शनिवार, 7 नवंबर 2020

हिंदुत्व का शिकंजा और दलित-जातिवादी राजनीति- प्रोo तुलसी राम

 

हिंदुत्व का शिकंजा और दलित-जातिवादी राजनीति

                                                                 
                                                                 -
हशियाँ ब्लॉग से साभार 

प्रो. तुलसी राम का यह लेख हिंदुत्व के फासीवादी तीखे होते हमलों के दौर में दलित-जातिवादी राजनीति का एक आकलन पेश करता है. 

 


 
पिछले पचीस सालों में दलितों के साथ पिछड़े वर्ग की राजनीति में जातिवाद अपनी चरम सीमा पार कर गया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि विशुद्ध हिंदुत्व की राजनीति करने वाली भाजपा ने अकेले बहुमत पाकर भारत की सत्ता प्राप्त कर ली। भारतीय जाति-व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि इसे धर्म और ईश्वर से जोड़ दिया गया। यही कारण था कि इसे ईश्वरीय देन मान लिया गया। गांधीजी जैसे व्यक्ति भी इसी अवधारणा में विश्वास करते थे। इस अवधारणा का प्रचार सारे हिंदू ग्रंथ करते हैं। इसलिए हिंदुत्व पूर्णरूपेण जाति-व्यवस्था पर आधारित दर्शन है।

विभिन्न जातियां हिंदुत्व की सबसे मजबूत स्तंभ हैं। इसलिए इन स्तंभों की रक्षा के लिए ही भारत के सभी देवी-देवताओं को हथियारबंद दिखाया गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि दलितों पर आज भी वैदिक हथियारों से हमले जारी हैं। ऐसी स्थिति में जब जाति को मजबूत किया जाता है, तो हिंदुत्व स्वत: मजबूत होता चला जाता है। पिछले पचीस वर्षों में ऐसा ही हुआ है।

नब्बे के दशक में कांशीराम ने एक अत्यंत खतरनाक नारा दिया था- ‘अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो’। इसी नारे पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) खड़ी हुई। परिणामस्वरूप डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित जाति-व्यवस्था विरोधी आंदोलन की अवधारणा को मायावती ने शुद्ध जातिवादी अवधारणा में बदल दिया। इतना ही नहीं, गौतम बुद्ध द्वारा दी गई ‘बहुजन हिताय’ की अवधारणा को चकनाचूर करके उन्होंने ‘सर्वजन हिताय’ का नारा दिया, जिसका व्यावहारिक रूप सभी जातियों के गठबंधन के अलावा कुछ भी नहीं था। परिणामस्वरूप दलितों की विभिन्न जातियों के साथ-साथ ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों के अलग-अलग सम्मेलनों की बसपा ने भरमार कर दी, जिससे हर जाति का दंभी गौरव खूब पनपने लगा।

ब्राह्मण सम्मेलनों के दौरान बसपा के मंचों पर हवन कुंड खोदे जाने लगे और वैदिक मंत्रों के बीच ब्राह्मणत्व का प्रतीक परशुराम का फरसा (वह भी चांदी का) मायावती को भेंट किया जाने लगा। इस दौरान दलित बड़े गर्व के साथ नारा लगाते थे- ‘हाथी नहीं, गणेश हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश हैं’। मायावती हर मंच से दावा करने लगीं कि ब्राह्मण हाशिये पर चले गए हैं, इसलिए वे उनका खोया हुआ गौरव वापस दिलाएंगी। वे इस तथ्य को जरा भी समझ नहीं पाईं  कि ब्राह्मण कभी भी हाशिये पर नहीं जाते हैं। उनका सबसे बड़ा हथियार धर्म और ईश्वर है। इन्हीं हथियारों के बल पर ब्राह्मणों ने हमेशा समाज की बागडोर अपने हाथ में रखी।

इससे पहले मायावती तीन बार भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं और गठबंधन की सरकार चलाई। इतना ही नहीं, भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए मायावती विश्व हिंदू परिषद के त्रिशूल दीक्षा समारोह में भी शामिल हुईं। पर जब वे मोदी का प्रचार करने गुजरात गईं, तो उन्होंने धार्मिक उन्माद पर खुलेआम ठप्पा लगा दिया। दलित सत्ता के नारे के साथ मायावती ने जातीय सत्ता की प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया। इस जातीय सत्ता की होड़ में मंडलवादियों ने शामिल होकर धर्म के स्तंभों को और मजबूत किया।

अगर राजनीति में धर्म का इस्तेमाल धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के विरुद्ध है, तो धर्म से उत्पन्न जाति का इस्तेमाल कैसे धर्म-निरपेक्ष हो सकता है? इसलिए धर्म का राजनीति में इस्तेमाल जितना खतरनाक है, जाति का इस्तेमाल उससे कम खतरनाक नहीं है। इस तथ्य को न कभी मायावती समझ पाई  और न ही मंडलवादी। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव और नीतीश कुमार आदि सब ने जातिवादी राजनीति के माध्यम से धर्म की राजनीति को मजबूत किया।

आज नरेंद्र मोदी जो छप्पन इंच का सीना तान कर घूम रहे हैं, उसकी पृष्ठभूमि में जातिवादी राजनीति रही है। उक्त सारे नेताओं द्वारा जाति के साथ-साथ मुसलिम वोटों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करने के प्रयास से आम हिंदू नाराज होकर पूरी तरह भाजपा की तरफ चला गया। इसलिए संघ परिवार जिसकी वकालत बरसों से कर रहा था, उसमें वह पूर्णत: सफल रहा। भाजपा ने धर्म और जाति, दोनों का इस्तेमाल बड़ी रणनीति के साथ किया, जिसके पीछे वह चालाकी से ‘विकास’ की बात करके जनता को भ्रमित करने में सफल रही, जबकि असली मुद्दा धार्मिक ध्रुवीकरण का ही था।

मायावती ने डॉ. आंबेडकर की मूर्तियों और पार्कों की आड़ में दलितों को उनके रास्ते से भटकाने का काम बड़ी सफलता से किया। डॉ. आंबेडकर ने दलितों को सामाजिक और धार्मिक भेदभाव से मुक्ति दिलाने के लिए एक दोहरी रणनीति अपनाई थी। एक तरफ उन्होंने जाति-व्यवस्था विरोधी आंदोलन का सूत्रपात करके ‘मनुस्मृति’ को जलाया था और दूसरी तरफ जातिवाद को स्थापित करने वाले वैदिक ब्राह्मण धर्म के विकल्प के रूप में बौद्ध धर्म को अपनाया था। मायावती डॉ. आंबेडकर की दोनों रणनीतियों को दरकिनार करके जातिवादी राजनीति के चंगुल में फंसती चली गई ।

एक बार कांशीराम ने घोषणा की थी कि वे डॉ. आंबेडकर से कहीं ज्यादा लोगों के साथ, यानी बीस लाख से अधिक लोगों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण करेंगे, पर स्वास्थ्य की समस्या के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए। बाद में मायावती ने कहा कि बौद्ध धर्म ग्रहण करने से सामाजिक सद्भावना के बिगड़ने की संभावना है, इसलिए जब वे प्रधानमंत्री बन जाएंगी, तो बौद्ध धर्म ग्रहण करेंगी। जाहिर है, जब उन्होंने उक्त बातें कहीं, उस समय मायावती भाजपा के साथ उत्तर प्रदेश की सरकार चला रही थीं।

डॉ. आंबेडकर के दर्शन के बारे में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे भारत के लिए द्वि-दलीय प्रणाली की वकालत करते थे, इसलिए वे दलित नाम से कोई पार्टी नहीं चलाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी को प्रस्तावित किया। कांग्रेस का यही विकल्प उन्होंने प्रस्तुत किया था। पर एक बात उन्होंने जोर देकर कही थी कि दलितों को आरएसएस और हिंदू महासभा (वर्तमान विश्व हिंदू परिषद) जैसे संगठनों के साथ कभी भी समझौता नहीं करना चाहिए।

संघ ने 1951 में जनसंघ की स्थापना की थी, पर आंबेडकर के समय में उसका प्रभाव नगण्य था। इसीलिए सीधे-सीधे उन्होंने संघ से किसी भी तरह का समझौता करने से दलितों को मना किया था। मायावती ने डॉ. आंबेडकर के हर कदम को नजरअंदाज करके संघ-परिवार का हाथ मजबूत किया। डॉ. आंबेडकर का जनतंत्र में अटूट विश्वास था, जिसकी झलक भारत के संविधान में साफ तौर पर मिलती है। उनका मानना था कि जाति-व्यवस्था एक तरह से तानाशाही वाली व्यवस्था थी, जिसके चलते दलित हर तरह के मानवीय अधिकारों से वंचित रहे। इसलिए जनतांत्रिक प्रणाली को वे दलितों के लिए सर्वोत्तम प्रणाली समझते थे।

पर सारी जातिवादी पार्टियां अपनी ही जाति के लोगों को हमेशा जनतांत्रिक अधिकारों से वंचित करती रही हैं। ऐसी पार्टी के नेताओं में मायावती का नाम सबसे ऊपर आता है। यहां तक कि बैठकों के दौरान न सिर्फ मायावती कुर्सी पर बैठा करती थीं और बाकी नेता जमीन पर बैठते थे; विधानसभा हो या संसद, उनके डर से कोई पार्टी विधायक या सांसद कुछ भी बोलने से डरता था। उनका व्यवहार एकदम सामंती हो गया था। उन्हें आम सभाओं में चांदी-सोने के ताज पहनाए जाते थे और उनके हर जन्म दिवस पर करोड़ों रुपए की भारी-भरकम माला भी पहनाई जाती थी। 1951 में मुंबई के दलितों ने बड़ी मुश्किल से दो सौ चौवन रुपए की एक थैली डॉ. आंबेडकर को उनके जन्मदिन पर भेंट की थी, जिस पर नाराज होकर उन्होंने चेतावनी दी थी कि अगर कहीं भी ऐसा दोबारा किया तो वे ऐसे समारोहों का बहिष्कार करेंगे।

पिछली दफा राज्यसभा का परचा दाखिल करते हुए मायावती ने आमदनी वाले कॉलम में एक सौ तेईस करोड़ रुपए की संपत्ति दिखाई थी। हकीकत यह थी कि मायावती के गैर-जनतांत्रिक व्यवहार के चलते बसपा में भ्रष्ट और अपराधी तत्त्वों की भरमार हो गई थी, जिसके कारण पूरा दलित समाज न सिर्फ बदनाम हुआ, बल्कि इससे दलित विरोधी भावनाएं भी समाज में खूब विकसित हुईं। एक तरह से मायावती दलित वोटों का व्यापार करने लगी थीं। पिछले अनेक वर्षों में चमार और जाटव समाज के लोग उत्तर प्रदेश में भेड़ की तरह मायावती के पीछे चलने लगे थे। इसलिए वे भ्रष्टाचारियों और अपराधियों को चुन कर विधानसभा और संसद में भेजने लगे थे।

बाबा साहेब आंबेडकर ने संविधानसभा में बोलते हुए एक बार कहा था, ‘धर्म में नायक पूजा किसी को मुक्ति प्रदान कर सकती है, पर राजनीति में नायक पूजा निश्चित रूप से तानाशाही की ओर ले जाएगी।’ मायावती के संदर्भ में यह शत-प्रतिशत सही सिद्ध हुआ। राजा-रानियों की तरह मायावती ने अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करते हुए प्रेस सम्मेलन में कहा था, ‘मेरा उत्तराधिकारी चमार जाति का ही होगा, जिसका नाम मैंने एक लिफाफे में बंद कर दिया है। यह लिफाफा मेरी मृत्यु के बाद खोला जाएगा।’ इससे एक बात साफ हो गई कि मायावती के रहते कोई अन्य दलित नेता नहीं बन सकता था।

उनके द्वारा बार-बार चमार जाति के उल्लेख से दलित की गैर-चमार जातियां बसपा से कटती चली गईं  और उनमें से अधिकतर या तो भाजपा के साथ हो गईं या मुलायम सिंह यादव के साथ चली गईं। उत्तराधिकारी की घोषणा के बाद एक रोचक घटना हुई। मीडिया वालों ने अंदाजवश आजमगढ़ के राजाराम के रूप में उत्तराधिकारी की पहचान कर ली। परिणामस्वरूप मायावती ने अविलंब राजाराम को पार्टी से बर्खास्त कर दिया।

जब मायावती सामाजिक अभियांत्रिकी (सोशल इंजीनियरिंग) के नाम पर ब्राह्मणों को सतीश मिश्रा के माध्यम से अपनी तरफ खींचने का अभियान चला रही थीं तो दलितों के विरुद्ध उसका दूरगामी प्रभाव पड़ा। इससे पहले चुनावी राजनीति में ही सही, सारी पार्टियां दलितों को अपनी तरफ खींचने का प्रयास करती थीं और उनके लिए तरह-तरह के वादे भी किया करती थीं, जिसका परिणाम अनेक अवसरों पर काफी सकारात्मक भी हुआ करता था। इसलिए दलित हमेशा एक दबाव समूह का काम करते थे। पर मायावती उस तथाकथित सामाजिक अभियांत्रिकी के चलते हर पार्टी के लिए ब्राह्मण खुद दबाव समूह के लिए दलितों को हाशिये पर डाल दिए। परिणामस्वरूप मायावती के चक्कर में दलित हर पार्टी के लिए दुश्मन बन गए। अब उनके कल्याण के लिए कोई भी पार्टी तत्पर नहीं दिखाई पड़ती। सच ही कहा गया है, ‘माया मिली न राम।’

मायावती के एक अन्य दलित-विरोधी फैसले का दूरगामी प्रभाव पड़ा। किसी गैर-दलित मुख्यमंत्री की कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि वह ‘दलित अत्याचार विरोधी अधिनियम’ से छेड़छाड़ करे। पर मायावती जब भाजपा के साथ संयुक्त सरकार चला रही थी, तो उन्होंने गैर-दलितों को खुश करने के लिए उपरोक्त अधिनियम में संशोधन करके यह प्रावधान कर दिया कि दलित महिलाओं के साथ बलात्कार जैसे अपराधों को पुलिस तब तक दर्ज न करे, जब तक कि डॉक्टर प्रमाणित न कर दे कि सही मायने में बलात्कार हुआ है। मायावती के इस आदेश का परिणाम यह हुआ कि दलितों पर तरह-तरह के अत्याचार होते रहे, पर पुलिस अधिकतर मामलों में आज भी केस दर्ज नहीं करती है।

इस बार लोकसभा चुनावों में जब बसपा का सफाया हो गया, तो मायावती ने इसके लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा दिया। हकीकत तो यह है कि मायावती अपनी व्यक्तिगत सत्ता के लिए लगातार जातिवादी नीतियां अपनाती रही हैं, जिससे दलित निरंतर सबसे कटते चले गए। पिछले पचीस सालों के अनुभव से पता चलता है कि अब देश को जातिवादी पार्टियों की जरूरत नहीं है, बल्कि सबके सहयोग से जाति-व्यवस्था विरोधी एक मोर्चे की आवश्यकता है, अन्यथा जातियां मजबूत होती रहेंगी, जिससे धर्म की राजनीति को ऑक्सीजन मिलता रहेगा। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान डॉ. आंबेडकर ने गांधीजी से कहा था, ‘स्वतंत्रता आंदोलन में सारा देश एक तरफ है, पर जाति-व्यवस्था विरोधी आंदोलन सारे देश के खिलाफ है, इसलिए यह काम बहुत मुश्किल है।’ उम्मीद है, दलित इतिहास से कुछ सीख अवश्य लेंगे।          

 

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