डा. अंबेडकर, सनातन धर्म एवं दलित राजनीति
एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट
इस समय पूरे देश में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के बेटे उदयनिधी स्टालिन द्वारा सनातन धर्म के बारे में एक सभा में की गई टिप्पणी पर चर्चा चल रही है। इसमें उसने सनातन धर्म में व्याप्त जातिगत भेदभाव एवं ऊँच नीच की व्यवस्था की आलोचना करते हुए इसकी तुलना एक व्याधि से की है तथा उसे खत्म करने की बात कही है। भाजपा ने इसे सनातन धर्म पर हमला तथा 80% हिंदुओं के नर संहार के आवाहन के रूप में प्रचारित किया है। इसी को लेकर उसने विपक्ष के गठबंधन ‘इंडिया’ को भी सनातन धर्म विरोधी कहा है।
ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान में तमिलनाडु में डीएमके तथा उत्तर भारत में बीजेपी सनातन धर्म के नाम पर राजनीति की शुरुआत करने जा रहे हैं। दक्षिण भारत में तो पहले से ही सनातन धर्म विरोधी द्रविड आंदोलन एक मुखर आंदोलन रहा है जिसके माध्यम से पेरियार ने पिछड़ी जातियों को लामबंद किया था और सनातनी ब्राह्मणों को वहाँ से खदेड़ दिया था। लगता है कि पिछड़ी जातियों की राजनीति का जो राष्ट्रीय स्तर पर पराभव हुआ है उसे ही पुनर्जीवित करने के लिए उदयनिधि की यह बयानबाजी है। मालूम हो कि पिछले दिनों उदयनिधि के पिता एम के स्टालिन, वर्तमान मुख्यमंत्री तमिलनाडु, सामाजिक न्याय की राजनीति की लामबंदी करने के लिए इस तरह की कोशिश करते रहे हैं। उसी कड़ी में डीएमके का यह अगला कदम है। इसी प्रकार भाजपा भी जो पहले ही धर्म की राजनीति करती रही है, सनातन धर्म के विरोध पर कड़ी प्रतिक्रिया दिखा कर सनातनी हिंदुओं को धर्म खतरे में है तथा सनातनी हिन्दू खतरे में हैं, का भय दिखा कर हिन्दू वोट के ध्रुवीकरण को तेज करना चाहती है।
वास्तव में द्रविड़ पहचान तथा हिन्दू पहचान की यह राजनीति इन दोनों पार्टियों की पुरानी राजनीति का प्रमुख हिस्सा है। तमिलनाडु में भी ब्राह्मण विरोधी आंदोलन जाति तोड़ो आंदोलन न हो कर केवल पिछड़ी जातियों के वर्चस्व की स्थापना का ही आंदोलन रहा है। वर्तमान में वहाँ पर दलितों पर पिछड़ी जातियों द्वारा ही सबसे अधिक अत्याचार होते आ रहे हैं। उनके साथ जबरदस्त जातिभेद होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इन जातियों का ब्राह्मण (सनातन धर्म) विरोध केवल सत्ता पाने का आंदोलन रहा है न कि जाति उन्मूलन का। इसी लिए डा. अंबेडकर ने इनके ब्राह्मण विरोधी आंदोलन की आलोचना करते हुए कहा था, “यह स्पष्ट नहीं है कि इनकी विचारधारा और ब्राह्मणवादी विचारधारा में क्या अंतर है। इनमें स्वयं में कितना ब्राह्मणवाद है। उन्हें केवल एक आपत्ति है कि ब्राह्मण उन्हें दूसरे दर्जे का मानते हैं।“ (“Dr. Ambekar on the Justice Party of Madras” Thus Spoke Ambedkar Vol I, by Bhagwan Das, पृष्ठ 107-109 ) इसी लिए तमिलनाडु में सत्ता ब्राह्मणों की बजाए गैर ब्राह्मणों के हाथों में तो आ गई परंतु सामाजिक व्यवस्था खास करके दलित जातियों की स्थिति में कोई अंतर नहीं आया। उन्होंने किसी वैकल्पिक गैर ब्राह्मणवादी विचारधारा//व्यवस्था का सृजन भी नहीं किया है। उत्तर भारत में सनातन धर्म सदियों से जातिभेद एवं ऊंच-नीच की व्यवस्था का प्रतिपादक रहा है और आज भी उसी सनातनी व्यवस्था को बनाए रखने का पक्षधर है। आरएसएस समरसता के फार्मूले से इस व्यवस्था को यथावत बनाए रखने का उपदेश देता है।
यह सर्वविदित है कि डा. अंबेडकर ने सनातन धर्म, ब्राह्मण धर्म, वैदिक धर्म तथा हिन्दू धर्म को एक दूसरे का पर्याय कहा है। उन्होंने यह भी कहा था, “जिस किसी ने ब्राह्मणवाद को भलीभाँति समझ लिया है, उसे दुखी होने की जरूरत नहीं है। ब्राह्मणवाद के लिए धर्म तो लोभ और स्वार्थ की राजनीति करने के लिए एकमात्र आवरण मात्र हैं। ब्राह्मणवाद ने हिन्दू समाज को बर्बाद किया है।“ (प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति, पृ. 247) इसी लिए डा. अंबेडकर सनातन धर्म द्वारा प्रतिपादित जाति व्यवस्था के नाश के पक्षधर थे न कि सनातन धर्म के। इसके लिए उन्होंने हिन्दू समाज सुधार हेतु अछूतों के प्रयोग के लिए महाड़ तालाब आंदोलन तथा उनके लिए काले राम मंदिर प्रवेश आंदोलन चलाया था परंतु सनातनी हिंदुओं के कड़े विरोध के कारण उन्हें इसमें कोई सफलता नहीं मिली। अंततः इससे मायूस हो कर उन्होंने हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। उन्होंने न केवल बौद्ध धर्म को एक विकल्प के रूप में दिया बल्कि वैकल्पिक राजनीति का सृजन भी किया। इसके लिए उन द्वारा बनाई गई स्वतंत्र मजदूर पार्टी, शैडयूलड कास्ट्स फेडरेशन तथा रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया का क्रांतिकारी एजंडा भी था जिसके द्वारा वे दलितों, मजदूरों, किसानों तथा महिलाओं के आर्थिक, शैक्षिक एवं राजनैतिक विकास को सुनिश्चित करना चाहते थे। परंतु डीएमके तथा भाजपा के आर्थिक एजंडे में क्या अंतर है? क्या डीएमके का जाति उन्मूलन का कोई कार्यक्रम है? अतः क्या सनातन धर्म के तथाकथित रक्षकों एवं पैरोकारों को धर्म के नाम पर राजनीति करने की बजाए सनातन धर्म में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों जैसे जाति व्यवस्था के उन्मूलन हेतु आगे नहीं आना चाहिए जैसाकि गांधीजी ने किया था? परंतु आरएसएस/ भाजपा का ऐसा करने का कोई इरादा दिखाई नहीं देता और न ही डीएमके का।
उपरोक्त स्थिति में जब डीएमके सनातन धर्म के विरोध तथा भाजपा उसकी रक्षा करने के नाम पर केवल धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति कर रहे हैं और जनता के असली मुद्दों से ध्यान हटा रहे हैं तो धर्मनिरपेक्ष जनपक्षीय राजनीति करने वाली राजनीतिक पार्टियों को क्या करना चाहिए? ऐसे में जरूरी है कि इन राजनीतिक पार्टियों को देश की राजनीति के सामने खड़े प्रमुख खतरों एवं चुनौतियों को राजनीति के केंद्र में लाना चाहिए। वर्तमान राजनीति के लिए सबसे बड़ा खतरा ग्लोबल वित्तीय पूंजी, कारपोरेट तथा हिन्दुत्ववादी ताकतों के गठजोड़ का है जिसको परास्त किए बिना लोकतंत्र तथा स्वदेशी अर्थव्यवस्था को बचाना संभव नहीं होगा। इसके साथ ही ब्राह्मणवादी सामंतवाद के अवशेषों को भी नष्ट करने के लिए समाज तथा संस्थाओं का लोकतंत्रीकरण करना होगा। परंतु यह भी त्रासदी है कि वर्तमान में मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियां भी केवल सत्ता पाने की ही राजनीति कर रही हैं। उनकी नीतियों और भाजपा की वर्तमान नीतियों में कोई बुनियादी अंतर दिखाई नहीं देता है।
आजकल यह फैशन चल पड़ा है, खास करके सोशल मीडिया में, वह लोग जो व्यवहार में डा. अंबेडकर को सही अर्थों में न तो समझते हैं और न ही किसी क्षेत्र विशेष में अपने विचार का प्रयोग करते हैं, पेरियार, जोतिबा फुले, डा. अंबेडकर और उसी सांस में कांशीराम को जोड़ कर एक जाति विरोधी अभियान में लगे रहते हैं। डा. अंबेडकर न तो तमिल पिछड़ी जातियों के थीसिस को स्वीकार किए और न ही उनकी विचारधारा को और न ही उसमें कांशीराम एवं मायावती की कथित बहुजन राजनीति की कोई जगह है। मूल प्रश्न जाति विनाश का है और एक सर्वांगीण लोकतान्त्रिक एजंडा और उसकी वाहक शक्ति के बिना जाति का विनाश नहीं हो सकता और न ही नए मनुष्य का जन्म ही हो सकता है। इस संदर्भ में पूर्वग्रही बने बगैर पेरियार, अम्बेडकर, महात्मा गांधी, कम्युनिस्ट एवं सोशलिस्ट आंदोलन के जातिविहीन समाज बनाने के संघर्ष से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
अतः यह जरूरी है कि ग्लोबल वित्तीय पूंजी, कारपोरेट तथा हिन्दुत्ववादी ताकतों के गठजोड़ को परास्त करने, भाजपा को हराने, लोकतंत्र तथा स्वदेशी अर्थव्यवस्था को बचाने, बेरोजगारी, कृषि संकट तथा एमएसपी एवं निजीकरण को रोकने, समाज एवं संस्थाओं का लोकतंत्रीकरण करने तथा वर्गीय राजनीति को बढ़ावा देने के लिए एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना कर जनपक्षीय, धर्मनिरपेक्ष एवं प्रगतिशील ताकतों को एक मंच पर लाया जाए और विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ को भी इसके लिए प्रेरित किया जाए। आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट इसके लिए काफी समय से प्रयासरत है। आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट का एक नया प्रयोग जो इस समय चल रहा है, वह आज के दौर में न केवल कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट आंदोलन बल्कि बिना अपराध किए मेरी तरह जेल काट कर आने वाले आनंद तेलतुंबड़े, जो आज के दौर में डा. अंबेडकर की प्रासंगिक व्याख्या कर रहे हैं, उनके विचारों को समाहित करके आगे बढ़ा जा सकता है। आशा करता हूँ कि सामाजिक न्याय के सच्चे साथी मेरे विचारों को अन्यथा नहीं लेंगे और अनावश्यक बहसों में उलझ कर भाजपा को बढ़ाने की जगह अपने सिद्धांत और कार्यक्षेत्र को विस्तार देंगे। यही मेरी और मेरी राष्ट्रीय राजनीतिक इकाई का मत है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें