नोबेल पुरूस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने उन्हें अपने
अर्थशास्त्र का पितामह कहा है. इसके विपरीत मोदी जी का आर्थिक चिंतन और
नीतियाँ पूंजीवादी और कार्पोरेटपरस्त हैं.
अपने भाषण में मोदी जी ने
कहा है कि डॉ. आंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल को लेकर महिलायों के हक़ में अपने
मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. यह बात तो बिलकुल सही है कि भारत के
इतिहास में डॉ. आंबेडकर ही एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने दलित मुक्ति के
साथ साथ हिन्दू नारी की मुक्ति को भी अपना जीवन लक्ष्य बनाया था और उन के
बलिदान से भारतीय नारी को वर्तमान कानूनी अधिकार मिल सके हैं. बाबासाहेब ने
तो कहा था कि मैं किसी समाज की प्रगति का आंकलन उस समाज की महिलायों की
प्रगति से करता हूँ. इस के विपरीत भाजपा सरकार की मार्ग दर्शक आर.एस.एस. तो
महिलायों को मनुस्मृति वाली व्यस्था में देखने की पक्षधर है.
मोदी जी
ने डॉ. आंबेडकर का लन्दन वाला घर खरीदने, बम्बई में स्मारक बनाने और
दिल्ली में आंबेडकर स्मारक बनाने का श्रेय भी अपनी पार्टी को दिया है. वैसे
तो मायावती ने भी दलितों के लिए कुछ ठोस न करके केवल स्मारकों और प्रतीकों
की राजनीति से ही काम चलाया है. भाजपा की स्मारकों की राजनीति उसी राजनीति
की पूरक है. शायद मोदी जी यह जानते होंगे कि बाबा साहेब तो अपने आप को बुत- पूजक नहीं बुत-तोड़क कहते थे और वे व्यक्ति पूजा के घोर विरोधी थे. बाबा
साहेब तो मूर्तियों की जगह पुस्कालयों, विद्यालयों और छात्रवासों की स्थापना के पक्षधर थे.
वे राजनीति में किसी व्यक्ति की भक्ति के घोर विरोधी थे और इसे सार्वजनिक
जीवन की सब से बड़ी गिरावट मानते थे. परन्तु भाजपा में तो मोदी जी को एक
ईश्वरीय देन मान कर पूजा जा रहा है.
मोदी जी ने अपने भाषण में सरदार
पटेल और डॉ. आंबेडकर की तुलना की है. एक की राज के केन्द्रीकरण के लिए और
दूसरे की समाज के केन्द्रीकरण के लिए. मोदी जी शायद यह नहीं जानते होंगे कि
सरदार पटेल और डॉ. आंबेडकर में गंभीर मतभेद थे. सरदार पटेल ने तो डॉ.
आंबेडकर के लिए कहा था कि हम ने डॉ. आंबेडकर के संविधान सभा में प्रवेश के
सारे खिड़की दरवाजे बंद कर दिए हैं और उन्होंने डॉ. आंबेडकर को 1946 के
चुनाव में हरवाया था. इस पर डॉ. आंबेडकर किसी तरह मुस्लिम लीग की मदद से
पूर्वी बंगाल से जीत कर संविधान सभा में पहुंचे थे. इस के इलावा संविधान
बनाने को लेकर भी उन में गंभीर मतभेद थे. एक बार तो डॉ. आंबेडकर ने संविधान
बनाने तक से मना कर दिया था. यह भी विचारणीय है कि सरदार पटेल मुसलमानों और
सिखों के साथ साथ दलितों को भी किसी प्रकार का आरक्षण देने के पक्षधर नहीं थे.
दलितों को संविधान में आरक्षण तो गाँधी जी के हस्तक्षेप से मिल पाया था.
अपने भाषण में मोदी जी ने दलित उद्यमिओं को प्रोत्साहन देने का श्रेय भी
लिया है जबकि यह योजना तो कांग्रेस द्वारा चालू की गयी थी. मोदी जी जानते होंगे कि इस से कुछ दलितों के पूंजीपति या
उद्योगपति बन जाने से इतनी बड़ी दलित जनसँख्या का कोई कल्याण होने वाला नहीं
है. दलितों के अंदर कुछ उद्यमी तो पहले से ही हैं. दलितों का कल्याण तो
तभी होगा जब सरकारी नीतियाँ जनपक्षीय होंगी न कि कार्पोरेटपरस्त. दलितों की
बहुसंख्य आबादी भूमिहीन तथा रोज़गारहीन है जो उनकी सब से बड़ी कमजोरी है.
अतः दलितों के सशक्तिकरण के लिए भूमि आबंटन और रोज़गार गारंटी ज़रूरी है जो
कि मोदी सरकार के एजंडे में नहीं है.
उपरोक्त संक्षिप्त विवेचन से
स्पष्ट है कि अपने भाषण में मोदी जी द्वारा डॉ. आंबेडकर का गुणगान केवल
राजनीति के लिए उन्हें हथियाने का छलावा मात्र है. उन्हें डॉ. आंबेडकर की
विचारधारा अथवा शिक्षाओं से कुछ भी लेना देना नहीं है. सच्च तो यह है कि
भाजपा और उसकी मार्ग दर्शक आर.एस.एस. की नीतियाँ तथा विचारधारा डॉ. आंबेडकर
की समतावादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक विचारधारा के बिलकुल विपरीत हैं. यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान में कांग्रेस पार्टी भी डॉ. आंबेडकर को
हथियाने का अभियान चला रही है. मायावती तो अपने आप को डॉ. आंबेडकर की
उत्तराधिकारी होने का दावा करती रही है जबकि उसका डॉ. आंबेडकर की विचारधारा से कुछ भी लेना देना नहीं है. उसकी तो सारी राजनीति आंबेडकर विचारधारा के विपरीत ही रही है. वास्तविकता यह है कि भाजपा सहित यह
सभी राजनैतिक पार्टियाँ डॉ. आंबेडकर को हथिया कर दलित वोट प्राप्त करने की
दौड़ में लगी हुयी हैं जब कि किसी भी पार्टी का दलित उत्थान का एजंडा नहीं
है. अब यह दलितों को देखना है कि क्या वह इन पार्टियों के दलित प्रेम के
झांसे में आते हैं या डॉ. आंबेडकर से प्रेरणा लेकर अपने विवेक का सही
इस्तेमाल करते हैं.
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