बहुवर्गीय लोकतान्त्रिक मंच ही रोक सकता है भाजपा/आरएसएस
की अधिनायकवादी राजनीति
मौजूदा परिस्थिति में जरूरी राजनीतिक
पहलकदमी के बारे में अखिलेन्द्र प्रताप सिंह की वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय
से वार्ता के आधार पर कुछ बातें :
(अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने इस वार्तालाप में पुराने
राजनीतिक प्रयोगों की वैचारिक एवं व्यवहारिक कमियों को इंगित करते हुए और उसके
अनुभवों से सीखते हुए वर्तमान परिस्थिति में नई वैचारिकी एवं कार्यनीति के बारे
में अपने विचार प्रकट किये हैं. यह वर्तमान राजनीतिक सचाई है कि इस समय वित्तीय
पूंजी पोषित भाजपा-आरएसएस सरकार ने न केवल राजनीतिक बल्कि सामाजिक/सांस्कृतिक
क्षेत्र में भी अपनी पकड़ बहुत मजबूत कर ली है और वह सभी क्षेत्रों में फासीवादी
व्यवस्था को स्थापित करने की ओर बड़ी तेजी से बढ़ रही है. ऐसी परिस्थिति में किसी एक
वर्ग अथवा जाति की राजनीतिक पार्टी के लिए इसे परास्त करना संभव नहीं है, चाहे
वह बहुजन राजनीति हो या चाहे वह समाजवादी राजनीति हो. अब तक बहुजन और समाजवादी
राजनीति का जातिवादी/सामाजिक न्याय माडल बुरी तरह से विफल हो चुका है और एक
तरीके से वह भाजपा/आरएसएस के हिन्दुत्ववादी एजंडे को ही मज़बूत कर रहा है.
अतः जैसा कि अखिलेन्द्र जी ने कहा है कि इस समय
ज़रुरत है कि देश में सिविल सोसायटी के साथ ही अधिनायकवाद विरोध की ताकतें एक
राजनीतिक मंच पर आएं, एक बहुवर्गीय ढांचा तैयार करें, उसमें सभी
उत्पीड़ित समुदाय, जातियों और वर्गों को ले आया जाए तो भाजपा-आरएसएस को
बराबर की टक्कर दी जा सकती है और उन्हें परास्त भी किया जा सकता है।
हम लोग इस दिशा में 2012 से
दलितों, आदिवासियों, मजदूरों, किसानों
और विभिन्न समुदायों का एक साँझा फ्रंट बना कर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के
माध्यम से उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, चंदौली और मिर्ज़ापुर के जिलों में जन-राजनीति के
माडल पर कार्य कर रहे हैं जिसमें हमें काफी अच्छा रिस्पांस भी मिल रहा है. हम
लोग वहां से दो बार लोकसभा तथा एक बार विधानसभा चुनाव भी आइपीएफ से लड़े हैं.
हमारे कार्य का विस्तार छतीसगढ़, झारखण्ड, ओड़िसा, कर्नाटका, हरियाणा, दिल्ली, महाराष्ट्र और तमिलनाडु तक हुआ है.
अतः सभी साथियों से अनुरोध है कि आप इस वार्तालाप
में अखिलेन्द्र जी द्वारा बहुवर्गीय लोकतान्त्रिक मंच बनाने के सुझाव पर खुले मन
से विचार करें तथा इस सम्बन्ध में अपने सुझाव/विचार दें तथा यदि सहमत हों तो
इसमें सहभागी बनें. सर्वसम्मति से मंच का कोई दूसरा नाम भी रखा जा सकता है.
Loud TV India पर Loud Talk का लिंक:
https://www.facebook.com/LoudIndiaTV/videos/393897244926544/
एस आर
दारापुरी, राष्ट्रीय
प्रवक्ता,आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट)
अखिलेन्द्र से जब वामपंथ के बारे में पूछा
गया तो उन्होंने कहा कि भारत में आम तौर पर वामपंथ का आशय कम्युनिस्ट पार्टी
से निकाला जाता है। मैं वामपंथ को जनवादी आंदोलन के बतौर देखता हूं। इसमें तीन धारा मानता
हूं। एक धारा 1920 में बनी कम्युनिस्ट पार्टी को मानता
हूं। दूसरी धारा आचार्य नरेंद्र देव और जय प्रकाश की सीएसपी (कांग्रेस
सोशलिस्ट पार्टी) थी, उसको मानता हूं। तीसरी
महत्वपूर्ण धारा थी डॉ. अंबेडकर की। डा0 अम्बेडकर भी स्टेट सोशलिज्म (राजकीय समाजवाद) की
बात करते थे। इन तीनों धाराओं का भारत की राजनीति पर जो असर होना चाहिए था, वह नहीं हुआ।
मैं मानता हूं 1934 से जो समाजवादियों का प्रयोग हो
रहा था, तुलनात्मक तौर पर उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में
ज्यादा परिपक्वता का परिचय दिया। आचार्य नरेंद्र देव ने भारत के संदर्भ में मार्क्सवाद के
प्रयोग की जो कोशिश की, वह हिंदुस्तान की परिस्थिति के
ज्यादा अनुकूल थी। डॉ. अंबेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का गठन किया और वह
कम्युनिस्टों से सहयोग करना चाहते थे। कम्युनिस्ट पार्टी उस अवसर का भी लाभ
नहीं उठा पाई क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी की सैद्धांतिक समझ और व्यवहार यथार्थ
से मेल नहीं खा रहा था।
दरअसल उस
समय भारत जिस स्टेज में था, उसकी गांधी जी
की समझ ज्यादा बेहतर थी वह स्पेस समाजवादी
क्रांति का स्पेस नहीं था। उस वक्त जो मध्यवर्ती नारे बनते थे उनका जोर लोकतंत्र पर होना
चाहिए था, न कि समाजवाद पर। वास्तविकता यह थी कि भारत
में एक राष्ट्रीय लोकतंत्र की जरूरत थी। जितनी यात्रा लोकतंत्र के लिए की गई थी, उसे आगे बढ़ाने की जरूरत थी। समय
की तात्कालिक जरूरत थी कि
समाजवादियों को, अंबेडकर पंथ में यकीन करने वाले
और उन गांधीवादियों को, जो कर्मकांडी या मठवादी नहीं थे, जोड़ा जाना चाहिए था। उस वक्त इन ताकतों को लेकर एक जन
पार्टी बनाने की जरूरत थी, जिसे हम बहुवर्गीय पार्टी कह सकते हैं। उसके गठन की जरूरत
थी, जो नहीं किया गया।
पंचमढ़ी में लोहिया के भाषण का जिक्र
करते हुए आचार्य नरेंद्र देव ने यह टिप्पणी की थी कि लोहिया यह चाहते हैं कि
कई दर्शन के लोगों को उनकी पार्टी में जगह दी जानी चाहिए। तब आचार्य जी ने
कहा था कि इस पर और विचार-विमर्श की जरूरत है, लेकिन हर हाल में वर्ग संघर्ष, जनतंत्र और योजना के प्रश्न को केन्द्रीय प्रश्न बनाए रखना
होगा। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बनने के बाद लोहिया जी ने जो प्रयोग किया वह जाति और वर्ग के
बीच संतुलन नहीं बना पाया और जो जाति पर जोर बढ़ा उसका पतन अंततोगत्वा जातिवाद
में ही हो गया। दक्षिण में जो प्रयोग किए गए थे, जाति आंदोलन के, उनसे नहीं सीखा गया। मुलायम और लालू जैसे लोगों को भी इसी
संदर्भ में देख सकते हैं।
जो लोग
समाजवाद को अपना लक्ष्य रखते थे और भारत में
सच्चे लोकतंत्र के लिए लड़ रहे थे, उन ताकतों के साथ समायोजन करना चाहिए था। मैं सामान्य
मोर्चे की बात नहीं कर रहा हूं, एक ऐसे मोर्चे की बात कर रहा हूं जिसमें आपसी
आर्गेनिक सम्बंध हों। जैसे कभी चीन में माओत्से तुंग ने सुनयात सेन के
नेतृत्व में कोर्मितांग पार्टी में काम किया था। या भारत में गांधी जी के
निर्देशन में जो कांग्रेस थी, उसमें विभिन्न विचार और दल के लोग थे।
कम्युनिस्ट
कभी भारतीय खेतिहर समाज के हिसाब से
कार्यनीति और रणनीति को स्वतंत्रता पूर्वक आगे नहीं बढ़ा सके। उनकी कार्यशैली
में एक विभाजन था। सिद्धांत गढ़ने वाले लोग और होते थे, जो आम तौर पर सैद्धांतिक काम
देखते थे और जमीन पर प्रैक्टिस करने वाले अलग। जमीन पर दलित, पिछड़ा, आदिवासी समुदाय के लोग या सवर्ण
जातियों के जो लोग संघर्ष में थे, दोनों के बीच सही समायोजन नहीं
हो पाया। तमाम विभाजन के बावजूद राज्य के
चरित्र के निर्धारण में जरूर बदलाव हुआ, लेकिन भारत के संदर्भ में जो मूल प्रश्न था, जैसे जमीन और कृषि के प्रश्न को, वर्ग और जाति के प्रश्न को, महिलाओं के प्रश्न को, आदिवासी और अन्य उत्पीड़ित समुदाय के सामुदायिक प्रश्न को, हिंदू-मुसलमान के प्रश्न को और
सर्वोपरि राष्ट्रवाद के प्रश्न को, जिसमें सीमा विवाद के लिए भी
समाधान की तरफ बढ़ना चाहिए, कोई सुसंगत नीति और कार्यक्रम नहीं बना पाए।
आज भी
कम्युनिस्ट पार्टियों का जो ढांचा है, वह युद्ध काल का ढांचा है, जबकि हम संसदीय जनतंत्र में काम कर रहे
हैं। संसदीय जनतंत्र के अनुरूप सांगठनिक ढांचा नहीं है। यह एक संकट रह गया है, जिसे अभी भी देर-सबेर सोचना होगा, क्योंकि पुराने ढांचे और पुराने
ढंग की राजनीतिक समझ, खास तौर से सैद्धांतिक समझ के साथ आगे नहीं
बढ़ पाएंगे। अच्छी बात है कि आज वर्ग के साथ जाति के प्रश्न को कम्युनिस्ट
देखने की कोशिश कर रहे हैं।
जहां तक नक्सलबाड़ी में कानू सान्याल या
चारु मजूमदार की बात आप कर रहे है, कानू सन्याल की नहीं, चारु मजूमदार की सोच का एक बड़ा प्रयोग जरूर हुआ। इस
सोच में भी पूंजीवाद की लम्बी जिंदगी
के बारे में समझ नहीं थी। जैसे अन्य कम्युनिस्ट सोचते थे उसी तरह इस धारा के लोग भी
सोचते थे कि एक बेहतरीन बोल्शेविक पार्टी बना लें तो क्रांति हो जाएगी, जबकि पूंजीवाद का भारत में विभिन्न रूपों में विकास हुआ है, चाहे वह औद्योगिक पूंजीवाद हो या
आज का वित्तीय पूंजीवाद हो, इसने ऐसी उत्पादन शक्तियों को
जन्म दिया है, जिसने उनको मजबूत किया है। इन वस्तुगत
परिस्थितियों के अनुरूप जो कार्रवाई होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई।
उन्होंने
कहा कि चारु मजूमदार का जो नया प्रयोग था, उसमें समर्पण था, लेकिन राजनीतिक समझ भारतीय यथार्थ के विपरीत थी, इसलिए वह आंदोलन आगे नहीं बढ़
पाया। उसका एक प्रयोग भोजपुर में जरूर हुआ था, जाति और वर्ग के प्रश्न को हल करने की कोशिश की गई
थी। आईपीएफ (इंडियन पीपुल्स फ्रंट) भी बनाया गया था, लेकिन वह प्रयोग भी आगे नहीं बढ़
सका। अभी वहां जो माओवादी रह गए हैं, उनका एक विशेष क्षेत्र के आदिवासियों में आधार है, लेकिन उसे टिकाए रखना और आगे बढ़ाना संभव नहीं है।
मौजूदा
हालात में भारत में एक नया युग आ रहा है। आरएसएस और भाजपा देश को वित्तीय पूंजी के
अनुरूप बना रही हैं। पूरे राजनीतिक ढांचे को अंदर से अधिनायकवादी बनाने
की कोशिश हो रही है। इसके खिलाफ एक बड़ा जनवादी मंच बनाने की जरूरत है।
यह मोर्चाबंदी न हो, बल्कि इसके घटकों के बीच में एक
आर्गेनिक रिलेशनशिप हो। जैसा आजादी के दौर में कांग्रेस ने किया था। यह
प्रयोग का दौर है और हम इस प्रयोग में लगे हुए हैं और इसमें विकास हो रहा है।
अखिलेन्द्र
से जब यह पूछा गया कि दक्षिणपंथ पहले बहुत कमजोर था, कांग्रेस से लेकर तमाम संगठन और
वामपंथी पार्टियां मजदूरों के बीच काम कर
रही थीं, इसके बावजूद दक्षिणपंथ इतना कैसे हावी हो गया? तो उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है
कि दरअसल भारत में जितनी जनवादी धाराएं थीं, वह सभी एक मंच पर नहीं आ पाईं, जो एक प्रोग्राम के तहत एक साथ मिलकर काम करतीं।
कांग्रेस पूरी तरह से विफल और भ्रष्ट साबित हुई और वह दूसरी ताकतों से मिल गई, उससे भारत में एक जगह खाली हुई।
जिसे देश के जनवादियों की जगह दक्षिणपंथी
ताकतों ने भरा क्योंकि वी.पी. सिंह का मण्डल प्रयोग भी विफल हो गया। बहुत
सारे समाजवादी भाजपा के साथ खड़े हो गए। कम्युनिस्ट पार्टियां भारत में कोई राजनीतिक विकल्प
नहीं दे पायी। वे न तो वर्ग और जाति के प्रश्न को हल कर पाईं और न ही अधिनायकवाद
के खतरे के खिलाफ निपटने के लिए कोई क्षेत्र विशेष विकसित कर पायीं और न राष्ट्रीय स्तर पर कोई पहलकदमी ही ले पायीं।
अब वामपंथ
का काम आफिस केंद्रित हो गया है। वित्तीय पूंजी पहली बार एकतरफा ढंग से हिंदुत्व की
ताकतों को बढ़ावा दे रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत अमेरिकी खेमे की
तरफ जा रहा है। ऐसे समय में संकट और गहरा हो गया है। प्रशांत भूषण के केवल
राय देने पर उनके खिलाफ सजा का फैसला हो रहा है जिसका विरोध भी हो रहा है।
दक्षिणपंथ की ताकतें आज भी बहुत मजबूत हैं। उन्होंने सामाजिक संरचना को
अपने पक्ष में कर लिया है। वह पड़ोसी मुल्कों के साथ सीमा विवाद खड़ा करके
उन्माद पैदा करते हैं। परिस्थितियां उनके पक्ष में ज्यादा हैं। संकट गहरा
है, लेकिन उसको पलटा जा सकता है। इस समय ज़रुरत है कि देश
में सिविल सोसायटी के साथ ही अधिनायकवाद विरोध की ताकतें एक राजनीतिक मंच पर आएं, एक बहुवर्गीय ढांचा तैयार करें, उसमें सभी उत्पीड़ित समुदाय, जातियों और वर्गों को ले आया जाए
तो उन्हें बराबर की टक्कर दी जा सकती है और परास्त भी किया जा सकता है। सोचने का
तरीका बदलना होगा और राजनीतिक व्यवहार भी बदलना होगा।
भारत में
भाजपा और आरएसएस अप्राकृतिक चीज लेकर आ रही हैं। भारतीय स्वभाव और समाज से उसका
मेल नहीं है। हमारी बहुलता हमारा चरित्र है। हम अपने चरित्र में जनवादी
और लोकतांत्रिक हैं। अधिनायकवाद भारत में सफल नहीं होगा। यूरोप की नकल
करके नहीं, भारतीय संदर्भ में आधुनिकता के विचार नए सिरे
से ले जाने होंगे। जनता को इस सवाल पर हमें खड़ा करना होगा।
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