उत्तर प्रदेश में दलित
अधिकारियों की पदावनति के लिए ज़िम्मेदार कौन?
- एस.आर.दारापुरी,
राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
गत माह उत्तर प्रदेश
सरकार ने शासनादेश द्वारा पदोन्नति में आरक्षण और परिणामी ज्येष्ठता के आधार पर
15/11/97 के बाद और 28/4/12 के पूर्व पदोन्नति पाए सभी दलित
अधिकारीयों/कर्मचारियों को उनके मूल पद पर पदावनत करने का आदेश जारी किया था.
शासनादेश में कहा गया है कि उक्त कार्रवाही सुप्रीम द्वारा एम नागराज के मामले में
दिए गए निर्णय के अनुपालन में की जा रही है.
आइये सब से पहले यह देखें
कि 2006 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एम नागराज के मामले में क्या दिशा निर्देश दिए
गए थे? इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण और परिणामी ज्येष्ठता
के नियम को स्थगित करते हुए कहा था कि उत्तर प्रदेश सरकार जिन जातियों को इस का
लाभ देना चाहती है वह उन जातियों के सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ापन, सरकारी नौकरियों
में उनके प्रतिनिधित्व के बारे में आंकड़े तथा इस से कार्यक्षमता पर पड़े प्रभाव का
आंकलन करके रिपोर्ट प्रस्तुत करे. सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय 2006 में आया था जब
उत्तर परदेश में मुलायम सिंह की सरकार थी. इस पर उन्होंने पदोन्नति में आरक्षण पर
रोक लगा दी थी.
मई 2007 में मायावती की
सरकार आई परन्तु मायावती ने सुप्रीम कोर्ट के एम. नागराज के मामले में दिए गए
निर्णय की कोई भी परवाह न करते हुए पदोन्नति में आरक्षण देने सम्बन्धी आदेश जारी
कर दिए जो कि सुप्रीम कोर्ट के इस मामले में दिए गए निर्देशों के विपरीत थे.
विरोधियों द्वारा इस आदेश को इलाहबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी परन्तु वहां
पर बहुत लचर पैरवी की गयी और सरकार हार गयी. जब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा तो
वहां पर भी लचर पैरवी ही की गयी जिस कारण सरकार फिर हार गयी. वहां पर नागराज मामले
की शर्तों के अनुपालन सम्बन्धी कोई भी बात नहीं रखी गयी.
अप्रैल, 2012 में उत्तर
प्रदेश में पुनः समाजवादी पार्टी की सरकार आ गयी और उन्होंने पदोन्नति में आरक्षण
पर तुरंत रोक लगा दी क्योंकि ऐसा करना उनका चुनावी एजंडा था. 2014 में सुप्रीम
कोर्ट ने मायावती द्वारा पदोन्नति में दिए गए आरक्षण को पूरी तरह रद्द करते हुए
निर्देश दिया कि 15/11/97 के बाद और 28/4/12 के पूर्व पदोन्नति पाए दलित वर्ग के
सभी अधिकारीयों/कर्मचारियों को तुरंत पदावनत करके 15 सितम्बर तक अनुपालन आख्या
प्रेषित की जाये. इस आदेश के फलस्वरूप हजारों दलित अधिकारी/कर्मचारी पदावनत होने
जा रहे हैं. कुछ के आदेश जारी हो गए हैं और कुछ के शीघ्र जारी होने जा रहे हैं.
अब देखने की बात यह है कि
क्या इस त्रासदी से बचने के लिए कुछ किया जा सकता था. इस सम्बन्ध में यदि मायावती
सरकार की भूमिका देखी जाये तो वह पूरी तरह से दलित हितों के खिलाफ रही है. जब मई,
2007 में मायावती सत्ता में आई थी तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट के एम. नागराज के मामले
में दिए गए दिशा निर्देशों के विरुद्ध पदोन्नति देने का आदेश देने की बजाये उन
शर्तों की पूर्ती करनी चाहिए थी जो कि संभव थी. यह सर्वविदित है कि उस समय उत्तर
प्रदेश की दलित उपजातियों (60) के सामाजिक/शैक्षिक पिछड़ेपन सम्बन्धी आंकड़े 2001 की
जनगणना रिपोर्ट में उपलब्ध थे. सरकार को उन आंकड़ों का जातिवार संकलन करना था जो कि
नहीं किया गया. इसी प्रकार सरकारी नौकरियों में जातिवार प्रतिनिधित्व के बारे में
भी आंकड़े संकलित किये जा सकते थे जो कि नहीं किये गए. जहाँ तक पदोन्नति में आरक्षण
से कार्य कुशलता पर पड़ने वाले प्रभाव के आंकलन की बात है वह स्वत स्पष्ट है कि इस
से सरकारी सेवाओं में कार्य कुशलता बढ़ी ही है न कि किसी प्रकार से घटी है. परन्तु
मायावती ने ऐसा कुछ न करके पदोन्नति में आरक्षण देने के आदेश जारी कर दिए जो कि
सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर दिए गए हैं. यह संभव है कि यदि मायावती सुप्रीम
कोर्ट के दिशा निर्देशों के अनुपालन में आंकड़े प्रस्तुत कर देती तो आज शायद इस
त्रासदी से बचा जा सकता था. यदि उसे ऐसा नहीं करना था तो केन्द्रीय कांग्रेसी
सरकार पर जिसे वह समर्थन दे रही थी, पर संविधान संशोधन करने के लिए दबाव बनाना
चाहिए था परन्तु उस ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. इस प्रकार 5 साल तक मायावती का पदोन्नति में आरक्षण
को बचाने के लिए वांछित कार्रवाही न करना दलितों के लिए बहुत भारी पड़ गया है.
इसी प्रकार इस मामले में
यदि समाजवादी सरकार की भूमिका देखी जाये तो उस ने तो इस दिशा में कोई दिलचस्पी ही
नहीं दिखाई. उसने 2006 में नागराज का निर्णय आने पर पदोन्नति में आरक्षण पर रोक तो
लगा दी परन्तु उसे बचाने के लिए कोई कार्रवाही नहीं की. यदि यह मान भी लिया जाये
कि 2007 में उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार आ गयी थी परन्तु 2012 में पुनः सत्ता
में आने पर भी उसने कोई कार्रवाही नहीं की. इस के विपरीत जब संसद में पदोन्नति में
आरक्षण सम्बन्धी संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया तो उस के विरोध में एक दलित
सपा संसद द्वारा ही उसे फड़वाने का काम किया. लगता है कि मुलायम सिंह मायावती से
दुश्मनी निकालने के लिए बदले की भावना से पूरे दलित समुदाय को दुश्मन मान बैठे हैं
जबकि सच्चाई यह है कि 2012 के चुनाव में दलितों के एक बड़े हिस्से ने मायावती को
छोड़ कर सपा को इस उम्मीद के साथ वोट दिया था कि जो काम मायावती ने सर्वजन के चक्कर
में पड़ कर नहीं किया वह शायद मुलायम सिंह उन के लिए करें. परन्तु मुलायम सिंह ने
भी सवर्ण वोटों के चक्कर में पद कर घोर दलित विरोधी होने का ही परिचय दिया है.
अब अगर इस मामले में
बीजेपी की भूमिका देखी जाये तो वह बिलकुल दोगली रही है. कांग्रेस सरकार के ज़माने
में बीजेपी पहले तो संविधान संशोधन का समर्थन करती रही. परन्तु बाद में जब संविधान
संशोधन का बिल राज्य सभा में पास होकर लोक सभा में पहुंचा तो बीजेपी ने अपना हाथ यह
कह कर पीछे खींच लिया कि सरकार को पह्ले नागराज केस में दिए गए दिशा निर्देशों का
पालन कर लेना चाहिए. इस प्रकार लोक सभा में संविधान संशोधन बिल पारित नहीं किया जा
सका. अब पुनः भाजपा को सत्ता में आये लगभग डेढ़ साल हो गया है परन्तु उस ने एक बार
भी संविधान संशोधन का बिल लाने का प्रयास नहीं किया है. इस के विपरीत अब आर.एस.एस.
ने पूरे आरक्षण को ही समाप्त करने की मांग उठा दी है.
इस मामले में कांग्रेस की
भूमिका भी केवल लीपापोती करने की ही रही है. नागराज का निर्णय तो 2006 में आया था
जब कि केंद्र में कांग्रेस 2005 से 2014 तक सत्तारूढ़ रही है. यदि कांग्रेस चाहती
तो इन दस वर्षों में संविधान संशोधन बिल
ला कर राज्य सभा और लोक सभा से पास करा सकती थी. परन्तु उस ने जानबूझ कर इस मामले
को लटकाए रखा. खानापूर्ति के लिए वह 2013 में इस बिल को राज्य सभा से पास कराकर
लोक सभा में लायी तो तब तक चुनाव नजदीक आ चुके थे और हरेक पार्टी अपने वोट पक्के
करने में लग गयी थी. इसी लिए लोक सभा में उक्त बिल पास नहीं हो सका.
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट
है कि पदोन्नति में आरक्षण को बचाने के लिए समय रहते कोई भी कार्रवाही न करने के
लिए जितनी कांग्रेस और बीजेपी और समाजवादी पार्टी ज़िम्मेदार है उस से कहीं ज्यादा
बसपा ज़िम्मेदार हैं. सपा इस का खुला विरोध करने के कारण और बसपा पांच साल तक सत्ता
में रहने के बावजूद कोई भी कार्रवाही न करने के लिए. अतः वर्तमान में इन में से
किसी भी पार्टी से कोई उम्मीद करना बेकार है.
ऐसी परिस्थिति में प्रशन
उठता है कि पदोन्नति में आरक्षण बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? इस के लिए दो
विकल्प उपलब्ध हैं. एक तो एम. नागराज केस के निर्णय के अनुपालन में अनुसूचित जातियों
/जन जातियों के पिछड़ेन के बारे में आंकड़े एकत्र करके सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत
किये जाएँ और आदेश प्राप्त किया जाये जैसा कि उत्तराखंड और राजस्थान की सरकारों ने
किया है और उस से उन्हें राहत भी मिली है. दूसरा विकल्प सभी राजनीतिक पार्टियों पर
जन दबाव डाल कर संसद के अगले सतर में संविधान संशोधन कराया जाये. इस कार्य के लिए
सभी आरक्षण समर्थक संगठनों और राजनीतिक पार्टियों को एकजुट हो कर बीजेपी पर
संविधान संशोधन बिल लाने और शेष पार्टियों पर इसे राज्य सभा और लोक सभा में पास कराने
का दबाव बनाने की ज़रुरत है. आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
इस अभियान का पूरा समर्थन करता है और इस आन्दोलन में पूरी तरह से शामिल होगा.
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