भारत में बौद्ध
धर्म का पुनर्जागरण एवं डा. अंबेडकर का योगदान
- एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय अध्यक्ष,
आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट
बौद्ध धर्म दुनिया के महान धर्मों
में से एक है जिसमें ईश्वर का कोई स्थान नहीं है और न ही स्वर्ग का
लालच तथा नरक का भय दिखा कर लोगों को डसका पालन करने की शिक्षा दी गई है। परंतु
मानव को दुख, अज्ञानता और अंध विश्वासों से मुक्त करने तथा मानवता का स्तर ऊंचा
उठाने में जो भूमिका बौद्ध धम्म ने निबाही है वह किसी अन्य धर्म ने नहीं निभाई है।
धर्म के इतिहास में बौद्ध
धर्म का विशेष स्थान है। भगवान बुद्ध के बाद पैदा होने वाले सभी धर्मों पर भगवान
बुद्ध की शिक्षा तथा बौद्ध धम्म की कार्यपद्धति
का प्रभाव पड़ा है। स्वयं हिन्दू धर्म के अनुयाइयों ने ब्राह्मण धर्म को मजबूत
बनाने के लिए बौद्ध धर्म के विहारों, मंदिरों आदि पर कब्जा ही नहीं किया बल्कि
भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को भी अपने धर्म ग्रंथों में शामिल किया है गीत इसकी सबसे
बड़ी उदाहरण है जिसमें धम्मपद से पूरे के पूरे पद लिए गए हैं। बौद्ध धर्म के बाद का
हिन्दू धर्म बौद्ध धर्म के पहले के ब्राह्मण धर्म से कई बातों से भिन्न है।
बौद्ध धर्म भारत में पैदा हुआ।
उसका लक्ष्य बहुजन के हित और बहुजन के सुख
के लिए काम करना था। बौद्ध धर्म सुधारवादी धर्म नहीं था और न ही उसका उद्देश्य
ब्राह्मण धर्म में सुधार करना था। बौद्ध धर्म सम्पूर्ण क्रांति लाने वाला धर्म था।
इस लिए उसमें ईश्वर पर विश्वास, वेदों, हवनों, यज्ञों, पशुबलि तथा वर्ण व्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं थी।
बौद्ध धर्म सहनशीलता का हामी था। इस लिए बौद्ध शासकों ने धार्मिक स्वतंत्रता तथा
सहनशीलता को अपनाए रखा। परंतु बौद्ध धर्म के विरोधी उसे खत्म करने में लगातार लगे
रहे। उसका बड़ा कारण यह था कि बौद्ध धर्म व्यक्ति को सोचना सिखाता था। दूसरे समता,
स्वतंत्रता, करुणा तथा मैत्री को प्रोत्साहन देता था। बौद्ध संघ में ब्राह्मण जाति
में जन्मा व्यक्ति तथा भंगी जाति में जन्मा व्यक्ति बराबर का सदस्य था। शंकराचार्य,
मंडन मिश्र तथा कुमारिल भट्ट के नेतृत्व में बौद्ध धर्म को नष्ट करने का काम शुरू
किया हुआ। पुष्यमित्र शुंग, शशांक तथा मिहिरकुल हिन्दू राजाओं ने हिंसा का प्रयोग
करके उसका नामोनिशान मिटाने की कोशिश की। 10वी व 11वीं शताब्दी में मुसलमान आक्रमण हुए। आक्रमण करने
वाले तुर्क, अरबी, ईरानी, मुगल तथा अफगानों ने दौलत लूटने के उद्देश्य से बौद्ध
विहारों को लूटा तथा पुस्तकालयों को नष्ट किया और बुतपरस्ती (बुद्धपपरस्ती) तथा मूर्तिपूजा के नाम पर पीले चीवर पहने और
आसानी से पहचाने जाने वाले बौद्ध भिक्षुओं का कत्ले आम किया। परंतु फिर भी 14वीं -15वीं
सदी तक बौद्ध धर्म भारत के कुछ हिस्सों में आखिरी सांसें लेता रहा। अंग्रेजी राज
स्थापित होने के समय तक बौद्ध धर्म करीब-करीब समाप्त हो चुका था। केवल दूर पूर्व
तथा पहाड़ी इलाकों में कुछ बौद्ध कबीले खासी, चकमा, गारो आदि बचे रहे।
उस समय भारत में रहने वाले
बौद्धों पर दो तरफ से हमले हो रहे थे। एक ईसाई मिशनरियों की तरफ से और दूसरा ब्राह्मण धर्म के अनुयाइयों की
ओर से। बंगाल, ओडिसा, आसाम तथा हिमाचल के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले बौद्ध अपना
अस्तित्व बचाए रखने का प्रयत्न कर रहे थे। कुछ नवयुवक बौद्ध भिक्षु श्रीलंका,
बर्मा और तिब्बत आदि देशों में बौद्ध धर्म की शिक्षा के लिए जाने लगे। पिछली
शताब्दी से पच्छिमी देशों में बौद्ध धर्म में नई दिलचस्पी पैदा होने लगी। इस संबंध
में भारत में बौद्ध धर्म के बारे में कई खोजें और शोध होने लगे। जमीन की परतों तले
दबे बौद्ध विहारों तथा स्तूपों को ढूंढा जाने लगा। भूली हुई, तबाह की गई
मूर्तियों, विहारों, स्तूपों आदि कि पहचान की जाने लगी। इसी काल में बौद्ध धर्म पर
कई किताबें लिखी जाने लगीं और बुद्धिवादी वर्ग और पच्छिमी शिक्षा से प्रभावित लोग
बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित होने लगे।
बौद्ध धर्म और बौद्ध धर्म से
संबंधित स्थानों तथा साहित्य की खोज में ब्रिटिश तथा अन्य योरपीय इतिहासकारों, धार्मिक विद्वानों तथा पुरातत्ववादियों का बहुत
बड़ा योगदान रहा है।अंग्रेजी शिक्षा
प्राप्त कई हिन्दू विद्वानों तथा राजनेताओं ने भी बौद्ध धर्म में काफी दिलचस्पी
दिखाई। उनमें रवीन्द्रनाथ टैगोर, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और जवाहर लाल नेहरू आदि के
नाम उल्लेखनीय हैं। उन्होंने अपनी पुस्तकों में बौद्ध धर्म की प्रशंसा की है परंतु
इसे भारत में पुनर्जीवित करने, उसे अपनाने या प्रचार प्रसार करने की उन्हें न तो
जरूरत थी और न ही उनका उद्देश्य ही था।
ब्रिटिश राज के दौरान उत्तर
पूर्व तथा उत्तर पच्छिम भारत में रहने वाले बौद्धों में भी कुछ जागृति आने लगी थी।
यह वह जमाना था जब ऊंची जातियों में जन्में हिन्दू नेता अपनी तेजी से गिरती जन
संख्या से चिंतित हो कर हिन्दू धर्म की रक्षा तथा उसे मजबूत बनाने के लिए कई तरीके
अपनाने लगे थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय में पालि भाषा पढ़ाई जाने लगी। श्रीलंका में
जन्मे डेविड हेवीतरने अनागरिक धर्मपाल ने बोधगया स्थित महाबोधि बुद्ध विहार को
हिन्दू महंतों के हाथों से मुक्त कराने का आंदोलन शुरू किया था। उन्होंने महाबोधि सोसाइटी
की स्थापना की थी और “महाबोधि” पत्रिका भी शुरू की थी। कलकत्ता स्थित एशयाटिक
सोसायटी भी बौद्ध धर्म के अध्ययन और शोध करने वालों को आकर्षित करने लगी थी।
इसी दौरान राहुल सांकृत्यायन,
जगदीश कश्यप, धम्मानंद कौसम्बी, भदंत आनंद कौशल्यायन, बोधानंद, लालमनी जोशी, जगन नाथ उपाध्याय आदि बौद्ध
विद्वानों के कई नाम उभर कर सामने आए परंतु एक बौद्ध समाज पैदा नहीं हो सका।
दक्षिण भारत (तमिलनाडु) में
दलित वर्ग में जन्मे बौद्ध धर्म के अनुयायी आयोतिदास ने बौद्ध धर्म को पुनर्जीवित
करने का काम शुरू किया परंतु वह आंदोलन बहुत आगे नहीं बढ़ सका। इसी दौरान वहीं पर
पी लक्ष्मी नारसू ने बौद्ध धर्म पर Essence of Buddhism (बौद्ध धर्म का सार) नामक किताब लिखी जो गैर ब्राह्मण बुद्धिवादी लोगों के
लिए प्रेरणा का श्रोत बनी। डा. अंबेडकर ने भी इस पुस्तक की बहुत प्रशंसा की थी तथा
उसे पुनः छपवाया भी था।
इस सब बौद्ध प्रेमियों के
योगदान को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। परंतु भारत में बौद्ध धर्म को पुनर जीवित
करने का श्रेय डा. बाबासाहेब अंबेडकर को ही जाता है। उन्होंने न सिर्फ बौद्ध धर्म
का अध्ययन किया, लेख लिखे, भाषण दिए, बाईबल की तरह Buddha and His Dhamma (बुद्ध और उनका धर्म) नाम की किताब भी लिखी बल्कि
बौद्ध धर्म को फिर से भारत में जीवित करने के लिए जो काम किया वह शायद कोई दूसरा
नहीं कर सकता था। उनके एक आवाहन पर 14 अक्तूबर, 1956 को 5 लाख दलितों ने बौद्ध
धर्म ग्रहण कर लिया था। धर्म के इतिहास में यह एक ऐसी घटना थी जिसकी मिसाल दुनिया
में कहीं नहीं मिलती। कभी भी कहीं भी एक व्यक्ति के कहने पर पुराने धर्म, विश्वास और
रीति रिवाज को छोड़ कर इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने एक व्यक्ति के कहने पर एक धर्म
को स्वीकार नहीं किया।
यह बात सही है कि भारत में
पहले भी विभिन्न कारणों जैसे व्यक्तिगत लाभ, सामाजिक समानता एवं जातिगत उत्पीड़न से
मुक्ति के लिए इस्लाम और ईसाई धर्म ग्रहण करते रहे हैं परंतु 14 अक्तूबर, 1956 को
नागपुर में लाखों की संख्या में इकट्ठा हो कर बौद्ध धर्म ग्रहण करने वाले
स्त्री-पुरुषों के सामने न तो चमत्कारों का प्रभाव था, न तलवार का डर था और न ही
अच्छी नौकरी पाने या दौलत का लालच था। उन लाखों लोगों का उद्देश्य केवल बाबासाहेब
अंबेडकर पर श्रद्धा और विश्वास जाहिर करते हुए भगवान बुद्ध के धर्म को अपना कर
अपनी धार्मिक स्वतंत्रता कि घोषणा करना
था। बुद्ध धर्म और संघ की शरण में जा कर उन्हें कोई भौतिक लाभ नहीं मिलने वाला था
बल्कि इसके विपरीत उन्हें संविधान के अंतर्गत मिलने वाला आरक्षण तथा शिक्षा में
छात्रवृति की सुविधाएं छिन जाने का डर था। परंतु फिर भी साहसी लोगों ने खुल कर
बौद्ध धर्म अपनाया और अपनी जीवन पद्धति तथा रीति रिवाजों को बदल डाला।
1956 में बौद्ध धर्म अपनाने
वालों में दो प्रकार के लोग थे। लगभग 1,50,000 बौद्ध ऐसे थे जो परंपरागत बौद्ध थे
क्योंकि वे बौद्ध परिवारों में जन्मे थे। उनके रीति रिवाजों पर बौद्ध धर्म तथा
क्षेत्रीय सभ्यता का प्रभाव था। उन पर हिन्दू धर्म की गहरी छाप थी। दूसरा वर्ग वह
था जिन्होंने बाबासाहेब के आवाहन से हिन्दू धर्म को नकारा था और बौद्ध धर्म ग्रहण
किया था। उनके सामने एक समस्या थी कि बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद वे इस पर अमल
कैसे करें। पुराने बौद्धों से उन्हें कोई प्रेरणा या सहायता नहीं मिल सकती थी
क्योंकि भारत के पच्छिम में स्थित हिमाचल, लद्दाख और तिब्बत के बौद्ध न तो उन्हें
अपना सकते थे और न ही उनका बौद्ध धर्म दलितों में से बने नवबौद्ध स्वीकार कर सकते थे। वे तो स्वयं अपने अस्तित्व
के लिए संघर्ष कर रहे थे। एक बड़ा कारण यह भी था कि हिन्दू धर्म के नेताओं के
दुष्प्रचार के कारण उनमें से बहुत से लोग नव बौद्धों से नफरत करते थे। इस लिए
परंपरागत बौद्धों से कुछ भी सीखने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। दूसरे उनके
रीति-रिवाजों पर ब्राह्मण धर्म और तिब्बत के लामा धर्म का प्रभाव था जिसे नवबौद्ध
स्वीकार नहीं कर सकते थे क्योंकि उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक एवं आधुनिक था।
बाबासाहेब द्वारा चलाया गया
यह शुद्ध बौद्ध आंदोलन एक नया स्वतंत्र आंदोलन था। बाबासाहेब ने उसे अपने ढंग से
चलाने का प्रोग्राम बनाया था। इसकी रूपरेखा उनके 1950 में महाबोधि पत्रिका में छपे
लेख “बुद्ध और उनके धम्म का भविष्य” में मिलती है। इस लेख में बाबासाहेब ने बौद्ध
धर्म के प्रचार- प्रसार के लिए तीन बातों का उल्लेख किया था-
1. एक
बुद्धिस्ट बाइबल की रचना की जाए।
2. भिखु
संघ के संगठन में परिवर्तन लाया जाए।
3. एक
विश्व बुद्धिस्ट मिशन स्थापित किया जाए।
बौद्ध धर्म के लिए बाइबल जैसी एक
पुस्तक का निर्माण करना प्रथम आवश्यकता थी क्योंकि
बौद्ध वांगमय अति विशाल है और आम आदमी के लिए इस वांगमय को पढ़ना असंभव है।
बाबासाहेब के अनुसार प्रस्तावित बौद्ध ग्रंथ में (1) बुद्ध का संक्षिप्त जीवन
चरित्र, (2) चीनी धम्मपद, (3) बुद्ध के महत्वपूर्ण उपदेश और (4) जन्म, धर्म
दीक्षा, विवाह और मृत्यु संबंधी संस्कार विधि होना चाहिए। बाबासाहेब ने स्वयं कई
साल से इस प्रकार की पुस्तक तैयार करने में लगाए और कई मसौदों को दुनिया के
प्रसिद्ध विद्वानों को टिप्पणी के लिए भेजा और निर्वाण के कुछ घंटे पहले (6 दिसंबर,
1956) को उसे अंतिम रूप दिया। बाद में यह पुस्तक ”Buddha and Hs Dhamma” (बुद्ध और उनका धम्म) नाम से 1957 में छपी।
भिखु संघ में सुधार लाने
हेतु उन्होंने अपने विचार कई जगह व्यक्त
किए हैं। भिक्षु को वे एक मिशनरी के रूप में देखना चाहते थे जो समाज में रह कर आम
आदमी को धम्म का सही रास्ता दिखाए।
बाबासाहेब एक आधुनिक ढंग का
विश्व बौद्ध मिशन स्थापित करना चाहते थे परंतु वे अपने जीवन काल में ऐसा मिशन
स्थापित नहीं कर सके. इस दिशा में कुछ काम जापान, कोरिया, ताइवान, थाइलैंड तथा
इंग्लैंड में हुआ है। साकागाकाई, रिओकाई, रिसोकोसकाई नामक संगठन जापान में अपने
ढंग से काम कर रहे हैं। ताइवान स्थित “बुद्ध एजुकेशनल फाउंडेशन”, “बुद्धिस्ट लाइट
इंटरनेशनल” कैलिफोरनियाँ से “वर्ल्ड बुद्धिस्ट आर्गेनाइजेशन” इंग्लैंड से बौद्ध
धर्म का प्रचार कर रही है। विश्व में बौद्ध धर्म में लोगों की रुचि बढ़ रही है।
जर्मनी, इटली, अमेरिका और ब्रिटेन में कई संस्थाएं तथा विद्वान उभरे हैं जो बौद्ध
धर्म पर शोध कर रहे हैं।
बाबासाहेब ने भारत में बौद्ध
धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए “बुद्धिस्ट सोसाइटी आफ इंडिया” (भारतीय बौद्ध
महासभा) की स्थापना की थी। इसके अतिरिक्त अन्य कई संस्थाएं/व्यक्ति बौद्ध धर्म के
प्रचार-प्रसार में लगे हैं।
बाबासाहेब अंबेडकर ने 1950
में लिखे लेख में विवाह और मृत्यु संबंधी संस्कार विधि का उल्लेख किया था। उन्होंने
1956 में दीक्षा के समय दिए गए भाषण और बाईस प्रतिज्ञाओं में किसी भी संस्कार को
ब्राह्मणों द्वारा न कराने की बात कही थी। वह चाहते थे कि 20वीं शताब्दी में बौद्ध
पूर्ण रूप से ब्राह्मण धर्म से स्वतंत्र हों और अपनी अलग पहचान बनाएं। दूसरे वे
नहीं चाहते थे कि पुरानी गलती दोहराई जाए जो भगवान बुद्ध के बाद बहुत से गृहस्थी
संस्कारों के मामले में करते आए थे और जिस का अभी भी खतरा है। भगवान बुद्ध के धर्म
को अपना कर बहुत से लोग उनके संघ में शामिल हो गए परंतु उपासक-उपासिकाएं
ब्राह्मणों को बुला कर सामाजिक संस्कार करवाते थे। इस के जीवित उदाहरण लाओस,
कंबोडिया, थाईलैंड आदि बौद्ध देशों में हैं। भारत में भी लोग नया धर्म अपना कर भी
पुराने संस्कारों, रूढ़ियों तथा रीति रिवाजों से चिपके रहते हैं भले ही वे उनके के
नए धर्म की शिक्षा तथा आदेशों के खिलाफ हों। भारत में नवबौद्धों में भी यह
विरोधाभास पर्याय परिलक्षित होता है।
डा. अंबेडकर द्वारा 1956 में
चालू किया गया बौद्ध धर्म आंदोलन लगातार अग्रसर हो रहा है। हरेक जनगणना में
बौद्धों की जनसंख्या में बढ़ोतरी हो रही है। सन 1951 में बौद्धों की जनसंख्या केवल
1,41,426 थी जो भारत की कुल जनसंख्या का केवल 0.04% थी। 1981 में यह बढ़ कर
32,00,336 अर्थात कुल जनसंख्या का 0.73 प्रतिशत थी तथा 1991 में 63,87,500 अर्थात
कुल जनसंख्या का 0.77 प्रतिशत हो गई थी। वर्ष 2001 की जनगणना में बौद्धों की
जनसंख्या 79,55,207 अर्थात कुल जनसंख्या का 0.8 थी। अब 2011 की जनगणना के अनुसार देश में बौद्धों की
जनसंख्या 84.43 लाख हो गई है
जोकि कुल जनसंख्या का 0.7 प्रतिशत है। यह
चिंता की बात है कि 2011 की जनगणना में
बौद्धों की जनसंख्या के वृद्धि दर में कमी आई है। इसके बावजूद यह बड़े संतोष की बात
है कि इन आंकड़ों के अनुसार बौद्ध पुरुष और महिलाओं का लैंगिक अनुपात 965 है जब कि हिन्दुओं का 939, मुसलामानों का 951 और सिक्खों का 903 है. इसी प्रकार 0-6 वर्ष आयु के बौद्ध लड़के व लड़कियों का लैंगिक अनुपात 933 है जबकि हिन्दुओं का 913, मुसलामानों का 943 और सिखों का केवल 828 है. इसी जनगणना के अनुसार बौद्धों का शिक्षा दर 81.3% है जबकि हिन्दुओं का 73.3% और मुसलामानों का 68.5% है। इसी प्रकार बौद्धों का कार्य सहभागिता दर 43.1%है जबकि हिन्दुओं का 41%, मुसलामानों का 32.6% और सिखों का 36.3% है. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि बौद्धों का लिंग अनुपात, शिक्षा दर और कार्य सहभागिता दर न केवल हिन्दू दलितों बल्कि हिन्दुओं, मुसलामानों और सिखों से भी ऊँचा है जोकि उन की प्रगति का प्रतीक है। इससे यह भी दिखाई देता है कि जिन
दलितों ने बौद्ध धर्म अपनाया है उन्होंने हिन्दू रहे दलितों की अपेक्षा बहुत
प्रगति की है। यदि नवबौद्धों की जनसंख्या में इसी तरह से वृद्धि होती रही तो बाबासाहेब
का भारत को बौद्धमय बनाने का सपना निकट भविष्य में अवश्य साकार हो सकेगा।