वर्तमान चुनौतियां और बहुजन समाज पार्टी
(कॅंवल भारती)
सच तो यह है कि जातिवादी पार्टियों के सामने कोई चुनौती नहीं होती है। वे हमेशा दर्शन-चिन्तन से दूर रहती हैं। उनके सामने सिर्फ राजनीतिक परिवर्तन का लक्ष्य रहता है, समाज को गतिशील और चेतनशील बनाने में वे यकीन नहीं करती हैं। उनके लिए इतिहास में ठहराव ही सब कुछ है, और वर्तमान चुनौतियां उनके लिए मायने ही नहीं रखती हैं। यह वस्तुतः दक्षिणपंथी राजनीति ही है, जिसके सिक्के के दो पहलू होते हैं, पहला धर्म और दूसरा जाति। ऐसी राजनीति निरन्तर इतिहास को धार देती है, और सारी समस्याओं का समाधान अतीत में ही देखती है। यही नहीं, दक्षिणपंथी राजनीति की तरह ही जातिवादी राजनीति भी पूंजीवादी व्यवस्था के लिए काम करती है।
बहुजन समाज पार्टी (बसपा), जिसका नेतृत्व वर्तमान में मायावती जी के हाथों में है, ऐसी ही जातिवादी पार्टी है, जिसका लक्ष्य जातीय समीकरणों के द्वारा सत्ता हासिल करना है। इन समीकरणों को साधने के लिए इसका नेतृत्व किसी भी हद से गुजरने के लिए तैयार रहता है। उदाहरण के लिए, मायावती जी ने उत्तर प्रदेश में अपने पिछले शासन में सवर्णों को सन्तुष्ट करने के लिए अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण कानून को कमजोर करने के लिए पुलिस अधिकारियों को विशेष दिशा-निर्देश जारी किए थे। वे अपने जनाधार के लिए जातीय गौरव के उभार को ही पर्याप्त मानती हैं। अपने पहले शासन में मायावती जी ने दलित वर्गों के नायकों के स्मारक इसी मकसद से बनवाए थे। ये स्मारक हमेशा दलितों में जातीय गौरव की चेतना विकसित करते हैं।
लेकिन जातीय गौरव की यह राजनीति सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की दिशा में कोई भूमिका नहीं निभा सकी, और न निभा सकती है, क्योंकि वह उसके एजेण्डे में नहीं है। जिस तरह पूंजीवादी व्यवस्था में दलित और कमजोर वर्ग एक लाभार्थी माने जाते हैं, जिन्हें सरकार के विशेष संरक्षण और प्रोत्साहन की आवश्यकता है, उसी तरह बसपा के लिए भी वे लाभार्थी ही हैं। वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, विकलांग पेंशन, छात्रवृत्ति, अनुदान, ऋण और आवास योजनाओं के लक्ष्य ऐसे ही संरक्षण और प्रोत्साहन हैं, जो उन्हें लाभान्वित करने के लिए हैं। और ये सारी योजनाएँ सीमित बजट के अन्तर्गत चलाई जाती हैं, जिससे सीमित लोग ही लाभान्वित होते हैं, और लाभार्थियों की संख्या दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ती जाती है।
यही राजनीतिक विजन मायावती जी के पास भी है। इसलिए वे सांस्कृतिक और सामाजिक आन्दोलनों से हमेशा दूरी बनाए रहती हैं। जातीय उत्पीड़न के मामलों में भी, जो देश में लगातार बढ़ रहे हैं, उनकी पार्टी कभी आन्दोलन नहीं करती। ऐसे आन्दोलनों में, चूंकि, जेल जाने का खतरा रहता है, इसलिए, वे जोखिम-रहित सुरक्षित राजनीति पसन्द करती हैं। उनके लिए रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या एक ऐसा मुद्दा हो सकता था, जहाँ से वे देश भर में अपनी रेडिकल राजनीति के लिए एक बड़ा सांस्कृतिक आन्दोलन आरम्भ कर सकती थीं। लेकिन, इस अहम मुद्दे पर, जहाँ देश भर के सामाजिक संगठन सड़कों पर धरना-प्रदर्शन कर रहे थे, वहाँ मायावती जी ने न स्वयं भाग लिया और न अपनी पार्टी को उसमें भाग लेने दिया। राष्ट्रवाद के प्रश्न पर भी, जो आज का सबसे ज्वलन्त प्रश्न है, वे दलित वर्गों को चेतनशील बनाने के कार्यक्रम चला सकती थीं, परन्तु उन्होंने यहाँ भी अपनी पार्टी का कोई कार्यक्रम तय नहीं किया।
वे वस्तुतः राजनीतिक के तौर पर सिर्फ कभी कभार प्रेस वार्ता तक, अथवा राज्यसभा में बोलने तक सीमित रहती हैं। राज्यसभा में भी वे अपने लिखित भाषण में उन मुद्दों पर बोलती हैं, जिन पर वे समझती हैं कि उसका उन्हें राजनीतिक लाभ मिलेगा। किन्तु, हकीकत यह है कि उन मुद्दों पर बोलकर वे जातीय धुव्रीकरण की राजनीति करना चाहती हैं, और उसकी भी वे सिर्फ भ्रामक कल्पना करती हैं। उदाहरण के तौर पर, उन्होंने रोहित वेमुला के मुद्दे पर केवल यह सवाल पूछा था कि सरकार ने जाँच समिति में किसी दलित को रखा है या नहीं? वे इतने से ही सन्तुष्ट हो गईं कि समिति में दलित को रखा गया है। हैरानी की बात तो यह है कि उनके इस सवाल पर उनके दलित अनुयायी भी उनसे खुश हैं, जबकि इससे उन्हें कोई लेनादेना नहीं कि वह सदस्य भाजपा का हो, या भापजा के कोटे का हो।
यह दुखद अनुभव है कि अतीत में बसपा प्रमुख मायावती जी तीन बार भाजपा से हाथ मिलाकर सत्ता हासिल कर चुकी हैं। 2017 के उत्तर प्रदेश विधान सभा के आम चुनावों में उसकी पुनरावृत्ति नहीं होगी, इसका दावा अब भी कोई नहीं कर सकता। इस पर परदा डालते हुए यह कहा जाता है कि मायावती जी के शासन में कानून-व्यवस्था दुरस्त थी, और गुण्डागर्दी नहीं थी। पर ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि मायावती के उसी शासन में भाजपा और संघ का सांस्कृतिक ऐजेण्डा मजबूत हुआ था और शिक्षण संस्थाओं तथा सहकारी मिलों का निजीकरण हुआ था। माना कि कानून-व्यवस्था दुरस्त थी, और गुण्डागर्दी नहीं थी, परन्तु लूट तो थी। लूट का बादशाह यादव सिंह उन्हीं के राज में पैदा हुआ था, और आलम यह था कि अधिकारियों से लेकर बसपा के छुटभैए नेता तक लूट का ऐसा तन्त्र चलाए हुए थे, कि चपरासी तक की नौकरी के लिए भारी लूट मची हुई थी। क्या लूट को सुशासन कहा जा सकता है?
अगर जातीय गौरव मायने रखता, तो उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में सपा पांच और बसपा शून्य पर नहीं सिमटी होती। वे कौन-से कारक थे, जिसने भाजपा को भारी बहुमत से जिताया? निस्सन्देह, वे रोजी-रोटी और अच्छे दिनों के सपने थे, जो नरेंन्द्र मोदी ने जनता को दिखाए थे। दलित वर्गों ने भी इन्हीं सपनों को देखते हुए भाजपा के कमल को खिलाने में दिलचस्पी दिखाई थी। कहने का तात्पर्य यह है कि जातीय गौरव से पेट नहीं भरता, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की समस्याएं हल नहीं होती। बिहार में इसीलिए भाजपा को कामयाबी नहीं मिली, क्योंकि जनता ने साल भर में ही मोदी जी के जुमलों की वास्तविकता को समझ लिया था। पर, इसके लिए भी बिहार में एक बड़े भाजपा-विरोधी गठबन्धन ने काम किया था। इस महा गठबन्धन ने साम्प्रदायिक शक्तियों को बिहार में जरूर रोक दिया है, परन्तु, अगर जनता की रोजी-रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की समस्याएं हल नहीं हुईं, तो धर्मनिरपेक्ष राजनीति भी ज्यादा समय तक टिकने वाली नहीं है।
लेकिन उत्तर प्रदेश में भाजपा के विरुद्ध न कोई महागठबन्धन अभी बना है, और न मायावती जी ऐसे किसी गठबन्धन में, अगर बनता है, (तो) शामिल होने वाली हैं। वे अकेले ही सभी सीटों पर लड़ने की घोषणा कर चुकी हैं। जातीय समकरणों की स्थिति यह है कि चमार और जाटव के सिवाए अन्य दलित जातियां बसपा के साथ नहीं हैं। उनमें अधिकांश भाजपा के साथ हैं, तो कुछ सपा के साथ हैं। जहाँ तक मुसलमानों और पिछड़ी जातियों का सवाल है, तो बसपा के पक्ष में न मुसलमान हैं, और न पिछड़ी जातियां हैं। उनमें अधिकांश मुसलमान और यादव सपा के वोटर हैं, जबकि अधिकांश पिछड़ी जातियों पर हिन्दुत्व का भगवा रंग चढ़ चुका है। ऐसी स्थिति में बसपा, जिसकी वर्तमान चुनौतियों से निपटने की कोई तैयारी नहीं है, सत्ता में वापसी का स्वप्न देख रही है, तो हो सकता है, वह किसी चमत्कार के सहारे हो।
(12 मार्च 2016)
(कॅंवल भारती)
सच तो यह है कि जातिवादी पार्टियों के सामने कोई चुनौती नहीं होती है। वे हमेशा दर्शन-चिन्तन से दूर रहती हैं। उनके सामने सिर्फ राजनीतिक परिवर्तन का लक्ष्य रहता है, समाज को गतिशील और चेतनशील बनाने में वे यकीन नहीं करती हैं। उनके लिए इतिहास में ठहराव ही सब कुछ है, और वर्तमान चुनौतियां उनके लिए मायने ही नहीं रखती हैं। यह वस्तुतः दक्षिणपंथी राजनीति ही है, जिसके सिक्के के दो पहलू होते हैं, पहला धर्म और दूसरा जाति। ऐसी राजनीति निरन्तर इतिहास को धार देती है, और सारी समस्याओं का समाधान अतीत में ही देखती है। यही नहीं, दक्षिणपंथी राजनीति की तरह ही जातिवादी राजनीति भी पूंजीवादी व्यवस्था के लिए काम करती है।
बहुजन समाज पार्टी (बसपा), जिसका नेतृत्व वर्तमान में मायावती जी के हाथों में है, ऐसी ही जातिवादी पार्टी है, जिसका लक्ष्य जातीय समीकरणों के द्वारा सत्ता हासिल करना है। इन समीकरणों को साधने के लिए इसका नेतृत्व किसी भी हद से गुजरने के लिए तैयार रहता है। उदाहरण के लिए, मायावती जी ने उत्तर प्रदेश में अपने पिछले शासन में सवर्णों को सन्तुष्ट करने के लिए अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण कानून को कमजोर करने के लिए पुलिस अधिकारियों को विशेष दिशा-निर्देश जारी किए थे। वे अपने जनाधार के लिए जातीय गौरव के उभार को ही पर्याप्त मानती हैं। अपने पहले शासन में मायावती जी ने दलित वर्गों के नायकों के स्मारक इसी मकसद से बनवाए थे। ये स्मारक हमेशा दलितों में जातीय गौरव की चेतना विकसित करते हैं।
लेकिन जातीय गौरव की यह राजनीति सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की दिशा में कोई भूमिका नहीं निभा सकी, और न निभा सकती है, क्योंकि वह उसके एजेण्डे में नहीं है। जिस तरह पूंजीवादी व्यवस्था में दलित और कमजोर वर्ग एक लाभार्थी माने जाते हैं, जिन्हें सरकार के विशेष संरक्षण और प्रोत्साहन की आवश्यकता है, उसी तरह बसपा के लिए भी वे लाभार्थी ही हैं। वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, विकलांग पेंशन, छात्रवृत्ति, अनुदान, ऋण और आवास योजनाओं के लक्ष्य ऐसे ही संरक्षण और प्रोत्साहन हैं, जो उन्हें लाभान्वित करने के लिए हैं। और ये सारी योजनाएँ सीमित बजट के अन्तर्गत चलाई जाती हैं, जिससे सीमित लोग ही लाभान्वित होते हैं, और लाभार्थियों की संख्या दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ती जाती है।
यही राजनीतिक विजन मायावती जी के पास भी है। इसलिए वे सांस्कृतिक और सामाजिक आन्दोलनों से हमेशा दूरी बनाए रहती हैं। जातीय उत्पीड़न के मामलों में भी, जो देश में लगातार बढ़ रहे हैं, उनकी पार्टी कभी आन्दोलन नहीं करती। ऐसे आन्दोलनों में, चूंकि, जेल जाने का खतरा रहता है, इसलिए, वे जोखिम-रहित सुरक्षित राजनीति पसन्द करती हैं। उनके लिए रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या एक ऐसा मुद्दा हो सकता था, जहाँ से वे देश भर में अपनी रेडिकल राजनीति के लिए एक बड़ा सांस्कृतिक आन्दोलन आरम्भ कर सकती थीं। लेकिन, इस अहम मुद्दे पर, जहाँ देश भर के सामाजिक संगठन सड़कों पर धरना-प्रदर्शन कर रहे थे, वहाँ मायावती जी ने न स्वयं भाग लिया और न अपनी पार्टी को उसमें भाग लेने दिया। राष्ट्रवाद के प्रश्न पर भी, जो आज का सबसे ज्वलन्त प्रश्न है, वे दलित वर्गों को चेतनशील बनाने के कार्यक्रम चला सकती थीं, परन्तु उन्होंने यहाँ भी अपनी पार्टी का कोई कार्यक्रम तय नहीं किया।
वे वस्तुतः राजनीतिक के तौर पर सिर्फ कभी कभार प्रेस वार्ता तक, अथवा राज्यसभा में बोलने तक सीमित रहती हैं। राज्यसभा में भी वे अपने लिखित भाषण में उन मुद्दों पर बोलती हैं, जिन पर वे समझती हैं कि उसका उन्हें राजनीतिक लाभ मिलेगा। किन्तु, हकीकत यह है कि उन मुद्दों पर बोलकर वे जातीय धुव्रीकरण की राजनीति करना चाहती हैं, और उसकी भी वे सिर्फ भ्रामक कल्पना करती हैं। उदाहरण के तौर पर, उन्होंने रोहित वेमुला के मुद्दे पर केवल यह सवाल पूछा था कि सरकार ने जाँच समिति में किसी दलित को रखा है या नहीं? वे इतने से ही सन्तुष्ट हो गईं कि समिति में दलित को रखा गया है। हैरानी की बात तो यह है कि उनके इस सवाल पर उनके दलित अनुयायी भी उनसे खुश हैं, जबकि इससे उन्हें कोई लेनादेना नहीं कि वह सदस्य भाजपा का हो, या भापजा के कोटे का हो।
यह दुखद अनुभव है कि अतीत में बसपा प्रमुख मायावती जी तीन बार भाजपा से हाथ मिलाकर सत्ता हासिल कर चुकी हैं। 2017 के उत्तर प्रदेश विधान सभा के आम चुनावों में उसकी पुनरावृत्ति नहीं होगी, इसका दावा अब भी कोई नहीं कर सकता। इस पर परदा डालते हुए यह कहा जाता है कि मायावती जी के शासन में कानून-व्यवस्था दुरस्त थी, और गुण्डागर्दी नहीं थी। पर ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि मायावती के उसी शासन में भाजपा और संघ का सांस्कृतिक ऐजेण्डा मजबूत हुआ था और शिक्षण संस्थाओं तथा सहकारी मिलों का निजीकरण हुआ था। माना कि कानून-व्यवस्था दुरस्त थी, और गुण्डागर्दी नहीं थी, परन्तु लूट तो थी। लूट का बादशाह यादव सिंह उन्हीं के राज में पैदा हुआ था, और आलम यह था कि अधिकारियों से लेकर बसपा के छुटभैए नेता तक लूट का ऐसा तन्त्र चलाए हुए थे, कि चपरासी तक की नौकरी के लिए भारी लूट मची हुई थी। क्या लूट को सुशासन कहा जा सकता है?
अगर जातीय गौरव मायने रखता, तो उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में सपा पांच और बसपा शून्य पर नहीं सिमटी होती। वे कौन-से कारक थे, जिसने भाजपा को भारी बहुमत से जिताया? निस्सन्देह, वे रोजी-रोटी और अच्छे दिनों के सपने थे, जो नरेंन्द्र मोदी ने जनता को दिखाए थे। दलित वर्गों ने भी इन्हीं सपनों को देखते हुए भाजपा के कमल को खिलाने में दिलचस्पी दिखाई थी। कहने का तात्पर्य यह है कि जातीय गौरव से पेट नहीं भरता, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की समस्याएं हल नहीं होती। बिहार में इसीलिए भाजपा को कामयाबी नहीं मिली, क्योंकि जनता ने साल भर में ही मोदी जी के जुमलों की वास्तविकता को समझ लिया था। पर, इसके लिए भी बिहार में एक बड़े भाजपा-विरोधी गठबन्धन ने काम किया था। इस महा गठबन्धन ने साम्प्रदायिक शक्तियों को बिहार में जरूर रोक दिया है, परन्तु, अगर जनता की रोजी-रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की समस्याएं हल नहीं हुईं, तो धर्मनिरपेक्ष राजनीति भी ज्यादा समय तक टिकने वाली नहीं है।
लेकिन उत्तर प्रदेश में भाजपा के विरुद्ध न कोई महागठबन्धन अभी बना है, और न मायावती जी ऐसे किसी गठबन्धन में, अगर बनता है, (तो) शामिल होने वाली हैं। वे अकेले ही सभी सीटों पर लड़ने की घोषणा कर चुकी हैं। जातीय समकरणों की स्थिति यह है कि चमार और जाटव के सिवाए अन्य दलित जातियां बसपा के साथ नहीं हैं। उनमें अधिकांश भाजपा के साथ हैं, तो कुछ सपा के साथ हैं। जहाँ तक मुसलमानों और पिछड़ी जातियों का सवाल है, तो बसपा के पक्ष में न मुसलमान हैं, और न पिछड़ी जातियां हैं। उनमें अधिकांश मुसलमान और यादव सपा के वोटर हैं, जबकि अधिकांश पिछड़ी जातियों पर हिन्दुत्व का भगवा रंग चढ़ चुका है। ऐसी स्थिति में बसपा, जिसकी वर्तमान चुनौतियों से निपटने की कोई तैयारी नहीं है, सत्ता में वापसी का स्वप्न देख रही है, तो हो सकता है, वह किसी चमत्कार के सहारे हो।
(12 मार्च 2016)
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