मायावती का मोदी राग
अलाप
-एस. आर. दारापुरी
हाल में मायावती ने
दलितों और मुसलमानों के वोट बटोरने के लिए मोदी का हव्वा दिखाते हुए यह कहा है कि
अगर उन्होंने एक जुट होकर बसपा को वोट नहीं दिया तो मोदी जीत जायेगा और वह दलितों
का आरक्षण ख़त्म कर देगा और देश भर में गोधरा काण्ड कराएगा. मायावती यह भी कह रही
है कि केवल बसपा ही मोदी को रोक सकती है.
आइए मायावती के इस
मोदी विरोध/ मोदी प्रेम की ऐतहासिकता पर एक नज़र डालें. यह सर्व विदित है कि
मायावती आज जिस मोदी का हव्वा दिखा कर दलितों और मुसलमानों का भय दोहन करना चाहती हैं , वह वही मोदी है जिस के
पक्ष में मायावती ने 2003 में गुजरात जा कर विधान सभा चुनाव में प्रचार किया था और
मोदी को गोधरा काण्ड में 2000 मुसलामानों के जन संहार के लिए कलीन चिट दी थी. इसके
इलावा यह भी उल्लेखनीय है कि यह वही मायावती है जो उत्तर प्रदेश में तीन बार भाजपा
से सहयोग लेकर मुख्य मंत्री की कुर्सी का सत्ता सुख भोग चुकी हैं.
यह भी विचारणीय है
कि जब 1995 में कांशी राम ने सपा-बसपा की सरकार गिरा कर भाजपा की सहायता लेकर
मायावती को मुख्य मंत्री बनवाया था उस समय भाजपा पूरे देश में अपने अस्तित्व को
बचाने की लडाई लड़ रही थी और कांशी राम ने उत्तर प्रदेश में ही उसे सत्ता का
संरक्षण देकर संजीवनी दी थी जिसका भाजपा ने पूरा फायदा उठाया और वह उत्तर प्रदेश
में पुनर्जीवित हो गयी. मुझे याद है कि जिस दिन 1993 में मुलायम सिंह ने सपा-बसपा
की संयुक्त सरकार के मुख्य मंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की थी उस रात को “ मिले
मुलायम कांशी राम, हवा में उड़ गया जय श्री राम” का नारा इतना बुलंद हुआ था कि अगले
सवेरे राजधानी में भाजपायियों के गेरुये गमशे गायब हो गए थे और दलितों और पिछड़ों
के सामने में नए युग का सपना तैरने लगा था. पूरे देश में सारे दलितों और पिछड़ों
में एक नए भविष्य का सपना उगने लगा था. परन्तु कांशी राम और मुलायम सिंह की सत्ता
में लूट के बंटवारे की बंदरबांट की लडाई ने दलितों और पिछड़ों के इस सपने को चकना
चूर कर दिया.
इस में 2 जून का
गेस्ट हाउस काण्ड तो एक बहाना मात्र था. इस का पूरा खेल तो दिल्ली में पहले ही तय
हो चुका का था. इस का असली सच्च तो यह था कि कांशी राम हरेक महीने मुलायम सिंह से
मुख्य मंत्री को होने वाली आमदनी में हिस्सेदारी मांग रहे थे जिस के लिए वे जनता
में मुलायम सिंह की आलोचना करते थे जो कि अनुचित था. किसी भी मतभेद की बात अन्दर बैठ
कर तय की जानी चाहिए थी न कि पब्लिक प्लेटफार्म पर. जब जब मुलायम सिंह उन्हें
हिस्सा (अटैची) दे देते थे तो वे यह कह कर चले जाते थे कि “अब मुलायम सिंह समझ गए
हैं और अब वे ठीक काम करेंगे.” उस दौर में मैंने उन्हें कई बार मिल कर एक दलित
एजंडा बना कर मुलायम सिंह को थमाने और कुछ खास पदों पर दलितों को बैठाने की सलाह
दी थी जिसे उन्होंने यह कह कर टाल दिया था कि हम ने सारी जुम्मेदारी मुलायम सिंह
को सौंप दी है. कांशी राम की इस बलैक मेलिंग से तंग आ कर मुलायम सिंह ने बसपा के
काफी विधायकों को खरीद लिया. इस की भनक कांशी राम को तब लगी जब 29 मई को उस ने
लखनऊ के मीरा बाई गेस्ट हाउस में अपने विधायकों की मीटिंग बुलाई तो उसमे बड़ी
संख्या में विधायक नहीं आये. इस से कांशी राम का माथा ठनका कि मुलायम सिंह ने उनकी
पार्टी के विधायकों को बड़ी संख्या में तोड़ लिया है. वे अगले दिन दिल्ली गए और
भाजपा के नेताओं से सपा-बसपा की सरकार गिराकर मायावती को मुख्य मंत्री बनाने के
लिए सहायता मांगी. “अँधा क्या मांगे दो आँखें” वाली कहावत चरितार्थ हुयी और भाजपा
जो उस समय मुलायम सिंह से बहुत त्रस्त थी तुरंत सहायता देने के लिए तैयार हो गयी.
इस पर एक जून को मायावती लखनऊ आई और उसने दो जून को अपने विधायकों की मीटिंग बुलाई
और सभी को त्याग पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा. इस बीच यह खबर फ़ैल गयी कि
बसपा समर्थन वापस लेकर सरकार गिराने जा रही है और अहमदाबाद से एक हवाई ज़हाज़ लखनऊ आ
गया है जो बसपा के सभी विधायकों को अहमदाबाद ले जायेगा. इस की भनक जब मुलायम सिंह
को लगी तो बसपा के उन विधायकों को जिन से सौदा पट चुका था गेस्ट हाउस से उठा लेने
के लिए आदेशित किया. इस पर मुलायम सिंह के सिपहसलार गाड़ियां लेकर मीरा बाई मार्ग
स्थित गेस्ट हाउस गए और उन्हें उठा लाये. उस समय मायावती गेस्ट हाउस के कमरा नंबर
एक में कुछ विधायकों के साथ थी और उस ने
बाहर हल्ला गुल्ला सुनकर अपना दरवाज़ा बंद कर लिया. मैंने इस घटना के बारे में मौके
पर तैनात अधिकारियों से पूछताछ की तो यह
तथ्य उभर कर आया कि मायावती पर किसी भी प्रकार का हमला नहीं हुआ था क्योंकि वहां
पर आईटीबीपी की गार्ड लगी थी जिस ने किसी को भी मायावती के कमरे तक जाने नहीं दिया
था. हाँ इतना ज़रूर है उस भीड़ ने मायावती को कुछ अपशब्द ज़रूर कहे थे परन्तु उस पर
किसी भी प्रकार का हमला नहीं हुआ था जैसा कि लोगों को गुमराह करने के लिए प्रचारित
किया गया था. इसी बीच में भाजपा ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार राज्यपाल के
यहाँ धरना देकर मुलायम सिंह की सरकार को बर्खास्त करने की मांग उठाई जिस के
फलसवरूप गठ बंधन की सरकार गिर गयी और दलितों पिछड़ों की एकता का सपना हमेशा हमेशा
के लिए टूट गया.
बसपा का सहारा पा कर
उस समय जो भाजपा अंतिम सांसें गिन रही थी वह फिर से पुनर्जीवित हो गयी. दलितों और
पिछड़ों का पूरे देश पर राज करने का सपना इन दोनों स्वार्थी और मौकाप्रस्त नेताओं
की मह्तावाकंक्षा का शिकार हो गया और कुदरती दोस्त दुश्मन में बदल गए. मुझे विशवास
है कि देश में जब भी दलितों और पिछड़ों का राजनीतिक इतिहास लिखा जायेगा तो भाजपा को
जीवनदान देने के लिए कांशी राम और दलितों और पिछड़ों की राजनितिक नैय्या डुबोने का
इलज़ाम इन दोनों नेताओं के सर पर ही आएगा जिस के लिए उन्हें कभी मुआफ नहीं किया
जायेगा.
इस के बाद 1996 के
चुनाव के सन्दर्भ में कांशी राम-मुलायम सिंह की स्वार्थ की लडाई से दलितों और
पिछड़ों की एकता को पहुंचे नुक्सान की भरपाई के लिए हम लोगों ने कुछ दलित नेताओं के
माध्यम से बात चीत करके उन्हें फिर हाथ
मिलाने के राजी कर लिया था. कांशी राम ने इस गठजोड़ की सम्भावना के बारे में दिल्ली
से ब्यान भी जारी कर दिया था परन्तु अगले ही दिन मायावती जो उस दिन लखनऊ में थी और
पूरी तरह से भाजपा के चंगुल में फंस चुकी थी ने कांशी राम के इस ब्यान को पलट दिया
और मुलायम सिंह से किसी भी प्रकार के गठजोड़ की सम्भावना को पूरी तरह से नकार दिया.
इस प्रकार दलितों और पिछड़ों की एकता के दरवाजे हमेशा हमेशा के लिए बंद हो गए.
इस बात का कोई भरोसा
नहीं कि जो मायावती आज मोदी विरोध दिखा रही है वही कल अपनी जान बचाने के लिए मोदी
की राखी बंद भाई नहीं बन जायेगी जैसा कि वह लालजी टंडन, मुरली मनोहर जोशी और अन्य
भाजपाईयों के साथ अटल बिहारी वाजपेयी की बेटी बनकर कर चुकी है. मायावती शायद भूल
रही हैं कि जनता अब इतनी भोली नहीं है जितना वह समझ रही है. अब तक संपन्न हुए
चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मायावती का दलित वोट बुरी तरह से छिटका है और
मायावती अब नए पैंतरे बदल कर दलितों और मुसलामानों का मोदी के नाम पर भय दोहन करने की असफल कोशिश
कर रही. मुलायम सिंह भी मुसलामानों का इसी तरह से भय दोहन करने में लगे हैं.
मुज़फ्फर नगर के दंगे हिदुओं और मुसलामानों के वोटों का ध्रुवीकरण करके स्वयं और
भाजपा को लाभ पहुँचाने का प्रयास ही था.
मायावती को 2012 के उत्तर
प्रदेश के विधान सभा चुनाव में दलितों के
व्यवहार से यह स्पष्ट हो चुका है कि अब दलित अपना भला बुरा खुद सोचने लगे हैं और
वे मायावती के बंधुया नहीं रहे. वे डॉ. आंबेडकर की शिक्षाओं का भी गंभीरता से
चिंतन मनन करने लगे हैं और जाति की
राजनीति से बाहर निकल कर अपना भला बुरा समझाने लगे हैं. मेरा अब तक का राबर्ट्स
गंज लोक सभा क्षेत्र में जन संपर्क का अनुभव बताता है कि दलित इस बार जाति की
राजनीति से बाहर निकल कर व्यक्तिओं के स्थान पर नीतिओं के परिवर्तन की राजनीति की
ओर बढ़ रहे हैं जो कि कार्पोरेट राजनीति को रोकने और जनता की राजनीति को स्थापित
करने के लिए अति आवश्यक है.
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