दलित राजनीति को चाहिए एक नया रेडिकल एजंडा
- एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट
डा. अंबेडकर दलित राजनीति के जनक माने जाते हैं। उन्होंने ही सबसे पहले 1936 में स्वतंत्र मजदूर पार्टी, 1942 में शैडयूलड कास्ट्स फेडरेशन और 1956 में रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआई) बनाई थी। इन पार्टियों में एक खास बात यह थी कि शैडयूलड कास्ट्स फेडरेशन को छोड़ कर कोई भी पार्टी जाति आधारित नहीं थी। इन सभी पार्टियों का एजंडा व्यापक था जिसके केंद्र में दलित एजंडा था। यह भी सत्य है कि डा अंबेडकर ने कभी भी जाति के नाम पर वोट नहीं मांग था सिवाय शैडयूलड कास्ट्स फेडरेशन के। डा. अंबेडकर के निर्वाण के बाद 1957 से 1962 तक आरपीआई एजंडा आधारित राजनीति करती रही तब तक उसकी उपलब्धियां काफी अच्छी रहीं परंतु बाद में कांग्रेस द्वारा दलित नेताओं को लालच देकर फोड़ लिया गया और आरपीआई कई टुकड़ों में बाँट कर बिखर गई।
आरपीआई के विघटन के बाद उत्तर भारत में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया और घोर दलित विरोधी पार्टी भाजपा से हाथ मिला कर तीन बार तथा एक बार स्वतंत्र तौर पर सरकार बनाई। इस पार्टी की सबसे बड़ी कमी इसका कोई भी एजंडा न होना था और न ही कोई सिद्धांत। कांशीराम जाति को काटने के लिए जाति का इस्तेमाल तथा अवसरवादी होने पर गर्व महसूस करते थे। भाजपा के साथ अवसरवादी एवं सिद्धांतहीन गठजोड़ करने का नतीजा यह हुआ कि उत्तर भारत में भाजपा तो निरंतर मजबूत होती गई और बसपा निरंतर कमजोर। वर्तमान में बसपा अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।
बसपा के प्रयोग से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई है कि जाति की राजनीति करने वाली पार्टी बहुत समय तक नहीं चल सकती है। यह केवल एजंडा एवं सिद्धांत ही हैं जो किसी पार्टी को बिखरने से बचाए रखते हैं। यह भी स्थापित सत्य है कि जाति की राजनीति हिन्दुत्व की राजनीति को ही मजबूत करती है जैसाकि वर्तमान में हुआ भी है।
कांशीराम राजनीतिक सत्ता को गुरुकिल्ली अर्थात सब समस्याओं का इलाज कहते थे। इसके विपरीत डॉ. बाबासाहेब का मत था कि "राजनीतिक सत्ता शोषित वर्ग के सभी दु:खों का विनाश करने की गुरुकिल्ली नहीं हो सकती। उनकी मुक्ति उन द्वारा उच्च सामाजिक दर्जा हासिल करने में ही है।“ क्या अब भी कहेंगे कि पॉलिटिकल पावर ही मास्टर की है? अब तक के अनुभव ने इसे गलत सिद्ध कर दिया है। उत्तर प्रदेश इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यह भी सही है कि बाद में बाबासाहेब ने राजनीतिक सत्ता को दलितों की समस्याओं की चाबी भी कहा था परंतु उसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल समाज के विकास के लिये किया जाना चाहिये। परंतु व्यवहार में उसका अधिकतर इस्तेमाल समाज के विकास की जगह व्यक्तिगत विकास के लिये ही किया गया। मायावती इसकी सब से बड़ी मिसाल है। अत: राजनीतिक सत्ता के साथ साथ समाज के विकास का एजेन्डा होना भी ज़रूरी है जोकि बहुजन की राजनीति में बिल्कुल गायब रहा है।
अतः अब अगर दलित राजनीति को अपने आप को पुनर्स्थापित करना है तो उसे सिद्धांत की राजनीति तथा एक रेडिकल दलित एजंडा अपनाना होगा। उस एजंडे की रूपरेखा निम्न हो सकती है:-
1.गरीबी एवं बेरोजगारी: नीति आयोग की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार 42% SC दलित परिवार गरीबी रेखा से नीचे हैं जब कि राष्ट्रीय औसत 20% है। PLFS 2023-24 के अनुसार एससी के लिए बेरोज़गारी दर 7.8% जबकि राष्ट्रीय दर 5.8% है । 70% दलित दिहाड़ी मजदूरी या कृषि मजदूरी में हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार केवल 4.88% दलित सरकारी तथा 2.42 प्राइवेट नौकरी में हैं। आय की दृष्टि से 83.6% दलितों की मासिक आय 5000 से कम, 11.7% की 5000 से 10,000 तक तथा केवल 4.7% की आय 10,000 से अधिक है।
अतः गरीबी उन्मूलन एवं बेरोजगारी दलित राजनीति का प्रमुख मुद्दा होना चाहिए।
2. भूमिहीनता: 2011 की जनगणना के अनुसार केवल 18.41% दलितों के पास असिंचित एवं 17.41% के पास सिंचित तथा 6.98% के पास अन्य भूमि है। इनमें से 60% दलितों के पास 1 एकड़ से भी कम भूमि है। इस प्रकार अधिकतर दलित लघु एवं सीमांत कृषक हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण सूखाग्रस्त क्षेत्रों में प्रभावित होने वाले किसानों में 80% दलित किसान होते हैं। अतः भूमिहीन दलितों के लिए भूमि आवंटन (आवासीय तथा कृषि भूमि पट्टे) का मुद्दा अति महत्वपूर्ण है जो एक प्रमुख राजनीतिक मांग होना चाहिए।
3. हिंसा एवं अत्याचार: NCRB की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार दलितों के खिलाफ अपराध के 54,750 मामले दर्ज किए गए जो 2022 के मुकाबले से 7% अधिक हैं। इनमें 4,800 बलात्कार और 1,200 हत्याएं शामिल हैं। इसमें उत्तर प्रदेश (25%), राजस्थान (15%), और बिहार (12%) में आधे से ज़्यादा मामले हैं। एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत दोषसिद्धि दर केवल 32% है, जो पुलिस के पूर्वाग्रह और गवाहों को डराने-धमकाने के कारण है। एमनेस्टी इंटरनेशनल (2024) ने अकेले तमिलनाडु में 200 से ज़्यादा ऐसे मामले दर्ज किए हैं जिनकी रिपोर्ट नहीं की गई। वर्तमान में हर 18 मिनट में एक दलित के खिलाफ अपराध होता है, जिसमें रोजाना 13 हत्याएं होती हैं। अतः दलितों पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए एससी/एसटी एक्ट को प्रभावी ढंग से लागू करने की मांग दलित राजनीति के एजंडा पर होनी चाहिए।
4. छुआछूत एवं भेदभाव: NFHS-5 ग्रामीण डेटा एवं इंडिया ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे 2024 के अनुसार 40% गाँवों में 25-30% दलितों को मंदिरों/पानी के स्रोतों में प्रवेश पर रोक का सामना करना पड़ता है।
इसी प्रकार शहरों में 2023 के CSDS अध्ययन के अनुसार दिल्ली में 70% मकान मालिक दलित किरायेदारों को मकान देने से मना करते हैं)।
सुप्रीम कोर्ट (2024) ने SC कोटा के उप-वर्गीकरण को बरकरार रखा लेकिन कहा कि "श्रेणीबद्ध असमानता" बनी हुई है। दलित महिलाओं को तिहरे भेदभाव (जाति-लिंग-गरीबी) का सामना करना पड़ता है।
सफाई कर्मचारी आंदोलन की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार गटर सफाई से होने वाली सालाना 50-70 मौतें, ऑनर किलिंग, और अंतर-जातीय संबंधों या गौ रक्षा को लेकर भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्याएं आम बात है। अतः छुआछूत एवं भेदभाव निवारण का मुद्दा भी दलित राजनीति के केंद्र में होना चाहिए।
5. शिक्षा में पिछड़ापन : राष्ट्रीय, जनगणना 2011; NFHS-5 के अनुसार दलितों की साक्षरता दर 66.1% है जबकि राष्ट्रीय दर 73% है। इसके अतिरिक्त दलित बच्चों का कक्षा 8 के बाद ड्रॉपआउट दर 2 गुना ज़्यादा है। (AISHE 2023) के अनुसार उच्च शिक्षा में केवल 7% दलित छात्र हैं। सामाजिक न्याय मंत्रालय की 2023 की ऑडिट रिपोर्ट के अनुसार 40% दलित छात्रों को छात्रवृत्ति मिलने में देरी होती है जिससे उन्हें अपनी पढ़ाई चालू रखने में बड़ी कठिनाई होती है। इधर मेडिकल, इंजीनियरिंग एवं अन्य व्यावसायिक कोर्सेस की फीस कई गुण बढ़ा दी गई है जिसे दलित छात्रों के लिए देना बहुत मुश्किल होता है। हाल में बीजेपी शासित राज्यों में बेसिक तथा माध्यमिक शिक्षा स्तर पर बहुत बड़ी संख्या में विद्यालयों को बंद किया जा रहा है जिससे दलितों के बच्चे महंगे निजी विद्यालयों न पढ़ सकने के कारण शिक्षा से वंचित रह जाएंगे। सरकार शिक्षा का तेजी से निजीकरण कर रही है जो दलित तथा गरीब तबके के बच्चों को शिक्षा से वंचित रखने का षड्यन्त्र है। अतः शिक्षा के निजीकरण का विरोध तथा शिक्षा का बजट बढ़ाने एवं सब को समान गुणवत्ता वाली शिक्षा उपलब्ध कराने की मांग उठनी चाहिए।
6. स्वास्थ्य सेवाएं एवं स्वास्थ्य असमानताएँ: राष्ट्रीय, NFHS-5 की रिपोर्ट के अनुसार 60% दलित महिलाओं में एनीमिया है जबकि यह राष्ट्रीय स्तर पर 53% है। इसी कारण से लैंसेट (2023) की रिपोर्ट के अनुसार COVID से दलितों की मृत्यु दर सामान्य से 1.5 गुना अधिक थी। इधर सरकार स्वास्थ्य सेवाओं का बजट लगातार घटा रही है और अपरोक्ष रूप से निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। यद्यपि सरकार ने आयुष्मान योजना लागू की है परंतु इससे गरीबों को कम और निजी अस्पतालों को अधिक लाभ मिल रहा है। अतः सरकार को आयुष्मान योजना के स्थान पर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करना चाहिए जिससे दलितों सहित सभी गरीबों को अधिक लाभ होगा। अतः स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण पर रोक तथा सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करने तथा अस्पतालों की संख्या तथा बजट बढ़ाने की मांग उठाई जानी चाहिए।
उपरोक्त के अतिरिक्त कृषि उपज का उचित समर्थन मूल्य, सरकारी उपक्रमों के निजीकरण पर रोक, पूंजी के केन्द्रीयकरण पर रोक, रोजगार सृजन करने के लिए सुपर रिच पर उचित टैक्स लगा कर संसाधन जुटाने, कारपोरेट की लूट रोकने, महंगाई, जीएसटी का यौकितीकरण, कृषि तथा कृषि उद्योगों को बढ़ावा देने तथा खेती का सहकारीकरण, न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाने तथा मजदूरों को लिविंग वेज देने, 80 करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन देने की बजाए उनको रोजगार देकर उनकी आमदनी बढ़ाने, हिन्दुत्व एवं कारपोरेट के गठजोड़ को तोड़ने, अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न बंद कराने, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं का सुदृढ़ीकरण जैसे मुद्दे सामान्य वर्ग के साथ साथ दलित वर्ग के भी मुद्दे हैं। अतः यह सब मुद्दे राजनीति के केंद्र में होने चाहिए। दलित राजनीति को भी इन मुद्दों को उठाना चाहिए।
यह सर्वविदित है कि भाजपा इन जनमुद्दों पर बात न करके धर्म/संप्रदाय के अभौतिक एवं भावनात्मक मुद्दों को उठा कर आम लोगों का ध्यान बटाने की चाल चलती है ताकि उसकी 11 साल की नाकामियों पर कोई सवाल न उठाए और जवाब न मांगे। अतः यह जरूरी है सभी विपक्षी पार्टियां दलित पार्टियों सहित उपरोक्त जनमुद्दों को उठाएं तथा वैकल्पिक आर्थिक नीति एवं योजनाएं पेश करें। ऐसा करके ही भाजपा की हिन्दुत्व-कारपोरेट गठजोड़ की राजनीति को रोकना संभव होगा। यह भी उल्लेखनीय है कि नरम हिन्दुत्व एवं जाति तथा धर्म की राजनीति हिन्दुत्व की राजनीति को ही मजबूत करती है जिसे हर कीमत पर हराना जरूरी है।
आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट (रेडिकल) – (एआईपीएफ) काफी समय से जन मुद्दा आधारित जन लोकतान्त्रिक राजनीति को ले कर काम कर रहा है और एक बहु-वर्गीय गठजोड़ को मूर्तरूप देने का प्रयास कर रहा है। वर्तमान में एआईपीएफ अन्य सहमना संगठनों के साथ मिलकर रोजगार और सामाजिक अधिकार अभियान चला रहा है जिसका मुख्य उद्देश्य रोजगार के मुद्दे को राजनीति के केंद्र में लाना है। एआईपीएफ का निश्चित मत है कि यदि देश के 350 सुपररिच पर समुचित टैक्स लगाया जाए, जीएसटी का पुनर्गठन किया जाए और फिसकल रिस्पांसिबिलिटी मैनेजमेंट एक्ट को समाप्त किया जाए तो इससे इतना फंड पैदा हो सकता है कि देश के सभी बेरोजगारों को नौकरी देने के इलावा मनरेगा, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं के लिए भी पैसा उपलब्ध हो सकता है।
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