महात्मा बनाम
महात्मा
-प्रो. गेल ओम्वेट
नोट: गेल ओम्वेट का यह लेख गांधीवाद और फुले विमर्श का एक बहुत
सटीक विवेचन है. - एस. आर. दारापुरी
जोतिबा फूले के दिल में
वंचित तबकों के प्रति करुणा भाव देख कर उन्हें भी गाँधी की तरह ही “महात्मा” की
उपाधि से नवाज़ा गया है. लेकिन इस उपाधि की समानता को अपवाद माना जाये तो वे हरेक
रूप में प्रसिद्ध “महात्मा” के बिलकुल विपरीत थे. महात्मा गाँधी जहाँ धार्मिक
श्रद्धा से भरा संभ्रांत वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले एक ऐसे व्यक्ति थे, जो
स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए धार्मिक भावनाओं का भरपूर इस्तेमाल किया करते थे, तो
वहीँ दूसरी ओर फूले ऐसे महात्मा थे, जो मूर्तिभंजक (अंध विशवास) विरोधी थे और
जनसमुदाय से निकले हुए एक ऐसे बुद्धिजीवी, जिन्होंने जातिवाद और अन्य तमाम
असमानताओं के खिलाफ उस संभ्रांत तबके का विरोध किया जो गाँधी जी का समर्थक था. भारत
का प्रतिनिधित्व करने के लिए भी इन दोनों के प्रतीक भी एकदम भिन्न थे. गाँधी ने “राम
राज”का नारा दिया तो फूले ने “बलि राज” का. मतलब इन दोनों के बीच बहुत गहरे
विरोधाभास हैं.
गाँधी के लिए “राम राज” प्रतीक
का अर्थ देश के लिए महज़ धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान नहीं थी बल्कि इस में उनकी धर्म
और पुराण पर आधारित भावनात्मक संतुष्टि भी जुडी हुयी थी. शायद इसी लिए उन्होंने भारत
की अपार सांस्कृतिक-धार्मिक संपदा के चुनाव में सब से विवादस्पद प्रतीक का ही
चुनाव किया.
राम की कहानी में पुरूषवाद,
सामंतवाद और जातिवाद की तीव्र बदबू है. इस में आदर्श परिवार का मतलब – एक श्रद्धालु
भाई, भरोसेमंद पत्नी, विश्वसनीय सेवक जैसे लुभावने प्रतीक, जो एक हिन्दू महिला का
आदर्श निर्माण करता है किन्तु ये आदर्श विषमता यानि उंच-नीच पर आधारित हैं.
फिर हम कैसे भूल सकते हैं
कि “राम राज” में खुद राम के द्वारा एक शूद्र सन्यासी शम्बूक की हत्या को जायज़
ठहराया गया है. हालाँकि गाँधी जी तमाम राम भक्तों की तरह अपने राम को शांतिप्रिय
और सही बताना चाहते थे. पर राम की कहानी में इस मान्यता का स्पष्ट विरोध दिखाई
देता है. मुस्लिम आक्रमण जो सबसे प्रभावी रूप में तुर्कों के आगमन के साथ हुआ उसकी
तीव्र प्रतिक्रिया राम की कथा में दिखती है. राम स्पष्ट रूप से हिन्दुवाद का संरक्षक
और दानवी घुसपैठियों का विरोधी था पर गाँधी इसमें हिन्दू-मुस्लिम एकता को शामिल
करना चाहते थे. वे बेशक अपने इस प्रयास के लिए ताउम्र लड़ते भी रहे, परन्तु यह
हास्यस्पद विरोधाभास है कि उनका इसके लिए
हिन्दू और मुस्लिम समुदायों को जोड़ना इन दोनों समुदायों में और साम्प्रदायिकता
भरने में कारगर सिद्ध हुआ और अंतत इन दोनों समुदायों ने ही एक दूसरे के लिए
कट्टरता भर ली.
सच्चाई यह है कि “राम राज”
महज भारत को आज़ाद कराने से अधिक की सोच थी. राम राज दरअसल धार्मिक रूप से परिभाषित
एक ऐसा यूटोपिया था, जिसने किसी भी भारतीय परम्परा पर सवाल उठाने की जहमत नहीं उठाई.
यह आदर्श भारतीय ग्राम समाज की परिकल्पना थी, जो मानव को आधुनिकता से बिलकुल दूर
रखती थी. हिन्दू परम्परा के प्रति गाँधी जी की सोच भी कभी आलोचनात्मक नहीं थी. वे
उसमें से किसी एक बात का भी विवेचन करने में विश्वास नहीं रखते थे. इसी लिए वे गीता
जैसी युद्ध शिक्षा की किताब को भी अहिंसा के पाठ में शामिल करने से नहीं हिचकते
थे. गाँधी हिन्दू परम्पराओं में शामिल असमानता के तत्व को भी हरदम नज़रंदाज़ करते
हुए इनके विरोध का भी दावा किया करते थे.
दूसरी ओर फूले द्वारा “बलि
राज” के प्रतीक का प्रयोग बिलकुल ही अलग था. उन्होंने “बलि” को सीधे किसी परम्परा
या मान्यता से नहीं उठाया था, बल्कि उसका पुनरविवेचन किया था. उन्होंने “आर्य
सिद्धांत” को पलटकर स्पष्ट किया कि उन्होंने गैर-आर्य, जो भारत के मूलनिवासी थे और
आर्यों से युद्ध में हार गए थे.
पारम्परिक मान्यता के
अनुसार बलि एक राक्षस था, जिसे ब्राह्मण अवतार वामन ने सीधा नरक में पहुँचा दिया
था. लेकिन इस के विपरीत फूले के द्वारा प्रस्तुत पुनरविवेचन प्रचलित किसान-परम्परा
पर आधारित था. आज भी महाराष्ट्र के किसान बलि को एक आदर्श राजा के रूप में याद
करते हैं, जिस की पुष्टि उनकी लोकोक्ति “ इड़ा पीड़ा हर जाये बलि राजा वापस आए” से
होती है. केरल के ओणम त्यौहार में यह माना जाता है कि आदर्श राजा बलि वापस पृथ्वी
पर आये हैं. बलि के चुनाव में फूले ब्राह्मणवादी परम्परा के ऐतहासिक आर्य-अनार्य
संघर्ष को उभार कर चुनौती दे रहे थे.
वहीँ गाँधी राम पर विश्वास
रखते थे और उनका राम पर विश्वास इस हद तक था कि उन्होंने उस के महिला विरोधी, और
जातपांत से भरे काम को नज़रंदाज़ कर एक आदर्श राजा के रूप में माना. लेकिन फूले ने
बलि के चुनाव में उन्हें इस रूप में नहीं माना. उनकी अपनी सत्य शोधक वृति आस्था और
विशवास से परे थी. उन्होंने इतिहास में जाकर एक आदर्शवादी यूटोपिया की खोज की. इस
तरह बलि के राज “बलिस्थान” के निर्माण के पीछे कोई कल्पना लोक नहीं, बल्कि एक
राज्य को स्थापित करने की आशा थी, जिसमे शिक्षा, संघर्ष और उपलब्धि हो.
जहाँ गाँधी का “राम राज” एक
आदर्श गाँव था जहाँ शांति, मधुरता, स्थायित्व परन्तु उद्योगों का विरोध था.
उन्होंने मानव को बिना कारण भावना और लोभ में झूलते देखा था. वे उनकी ज़रूरतों को
नियंत्रित करना चाहते थे, ताकि वे भक्तों की तरह रहें. गाँधी का चरखा न सिर्फ
आत्मनिर्भरता का प्रतीक था, बल्कि यह एक किस्म की आत्म-आश्रितता का भी प्रतीक था जो
अमानवीय मशीनों के विरुद्ध औद्योगीकरण का विरोध कर रहा था. यह फूले की मानवतावादी
दृष्टि की कल्पना, निर्माता, शोधार्थी, उद्यमी और परिवर्तनशीलता से विपरीत था.
फूले ने मानव और पशु के बीच मूल अंतर यह पाया कि मानव में प्रयास से निरंतर
परिवर्तन संभव है. इस मामले में फूले और उनके बाद बाबा साहेब डा. आंबेडकर दोनों ही
मार्क्स से मेल खाते थे कि मानव इतिहास
में चाहे जो भी जीते, शोषण हो, प्रताड़ना हो, वह जिस हद तक उत्पादन की ताकत है, वह
मानव क्षमता का भी विकास करेगी ही. औद्योगीकरण एक उपलब्धि है जिसने ख़ुशी लायी, यह
किसी किस्म की गुलामी नहीं है. गाँधी आजाद भारत के स्वपन को परिभाषित करने में उस
धर्म की स्तुति करने बैठ गए थे, जो मुस्लिम विरोधी और दलित विरोधी है. यह उन्हें
मान्यता प्रदान करता है, जो राम को देशभक्ति का प्रतिरूप मानते हैं, जबकि इस
पिछड़ेपन के विपरीत फूले का ऐतहासिक मूल्यांकन जो बलि रजा को गाथायों से निकाल कर एक
नया अर्थ देता है, उन्हें देश के बहुसंख्यक पीड़ितों से जोड़ता है और वास्तव में
भारत के भविष्य का एक नया आधार तय करता है.
(मूक्वक्ता से साभार)


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