बसपा में दलित कहाँ ?
एस. आर. दारापुरी आई. पी.एस.(से.नि.) एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता आल इंडिया
पीपुल्स फ्रंट तथा प्रत्याशी राबर्ट्सगंज लोक सभा क्षेत्र
यह सभी जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी 21.2 % है और उन के लिए लोकसभा की 17 सीटें आरक्षित हैं. अतः सभी राजनितिक
पार्टियों उन्हें केवल 17 अरक्षित सीटें ही देती हैं जबकि उनके मुकाबले में वे
अन्य जातियों को उन की आबादी के अनुपात से कहीं अधिक सीटें देती हैं. बसपा जो कि
अपने आप को दलितों(बहुजन) की पार्टी होने और मायावती तो उनकी एकल मसीहा होने का
दावा करती है, भी इस का किसी भी तरह से अपवाद नहीं है. उसने भी किसी भी
चुनाव में दलितों को आरक्षित सीटों से अधिक सीटों पर टिकेट नहीं दिया है. ऊँचें
दामों पर टिकेट बेचने की बसपा की अपनी परम्परा है जिस में किसी भी दलित को कोई छूट
नहीं दी जाती. मेरे अपने सगे समधी ने जो कि सेवा निवृत पुलिस उपाधीक्षक थे ने भी 5 लाख में बसपा का मलीहाबाद विधान सभा का टिकेट
ख़रीदा था और वह हार गए तथा बर्बाद हो गए.
इस से स्पष्ट है कि दलितों को टिकेट देने
के मामले में भी बसपा वही कुछ करती है जो अन्य पार्टियाँ करती हैं. वे
उन्हें केवल अरक्षित सीटों तक ही सीमित रखती हैं. अब प्रशन पैदा होता कि बसपा
दलितों के लिए दूसरों से अलग क्या करती है और किस आधार पर दलितों की पार्टी होने
का दावा करती है?
1995 में मायावती के मुख्य मंत्री बनने के पहले तक मेरी कांशी राम से अच्छी
दुआ सलाम थी. मैं उन्हें तब से जानता हूँ जब वे DRDO पूना में सहायक वैज्ञानिक के
पद पर और डी.संजीवैया की “सेवास्तम्भ”
संस्था में काम करते थे. बाद में कांशी राम ने भी इसी संस्था की तर्ज़ पर बामसेफ
बनायीं थी. 199५5में कांशी राम से एक वार्ता के दौरान मैंने यह बात उठाई थी कि
बसपा भी दलितों को केवल सुरक्षित सीटों पर ही चुनाव लड़ाती है जो कि सभी पार्टिया
करती हैं तो फिर बसपा दलितों की पार्टी कैसे हुयी. मैंने उन्हें यह भी बताया था कि
आरक्षित सीट के मुकाबले में सामान्य सीट
पर जितना अधिक आसान होता है क्योंकि इस में सामान्य वर्ग के वोट बंट जाते हैं और
दलित वोट निर्णायक हो जाता है. आरक्षित सीट में स्थिति इस के विपरीत होती है.
मैंने उन्हें यह भी बताया कि अब तो आप के पास पैसा भी है आप दलितों को सामान्य सीट
से लड़ाइए जैसा कि डॉ. आंबेडकर ने स्वतंत्र मजदूर पार्टी, शैडयुल्ड कास्ट्स फेडरेशन
और रिपब्लिकन पार्टी में किया था और अच्छी सफलता पाई थी. इस पर कांशी राम ने मुझे जो कहा वह काफी स्तब्धकारी
था. उसने कहा, ”दारापुरी जी आप नहीं जानते ये बहुत कमज़ोर लोग हैं. यह सामान्य सीट
पर चुनाव नहीं लड़ सकते.” . शायद यह उनकी दलितों को कमज़ोर और अपने पर निर्भर रखने
की एक रणनीति थी.
अब कांशी राम के बाद मायावती भी उसी परम्परा का अक्षरश पालन कर रही है. इस बार
उसने उत्तर प्रदेश में 21.2% दलित आबादी को
मात्र 17 वह भी केवल अरक्षित सीटें,
ब्राह्मणों की 12% आबादी को 21 और 14% मुस्लिम आबादी को 19 सीटें दी रणनीति थी. अब बताईये बसपा में कितने दलित हैं और बसपा
अपने आप को किस आधार पर दलितों की पार्टी
कहती है? इस के इलावा उसका दलित
एजंडा क्या है? यह बात भी
विचारणीय है कि अब वह "बहुजन" से "सर्वजन" में रूपांतरित भी
चुकी है.इसके विपरीत आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट जिस के प्रत्याशी के रूप में मैं राबर्ट्सगंज
से चुनाव लड़ रहा हूँ ने दलितों को 50%
टिकेट दिए हैं. इस पार्टी के संविधान में
दलितों, महिलायों और अल्पसंख्यकों
के लिए 75% पद आरक्षित किये गए हैं.
हमारी पार्टी का एक निश्चित सामाजिक न्याय एजंडा है. हमारी पार्टी भूमिहीनों के
लिए भूमि, अति पिछड़ों के लिए अलग से
आरक्षण, पदोन्नति में आरक्षण,
निजी क्षेत्र में आरक्षण, न्याय पालिका में आरक्षण, दलित मुसलमानों और दलित ईसाईयों के लिए रंगनाथ
मिश्र रिपोर्ट को लागू करने और धारा 141को समाप्त कने की लडाई लड़ रही है. यह भी विचारणीय है कि जिन राजनितिक
पार्टियों का कोई जन एजंडा नहीं होता वे जाति और धर्म के मुद्दे उठा कर लोगों का
भावनात्मक शोषण कर के वोट तो ले लेती हैं परन्तु इस से जनता का कोई उत्थान नहीं होता
और वे निरंतर ठगा हुआ महसूस करती हैं.
परन्तु मैं जन संपर्क के दौरान यह महसूस
कर रहा हूँ कि इस बार जनता की सोच में एक बुनियादी अंतर आया है और अब वह अपने मुद्दों की बात करते हैं और दलित तो जाति के नाम
पर लगातार ठगे जाने के कारण और भी विचलित हैं. उन की सोच में यह परिवर्तन एक नयी
मुद्दा आधारित जन राजनीती को जन्म देती दिखाई दे रही है . मैं इसी उम्मीद पर यह
चुनाव लड़ रहा हूँ और जनता को सही राजनीती की शिक्षा दे रहा हूँ जैसा कि डॉ.
आंबेडकर की अपेक्षा भी थी.
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