शनिवार, 15 दिसंबर 2018

सेकुलर बनाम पंथ निरपेक्ष


सेकुलर बनाम पंथ निरपेक्ष
पिछले हफ़्ते बड़ी बहस हुई. सेकुलर मायने क्या? धर्म-निरपेक्ष या पंथ-निरपेक्ष? धर्म क्या है? पंथ क्या है? अँगरेज़ी में जो 'रिलीजन' है, वह हिन्दी में क्या हैधर्म कि पंथ? हिन्दू धर्म है या हिन्दू पंथ? इसलाम धर्म है या इसलाम पंथ? ईसाई धर्म है या ईसाई पंथ? बहस नयी नहीं है. गाहे-बगाहे इस कोने से, उस कोने से उठती रही है. लेकिन वह कभी कोनों से आगे बढ़ नहीं पायी!
The Great Debate on Secularism via Constitution Day and Ambedkar
आम्बेडकर के बहाने, कई निशाने!
इस बार बहस कोने से नहीं, केन्द्र से उठी है! और बहस केन्द्र से उठी है, तो चलेगी भी, चलायी जायेगी! अब समझ में आया कि बीजेपी ने संविधान दिवस यों ही नहीं मनाया था. मामला सिर्फ़ 26 जनवरी के सामने 26 नवम्बर की एक नयी लकीर खींचने का नहीं था. और आम्बेडकर को अपने 'शो-केस' में सजाने का आयोजन सिर्फ़ दलितों का दिल गुदगुदाने और 'समावेशी' पैकेजिंग के लिए नहीं था! तीर एक, निशाने कई हैं! आगे-आगे देखिए, होता है क्या? गहरी बात है!आदिवासी नहीं, वनवासी क्यों?और गहरी बात यह भी है कि बीजेपी और संघ के लोग 'सेकुलर' को 'धर्म-निरपेक्ष' क्यों नहीं कहते? दिक़्क़त क्या है? और कभी आपका ध्यान इस बात पर गया कि संघ परिवार के शब्दकोश में 'आदिवासी' शब्द क्यों नहीं होता? वह उन्हें 'वनवासी' क्यों कहते हैं? आदिवासी कहने में दिक़्क़त क्या है? गहरे मतलब हैं!
Why 'Adivasi' becomes 'Vanvasi' in Sangh's lexicon?'
आदि' यानी प्रारम्भ से. इसलिए 'आदिवासी' का मतलब हुआ जो प्रारम्भ से वास करता हो! संघ परिवार को समस्या यहीं हैं! वह कैसे मान ले कि आदिवासी इस भारत भूमि पर शुरू से रहते आये हैं? मतलब 'आर्य' शुरू से यहाँ नहीं रहते थे? तो सवाल उठेगा कि वह यहाँ कब से रहने लगे? कहाँ से आये? बाहर से कहीं आ कर यहाँ बसे? यानी आदिवासियों को 'आदिवासी' कहने से संघ की यह 'थ्योरी' ध्वस्त हो जाती है कि आर्य यहाँ के मूल निवासी थे और 'वैदिक संस्कृति' यहाँ शुरू से थी! और इसलिए 'हिन्दू राष्ट्र' की उसकी थ्योरी भी ध्वस्त हो जायेगी क्योंकि इस थ्योरी का आधार ही यही है कि आर्य यहाँ के मूल निवासी थे, इसलिए यह 'प्राचीन हिन्दू राष्ट्र' है! इसलिए जिन्हें हम 'आदिवासी' कहते हैं, संघ उन्हें 'वनवासी' कहता है यानी जो वन में रहता हो. ताकि इस सवाल की गुंजाइश ही न बचे कि शुरू से यहाँ की धरती पर कौन रहता था! है न गहरे मतलब की बात!
Dharma, Panth, Religion and Secularism
धर्म-निरपेक्षता के बजाय पंथ-निरपेक्षता क्यों?
धर्म और पंथ का मामला भी यही है. संघ और बीजेपी के लोग सिर्फ़ 'सेकुलर' के अर्थ में 'धर्म' के बजाय 'पंथ' शब्द क्यों बोलते हैं? क्यों 'धर्म-निरपेक्ष' को 'पंथ-निरपेक्ष' कहना और कहलाना चाहते हैं? वैसे कभी आपने संघ या संघ परिवार या बीजेपी के किसी नेता को 'हिन्दू धर्म' के बजाय 'हिन्दू पंथ' बोलते सुना है? नहीं न! और कभी आपने उन्हें किसी हिन्दू 'धर्म-ग्रन्थ' को 'पंथ-ग्रन्थ' कहते सुना है? और अकसर आहत 'धार्मिक भावनाएँ' होती हैं या 'पंथिक भावनाएँ?''भारतीय राष्ट्र' के तीन विश्वासक्यों? इसलिए कि संघ की नजर में केवल हिन्दू धर्म ही धर्म है, और बाक़ी सारे धर्म, धर्म नहीं बल्कि पंथ हैं! और हिन्दू और हिन्दुत्व की परिभाषा क्या है? सुविधानुसार कभी कुछ, कभी कुछ! मसलन, एक परिभाषा यह भी है कि जो भी हिन्दुस्तान (या हिन्दूस्थान) में रहता है, वह हिन्दू है, चाहे वह किसी भी पंथ (यानी धर्म) को माननेवाला हो. यानी भारत में रहनेवाले सभी हिन्दू, मुसलमान, ईसाई और अन्य किसी भी धर्म के लोग हिन्दू ही हैं! और एक दूसरी परिभाषा तो बड़ी ही उदार दिखती है. वह यह कि हिन्दुत्व विविधताओं का सम्मान करता है और तमाम विविधताओं के बीच सामंजस्य बैठा कर एकता स्थापित करना ही हिन्दुत्व है. यह बात संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दशहरे के अपने पिछले भाषण में कही. लेकिन यह एकता कैसे होगी? अपने इसी भाषण में संघ प्रमुख आगे कहते हैं कि संघ ने 'भारतीय राष्ट्र' के तीन विश्वासों 'हिन्दू संस्कृति', 'हिन्दू पूर्वजों' और 'हिन्दू भूमि'के आधार पर समाज को एकजुट किया और यही 'एकमात्र' तरीक़ा है.
Sangh's model of Secularism
तब क्या होगा सरकार का धर्म?
यानी भारतीय समाज 'हिन्दू संस्कृति' के आधार पर ही बन सकता है, कोई सेकुलर संस्कृति उसका आधार नहीं हो सकती. और जब यह आधार 'हिन्दू संस्कृति', 'हिन्दू पूर्वज' और 'हिन्दू भूमि' ही है, तो ज़ाहिर है कि देश की सरकार का आधार भी यही 'हिन्दुत्व' होगा यानी सरकार का 'धर्म' (यानी ड्यूटी) या यों कहें कि उसका 'राजधर्म' तो हिन्दुत्व की रक्षा, उसका पोषण ही होगा, बाक़ी सारे 'पंथों' से सरकार 'निरपेक्ष' रहेगी? हो गया सेकुलरिज़्म! और मोहन भागवत ने यह बात कोई पहली बार नहीं कही है. इसके पहले का भी उनका एक बयान है, जिसमें वह कहते हैं कि 'भारत में हिन्दू-मुसलमान आपस में लड़ते-भिड़ते एक दिन साथ रहना सीख जायेंगे, और साथ रहने का यह तरीक़ा 'हिन्दू तरीक़ा' होगा!तो अब पता चला आपको कि सेकुलर का अर्थ अगर 'पंथ-निरपेक्ष' लिया जाये तो संघ को क्यों सेकुलर शब्द से परेशानी नहीं है, लेकिन 'धर्म-निरपेक्ष' होने पर सारी समस्या खड़ी हो जाती है!
गोलवलकर और भागवत
अब ज़रा माधव सदाशिव गोलवलकर के विचार भी जान लीजिए, जो संघ के दूसरे सरसंघचालक थे. अपनी विवादास्पद पुस्तक 'वी, आर अॉवर नेशनहुड डिफ़ाइंड' में वह कहते हैं कि हिन्दुस्तान अनिवार्य रूप से एक प्राचीन हिन्दू राष्ट्र है और इसे हिन्दू राष्ट्र के अलावा और कुछ नहीं होना चाहिए. जो लोग इस 'राष्ट्रीयता' यानी हिन्दू नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा के नहीं हैं, वे स्वाभाविक रूप से (यहाँ के) वास्तविक राष्ट्रीय जीवन का हिस्सा नहीं हैं...ऐसे सभी विदेशी नस्लवालों को या तो हिन्दू संस्कृति को अपनाना चाहिए और अपने को हिन्दू नस्ल में विलय कर लेना चाहिए या फिर उन्हें 'हीन दर्जे' के साथ और यहाँ तक कि बिना नागरिक अधिकारों के यहाँ रहना होगा.तो गोलवलकर और भागवत की बातों में अन्तर कहाँ है?

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

आरएसएस/भाजपा आदिवासी विरोधी एवं कार्पोरेटपरस्त


आरएसएस/भाजपा आदिवासी विरोधी एवं कार्पोरेटपरस्त
-एस.आर.दारापुरी आई.पी.एस (से.नि.) एवं संयोजक जन मंच



हाल में छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में चुनावी सभाओं में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दावा किया है कि भाजपा ही आदिवासियों  की सबसे बड़ी शुभ चिन्तक है और कांग्रेस ने अपने शासनकाल में इनके उत्थान के लिए कुछ भी नहीं किया है. उन्होंने इसमें आगे कहा  है कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भाजपा के लम्बे शासन ने आदिवासियों का बहुत सशक्तिकरण किया है और उसने ही आदिवासियों के महापुरुषों की मूर्तियाँ लगवा कर उन्हें सम्मानित किया है. उन्होंने आगे कहा है कि पहले जहाँ आदिवासियों के पास साईकल भी मुश्किल से होता था वहीं अब वह मोटर साईकल पर चलते हैं. उसका दावा है कांग्रेस के समय आदिवासियों के विकास का पैसा उन तक नहीं पहुंचता था. परन्तु अब उसके पूरे का पूरा पहुंचने के कारण उनका आश्चर्यजनक विकास हुआ है. भाजपा उक्त बातें कह कर आदिवासियों का वोट प्राप्त करके पुनः सत्ता में आने का प्रयास कर रही है.
आइये भाजपा के इस दावे का तथ्य परीक्षण करें:
यह सर्विदित है कि आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदायों का सदियों से जंगल पर अधिकार रहा है. परन्तु ब्रिटिश काल से लेकर देश के आज़ाद होने के बाद तक भी उन्हें हमेशा जल, जंगल और ज़मीन से बेदखल किया गया. यह करने के लिए अलग-अलग सरकारी कानूनों व नीतियों का प्रयोग होता रहा है. 1856 में अंग्रेजों ने मोटे पेड़ों के जंगलों पर कब्ज़ा करने का आदेश दिया. 1865 में पहला वन कानून लागू हुआ जिसने सामुदायिक वन संसाधनों को सरकारी संपत्ति में बदल दिया. 1878 में दूसरा वन कानून आया, जिसने आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदायों को जंगलों के हकदार नहीं बल्कि सुविधाभोगी माना. 1927 के वन कानून ने सरकार का जंगलों पर नियंत्रण और कड़ा कर दिया. इसके कारण हजारों वनवासियों को अपराधी घोषित किया गया और उन्हें जेल में कैद भी होना पड़ा. 1980 के वन संरक्षण कानून ने जंगलवासियों को जंगल में अतिक्रमणकारी घोषित कर दिया. 1988 की राष्ट्रीय वन नीति में वनवासियों की जंगल के संरक्षण व प्रबंधन में भागीदारी बढ़ाने के लिए संयुक्त वन प्रबंधन की रणनीति बनाई गयी. परन्तु वन विभाग ने इसमें गठित होने वाली वन सुरक्षा समितियों में सरकारी अधिकारियों को शामिल कर इस रणनीति को सफल नहीं होने दिया. परन्तु आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदाय ऐसे वन विरोधी कानूनों व नीतियों का विरोध करते रहे. इसको लेकर वनवासी वनक्षेत्रों में दूसरे के शासन का विरोध करते रहे, आज भी वनों पर अधिकार पाने के लिए आन्दोलन जारी है. इन्हीं संघर्षों का परिणाम है कि भारत सरकार को अनुसूचित जनजाति व् अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 (वनाधिकार कानून) बना कर उसे  2008 में लागू करना पड़ा.
वनाधिकार कानून दो तरह के अधिकारों को मान्यता देता है. 1. खेती के लिए वनभूमि का उपयोग करने का व्यक्तिगत या सामुदायिक अधिकार और 2, गाँव के अधिकार क्षेत्र के वन संसाधनों का उपयोग करने का अधिकार जिसमें लघु वन उपजों पर मालिकाना हक़ और वनों का संवर्धन, संरक्षण तथा प्रबंधन का सामुदायिक अधिकार शामिल है. इस कानून के अनुसार आदिवासी व अनन्य परम्परागत वन निवासी जो 13 दिसंबर 2005 के पहले से वन भूमि पर निवास या खेती करते आ रहे हैं और अपने और अपने परिवार की आजीविका के लिए उस वन भूमि पर निर्भर हैं, उनको वन भूमि का व्यक्तिगत पट्टा पाने का अधिकार है. इस प्रावधान के अंतर्गत जितनी वन भूमि पर दखल है, उतने पर ही अधिकार मिलेगा. यह अधिकार अधिकतम चार हेक्टेयर (10 एकड़) ज़मीन पर होगा. इस कानून के अंतर्गत वन अधिकार वन में निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी भूमि प्राप्त कर सकते हैं. वन में निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति का मतलब ऐसे सदस्य या समुदाय जो प्राथमिक रूप से वन में निवास करते हैं और अपनी आजीविका के लिए वनों पर या वनभूमि पर निर्भर करते हैं. अन्य परम्परागत वन निवासी का मतलब ऐसा कोई व्यक्ति या समुदाय जो 13 दिसंबर 2005 के पूर्व कम से कम 75 सालों से प्राथमिक रूप से वन या वन भूमि पर निवास करता रहा है और जो अपनी आजीविका की आवश्यकताओं के लिए वनों या वन भूमि पर निर्भर है.
अब अगर देखा जाये कि विभिन्न राज्यों में इस कानून का क्रियान्वयन किस तरह से किया गया है तो बहुत डरावनी स्थिति सामने आती है. इस कानून का आशय तो यह था कि आदिवासियों और वनवासियों को उनके कब्ज़े की ज़मीन का कानूनी तौर पर मालिक बना दिया जाये परन्तु व्यवहार में यह उनके विस्थापन का कानून सिद्ध हुआ है.  सदियों से वनभूमि पर रहने वाले लोग भूमि के मालिक बनने  की बजाये अवैध कब्जेदार घोषित हो गये हैं और कई राज्यों में तो उनको उजाड़ने की कार्रवाही भी शुरू हो गयी है. अब अगर अमित शाह के दावे के अनुसार झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र  और गुजरात राज्यों, जिनमे पिछले काफी लम्बे समय से भाजपा का शासन रहा है, में इस कानून को लागू करने की स्थिति को देखा जाये तो यह बहुत निराशाजनक दिखाई देती है. उदाहरण के लिए झारखंड जिसकी स्थापना से लेकर अब तक अधिकतर भाजपा का ही शासन रहा है, में आदिवासियों की आबादी 86.45 लाख है जो कुल आबादी का 26.2% है. इसमें आदिवासियों के कुल 16.99 लाख परिवार हैं. इस राज्य में वनाधिकार कानून के अंतर्गत मात्र 1.08 लाख दावे तैयार किये गये जिनमें से कुल 60,000 दावे स्वीकृत किये गये. इसी प्रकार छत्तीसगढ़ राज्य,  यहाँ पर पिछले 15 वर्ष से भाजपा का शासन रहा है,  में आदिवासियों की कुल आबादी 78.22 लाख है जो कुल आबादी का 30.6% है. इस राज्य में आदिवासियों के 17.43 लाख परिवार हैं . यहाँ वनाधिकार कानून के अंतर्गत कुल 8.88 लाख दावे तैयार किये गये जिनमें मात्र 4.16 लाख दावे ही स्वीकार किये गये. अब अगर मध्य प्रदेश जिसमें पिछले 10 साल से भाजपा का शासन रहा है, में आदिवासियों की आबादी 1.53 करोड़ है जो कुल आबादी का 21.1% है, में आदिवासियों के 31.22 लाख परिवार रहते हैं. इस राज्य में इस कानून के अंतर्गत कुल 6.17 लाख दावे तैयार किये गये जिनमें से केवल 2.52 लाख दावे ही स्वीकृत किये गये.
अब यदि मोदीजी के अपने राज्य जिस में वह स्वयम 15 साल मुख्य मंत्री रहे तथा अब भी भाजपा की ही सरकार है, को देखा जाये तो स्थिति बहुत ही खराब है. इस राज्य में अदिवासियों की कुल आबादी 89.17 लाख है जो कुल आबादी का 14.8% है. यहाँ पर उनके 17 लाख परिवार हैं जबकि वनाधिकार कानून के अंतर्गत केवल 1.90 लाख दावे तैयार किये गये जिनमें से केवल 87,215 दावे ही स्वीकार किये गये. अब अगर महाराष्ट्र जो कि पिछले कई सालों से भाजपा अथवा उसके सहयोगियों द्वारा शासित रहा है, को देखा जाये तो इस राज्य में आदिवासियों की कुल आबादी 1.05 करोड़ है जो कुल आबादी का 9.4% है और यहाँ पर उनके 21.56 लाख परिवार रहते हैं.  यहाँ पर वनाधिकार कानून के अंतर्गत केवल 3.72 लाख तैयार किये गये जिनमें से मात्र 1.21 लाख दावे ही स्वीकार किये गये. वनाधिकार कानून को लागू करने के मामले में इन भाजपा शासित राज्यों के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश ही ऐसा राज्य है जिसमें मायावती के शासनकाल में केवल 20% दावे जो कि पूरे देश में सबसे कम है, ही स्वीकार किये गये जो कि मायावती के दलित हितैषी होने के दावे की पोल खोल देता है. पूरे देश में गैर भाजपा शासित राज्य उड़ीसा और त्रिपुरा ही ऐसे दो राज्य हैं जहाँ पर स्वीकृत दावों का प्रतिशत 68.50 तथा 63.34% क्रमश रहा है. 
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि अमित शाह का भाजपा के आदिवासियों का सबसे बड़ा हितैषी होना का दावा बिलकुल झूठा है क्योंकि वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों को भूमि अधिकार दिलाने वाले कानून को भाजपा शासित राज्यों में बिलकुल विफल कर दिया गया है. इतना ही नहीं भाजपा को चलाने वाली आरएसएस तो इससे भी अधिक आदिवासी विरोधी है. उसके एक अनुषांगिक संगठन “वाईल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया” ने तो सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल करके यह मांग कर रखी है कि सुरक्षित वन की भूमि राष्ट्रपति महोदय के सीधे नियंत्रण में होती है और इस सम्बन्ध में संसद को कोई भी कानून बनाने का अधिकार नहीं है. अतः संसद द्वारा बनाया गया वनाधिकार कानून-2006 अवैधानिक घोषित किया जाये तथा अदिवासियों /वनवासियों  के कब्जे से मुक्त हुयी भूमि को तुरंत वनभूमि दर्ज करके वन विभाग को सौंपी जाये. इससे स्पष्ट हो जाता है की आरएसएस/ भाजपा का आदिवासी हितैषी होने का दावा निरा धोखा है. इस जनहित याचिका में फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून की वैधता के सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं दिया है परन्तु अवैध कब्जों की भूमि मुक्त कराकर वन विभाग को देने का आदेश पारित कर दिया है जिसके अनुपालन में कई राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश में आदिवासियों/वनवासियों की बेदखली शुरू हो गयी है. इससे स्पष्ट है कि एक तरफ भाजपा आदिवासी हितैषी होने का दावा करती है, दूसरी तरफ उसको चलाने वाली आरएसएस सुप्रीम कोर्ट से वनाधिकार कानून को ख़त्म करने का अनुरोध करती है. यह आरएसएस/भाजपा के दोगलेपन को पूरी तरह से नंगा कर देता है.
भाजपा शासित राज्यों सहित कुछ अन्य राज्यों में भी वनाधिकार कानून को जानबूझ कर विफल किया गया है क्योंकि वाम पंथियों को छोड़ कर सभी राजनितिक पार्टियाँ कार्पोरेट परस्त हैं. आरएसएस तो पूरी तरह से कार्पोरेट द्वारा पोषित है. अतः उसका कार्पोरेटपरस्त होना भी लाजिमी है. वर्तमान में जिस भूमि पर आदिवासी/वनवासी रहते हैं वह भूमि बहुत से खनिज पदार्थों  से भरी पड़ी है जिन पर कार्पोरेट्स की निगाह लगी हुयी है. अब अगर वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों/वनवासियों को उक्त भूमि का मालिकाना हक़ दे दिया जायेगा तो फिर उस भूमि को खाली कराने के लिए पुनर्वास और मुयाव्ज़े की मांग उठेगी. इस लिए वनाधिकार कानून को लागू न करके उन्हें अवैध कब्जाधारी घोषित करके उजाड़ना अधिक आसान होगा. इसी लिए खास करके भाजपा शासित राज्यों में जानबूझ कर वनाधिकार कानून लागू नहीं किया गया है जोकि आरएसएस/ भाजपा के आदिवासी/वनवासी विरोधी होने का सबसे बड़ा प्रमाण है.
यह भी विचारणीय है कि भाजपा आदिवासियों को आदिवासी न कह कर वनवासी क्यों कहती है? यह जानबूझ कर एक साजिश के अंतर्गत किया जा रहा है क्योंकि आरएसएस/ भाजपा को पता है कि आदिवासी कहने का मतलब होगा कि वे लोग जो यहाँ के मूल निवासी हैं यानिकी आदिवासी के इलावा बाकी लोग बाहर से आकर बसे हैं. इसका सीधा मतलब होगा कि आर्य लोग बाहर से आये हैं और वे यहाँ के मूल निवासी नहीं हैं. ऐसे में आरएसएस के लोग फिर किस मुंह से कहेंगे कि मुसलमान बाहरी हैं और हिन्दू यहां के मूल निवासी हैं. इसीलिए ये आदिवासियों को वनवासी कहते हैं. आरएसएस आदिवासियों को गुमराह करने का काम वनवासी कल्याण परिषद के माध्यम से करती है. बीबीसी को दिए साक्षात्कार में वनवासी कल्याण परिषद के एक पदाधिकारी ने कहा है,”वन में रहने वाले सारे लोग वनवासी हैं. ये सब भगवान राम के वंशज हैं. हम सब आदिवासी हैं. सबरी माता ने भगवान राम को जूठा बेर खिलवाया था और राम खाए थे. हमारे भगवान राम के साथ सबरी माता भी पूजनीय है.” इस ब्यान से स्पष्ट है कि किस तरह आदिवासियों को वनवासी बता कर उन्हें राम से जोड़ा जा रहा है. कौन नहीं जानता कि राम सूर्यवंशी क्षत्री थे. फिर भी आदिवासियों को जबरदस्ती भगवन राम के वंशज बता कर गुमराह किया जा रहा है. वास्तव में अदिवासियों को आदिवासी कहने से मूलनिवासी और विदेशी आर्यों का प्रशन खड़ा हो जाता है जिससे  हिंदुत्व की राजनीति का माडल भी ध्वस्त हो जाता है. इसके अतिरिक्त आरएसएस आदिवासियों का धर्म, संस्कृति, देवी देवता और रस्मो-रिवाज़ बदल कर उनकी पहचान नष्ट करना चाहती है जबकि संविधान में उन्हें जनजातियों की पहचान दी गयी है और उन्हें आरक्षण एवं आदिवासी क्षेत्रों में विशेष प्रशासन व्यवस्था दी गयी है. आरएसएस उनकी आदिवासी की पहचान नष्ट करके उन्हें अपने विरोधियों के खिलाफ सैनिकों के तौर पर इस्तेमाल करती है. आदिवासियों को उनकी इस चाल को समझ कर उससे बच कर रहना होगा.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि लगभग सभी आदिवासी क्षेत्र विकास में बुरी तरह से पिछड़े हुए हैं. यद्यपि आदिवासियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिला हुआ है परन्तु सरकारी नौकरियों में केवल 4.36% परिवार ही नौकरी पा सके हैं. सामाजिक आर्थिक जनगणना-2011 के अनुसार 86.53% आदिवासी परिवारों की मासिक आमदन 5,000 से कम है. केवल 8.95% परिवारों की मासिक आय 5,000 से 10,000 तक है और 4.48% परिवारों की मासिक आय 10,000 से अधिक है. इससे स्पष्ट है कि अधिकतर आदिवासी परिवार गरीबी की रेखा के निचे हैं. यद्यपि अधिकतर आदिवासी जंगल और पहाड़ वाले क्षेत्रों  में रहते हैं परन्तु उन में से 56% परिवार भूमिहीन हैं. इनमे से 51% परिवार केवल हाथ का श्रम कर सकते हैं और 90% परिवार नियमित तनखाह वाली नौकरियों के बिना हैं. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि अमित शाह का आदिवासियों का अप्रत्याशित विकास करने का दावा एक दम झूठा है  
इतना ही नहीं आरएसएस आदिवासियों का जबरदस्ती हिन्दुकरण करके उन्हें ईसाई बने आदिवासियों के खिलाफ भड़काती और लड़ाती है. इसके साथ ही नक्सल प्रभावित राज्यों जैसे छत्तीसगढ़ में उनके एक तबके को सरकारी तौर पर हथियार देकर सलवा जुड़म जैसे संगठनों के माध्यम से अपने ही लोगों को मरवाती है. लगभग सभी भाजपा शासित राज्यों में आदिवासियों का धर्म परिवर्तन रोकने के लिए क़ानून बने हैं. इससे उनका ईसाईकरण तो रुक गया है परन्तु आरएसएस द्वारा उनका हिन्दुकरण खुले आम किया जा रहा है. यह अधिकतर भाजपा शासित राज्यों में हो रहा है.
उपरोक्त संक्षिप्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि आरएसएस/भाजपा का आदिवासी हितैषी होने का दावा बिलकुल खोखला है . इसके विपरीत उसके कार्यकलाप आदिवासी विरोधी तथा कार्पोरेट परस्त हैं. आरएसएस तो उनकी आदिवासी की पहचान ख़त्म करके उनके धर्म, संस्कृति और अस्तित्व को ही समाप्त करने पर तुली है. जैसाकि ऊपर दर्शाया गया है कि उनके सशक्तिकरण हेतु बनाये गये वनाधिकार कानून को भाजपा शासित राज्यों में जानबूझ कर लागू नहीं किया गया है. आरएसएस तो सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से इस कानून को ही ख़त्म कराने के प्रयास में लगी है. भाजपा सरकारें नक्सल प्रभावित राज्यों में आदिवासियों की जल, जंगल और ज़मीन सम्बन्धी समस्यायों को हल करने की बजाये उन्हें नक्सलवादी कह कर मार रही हैं और उन्हें  जंगल से उजाड़ने में लगी हैं. अतः आदिवासियों को आरएसएस/भाजपा से बहुत सतर्क रहने की ज़रुरत है क्योंकि वह आदिवासी विरोधी और कार्पोरेट परस्त है.
  





बुधवार, 7 नवंबर 2018

''मै भंगी हूं`` आज भी प्रासंगिक है।


''मै भंगी हूं`` आज भी प्रासंगिक है
-       संजीव खुदशाह
सन् १९८३-८४ के आस-पास जब मैं छठवीं क्लास में था। समाज के सक्रीय कार्यकर्ताओं की बैठक मेंमै भी शामिल हो जाया करता था। वहीं पर पहली दफा यह तथ्य सामने आया कि हमारे बीच के एक सुप्रीम कोर्ट के जज (वकील है ये जानकारी बाद में हुई) है,जो समाज के लिए भी काम कर रहे है। मुझे इस जज के बारे में और जानने की उत्सुकता हुईकिन्तु ज्यादा जानकारी नही मिल सकी । इस दौरान मैने डा. अम्बेडकर की आत्मकथा पढ़ी। दलित समाज के बारे में और जानने पढ़ने की इच्छा जोर मार रही थी। रिश्ते के मामाजी जो वकालत की पढ़ाई कर रहे थेमुझे किताबे लाकर देते थे और मै उन्हे पढ़कर वापिस कर देता था । उन्हेाने अमृतलाल नागर की 'नाच्यो बहुत गोपालाउपन्यास लाकर दी परिक्षाएं नजदीक होने के कारण उसे मै पूरा न पढ़ सका । पढ़ाई को लेकर बहुत टेन्शन रहता था। माता-पिता को मुझसे बड़ी अपेक्षाऐ थी जैसा कि सभी माता-पिता को अपने बच्चों से रहती है। चूंकि मै मेघावी छात्र था इसलिए कक्षा में अपना स्थान बनाए रखने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ती थी। इस समय मेरे मन में समाज के लिए कुछ करने हेतु इच्छा जाग चुकी थी इसलिए कम उम्र का होने पर भी मै सभी सामाजिक गतिविघियों में भाग लेने लगा। इसी दौरान मामाजी ने मुझे यह किताब लाकर दी ''मै भंगी हूं`` इसे मैने दो-तीन दिनों में ही पढ़  डाली। मन झकझोर देनेवाली शैली में लिखी इस किताब ने मुझे बहुत अंदर तक प्रभावित किया। चूंकि मेरी आर्थिक हालत अच्छी नही थीइसलिए इस किताब को मै खरीद नही पाया। पिताजी की छोटी सी नौकरी के साथ घर का खर्च बड़ी कठिनाई से चल पाता था।
मैं भंगी हूं किताब पढ़ते समय भी मुझे यह जानकारी नही थी। कि ये वही सुप्रीम कोर्ट के जज हैजिनके बारे मे मैने सुना था। बाद में मुझे अन्य बुद्धि जीवियों से मुलाकात के दौरान ज्ञात हुआ कि वे जज नही बल्कि सुप्रीम कोर्ट के वकील हैजिन्होने मै भंगी हूं किताब की रचना की है। मैने एक चिट्ठी एड. भगवानदास जी के नाम लिखीजिसमें मै भंगी हूं की प्रशंसा की थी।
अत्यधिक सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के कारण तथा चिन्तन के कारण मै स्कूल की पढ़ाई की ओर ध्यान नही दे पा रहा था। माता-पिता चिन्तित रहने लगे। मां ने अपने पिता यानी मेरे नानाजी को यह बात बताई । नानाजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के साथ-साथ समाज-सेवक भी थे। मै उनसे बहुत प्रभावित था। मै नानाजी की हर बात को बड़े ध्यान से सुनता था। वे रिलैक्स होकर बहुत रूक-रूक कर बाते करते थे। उन्होने मुझे एक दिन अपने पास बिठाकर  पूछा कि -
''तुम क्या करना चाहते हो..?``
''मैं अपने समाज को ऊपर उठाना चाहता हूं।`` मैंने गर्व से अपना जवाब दिया। यह सोचते हुए कि नानाजी मेरा पीठ थपथपायेगें। मेरा उत्साहवर्धन करेगें।
''जब तुम खुद ऊपर उठोगे तथा ऐसी मजबूत स्थिति में पहुँच जाओगे कि तुम्हारे नीचे आने का भय नही होगातभी तो तुम दूसरों को ऊपर उठा सकोगे। ये तो बड़े दुख की बात है कि तुम तो खुद नीचे हो और दूसरों को उपर उठाना चाहते हो। ऐसी उल्टी धारा तो मैं ने कही नही देखी।``-उन्होने कहा उनकी इस बात का मेरे जेहन में बहुत असर हुआ और सामाजिक गतिविधियों पर से ध्यान हटाते हुए मैने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना प्रारंभ किया । १९९८ में मुझे शासकीय नौकरी मिलीइसी बीच मैं सुदर्शन समाजवाल्मीकि समाज के कार्य-क्रमों में एक दर्शक की भंाति जाता था। मुझे सुदर्शन ऋषि का इतिहास जानने की इच्छा होती मै इस समाज के नेताओं से इस बाबत पूछताछ करता तो सब अपनी बगले झाकनें लगते। मैने इसका इतिहास विकास उत्पत्ति हेतु सामग्री इकट्ठी करनी शुरू की। मैं जैसे-जैसे किताबों का अध्ययन करता गया , मेरी आंखो से धुंध छॅटती गई। अब सुदर्शन ऋषिवाल्मीकि ऋषि एवं उनके नाम पर समाज का नामाकरण मुझे गौण लगने लगा। डा. अम्बेडकर की शूद्र कौन और कैसे ? तथा अछूत कौन हैपढ़ी तो पूरी स्थिति स्पष्ट हो गई। दलित आन्दोलन से ही समाज ऊपर उठ सकता हैमुझे विश्वास हो गया। मैने अपनी चर्चित पुस्तक ''सफाई कामगार समुदाय`` पर काम करना प्रारंभ किया । कई किताबोंलाइब्रेरियों की खाक छानी बुद्धिजीवियों के इन्टरव्यू लिये। इसी परिप्रेक्ष्य में मेरा दिल्ली आना हुआ और मेरी मुलाकात एड. भगवान दास जी से हुई। मैने पहले उनसे फोन पर बात कीउन्होने शाम को मिलने हेतु समय दिया। जब शाम को फ्लैट में उनसे मुलाकात हुई तो देखा सफेद बाल वालेउची कद के बुजुर्ग कक्ष मे किताबों से घिरे बैठे है। मैंने उन्हे बताया कि मैं उनकी किताब से बहुत प्रभावित हूं तथा उन्हे एक चिट्ठी भी लिखी थी । अभी मैं  इस विषय पर रिसर्च कर रहा हूं। उन्होने कहा चिट्ठी इस नाम से मुझे मिली थी । मैने सफाई मुद्दे पर कई प्रश्न पूछे उन्होने बड़ी ही संजीदगी के साथ मेरे प्रश्नों का उत्तर दिया । उन्हे यकीन नही हो रहा था कि मै ऐसा कोई गंभीर काम करने जा रहा हूं। वे इसे मेरा लड़कपन समझ रहे थे । उनका व्यवहारउनके मन की बात मुझे अनायास ही एहसास करा रही थी। वे कह रहे थे लिखने-विखने मे मत पड़ो और खूब पढ़ो । उन्होने अंग्रेजी की कई किताबे मुझे सुझाई । मैंने उनको नोट किया। ये किताबे मुझे उपलब्ध नही हो पाई। शायद आउट आफ प्रिन्ट थी । उन्होने अपनी लिखी कुछ किताबे मुझे दी और अपने पुत्र से कहने लगेइनसे किताब के पैसे जमा करा लो । मैने एक किताब ली और शेष किताबे पैसे की कमी होने के कारण नही ले सका । यही मेरी उनसे पहली मुलाकात थी । उनसे मैने उनकी जाति सम्बन्धी प्रश्न पूछालेकिन वे टाल गये । शायद वे मुझे सवर्ण समझ रहे होगें। मै लौट आया ।
इस समय राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक श्री अशोक महेश्वरी जी ने इस किताब को प्रकाशित करने हेतु सहमति दे दी थी। २००५ को यह किताब प्रकाशित होकर बाजार में उपलब्ध हो गई। नेकडोर ने सन २००७ को दलितों का द्वितीय अधिवेशन आयोजित किया। उन्होने मुझे सफाई कामगार सेशन के प्रतिनिधित्व हेतु आमंत्रित किया। दिल्ली में हुए इस कार्यक्रम में एड. भगवानदास जी भी आये थे। मैने उनसे मुलाकात की एवं हालचाल पूछा लेकिन वे मुझे पहचान नही पा रहे थे। शायद उनकी स्मरण-शक्ति कुछ कम हो गई थी। कुछ लोग विभिन्न भाषा में ''मै भंगी हूं`` किताब के अनुवाद प्रकाशित होने पर बधाई दे रहे थे। मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ अनुवाद के बारे मे उन्होने अनभिज्ञता जाहिर की। वे बधाई सुनकर बिल्कुल नार्मल थे। कोई घमंण्ड का भाव नही था। सबसे साधारण ढंग से मुलाकात कर रहे थे।
जब सफाई कामगारों पर सेशन प्रारंभ हुआ तो वे स्टेज में मेरी बगल में बैठे थे। मुझे अपने बचपन के वे दिन याद आने लगे,जब सामाजिक गतिविधियों में इनके बारे में चर्चा सुना करता था। बड़े ही गर्व से लोग इनके कार्यो की प्रसंशा करते थे। आज मै अपने-आपको सबसे बड़ा सौभाग्यशाली समझता हूं कि उनके साथ मुझे वक्तव्य देने का मौका मिला। स्टेज पर ही उन्होने मुझसे पूछा-
''संजीव खुदशाहजीआप ही हैं न..?``
''जी हां`` -मैने कहां ।
''मैने आपकी किताब देखीबहुत ही अच्छी लिखी है आपने । इस विषय पर इस तरह की ये पहली किताब है।`` - उन्होने कहा ।
इतना सुन कर मेरी आंखे नम हो गई। मैने उनको धन्यवाद दिया और कहा - ''आदरणीय इस किताब में आपका भी जिक्र है। मैने शोध के दौरान आपका इन्टरव्यू भी लिया था।``
वे मेरी ओर देखते हुए अपनी भृकुटियों में जोर डाल रहे थेसाथ ही सहमति में सिर भी हिला रहे थे।
आज उनकी जितनी भी किताबे उपलब्ध हैवह भंगी विषय पर पहले पहल किये गये काम का उदाहरण है। वे ये कहते हुए बिल्कुल भी नही शर्माते है कि उन्हे हिन्दी नही आती (आशय संस्कृत निष्ठ हिन्दी से है।)। फिर भी साधारण भाषा में लोकप्रिय साहित्य की रचना उन्होने की है। अपनी शैली के बारे में वे लिखते हैं कि मैं भागवतशरण उपध्याय की ''खून के छीटे इतिहास के पन्ने पर`` पुस्तक की शैली से प्रभावित हूं। अंग्रेजी और उर्दू भाषा पर वे अपना समान अधिकार समझते है। बावजूद इसके हिन्दी में उनकी कृति ''मैं भंगी हूं``आज भी प्रासंगिक है।



मंगलवार, 6 नवंबर 2018

उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को विफल कराने के गुनाहगार


उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को विफल कराने के गुनाहगार
-एस.आर.दारापुरी पूर्व आई. जी. एवं संयोजक जन मंच

यह सर्विदित है कि आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदायों का सदियों से जंगल पर अधिकार रहा है. परन्तु ब्रिटिश काल से लेकर देश के आज़ाद होने के बाद तक भी उन्हें हमेशा जल, जंगल और ज़मीन से बेदखल किया गया. यह करने के लिए अलग-अलग सरकारी कानूनों व नीतियों का प्रयोग होता रहा है. 1856 में अंग्रेजों ने मोटे पेड़ों के जंगलों पर कब्ज़ा करने का आदेश दिया. 1865 में पहला वन कानून लागू हुआ जिसने सामुदायिक वन संसाधनों को सरकारी संपत्ति में बदल दिया. 1878 में दूसरा वन कानून आया, जिसने आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदायों को जंगलों के हकदार नहीं बल्कि सुविधाभोगी माना. 1927 के वन कानून ने सरकार का जंगलों पर नियंत्रण और कड़ा कर दिया. इसके कारण हजारों वनवासियों को अपराधी घोषित किया गया और उन्हें जेल में कैद भी होना पड़ा. 1980 के वन संरक्षण कानून ने जंगलवासियों को जंगल में अतिक्रमणकारी घोषित कर दिया. 1988 की राष्ट्रीय वन नीति में वनवासियों की जंगल के संरक्षण व प्रबंधन में भागीदारी बढ़ाने के लिए संयुक्त वन प्रबंधन की रणनीति बनाई गयी. परन्तु वन विभाग ने इसमें गठित होने वाली वन सुरक्षा समितियों में सरकारी अधिकारियों को शामिल कर इस रणनीति को सफल नहीं होने दिया. परन्तु आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदाय ऐसे वन विरोधी कानूनों व नीतियों का विरोध करते रहे. इसको लेकर वनवासी वनक्षेत्रों में दूसरे के शासन का विरोध करते रहे, आज भी वनों पर अधिकार पाने के लिए आन्दोलन जारी है. इन्हीं संघर्षों का परिणाम है कि भारत सरकार को वनाधिकार कानून-2006 को 2008 को लागू करना पड़ा.
वनाधिकार कानून दो तरह के अधिकारों को मान्यता देता है. 1. खेती के लिए वनभूमि का उपयोग करने का व्यक्तिगत या सामुदायिक अधिकार और 2, गाँव के अधिकार क्षेत्र के वन संसाधनों का उपयोग करने का अधिकार जिसमें लघु वन उपजों पर मालिकाना हक़ और वनों का संवर्धन, संरक्षण तथा प्रबंधन का सामुदायिक अधिकार शामिल है. इस कानून के अनुसार आदिवासी व अनन्य परम्परागत वन निवासी जो 13 दिसंबर 2005 के पहले से वन भूमि पर निवास या खेती करते आ रहे हैं और अपने और अपने परिवार की आजीविका के लिए उस वन भूमि पर निर्भर हैं, उनको वन भूमि का व्यक्तिगत पट्टा पाने का अधिकार है. इस प्रावधान के अंतर्गत जितनी वन भूमि पर दखल है, उतने पर ही अधिकार मिलेगा. यह अधिकार अधिकतम चार हेक्टेयर (10 एकड़) ज़मीन  पर होगा. इस कानून के अंतर्गत वन अधिकार वन में निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी भूमि प्राप्त कर सकते हैं. वन में निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति का मतलब ऐसे सदस्य या समुदाय जो प्राथमिक रूप से वन में निवास करते हैं और अपनी आजीविका के लिए वनों पर या वनभूमि पर निर्भर करते हैं. अन्य परम्परागत वन निवासी का मतलब ऐसा कोई व्यक्ति या समुदाय जो 13 दिसंबर 2005 के पूर्व कम से कम 75 सालों से प्राथमिक रूप से वन या वन भूमि पर निवास करता रहा है और जो अपनी आजीविका की आवश्यकताओं के लिए वनों या वन भूमि पर निर्भर है.
वन अधिकार दिलाने में ग्रामसभा की वनाधिकार समिति, तहसील स्तरीय वनाधिकार समिति और जिलास्तरीय वनाधिकार समिति की महत्वपूर्ण भूमिका है. वनाधिकार कानून में ग्रामसभा को अपने अधिकार क्षेत्र में वनों पर व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों की प्रकृति तथा सीमा तय करने की प्रक्रिया आरम्भ करने, दावा स्वीकार करने, दावों का भौतिक सत्यापन करके दावित भूमि का नक्शा तैयार करवाने तथा तहसील स्तरीय वनाधिकार समिति के पास अनुशंसा करने का अधिकार है. तहसील स्तरीय वनाधिकार समिति का काम इन दावों का परीक्षण कर उसे स्वीकृति हेतु जिलास्तरीय वनाधिकार समिति के पास भेजने का है.  जिलास्तरीय वनाधिकार समिति इस दावे को अंतिम रूप से स्वीकार करने के लिए अधिकृत है. इस कानून में यदि कोई भी समिति किसी दावे को निरस्त करती है तो उसे दावेदार को कारण सहित नोटिस भेजना  होगा जिस पर दावेदार उस समिति से ऊपर वाली समिति के पास अपील कर सकता है. इस एक्ट में यह भी कहा गया है की कोई भी दावा तकनीकी कारणों से रद्द नहीं किया जायेगा तथा इसमें अधिक से अधिक दावेदारों को भूमि का पट्टा दिया जाना चाहिए. परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं किया गया. दावेदारों के दावे आँख बंद करके निरस्त कर दिए गये या उन्हें अब तक लंबित रखा गया है. दावेदारों को आज तक उनके दावे निरस्त करने सम्बन्धी कोई भी सूचना नहीं दी गयी. इसके परिणामस्वरूप बहुत कम लोगों को भूमि के पट्टे दिए गये और इसमें जो भूमि दी भी गयी है वह दावों की अपेक्षा बहुत कम दी गयी है.
आइये अब ज़रा उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को लागू करने का जायजा लिया जाये. उत्तर प्रदेश में आदिवासी(अनुसूचित जनजाति) की आबादी 1 लाख 7 हजार है और यह उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का लगभग o.1% है. आदिवासियों की अधिकतर आबादी सोनभद्र, मिर्ज़ापुर, चंदौली, बलरामपुर,बहरायच और इलाहाबाद में है. आदिवासियों की अधिकतर आबादी जंगल क्षेत्र में रहती है और उन क्षेत्रों में वनाधिकार कानून लागू होता है.
आदिवासियों के सशक्तिकरण हेतु वनाधिकार कानून- 2006 तथा नियमावली 2008 में लागू हुयी थी. इस कानून के अंतर्गत सुरक्षित जंगल क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों तथा गैर आदिवासियों को उनके कब्ज़े की आवासीय तथा कृषि भूमि का पट्टा दिया जाना था. इस सम्बन्ध में आदिवासियों द्वारा अपने दावे प्रस्तुत किये जाने थे. उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी परन्तु उसकी सरकार ने इस दिशा में कोई भी प्रभावी कार्रवाही नहीं की जिस का नतीजा यह हुआ कि 30.1.2012 को उत्तर प्रदेश में आदिवासियों द्वारा प्रस्तुत कुल 92,433 दावों में से 73,416 दावे अर्थात 80% दावे रद्द कर दिए गए और केवल 17,705 अर्थात केवल 20% दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1,39,777 एकड़ भूमि आवंटित की गयी. मायावती सरकार की आदिवासियों को भूमि आवंटन में लापरवाही और दलित/आदिवासी विरोधी मानसिकता को देख कर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के घटक आदिवासी-वनवासी महासभा ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की थी जिस पर उच्च न्यायालय ने अगस्त, 2013 में राज्य सरकार को वनाधिकार कानून के अंतर्गत दावों को पुनः सुन कर तेज़ी से निस्तारित करने के आदेश दिए थे परन्तु उस पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया. इस प्रकार मायावती तथा मुलायम सरकार की लापरवाही तथा दलित /आदिवासी विरोधी मानसिकता के कारण 80% दावे रद्द कर दिए गए. उत्तर प्रदेश सरकार ने यह भी दिखाया है कि सरकारी स्तर पर कोई भी दावा लंबित नहीं है.
इसी प्रकार दिनांक 30.04.2016 तक राष्ट्रीय स्तर पर कुल 44,23,464 दावों में से 38,57,379 दावों का निस्तारण किया गया जिन में केवल 17,44,274 दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1.03,58,376 एकड़ भूमि आवंटित की गयी जो कि प्रति दावा लगभग 5 एकड़ बैठती है. राष्ट्रीय स्तर पर अस्वीकृत दावों की औसत 53.8 % है जब कि उत्तर प्त्देश में यह 80.0% है. इससे स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को लागू करने में घोर लापरवाही बरती गयी है जिस के लिए मायावती तथा मुलायम सरकार बराबर के ज़िम्मेदार हैं. दलितों को भूमि आवंटन तथा आदिवासियों के मामले में वनाधिकार कानून को लागू करने में राज्यों तथा केन्द्रीय सरकार द्वारा जो लापरवाही एवं उदासीनता दिखाई गयी है उससे स्पष्ट है सत्ताधारी पार्टियाँ तथा दलित एवं गैर दलित पार्टियाँ नहीं चाहतीं कि दलितों/आदिवासियों का सशक्तिकरण हो.
अब जब 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की बहुमत की सरकार आई तो उन्होंने सबसे पहले यह आदेश दिया कि सरकारी भूमि पर जितने भी अवैध कब्जे हैं उन्हें तुरंत हटाया जाये. इस कार्य को सख्ती से लागू करवाने हेतु एंटी भूमाफिया टास्क फ़ोर्स का गठन भी किया गया. इस आदेश पर वन विभाग, राजस्व विभाग तथा पुलिस विभाग द्वारा तुरंत कार्रवाही शुरू कर दी गयी. अब चूँकि संरक्षित वन क्षेत्र में वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों/वन निवासियों के 80% दावे रद्द कर दिए गये थे अतः उन सबके पास भूमि को अवैध कब्जे वाली मान कर बेदखली की कार्रवाही शुरू कर दी गयी. इससे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र नौगढ़ (चंदौली) तथा सोनभद्र जिलों में हाहाकार मच गयी और आदिवासियों के ऊपर भूमाफिया कह कर मुकदमे तथा बेदखली शुरू हो गयी. बहुत सी गिरफ्तारियां की गयीं तथा अभी भी की जा रही हैं. तहसील दुद्धी में एक 90 वर्ष के आदिवासी पर पेड़ काट कर कब्ज़ा करने का मुकदमा दर्ज किया गया जबकि उसके पास ज़मीन का पट्टा भी है.
सरकार की आदिवासियों के विरुद्ध दमन की कार्रवाही को रुकवाने तथा उनके दावों का पुनर्परीक्षण करवाने को लेकर आदिवासी-वनवासी महासभा द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गयी जिस पर उच्च न्यायालय द्वारा दिनांक 24/11/2017 को स्थगन आदेश जारी किया गया  जिससे आदिवासियों की बेदखली रुक सकी.  इसके बाद हाई कोर्ट ने 11 अक्तूबर, 2008 को यह आदेश दिया है कि 6 हफ्ते में सभी आदिवासी अपने नये दावे अथवा पुराने दावों की अपील दाखिल कर सकते हैं. प्रशासन इनका 12 हफ्ते में परीक्षण करके निस्तारण करेगा. परन्तु यह बड़े खेद की बात है भाजपा निर्देशित प्रशासन आदिवासियों के दावे नहीं ले रहा है. लगता है इस सम्बन्ध में फिर हमें उच्च न्यायालय की शरण में जाना पड़ेगा.
इस जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान ही यह पता चला कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का अवैध कब्जों को हटवाने का आदेश वाईल्ड  लाईफ ट्रस्ट आफ इंडिया द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल जनहित याचिका में दिए गये आदेश के अनुपालन में था. इस संस्था द्वारा दायर जनहित याचिका में यह कहा गया है कि संरक्षित वन की ज़मीन राष्ट्रपति महोदय के सीधे नियंत्रण में होती है और इस सम्बन्ध में संसद अथवा कार्यपालिका को कोई भी कानून बनाने का अधिकार नहीं है. अतः इस भूमि को आदिवासियों/वन निवासियों को देने सम्बन्धी बनाया गया कानून असंवैधानिक है जिसे तुरंत रद्द किया जाना चाहिए. इसके साथ ही यह भी अनुरोध किया गया था की इस कानून के अंतर्गत पट्टे के दावों से मुक्त भूमि को तुरंत खाली कराकर वन विभाग को दिया जाये. फिलहाल सुप्रीम कोर्ट वनाधिकार कानून की वैधता को देख रही है परन्तु भूमि को मुक्त कराकर वन विभाग को देने का आदेश लागू हो गया है.
गहराई से जांच करने पर पता चला है कि सुप्रीम कोर्ट में उपरोक्त जनहित याचिका दायर करने वाली संस्था का सम्बन्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से है. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो आरएसएस आदिवासी क्षेत्रों में घुस कर आदिवासी हितैषी होने का दावा करती है वह वास्तव में आदिवासियों को जमीन देने के पक्ष में नहीं है.इसका मुख्य कारण  यह है कि आरएसएस वास्तव में कार्पोरेटपरस्त है क्योंकि कार्पोरेटस ही उसके हिंदुत्व के एजंडे को आगे बढ़ा रहे हैं. चूँकि पूरे देश में जहाँ जहाँ आदिवासी रहते हैं वहां पर ज़मीन के नीचे कोयला, लोहा, अल्म्युनिय्म तथा अन्य कीमती खनिज हैं जिन पर कार्पोरेट्स की नजर है. अब अगर वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों को ज़मीन का पट्टा दे दिया जायेगा तो इन्हें कार्पोरेट्स के लिए खाली  कराने में परेशानी होगी.  इसी लिए सबसे आसान रास्ता यही है कि उन्हें ज़मीन के पट्टे ही न दिए जाएँ ताकि भविष्य में उन्हें आसानी से खाली कराया जा सके. यह बात इससे से भी स्पष्ट हो जाती है की वर्तमान में जिन जिन राज्यों में आदिवासी रह रहे हैं उनमे भाजपा की सरकारें हैं जिन्होंने वनाधिकार कानून को जानबूझ कर लागू नहीं किया है. इसकी सबसे बड़ी उदाहरण झारखण्ड है जहाँ पर राज्य के बनने से लेकर अब तक अधिकतर भाजपा की सरकार रही है. झारखण्ड में आदिवासियों  की कुल आबादी लगभग 87 लाख है परन्तु वहां पर वनाधिकार के अंतर्गत केवल 1 लाख 30 हजार दावे तैयार किये गये जिनमें  से 64 हजार दावे रद्द कर दिए गये. यही स्थिति मध्य प्रदेश, गुजरात तथा महाराष्ट्र में है. इससे से स्पष्ट है कि आरएसएस घोर आदिवासी विरोधी है. उड़ीसा में भी ऐसा ही बुरा हाल है. यह भी सही है कि पूर्व में कांग्रेस शासित राज्यों में भी इसको विफल किया गया था.
 आरएसएस के आदिवासी विरोधी होने का एक और पहलू यह है कि आरएसएस उन्हें आदिवासी न कह कर वनवासी कहती है. इसके पीछे उसका मकसद आदिवासियों की अलग पहचान को ख़त्म करके उन्हें हिंदुत्व की छत्रछाया में लाना है. यह सर्वविदित है कि आदिवासियों का अपना धर्म, अपनी संस्कृति और अपने देवी देवता हैं तथा उनको कुछ विशेष संवैधानिक अधिकार भी मिले हुए हैं और आदिवासी क्षेत्रों की अलग प्रशासनिक व्यवस्था है. परन्तु आरएसएस उनकी इस अलग पहचान को ख़त्म करके एकात्मवाद को लागू करना चाहती है. इसी लिए आरएसएस या तो आदिवासियों का हिन्दुकरण करके उन्हें अपने हिन्दुत्ववादी एजंडे में शामिल करना चाहती है या फिर उनका दमन करके उनके प्रतिरोध को कुचलना चाहती है. आरएसएस को पता है कि यदि पृथक आदिवासी पहचान को यथावत बना रहने दिया गया तो यह यह उनकी हिंदुत्व की राजनीति के लिए बड़ा खतरा बना रहेगा. अतः वह  उन्हें आदिवासी न कह कर वनवासी कहती है जोकि उसकी सोची समझी चाल है.
अतः उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि वनाधिकार कानून को विफल करने के गुनाहगार सबसे पहले मायावती, उसके बाद समाजवादी पार्टी तथा अब आरएसएस/भाजपा हैं. यदि 2008 में मायावती सरकार द्वारा वनाधिकार कानून को सख्ती से लागू करके ज़मीन के पट्टे दे दिए गये होते तो आदिवासियों का कितना कल्याण हो गया होता. इसके बाद यदि अखिलेश की समाजवादी सरकार ने ही हाई कोर्ट के आदेश का अनुपालन करा दिया होता तो अब भाजपा सरकार द्वारा उन्हें अवैध कब्जाधारी कह कर बेदखल करने का मौका नहीं मिलता. वनाधिकार कानून को लागू कराने के दौरान आरएसएस/भाजपा का आदिवासी विरोधी चेहरा भी पूरी तरह से उभर कर आया है.  लगता है वह इसे लागू न कराकर आदिवासी क्षेत्रों को अशांत बना कर रखना चाहती है ताकि उनका आसानी से दमन किया जा सके और उनके पास ज़मीन को आसानी से कार्पोरेट्स को हस्तगत कराया जा सके.
 यह सिद्ध हो चुका है कि सभी राजनीतिक पार्टियाँ दलितों/आदिवासियों को निर्धन एवं अशक्त रख कर उनका जाति के नाम पर वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करना चाहती हैं. अतः जब सरकारों और राजनीतिक पार्टियों का दलितों और आदिवासियों के सशक्तिकरण की बुनियादी ज़रुरत भूमि सुधार तथा भूमि आवंटन के प्रति घोर लापरवाही तथा जानबूझ कर उपेक्षा का रवैया है तो फिर इन वर्गों के सामने जनांदोलन के सिवाय कौन सा चारा बचता है. इतिहास गवाह है दलितों और आदिवासियों ने इससे पहले भी कई वार भूमि आन्दोलन का रास्ता अपनाया है. 1953 में डॉ. आंबेडकर के निर्देशन में हैदराबाद स्टेट के मराठवाड़ा क्षेत्र में तथा 1958 में महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में दलितों द्वारा भूमि आन्दोलन चलाया गया था. दलितों का सब से बड़ा अखिल भारतीय भूमि आन्दोलन रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (आरपीआई) के आवाहन पर 6 दिसंबर, 1964 से 10 फरवरी, 1965 तक चलाया गया था जिस में लगभग 3 लाख सत्याग्रही जेल गए थे. यह आन्दोलन इतना ज़बरदस्त था कि तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादर शास्त्री को दलितों की भूमि आवंटन तथा अन्य सभी मांगे माननी पड़ीं थीं. इसके फलस्वरूप ही कांग्रेस सरकारों को भूमिहीन दलितों को कुछ भूमि आवंटन करना पड़ा था. परन्तु इसके बाद आज तक कोई भी बड़ा भूमि आन्दोलन नहीं हुआ. इतना ज़रूर है कि सत्ता में आने से पहले कांशी राम जी  ने जो ज़मीन सरकारी है, वो ज़मीन हमारी हैका नारा तो दिया था परन्तु मायावती के कुर्सी पर बैठने पर उसे सर्वजन के चक्कर में पूरी तरह से भुला दिया गया.
दलितों के लिए भूमि के महत्त्व पर डॉ. आंबेडकर ने 23 मार्च, 1956 को आगरा के भाषण में कहा था, ”मैं गाँव में रहने वाले भूमिहीन मजदूरों के लिए काफी चिंतित हूँ. मैं उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाया हूँ. मैं उनके दुःख और तकलीफें सहन नहीं कर पा रहा हूँ. उनकी तबाहियों का मुख्य कारण यह है कि उनके पास ज़मीन नहीं है. इसी लिए वे अत्याचार और अपमान का शिकार होते हैं. वे अपना उत्थान नहीं कर पाएंगे. मैं इनके लिए संघर्ष करूँगा. यदि सरकार इस कार्य में कोई बाधा उत्पन्न करती है तो मैं इन लोगों का नेतृत्व करूँगा और इन की वैधानिक लड़ाई लड़ूंगा. लेकिन किसी भी हालत में भूमिहीन लोगों को  ज़मीन दिलवाने का प्रयास करूँगा.इस से स्पष्ट है कि बाबासाहेब दलितों के उत्थान के लिए भूमि के महत्व को जानते थे और इसे प्राप्त करने के लिए वे कानून तथा जनांदोलन के रास्ते को अपनाने वाले थे परन्तु वे इसे मूर्त रूप देने के लिए अधिक दिन तक जीवित नहीं रहे. इस बीच देश के विभिन्न हिस्सों में आदिवासियों द्वारा भूमि अधिकार आन्दोलनचलाया जाता रहा है परन्तु दलितों द्वारा कोई भी बड़ा भूमि आन्दोलन नहीं चलाया गया है जिस कारण उन्हें कहीं भी भूमि आवंटित नहीं हुयी है. नाक्सालबाड़ी आन्दोलन का मुख्य एजंडा दलितों/आदिवासियों को भूमि दिलाना ही था. दक्षिण भारत के राज्यों जैसे तमिलनाडू तथा आन्ध्र प्रदेश में पांच एकड़भूमि का नारा दिया गया है. पिछले दिनों गुजरात दलित आन्दोलन के दौरान भी दलितों को पांच एकड़ भूमि तथा आदिवासियों को वनाधिकार कानून के अंतर्गत ज़मीन देने की मांग उठाई गयी थी जो कि दलित राजनीति को जाति के मक्कड़जाल से बाहर निकालने का काम कर सकती है. यदि इस मांग को अन्य राज्यों में भी अपना कर इसे दलित आन्दोलन और दलित राजनीति के एजंडे में प्रमुख स्थान दिया जाता है तो यह दलितों और आदिवासियों के वास्तविक सशक्तिकरण में बहुत कारगर सिद्ध हो सकता है. अब तो जिन राज्यों में दलितों/आदिवासियों को आवंटन के लिए सरकारी भूमि उपलब्ध नहीं है उसे अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति सब प्लान के बजट से खरीद कर दिया जा सकता है. अतः अगर दलितों और आदिवासियों का वास्तविक सशक्तिकरण करना है तो वह भूमि सुधारों को कड़ाई से लागू करके तथा भूमिहीनों को भूमि आवंटित करके ही किया जा सकता है. इसके लिए वांछित स्तर की राजनीतिक इच्छा शक्ति की ज़रुरत है जिस का वर्तमान में सर्वथा अभाव है. अतः भूमि सुधारों को लागू कराने तथा भूमिहीन दलितों/आदिवासियों को भूमि आवंटन कराने के लिए एक मज़बूत भूमि आन्दोलन चलाये जाने की आवश्यकता है. इस आन्दोलन को बसपा जैसी अवसरवादी और केवल जाति की राजनीति करने वाली पार्टी नहीं चला सकती है क्योंकि इसे सभी प्रकार के आंदोलनों से परहेज़ है. आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने भूमि सुधार और भूमि आवंटन को अपने एजंडे में प्रमुख स्थान दिया हैऔर इसके लिए अदालत में तथा ज़मीनि स्तर पर लड़ाई भी लड़ी है. इसी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को ईमानदारी से लागू कराने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर करके आदेश भी प्राप्त किया था जिसे मायवती और मुलायम की सरकार ने विफल कर दिया. आइपीएफ़ अब स्वराज अभियान के साथ मिल कर पुनः उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में वनाधिकार कानून को लागू कराने का भूमि आन्दोलन चला रहा है. अत स्वराज अभियान /आइपीएफ सभी दलित/आदिवासी हितैषी संगठनों और दलित राजनीतिक पार्टियों का आवाहन करता है कि अगर वे सहमत हों तो हमारे द्वारा पूर्वांचल में चलाये जा रहे भूमि अधिकार अभियान में सहयोग दें.





मंगलवार, 25 सितंबर 2018

आरएसएस का भ्रमजाल या कोई बदलाव - अखिलेंद्र प्रताप सिंह

आरएसएस का भ्रमजाल या कोई बदलाव
- अखिलेंद्र प्रताप सिंह
मोहन भागवत के तीन दिन के सम्मेलन के बाद कई तरह की टिप्पणी दिख रही है। उसमें जो मुझे दिखता है एक तो मैं उन लोगों का विचार सुन रहा हूं जो लोग आरएएसस को सिद्धांत और व्यवहार के रूप में बहुत करीब से देखते हैं। उनका ये मानना है कि आरएसएस ने ये दरअसल भ्रम पैदा करने के लिए किया है। और इसमें ये समझना कि कोई बदलाव है खुद को भ्रम में रखने जैसी बात होगी। वो लोग भागवत के इस कनक्लेव को बहुत महत्व नहीं दे रहे हैं और आमतौर पर खारिज कर रहे हैं। एक ये भी नजर है कि संघ ने बड़े बदलाव की तरफ इशारा किया है और उस तरफ भी ध्यान देने की जरूरत है।
मुझे जहां तक लगता है संघ की जो दृष्टि है और उसका जो स्वभाव है उसमें कोई बदलाव नहीं है। लेकिन संघ की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति जरूर है जो अपने में खासतौर पर संविधान और संसदीय राजनीतिक व्यवहार के बारे में एक नई अभिव्यक्ति है जिसे देखने की जरूरत है। संघ ये मानता है कि भारत में संविधान के पीछे केवल उदारपंथियों की नहीं बल्कि सामाजिक शक्तियों की भी एक बड़ी ताकत है और अभी तक की जो संसदीय व्यवस्था है उसमें संसदीय प्रणाली राष्ट्रपति प्रणाली से बेहतर है। इसलिए इन दोनों को उसने स्वीकार किया है और मैं समझता हूं कि पहली बार संघ ने स्पष्ट तौर पर इसको स्वीकार किया है।
इसमें शासन करने के लिए एक राजनीतिक मंच (बीजेपी) द्वारा उसने जो शासन किया उस व्यवहार से भी उसे एक नई सीख मिली। संघ ने ये माना है कि संविधान और संसदीय राजनीति जैसी चल रही है वैसे चलने दिया जाए। जहां तक उन्होंने हिंदुत्व की बात की है, अल्पसंख्यकों के मामले में गुरु गोलवलकर के विचारों को बदलने की बात की है तो उसमें कोई मौलिक बदलाव नहीं है। क्योंकि मूल प्रश्न ये नहीं है कि वो मुसलमान को स्वीकार करते हैं या नहीं करते हैं। मुसलमानों को वो सशर्त पहले भी स्वीकार करते थे आज भी स्वीकार करते हैं। उनका मानना है कि हिंदुस्तान में मुसलमानों को अपने पूर्वजों का, अपनी परंपरा का, अपनी संस्कृति का सम्मान करना पड़ेगा, उसे स्वीकार करना पड़ेगा।
जैसा कि उनके प्रेरणास्रोत सावरकर या फिर गुरूजी के विचार रहे हैं, वो इस बात को भी ले आते हैं कि आपको इसे पितृभूमि ही नहीं बल्कि पूण्यभूमि भी मानना पड़ेगा। ये जो उनका सैद्धांतिक सूत्रीकरण है, इस पर वो अभी भी अडिग हैं। संघ की इस मूल दृष्टि में कोई बदलाव नहीं हुआ है। गैर हिंदुओं पर यह सांस्कृतिक दबाव वो बनाए रखना चाहते हैं। अब इसमें उन्होंने दोनों पद्धतियों को स्वीकार किया है लेकिन अंतिम पद्धति उनकी हमले और दबंगई की है। इसको भी वो बदलने नहीं जा रहे हैं। जैसे वो मानते हैं कि हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए प्राण देना और प्राण लेना उनका राष्ट्रीय कर्तव्य है।
हिंदुओं का सैन्यीकरण और सैनिकों का हिंदूकरण जैसी जो उनकी कुछ मूल स्थापनाएं हैं इसको वो मानते हैं। और जिस दिन संघ पूण्यभूमि और पितृभूमि के झगड़े को खत्म कर देगा। मातृभूमि के तौर पर सब लोग तो इसे स्वीकार ही करते हैं। लेकिन उनका जो सांस्कृतिक दबाव है, राजनीतिक दबाव है पूण्यभूमि मानने का। जिस दिन वो इस विचार से अपने को अलग करेंगे तब फिर आरएसएस के बने रहने का या फिर हिंदुत्व के बने रहने का औचित्य ही खत्म हो जाएगा।
इसीलिए अपने कारण का निषेध करके और फिर उसका कोई आधार ही न रहे वो नहीं चल सकते हैं। ये भारत वर्ष के लिए एक लंबी लड़ाई है जो संघ लड़ना चाहता है." अभी संघ सरकार की दृष्टि से ये महसूस जरूर करता है कि बहुत सारी सामाजिक शक्तियां जो हमसे अलगाव में हैं और इससे शासक वर्ग के एलीट हिस्से में एक संदेश है कि बीजेपी तो चलो ठीक है लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जो लोग हैं वो समाज में इस तरह का काम कर रहे हैं। उस हिस्से को यहां पूंजी निवेश करने में डर लगता है। उनको भी उन्होंने आश्वस्त किया है कि वो किसी पुराने विचार के साथ नहीं हैं और वो भी मॉब लिंचिंग के खिलाफ हैं। वो भी चाहते हैं कि समाज में एक अच्छा माहौल रहे। लोगों के बीच संबंध रहे।
"कानून को हाथ में न लें। हमारा संघ भी ऐसा कुछ नहीं करेगा जो कानून के दायरे के इतर हो।" ये आश्वस्त करना चाहते हैं। वो बीजेपी और संघ के बीच के अंतरविरोध को देखते हैं और बदलती हुई स्थितियों में वो आधुनिक ढंग से काम करना चाहते हैं। और हम गैर राजनीतिक हैं इसलिए हमारे राजनीतिक स्वयंसेवक जहां काम कर रहे हैं उन्हीं के अनुरूप हम भी आचरण करते हैं जिसे वो दिखाना चाहते हैं। लेकिन यहां भी उनका एक अंतरविरोध है पूरे वक्तव्य में जहां से उन्होंने शुरूआत की थी और अंत में जहां उन्होंने उसे खत्म किया। उसका उन्होंने निषेध कर दिया। उन्होंने कहा कि कानून का राज होना चाहिए इसको स्वीकार करते हैं लेकिन अब कह रहे हैं कि किसी भी तरीके से मंदिर बनवाओ। ये मुख्यरूप से उसी का निषेध है।
आप कह सकते थे कि जो लोग राजनीति कर रहे हैं ये उनका मामला है, वही देखेंगे या फिर मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और वहां से जो भी फैसला होगा, देखा जाएगा। लेकिन किसी भी तरीके से बनवाओ ये जो आग्रह है। ये किन कारणों से हो सकता है, ये आने वाले दिनों में स्पष्ट होगा। या हो सकता है कि ये लोग अपनी कांस्टीट्यूंसी को मेसेज दे रहे हों कि राम मंदिर हमारे लिए केवल नारेबाजी का मुद्दा नहीं है, हम इसको गंभीरता से ले रहे हैं। और दूसरा ये भी मेसेज दे रहे हों कि राममंदिर बनाया जाना चाहिए और नई राजनीतिक परिस्थिति में खड़ा होकर 2019 के चुनाव में मुद्दा बनाया जा सकता है।
उन्होंने जहां तक हिंदुत्व की व्याख्या की हैकि जो हिंदू धर्म है उसका हिंदुत्व से कुछ लेना-देना नहीं है। हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है। लेकिन वो बंधुत्व की जो परिभाषा हिंदुत्व में देखते हैं, विश्व बंधुत्व में समानता, स्वतंत्रता की जो अवधारणा है वह मूलतः तर्क पर आधारित है, उससे अलग है। उनका बंधुत्व आस्था पर आधारित है। यहां हर चीज आस्था के नाम पर की जाती है। इस तरह से भारत में आस्था का संकट नहीं है बल्कि यहां तर्क, विवेक और वैज्ञानिक सोच का संकट है। ज्ञान हमारे देश में विकसित हो इसलिए ऐसा हिंदुत्व जिसमें तर्क के लिए, विज्ञान के लिए, विवेक के लिए जगह नहीं हो। उस तरह के हिंदुत्व को विश्व बंधुत्व कहकर आप उसका चरित्र जो गैर वैज्ञानिक है, गैर मानवीय है का महिमांडन कर रहे हैं।
जनराजनीति के बारे में भी इनकी कोई धारणा स्पष्ट नहीं है। इनकी कोशिश जरूर रहती है कि डा. अंबेडकर से लेकर गांधी तक को समाहित कर लें। डा. अंबेडकर आधुनिक वैज्ञानिक व्यक्ति हैं इसलिए ये कहकर कि फ्रांस की क्रांति में जो समानता, बंधुत्व की अवधारणा है उसको न स्वीकार करके बुद्ध में जो समानता बंधुत्व है अंबेडकर उसकी बात करते हैं। इसके जरिये वो डाक्टर अंबेडकर के बारे में अपनी समझ को थोपते हैं। डा. अंबेडकर एक आधुनिक भारत बनाने के लिए ज्यादा जोर दलितों पर इसलिए देते हैं क्योंकि बिना उनको गोलबंद किए एक स्वतंत्र व्यक्ति का आविर्भाव नहीं हो सकता है। एक नागरिकता का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता है जातीय बंधन में बांधकर दलितों को मनुष्य बनने के अधिकार से ही वंचित कर दिया गया था।
इसलिए वो उस समाज को साथ लेने की बात करते हैं। डा.अंबेडकर भी लाते हैं और गांधी जी भी हिंद स्वराज में जो लिखे हैं और 1947 आते-आते वो उसमें सुधार नहीं बल्कि जाति तोड़क की भूमिका में आ जाते हैं। तो गांधी का निरंतर विकास हो रहा है। वो कभी भी गांधी को पचा नहीं पाएंगे। पूरा संविधान आधारशिला है जिसे नेहरू ने बनाया और ड्राफ्ट कमेटी ने तैयार किया। गांधी उसकी आत्मा हैं। इसलिए लोकतांत्रिक अधिकार से लेकर नीति निर्देशक तत्व तक ये सब बाते हैं। इसमें गांधी का आधुनिक विचार दिखता है जो नेहरू के माध्यम से सामने आता है।
इसलिए गांधी और नेहरू के बीच कोई अंतरविरोध तलाशना बेमानी है। दोनों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किए जाने की कोशिश की जाती है। ये भी दांव लगाते हैं और कभी गांधी को नेहरू तो कभी नेहरू को गांधी के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश करते हैं। दरअसल ये नेहरू के माध्यम से गांधी को हराना चाहते हैं। आरएसएस के लोग कभी-कभी चाणक्य की नीति की बात करते हैं। लेकिन चाणक्य की नीति में भी एक सोशल मोरलिटी है एक सामाजिक नैतिकता है। यह सामाजिक नैतिकता संघ में नहीं है। क्योंकि संघ में आप देखिएगा कि किस तरह से खुद में संघ के मूल स्रोत के विचारक सावरकर अपनी रिहाई के मामले में क्या-क्या करते हैं। खुद देवरस इमरजेंसी के दौरान क्या-क्या किए?
यहां तक कि संघ में एक धारा रही है जिसमें नाना जी देशमुख जिन्होंने लोहिया वगैरह से लेकर गांधी को स्वीकार किया और कहा कि बिना इन लोगों को लिए हम भारत वर्ष में नहीं बढ़ सकते हैं। कम्यूनिस्ट संदर्भ में न कार्यनीति के संदर्भ में इन्होंने कोई बदलाव किया है। और न ही चाणक्य नीति के संदर्भ में ऐसा कुछ हुआ है। दरअसल ये परिस्थितियों के हिसाब से समय-समय पर अपनी मूल दृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए समायोजन करते रहते हैं। ये इन सब प्रश्नों पर काम करते हैं। आज की तारीख में अगर हम समग्रता में देखें तो मोहन भागवत जो कह रहे हैं उससे कुछ मोटी बातें निकलती हैं।
एक मोटी बात ये निकलती है कि उन्होंने सामाजिक दबाव में अभी जो कमजोर बिंदु है उसके लिहाज से संविधान में जो सेकुलरिज्म और समाजवाद है उसको स्वीकार किया है और अभी जो संसदीय प्रणाली है राष्ट्रपति प्रणाली की जगह उसे बनाए रखने के पक्ष में हैं। इस संदर्भ में ये बात जरूर देखना होगा। ये जो पुरानी बात को नये ढंग से कह रहे हैं इसने उन लोगों के लिए मुश्किल खड़ा कर दिया है जो हिंदू-हिंदू खेल में लगे हुए हैं। जैसे कांग्रेस का पूरा ये खेल था कि ये कट्टरपंथी हिंदू और मैं उदारवादी, सनातनी हिदू हूं।
आरएसएस ने उनके इस स्पेस को कम किया है और कम से कम अवधारणा के स्तर पर ये बहस चला दिया है कि ये भी सनातनी हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग हैं। इसने उनके लिए भी और जो लोग समाजशास्त्र को अर्थनीति से अलग-थलग करके इनको वास्तविक हिंदू धर्म का प्रतिनिधि नहीं मानते उनके लिए भी चुनौती कड़ा कर दिया है। इन्होंने अपने कैनवास को बड़ा किया है जिसमें धर्म में अपने को सनातनी कहते हैं और राजनीति जो हिंदुत्व की विचारधारा है उसको सार्वजनिक विश्व बंधुत्व से जोड़ते हैं या फिर उसकी कोशिश करते हैं।
उदारवाद की भी अपनी सीमाएं हैं। जो लोग उदारवाद और अनुदारवाद के जरिये इनसे लड़ना चाहते हैं उनके सामने जरूर संकट है। और कांग्रेस को इसका सैद्धांतिक जवाब देना होगा जो अभी तक नहीं आया है। मैं समझता हूं कि इनका पूरा प्रोजेक्ट पूरी तरह से एक अधिनायकवादी वैचारिका प्रक्रिया है जो वर्चस्ववादी है और बुनियादी तौर पर लोकतंत्र विरोधी है। जिसमें ये माडर्न, सिटीजनशिप कंसेप्ट के विरोधी हैं। नागरिकता के विरोधी हैं। समाज के सेकुलराइजेशन के विरूद्ध हैं। मूलत: ये लोकतंत्र विरोधी विचार है और इसका जवाब सुसंगत लोकतांत्रिक पद्धति से ही दिया जा सकता है। लोकतंत्र की व्याख्या केवल सामाजिक संदर्भों में ही नहीं बल्कि उसकी आर्थिक व्याख्या भी की जानी चाहिए।
भारत में एक राष्ट्रीय अर्थनीति की भी जरूरत है और स्वदेशी के मामले में भी ये पूरी तरह से नाकाम हुए हैं। पीछे हटे हैं। जो पर्दा लगा रखा था उसे हटा लिया है। इसलिए भारत वर्ष में राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक एक वैकल्पिक धारणा है वो इस देश में उदार अर्थव्यवस्था के विरुद्ध खड़ी होती है। नेशनल अर्थव्यवस्था को बनाती है। जिसमें छोटे-छोटे कल कारखाने और देश में पूंजी का निर्माण जो राष्ट्रीय आंदोलन में लक्ष्य लिया गया उन सब को पूरा करने का सवाल है। सेकुलराइजेशन, नागरिकता और पूंजी निर्माण में बाधा पैदा करने वाले जो पुराने अवशेष बचे हैं उनको हटाने के लिए और एक नये राज्य के माध्यम से, विश्व स्तरीय ताकतों से एकताबद्ध होने के जरिये वित्तीय पूंजी के शोषण के शिकार खासकर भारत के पड़ोसी मुल्कों, के साथ एकताबद्ध होने की जरूरत है।
मूल रूप से बड़े राजनीतिक प्लेटफार्म की जरूरत है जिसे संघ ने जो चुनौती पेश की है उसका मुकाबला करना है। पुराना जो फार्मुलेशन है वो इनकी विचार प्रक्रिया से लड़ने की बजाय उनके कुछ भौतिक फार्मेंशन तक सीमित रह जाता है। ये थोथे स्तर पर इनका विरोध करता है। वो लोग इनसे वैचारिक स्तर पर अभी नहीं लड़ पाएंगे। जैसे कुछ लोग अभी तक कहते थे कि रजिस्ट्रेशन नहीं कराया है वो अपना रजिस्ट्रेशन करा लेंगे। वो ये भी कह रहे हैं कि ग्रुप आफ इंडिविजुअल के तौर पर उनका रजिस्ट्रेशन है। ये भी कह रहे हैं कि उनका आडिट होता है। अब आप कहां खड़े होंगे?
सवाल कुछ तकनीकी प्रश्न की जगह सामाजिक न्याय की ताकतों को भी संघ ने जो चुनौती पेश की है उसके बारे में सोचना होगा। और जो दलित बहुजन दृष्टि है वो लाक्षणिक संदर्भों में ही इसका विरोध करती है। उसके सामने भी अर्थव्यवस्था से लेकर सामाजिक व्यवस्था में एक नागरिक के अस्तित्व की स्वीकृति और उसका सेकुलराइजेशन एक बड़ा प्रश्न है। और उसे इसको हल करना होगा।
आज एक नये किस्म के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक ढांचे की जरूरत है जो व्यक्ति के अस्तित्व और उसके सेकुलराइजेशन की स्वीकृति देता हो। और संघ ने इस स्तर पर जो चुनौती पेश की है उसका सैद्धांतिक और व्यवहारिक स्तर पर मुख्यधारा के दल जवाब दे पाएंगे ऐसा अभी नहीं दिख रहा है। इसमें संघ के संकट को कभी भी कम मानने की जरूरत नहीं है। या फिर उसे समावेशी समाज के किसी नये प्रवक्ता के बतौर नहीं देखा जा सकता है। क्योंकि उनकी जो मूलदृष्टि है वो समाज के एक बड़े हिस्से को बहिष्कृत करती है और वो राष्ट्रवाद के नाम पर पराधीन साम्राज्यवाद की सेवा करता है।
(अखिलेंद्र प्रताप सिंह स्वराज अभियान के प्रेजिडियम के सदस्य हैं।)



रविवार, 26 अगस्त 2018

उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा बम विस्फोट की आतंकी घटनाओं की विवेचना में किये गए फर्जीवाड़े का भंडाफोड़


उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा बम विस्फोट की आतंकी घटनाओं की विवेचना में किये गए फर्जीवाड़े का भंडाफोड़
एस आर दारापुरी आई.पी.एस. (से. नि.) एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट 

(प्रदेश में बम विस्फोट के मामलों के सम्बन्ध में आशीष खेतान (पत्रकार) द्वारा दिनांक 13 जून, 2013 को माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद में दायर की गयी  पत्र-जनहित याचिका दाखिल की है जो कि उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा इन मामलों की विवेचना में किये गए फर्जीवाड़े और धोखाधड़ी का पर्दाफाश करती है. इस का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है ताकि सभी लोग इस को भलीभांति समझ सकें।)


सेवा में,
 न्यायमूर्ति मुख्य न्यायधीश,
इलाहाबाद उच्च न्यायालय,
 इलाहाबाद.
1.        मैं 12 वर्ष से पत्रकारिता में हूँ. इस अवधि में  मैंने कई महत्वपूर्ण मामलों जिन में 2002 के गुजरात दंगे से जुड़े नरोडा गांव, नरोडा पटिया और गुलबर्ग सोसाइटी जनसंहार के मामले हैं, की जाँच रिपोर्टें तैयार की थी. मेरी जाँच रिपोर्टों की काफी प्रशंसा हुयी और उनका उपयोग विवेचकों और न्यायालयों द्वारा किया गया. 2007 में मेरी गुजरात दंगों पर जाँच रिपोर्ट के  व्यापक प्रकाशन  होने पर रष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मेरी जाँच  रिपोर्ट, फोरेंसिक प्रयोगशाला जयपुर द्वारा जाँच की गयी और वे सही पाई गयीं.  अक्टूबर, 2007 में मेरे स्टिंग ऑपरेशन की जांच रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा गोधरा और उत्तर गोधरा दंगों से जुड़े कई मामलों की पुनर- विवेचना हेतु विशेष जाँच दल (एस.आई. टी) का गठन किया गया. विशेष जांच टीम ने तीन बड़े दंगों के मामले में मुझे अभियोजन पक्ष के गवाह के रूप में रखा. नरोडा पटिया मामले में मेरे साक्ष्य को अदालत ने माना और मेरे साक्ष्य पर कई सजाएँ हुयीं. इस बीच में मैं नरोडा गांव और गुलबर्ग सोसाइटी मामलों में भी गवाह  के रूप में कोर्ट में पेश हुआ हूँ जिन का फैसला आना बाकी है.
2.        बेस्ट बेकरी मामले में मेरे स्टिंग ऑपरेशन पर  सुप्रीम कोर्ट ने रजिस्ट्रार जनरल के नेतृत्व में एक अर्ध न्यायिक जाँच समिति का गठिन किया जिस ने मेरी जाँच रिपोर्ट को अधिकारिक और विश्वसनीय पाया. इस कमिटी के निष्कर्ष अधिकतर मेरी रिपोर्ट पर ही आधारित हैं. मेरी रिपोर्टों के आधार पर ही हिंदुत्ववादी  आतंकी गुटों की मालेगांव (2006), समझौता एक्सप्रेस बम विस्फोट, अजमेर शरीफ विस्फोट और हैदराबाद मक्का मस्जिद   विस्फोटों में संलिप्तता के बारे में जाँच तेज़ हुयी. इस के नतीजे के फलस्वरूप इन मामलों  में गिरफ़तार किये गए बेकसूर लोग ज़मानत पर छूटे और अभियोजन का रुख इन मामलों में शामिल सही लोगों की तरफ मुड़ा.
3.        मैं इस पत्र-जनहित याचिका के माध्यम से आप के पास आया हूँ क्योंकि मेरे हाल के पत्रकारिता के प्रयासों से मैंने यह स्पष्ट तौर पर पाया है कि उत्तर प्रदेश पुलिस की ऐजसियों  ने किस प्रकार निर्दोष मुसलामानों, जिन में अधिकतर गरीब नवयुवक हैं, को आतंकवाद के मामलों में फंसाया है. इस के परिणाम न्यायायिक अन्तकर्ण  को झकझोरने के लिये काफी हैं.  वर्ष 2007 के लखनऊ और फैजाबाद में बम ब्लास्ट के मामले के आरोपी खालिद मुजाहिद की जेल से कोर्ट ले जाते समय पुलिस गाड़ी में मौत भी हो चुकी है. मुजाहिद 6 साल से अधिक समय से जेल में था और मैं जो सामग्री आप के सामने रखने जा रहा हूँ  वह न केवल उसकी ही बल्कि उस के तीनों साथियों की बेगुनाही को भी दर्शाती है जिसे पुलिस ने जानबूझ कर अदालत से छुपाया है. अन्य 5 मामलों, जिन में अभियुक्त 7 से 8 सालों से जेलों में हैं, की भी मैंने जांच की है. इन में से एक मामले में वलीउल्लाह को 10 वर्ष की सजा भी हो गयी है. जो सामग्री मैं प्रस्तुत कर रहा  हूँ वह दर्शाती है कि जिस मामले में वलीउल्लाह को आरोपित किया गया है वह  उस केस में शामिल ही नहीं था. अतः यह मामला बहुत महत्वपूर्ण एवं अतिआवश्यक है.
4.        मैं एक साल से देश में आतंक के मामलों की विवेचना की पड़ताल कर रहा हूँ. मेरी पड़ताल दिखाती है कि आतंक के अधिकतर मामलों में विभिन्न पुलिस एजंसियों ने अदालतों को खास करके गुमराह किया है और आम तौर पर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को गलत ढंग से फंसाया है. इस सम्बन्ध में मैंने हाल में बॉम्बे उच्च न्यायालय में एक पत्र-जनहित याचिका दायर की है जिस में मैंने महाराष्ट्र एटीएस द्वारा गवाहों को पढ़ा कर जिन में अधिकतर पुलिस के जेबी गवाह हैं, निर्दोषों पर हथियार और विस्फोटक रख कर और  मकोका के अंतर्गत झूठी स्वीकारोक्तियां प्राप्त करके 21 मुसलामानों के जीवन बारबाद किये हैं.
5.        अपनी पड़ताल के दौरान मैंने देश की विभिन्न आतंक विरोधी जाँच एजंसियों के अंदरूनी रिकार्ड जिन्हें पूछताछ रिपोर्ट” (इन्टैरोगेशन रिपोर्ट) कहा जाता है प्राप्त की हैं जो उत्तर प्रदेश के सात आतंक के मामलों में उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा अदालतों को बताई गयी कहानी के विपरीत कहानी बताती हैं. दहलाने वाली बात यह है कि यह पूछताछ रिपोर्टें उत्तर प्रदेश पुलिस की एटीएस द्वारा तैयार की गयी हैं जो कि इन की गिरफतारी और विवेचना के लिए जिम्मेवार है. यह रिकार्ड दर्शाता है कि पुलिस द्वारा जो अभियोजन मामले बनाये गए हैं वह उनकी अंदरूनी रिपोर्टों के साक्ष्य के बिलकुल विपरीत है.
6.        परन्तु यह सुनिश्चित करने के लिए कि पूरा सच्च कभी जाहिर न हो और अदालतें इन विवेचनाओं की हास्यस्पद प्रकृति को न जान सकें पुलिस ने इस बात का फायदा उठाया है कि यह पूछताछ रिपोर्टें कभी  भी जनता में जाहिर नहीं होतीं और इन्हें गोपनीय करार देकर छुपा लिया हैं. इन रिपोर्टों को ताला-चाबी में बंद रख कर और उनमें फेर बदल करके यह एजंसियां यह जानते हुए भी कि यह बिलकुल फर्जी हैं, अपने मामलों को चालू रखती है. मैं अदालत के सामने वही सामग्री पेश कर रहा हूँ.
7.        यह सात आतंक के मामले निम्नलिखित हैं:
(१)      संकट मोचन मंदिर विस्फोट, वाराणसी 7 मार्च, 2006,
(२)      कैंट रेलवे स्टेशन विस्फोट, वाराणसी 7 मार्च, 2006
(३)      तीन बम  विस्फोट, , गोरखपुर. 22 मई, 2007
(४)      वाराणसी कचेहरी विस्फोट, 23 नवम्बर, 2007.
(५)      फैजाबाद कचेहरी विस्फोट, 23 नवम्बर, 2007.
(६)      लखनऊ कचेहरी विस्फोट, 23 नवम्बर, 2007.
(७)      श्रमजीवी एक्स्प्रेस विस्फोट, 28 जुलाई, 2005.

8.      इन सभी मामलों में यू.पी. पुलिस ने मुस्लिम समुदाय के 9 लोगों को गिरफ्तार करके मुकदमा चलाने के लिए जेल भेजा है जिन में से कुछ 6 से 8 साल से जेल में हैं. श्रमजीवी एक्सप्रेस विस्फोट के मामले में एक भारतीय नागरिक के इलावा तीन बांग्लादेशी पिछले 7 साल से जेल में हैं. हाल में फैजाबाद और लखनऊ ब्लास्ट के मामले का आरोपी खालिद मुजाहिद जो 6 साल से जेल में था संदेहस्पद स्थितियों में न्यायायिक हिरासत में मर गया है. जैसा पहले बताया गया है अधिकतर आरोपी गरीब और पिछड़े है.
9.      अन्दर के रिकॉर्ड जो मैं इस अदालत के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ से स्पष्ट है कि इन सात मामलों में शुरू में यूपी पुलिस द्वारा जिन अभियुक्तों को गिरफ्तार कर आरोपी बनाया गया था उन मामलों में अन्य आतंक विवेचक पुलिस एजंसियों द्वारा बिलकुल लोगों के एक अलग समूह को आरोपी बताया गया है. महाराष्ट्र एटीएस, गुजरात पुलिस और यूपी एटीएस के पास जो विवरण है उस विवरण से  बिलकुल भिन्न है जो यूपी की अदालतों में पेश किया गया है. शुरू में जिन अभियुक्तों को गिरफ्तार  किया गया था बाद में उन से बिलकुल भिन्न लोगों के समूह को गिरफ्तार किया गया. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि विभिन्न एजंसियों (यूपी एटीएस सहित) दवारा तैयार की गयी पूछताछ रिपोर्ट में इन संदिग्ध आतंकियों ने यूपी पुलिस द्वारा शुरू में गिरफ्तार किये गये आरोपियों से कोई भी सम्बन्ध होना नहीं बताया था.
10.     परन्तु लखनऊ, फैजाबाद और गोरखपुर के तीन विस्फोटों में यूपी पुलिस ने शुरू में गिरफ्तार किये गए और कई माह और कुछ मामलों में कई साल बाद गिरफ्तार किये गए अभियुक्तों के बीच एक काल्पनिक सम्बन्ध गढ़ लिया. दो बिलकुल विभिन्न कहानियों को पिछले समय से आपस में जोड़ दिया ताकि पहले की गयी गलत गिरफ्तारियों को उचित ठहराया जा सके. मेरे द्वारा प्रस्तुत सामग्री से इस का पर्दाफाश हो जाता है.
11.     इन आतंक के सात मामलों में से अधिकतर में मूल अभियुक्तों को अलग अलग तौर पर शस्त्र और विस्फोटकों की बरामदगी में भी अभियुक्त बनाया गया है. यदि यह आरोपी शुरू के इन बम विस्फोटों में शामिल नहीं थे जैसा कि अंदरूनी रिकार्ड बताते हैं तो इस से इन बरामदगियों की सत्यता के बारे में एक गंभीर प्रश्न पैदा होता है.
12.     मेरा इरादा किसी व्यक्ति का दोष सिद्ध करना नहीं है. मैं इस कोर्ट के सामने इन सात विस्फोट के मामलों से सम्बंधित उन तथ्यों को रखना चाहता हूँ जिन्हें विवेचना करने वाली एजंसियों ने कभी नहीं रखा है. जो सामग्री मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ वह जोरदार ढंग से यह सिद्ध करती है कि इन सात मामलों में जो साक्ष्य और खुलासे अभियोजन की कहानी के खिलाफ जाते थे उन्हें  या तो सुविधा के अनुसार हटा दिया गया या बदल दिया गया या तोड़ मरोड़ दिया गया ताकि पहले की गयी पाखंडपूर्ण विवेचना को जायज़ ठहराया जा सके. उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा चकित करने वाली की गयी हेराफेरी कानून की प्रक्रिया, न्याय और सत्य का घोर अपमान है.
13.     इस से इस का भी अंदाज़ा लगता है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने विभिन्न अवसरों और अलग अलग अदालतों इलाहाबाद हाई कोर्ट सहित, अभियुक्तों की निर्दोषता के सबूत पेश न करके और मुक़दमे वापस लेने की खुलदिली दिखा कर निंदनीय ढंग से घोर अन्याय किया है. एक तरफ तो सरकार संकटमोचन विस्फोट, वाराणसी और गोरखपुर विस्फोट और लखनऊ और फैजाबाद विस्फोटों के अभियुक्तों के मामले जनहित और साम्प्रदायिक सद्भाव के नाम पर वापस लेने का दिखावा करती रही है वहीँ इन अभियुक्तों की निर्दोषिता के सबूत जो कि सरकारी पुलिस एजंसियों के पास उपलब्ध हैं को अदालत में पेश नहीं करती. इस प्रकार इन व्यक्तियों की निर्दोषिता सिद्ध करने के संवैधानिक अधिकार और उनकी स्वतंत्रता और सम्मान की बहाली करने के विपरीत सरकार राजनीतिक और चुनावी कारणों से इसे एक अनावश्यक उदारता दिखा कर चारों तरफ आक्रोश पैदा कर रही है.
14.     आतंक के घिनौने मामलों में समान न्याय और पूर्ण सत्य की खोज की ज़रुरत है. परन्तु सरकार की झूठ और अर्ध सत्य का जाल बुनने की नीति के कारण कानून के राज का ह्रास और विभिन्न सम्प्रदायों के बीच विश्वास और सामाजिक एकता का विघटन हो रहा है. हाल में कुछ वकीलों ने सरकार के मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों के विरुद्ध मुकदमों को वापस लेने के प्रयास के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है. दूसरी तरफ पुलिस की घिनौनी विवेचनाओं और एक तबके के व्यक्तियों को जानबूझ कर निशाना बनाने के कारण पुलिस एजंसियां अल्प संख्यक समुदाय के प्रति अलगाव पैदा कर रही हैं.
15.     इस के परिणाम स्वरूप न तो आतंक के घिनौने हमलों के शिकार लोग और न ही इन में झूठे तौर पर फंसाए गए निर्दोष नौजवानों को न्याय मिल पा रहा है. हर बार जब भी आतंक के मामले में निर्दोष व्यक्ति को फंसा दिया जाता है, असली मुजरिम न केवल छूट जाते हैं बल्कि उनके हौसले बुलंद हो जाते हैं. इसी लिए मैं न केवल विवेचना की विकृतियों और छोटी मोटी गलतियों सम्बन्धी सामग्री रख रहा हूँ बल्कि एक दुर्भावनापूर्ण तरीके से की गयी पूरी कार्रवाई को रख रहा हूँ. यदि इसे रोका नहीं गया तो इस प्रकार का रास्ता न केवल आतंक के खतरे को बढ़ावा देगा बल्कि इस से आन्तरिक  सुरक्षा के लिए भी खतरा बढ़ेगा.
16.     मैं जानता हूँ कि आम तौर पर अपराध की विवेचना करना पुलिस और  दोष सिद्ध होने या निर्दोष होने का निर्णय देना अदालत का काम है. मैं इस मसले में इस लिए दखल दे रहा हूँ कि वास्तव में यह आशय के विपरीत हो गया है. जब पुलिस जानबूझ कर न्याय  में रोड़ा अटकाने और अदालत को गुमराह करने लगे तो इसे रोके बिना नहीं रहा जा सकता है और यह मेरा एक नागरिक और पत्रकार के तौर पर कर्तव्य है कि मैं न्याय के संरक्षकों का ध्यान उन तथ्यों की तरफ आकर्षित करूँ जो मैंने ढूंड निकाले है, खास करके जब इस का असर हमारे राष्ट्र की सुरक्षा पर पड़ने वाला हो.
17.     मैं जो सामग्री इस न्यायालय के सामने रखने जा रहा हूँ उसे सुविधा की दृष्टि से सादिक इसरार शेख, आरिफ बदर उर्फ़ लड्डन, मोहमद सैफ, सैफुर रहमान, सर्वर और मोहमद सलमान शीर्षकों के अंतर्गत रखने जा रहा हूँ.
18.     यह शीर्षक उन आतंक के संदिग्ध व्यक्तियों के नाम पर रख रहा हूँ जिन्हें विभिन्न पुलिस एजंसियों द्वारा सितम्बर 2008 और मार्च 2010 के दौरान गिरफ्तार किया गया था. विवेचनकर्ता एजंसियों के रिकॉर्ड में एक समग्र साजिश है जिस के उपरोक्त 6 गिरफ्तार व्यक्ति हिस्सा होना बताये गए हैं. इन व्यक्तियों द्वारा उत्तर प्रदेश के बाहर विभिन्न एजंसियों को दिया गया विवरण एक सामान है. विभिन्न एजंसियों के अंदरूनी रिकॉर्ड के अनुसार इन सभी 6 व्यक्तियों ने एक आतंकी साजिश की बात स्वीकार की है जिस का हिस्सा उत्तर प्रदेश के उपरलिखित 7 मामले भी थे. यह रिकार्ड दर्शाते हैं कि इन 6 संदिग्ध व्यक्तियों ने इन बम हमलों में अपने तथा अपने साथियों के शामिल होने की बात स्वीकारी है. महत्वपूर्ण बात यह है कि इन 6 व्यक्तियों की स्वीकारोक्तियों और न ही इन की पूछताछ रिपोर्टों  में यूपी पुलिस द्वारा पूर्व में इन विस्फोटों के लिए गिरफतार तथा चालान किये गए 9 व्यक्तियों के शामिल होने का कही भी उल्लेख नहीं है. वास्तव में  इन 6 व्यक्तियों द्वारा बताई गयी और  विभिन्न एजंसियों द्वारा अलग अलग समय पर दर्ज किये गए आतंक की साजिश के विवरण से इन सात विस्फोटों के अभियोजन का मामला साक्ष्य और सूक्ष्म विवरण की दृष्टि से पूरी तरह ध्वस्त हो जाता है.
20.     सादिक इसरार शेख पुत्र इसरार अहमद शेख, स्थायी पता; तहिसील फूलपुर, आजमगढ़  गिरफ्तारी के समय अस्थायी पता ट्राम्बे, मुम्बई  9 सितम्बर, 2008 में गिरफ्तार
20.1    जुलाई और सितम्बर 2008 में क्रमवार धमाके दिल्ली, अहमदाबाद और सूरत (असफल धमाके ) हुए थे इन विस्फोटों में मिले कुछ सुरागों के आधार पर मुम्बई क्राईम ब्रांच ने सादिक शेख को और 20 अन्य अभियुक्तों को मुम्बई और महारष्ट्र के अन्य हिस्सों से माह सितम्बर, 2008 में गिरफ्तार किया था.
20.2    यह भारत में आतंक के मामलों की विवेचना का एक निर्णायक दौर था. अगस्त 2007 और सितम्बर 2008 के दौरान बंगलौर (जुलाई 2008 के सात क्रमवार बम विस्फोट), हैदराबाद (2007 के लुम्बनी पार्क और गोकुल चाट बम विस्फोट), लखनऊ, वाराणसी और फैजाबाद कचेहरी बम विस्फोट ( नवम्बर, 2008), अहमदाबाद (21 क्रमवार बम विस्फोट जुलाई, 2008) और सूरत (18 असफल बम विस्फोट) और दिल्ली (मार्किट स्थलों पर सितम्बर, 2008 के बम विस्फोट) में विस्फोट हुए थे.
20.3    भारत में लड़ीवार बम विस्फोटों ने इसके एक संघटित साजिश होने का सन्देश दिया और विभिन्न राज्यों की जाँच एजंसियों को एक साथ जुड़ने और सूचनाओं को एक जगह पर इकट्ठा करने का अवसर दिया. दूसरे शब्दों में 2007 और 2008 के बम धमाकों के बाद गिरफ्तार किये गए व्यक्तियों से अहमदाबाद, दिल्ली, यूपी, कर्नाटक और अन्य राज्यों की पुलिस टीमों ने पूछताछ की और 2007 और 2008 के बम विस्फोटों में सामूहिक अभियुक्त बनाये.
20.4    शेख सादिक और उनके तथाकथित इंडियन मुजाहिदीन सहियोगियों से विभिन्न राज्यों की एजंसियों ने विभिन्न  तिथियों में पूछताछ की. हरेक एजंसी ने एक विस्तृत पूछताछ रिपोर्ट तैयार की. मुम्बई पुलिस और आंध्र प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में इन एजंसियों में मेरे सूत्र जो इंडियन मुजाहिदीन और इसकी 2007 और 2008 के बम विस्फोटों में संलिप्तता की जाँच से जुड़े थे ने मुझे सादिक शेख की पूछताछ रिपोर्टें उपलब्ध कराईं.
20.5    इन पूछताछ रिपोर्टों का महत्पूर्ण पहलू यह है कि सादिक ने  न केवल 2007 और 2008 के बम विस्फोटों में शामिल होने की बात कही बल्कि 2003 और 2007 के बीच में हुए निम्नलिखित विस्फोटों  में शामिल होने की बात भी स्वीकार की:
1. दशाशाव्मेध घाट, वाराणसी, 2004 ( एक टीन में बंद बम फटा नहीं था).
2. श्रमजीवी एक्सप्रेस विस्फोट, जौनपुर, उ.प्र., 2005
3. दिल्ली के दिवाली धमाके, 2005
4.. संकटमोचन मंदिर और कैंट रेलवे स्टेशन विस्फोट,वाराणसी, 2006
5. मुम्बई ट्रेन विस्फोट, 2006
20.6    एजंसियों ने स्वयं दावा किया है (कोर्ट और कोर्ट के बाहर) कि सादिक से पूछताछ के आधार  पर यूपी एटीएस, हैदराबाद केन्द्रीय विवेचना प्रकोष्ट, अहमदाबाद क्राईम ब्रांच, राजस्थान एटीएस और दिल्ली स्पेशल सेल ने 70 आतंकियों को गिरफ्तार किया था. इन रिपोर्टों की विषयवस्तु और स्वीकारोक्ति विभिन्न एजंसियों द्वारा दाखिल किये गए आरोप पत्र का हिस्सा हैं. परन्तु सादिक शेख और उस के साथियों के विरुद्ध चार्जशीट केवल उन मामलों में ही भेजी गयी जो कि अभी पूरे  नहीं हुए थे. हैदराबाद विस्फोट (गोकुल चाट और लुम्बिनी पार्क, 2007), अहमदाबाद और सूरत (असफल) 2008, दिल्ली के 2008 के विस्फोट ही कुछ मामले थे जिन में तथाकथित इंडियन मुजाहिदीन के सदस्यों के विरुद्ध चार्जशीट भेजी गयी.
20.7    परन्तु सादिक की श्रमजीवी एक्सप्रेस और संकटमोचन मंदिर के विस्फोटों में शामिल होने की बात को सुविधाजनक तरीके से छुपा लिया गया.
20.8    ये सभी एजंसियां भलीभांति जानती थीं कि इन विस्फोटों को एक अलग समूह के लोगों द्वारा आयोजित किया गया था. यदि 2008 वाली पूछताछ रिपोर्टे सही थीं तो ये सभी लोग निर्दोष हो सकते थे.
20.9    इस प्रकार  सितम्बर 2008 के बाद यूपी पुलिस सहित सभी एजंसियां श्रमजीवी एक्सप्रेस  और 2006 के वाराणसी विस्फोट और अन्य मामलों में साक्ष्य की प्रकृति और उद्घाटित तथ्यों से पूरी तरह अवगत थे. उन्होंने ने भी 2007-2008 के मामलों की विवेचनाओं को इन रिपोर्टों पर आधारित किया था. परन्तु उन प्रकटनों को जो 2007 से पहले के मामलों का खुलासा करते थे और जिन को पहले ही हल होना दिखाया जा चुका था, को नज़रंदाज़ कर दिया गया. इस प्रकार की छांटने की नीति आतंक से जुडी एजंसियों और यूपी पुलिस की सत्यनिष्ठा पर गंभीर सवाल पैदा करती है.
 20.10  पुलिस की ईमानदारी की कमी इस बात से भी झलकती है कि सच्चाई तक पहुँचने और एक गुट के निर्दोष लोगों को छुडवाने की कोई कोशिश नहीं की गयी. इन  में से किसी भी एजंसी ने श्रमजीवी एक्सप्रेस विस्फोट, संकटमोचन और कैंट रेलवे स्टेशन विस्फोटों में एक गुट के लोगों पर चलाये जा रहे मुकदमों की सम्पूर्ण सामग्री को कोर्ट के सामने नहीं रखा. क्यों?
20.11   इन आन्तरिक रिकार्डों के  अनुसार सादिक शेख और आतिफ आमीन , जो बाटला हाउस मुठभेड़ में मारा गया था, ने श्रमजीवी एक्सप्रेस में बम रखे थे, का उन चार व्यक्तियों जिन में तीन बंगलादेशी हैं और जो पहले ही रेलवे पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर चार्जशीट किये जा चुके हैं, से कोई भी सम्बन्ध नहीं था. यदि सादिक शेख की बात पर यकीन किया जाये तो जब वह और उसके इंडियन मिजहिदीन वाले साथी 2004 से 2008 के बीच एक के बाद विस्फोट कर रहे थे तो विभिन्न पुलिस एजंसियां इन मामलों में निर्दोष और असम्बद्ध लोगों को फंसाती रही.
20.12   मैं इस न्यायालय के सामने दोहराना चाहूँगा कि मेरा  इरादा किसी को दोषी ठहराने का नहीं है. परन्तु यह केवल आतंक की विवेचनाओं की घोर त्रुटियों और अतर्विरोधों को उजागर करना है.
21.     आरिफ बदर पुत्र बदुद्दीन (72); स्थायी पता: ग्राम इस्रोली, सराए मीर, आजमगढ़, उ.प्र० ( सितम्बर, 2008 में गिरफ्तार) 
21.1    सादिक शेख की तरह आरिफ बदर भी मुम्बई पुलिस द्वारा 24.09.2008 को गिरफ्तार किया गया था. पूछताछ के दौरान उसने सभी एजंसियों के सामने इंडियन मुजाहिदीन द्वारा 2004 और 2008 के दौरान किये गए सभी बम विस्फोटों में शामिल होने की बात कबूल की थी. उस से विभिन्न एजंसियों ने विभिन्न विभिन्न समय पर पूछताछ की थी.  आन्तरिक पूछताछ रिपोर्ट से यह पता चलता है कि आरिफ एक बिजली मिस्त्री था और उस ने अपने साथियों द्वारा रखे गए सभी बमों में टाइमर उपकरण लगाया था. अहमदाबाद और मुम्बई पुलिस क्राईम ब्रांच द्वारा आरिफ की तैयार की गयी पूछताछ रिपोर्ट अवलोकनीय है.
21.2    पूछताछ रिपोर्टों के अनुसार आरिफ ने उन सभी बमों के लिए टाइमर डिवाइस बनाये थे जो उस के साथियों द्वारा 2006 में वाराणसी के संकटमोचन मंदिर, कैंट रेलवे स्टेशन और बाज़ार, मई 2007 में गोरखपुर शहर, वारणसी, लखनऊ और फैजाबाद कचेहरी तथा अन्य राज्यों जैसे महाराष्ट्र, दिल्ली और गुजरात में रखे गए थे.
21.3    आरिफ ने रिकॉर्ड पर यह भी माना है कि वह एकल, समग्र षड्यंत्र जो कि पहली बार 2003 -2004 में रचा गया था का कोर मेम्बर था और जिस के तहत 2004 और 2008 के दौरान बम विस्फोट किये गए थे. आरिफ ने इन बम धमाकों में शामिल सभी लोगों का विवरण भी दिया था परन्तु उस ने चार नवयुवक जिन में उबैद-उर-रहमान, अलाम्गुर हुसैन, हिलालुद्दीन (सभी बंगलादेशी) और नफीकुल बिस्वास- जिन्हें श्रमजीवी एक्सप्रेस बम विस्फोट में चार्जशीट किया गया है और एक व्यक्ति तारिक काज़मी, जिसे 2007 के गोरखपुर बम विस्फोट मामले में चार्जशीट और एक मुस्लिम मौलवी वलीउल्लाह जिसे 2006 के वाराणसी बम विस्फोट में और चार व्यक्ति- तारिक काज़मी, खालिद मुजाहिद, सजादुर रहमान और मोहमद अख्तर जिन्हें फैजाबाद और लखनऊ कचेहरी बम विस्फोट में अभियुक्त बनाया गया है, का अपनी पूछताछ रिपोर्ट में कोई भी ज़िकर नहीं किया था. यद्यपि बदर ने इस सभी विस्फोटों में अपनी भूमिका होने का दावा किया था और वह इन बम विस्फोटों में शामिल सभी की नजदीकी से जानकारी रखता था. फिर भी यूपी पुलिस और अन्य एजंसियों ने इस पूरी सामग्री को श्रमजीवी, वाराणसी, गोरखपुर लखनऊ और फैजाबाद विस्फोट मामलों का मुकदमे सुन रही अदालतों के सामने नहीं रखा. यह देखना प्रासंगिक है कि आरिफ बदर की इस स्वीकारोक्ति और खुलासों को अहमदाबाद विस्फोटों के आतंकी मामलों और जिन में विवेचना अभी चल रही थी, में शामिल किया गया है. परन्तु वाराणसी, गोरखपुर और कचेहरी विस्फोटों के मामले में आरिफ बदर के खुलासे को बिलकुल छुपा लिया गया. क्यों?
22.     सैफुर रहमान पुत्र अब्दुल रहमान अंसारी, निवासी बदरका, आजमगढ़(अप्रैल 2009 में गिरफ्तार)
22.1    अप्रैल 2009 इंडियन मुजाहिदीन के सदस्य सैफुर रहमान को मध्य प्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार किया. मैं सैफुर रहमान की यूपी पुलिस द्वारा तैयार कि गयी पूछताछ रिपोर्ट प्रेषित कर रहा हूँ.
22.2     इस रिपोर्ट के अनुसार सैफुर रहमान ने अहमदाबाद और जयपुर जैसे बम विस्फोट जिन में वह शामिल था, का  विस्तृत विवरण दिया है.
22.3    इस न्यायालय के लिए यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि उस ने यूपी  कचेहरी विस्फोटों की साजिश तथा फैजाबाद कचेहरी में बम रखने में शामिल होने की बात कबूली थी. इतना ही महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि उसने चार अभियुक्तों- तारिक काज़मी, खालिद मुजाहिद, सजादुर रहमान और मोहमद अख्तर जिन का इन बम विस्फोटों में पहले ही चालान किया जा चुका था, का कोई भी ज़िक्र नहीं किया था. इस पूछताछ रिपोर्ट के अनुसार उपरोकित चार व्यक्तियों का यूपी कचेहरी विस्फोटों से बिलकुल कोई भी सम्बन्ध नहीं था. वास्तव में सैफुर रहमान द्वारा साजिश का दिया गया विवरण यूपी एटीएस द्वारा सम्बंधित अदालतों में दिए गए विवरण से बिलकुल भिन्न है.
22.4    अलग अलग मकसद के लिए सच्चाई अलग अलग नहीं हो सकती. परन्तु जब आतंकी घटनाओं की बात आती है तो ऐसा लगता है कि यह आन्तरिक उपयोग के लिए अलग है और कोर्ट के लिए अलग. अदालतों में भी एक राज्य की अदालत में यह अलग है और दूसरी कोर्ट्स में यह अलग और विरोधाभासी रूप में पेश किया जाता है. यूपी एटीएस ने सैफुर रहमान द्वारा प्रकट किये गए तथ्यों को फैजाबाद और लखनऊ के कोर्ट विस्फोट मामलों की सुनवाई कर रही अदालत से क्यों छुपायायदि सैफुर रहमान की स्वीकारोक्ति पर विश्वास किया जाये तो खालिद मुजाहिद नाम का अभियुक्त जिस की अब न्यायिक हिरासत में मौत हो चुकी है, का इस मामले से कोई सम्बन्ध नहीं था.
22.5    अन्य तथाकथित इंडियन मुजाहिदीन संदिग्धियों की तरह सैफुर रहमान को  एजंसियों की मन मर्ज़ी के अनुसार चुनिन्दा विस्फोटों में अभियुक्त बनाया गया है. उस द्वारा अहमदाबाद विस्फोटों के बारे में किये गए खुलासे को कुछ एजंसियों द्वारा सही मान लिया गया है जबकि यूपी के विस्फोटों के बारे में उसके खुलासे को आराम से दरकिनार कर दिया गया है.
23.     मोहमद सैफ, पुत्र शादाब अहमद निवासी अस्न्जरपुर आजमगढ़, यूपी ( दिल्ली पुलिस द्वारा सितम्बर 2008 में गिरफ्तार)
23.1    मोहमद सैफ की तीन अलग अलग एजंसियों जैसे यूपी एटीएस, महाराष्ट्र एटीएस और अहमदाबाद क्राईम ब्रांच द्वारा तैयार की गयी सभी पूछताछ रिपोर्ट भौतिक विवरण के तौर पर एक समान हैं.
23.2    सैफुर रहमान की गिरफ्तारी के सात महीने पाहिले दिल्ली के बाटला हाउस से मोहमद सैफ नाम का एक संदिग्ध आतंकवादी पकड़ा गया था.
23.3    सैफ ने भी फैजाबाद, लखनऊ और वाराणसी कोर्ट विस्फोटों की साजिश का वैसा ही विवरण दिया था जैसा कि  सैफ की गिरफ्तारी के सात महीने बाद गिरफ्तार किये गए सैफुर रहमान ने दिया था.
23.4    सैफ ने 2007 के लखनऊ, फैजाबाद और वाराणसी कोर्ट प्रांगण और गोरखपुर के बम विस्फोट, और वाराणसी के 2006 के और 2008 में जयपुर, अहमदाबाद और दिल्ली विस्फोटों में शामिल होने की बात स्वीकारी थी. परन्तु सैफ के खुलासे का वाराणसी के बम विस्फोट में अभियुक्त बनाये गए वलीउल्लाह से बिलकुल कोई भी सम्बन्ध नहीं था. इसी प्रकार सैफ ने तारिक काज़मी जिसे गोरखपुर बम विस्फोट में तथा खालिद मुजाहिद और अन्य जिन्हें कचेहरी विस्फोटों में अभियुक्त बनाया गया है, का बिलकुल कोई भी ज़िकर नहीं किया था. विस्फोटों में संबध को भूल जाइये सैफ, सादिक शेख, सैफुर रहमान और आरिफ बदर ने इन मामलों में पहले गिरफ्तार किये गए व्यक्तियों से दूर दूर तक भी जान पहचान होने की बात नहीं कही थी.
24.     मोहमद सर्वर पुत्र मास्टर मोहमद हनीफ, निवासी ग्राम चाँदपट्टी, तहसील सांगडी, जिला आजमगढ़ (9 जनवरी, 2009 को गिरफ्तार).
24.1    मेरे पास एटीएस यूपी द्वारा आतंक के संदिग्ध व्यक्ति मोहमद सर्वर की पूछताछ रिपोर्ट है. सर्वर को जनवरी 2009 में गिरफ्तार किया गया था.
24.2    इस पूछताछ रिपोर्ट के अनुसार सर्वर 2006 के वाराणसी विस्फोटों में शामिल था. उस ने अपने शामिल होने के साथ साथ दूसरे व्यक्ति जैसे आतिफ आमीन, मोहमद सैफ, शादाब मलिक, आरिज़ उर्फ़ जुनैद और असदुल्लाह अख्तर ( सभी आजमगढ़ निवासी) के शामिल होने की बात भी कही थी.
24.3    सर्वर और सैफ को कई महीनों के अन्तराल पर गिरफ्तार किया गया था. दोनों ने 2006 के वाराणसी विस्फोटों का विवरण दिया था. अधिक महतवपूर्ण बात यह है कि दोनों ने इलाहाबाद  की एक मस्जिद के इमाम वलीउल्लाह और उस के तीन साथियों ( जिन्हें यूपी पुलिस बंगलादेशी कहती है और उन की कभी  भी कोई पहचान और ठिकाने का पता नहीं चला) का कोई भी सन्दर्भ नहीं दिया था. दूसरे शब्दों में अगर सैफ, सादिक शेख, आरिफ बदर और सर्वर का विश्वास किया जाये तो फिर वलीउल्लाह का वाराणसी के 2006 के बम विस्फोटों में कोई हाथ नहीं था.
24.4    वलीउल्लाह को लखनऊ की एक कोर्ट द्वारा हथियार और बारूद की बरामदगी के मामले में 10 वर्ष की सज़ा दी जा चुकी है. वाराणसी विस्फोट और बरामदगी के दोनों मामले आपस में जुड़े हुए हैं. अब सवाल यह पैदा होता है कि अगर वलीउल्लाह इन विस्फोटों में शामिल नहीं था तो फिर बरामदगियां जिन के लिए उसे दस वर्ष की सज़ा हुयी है, कहाँ तक असली थीं.  पुलिस ने यह सभी अंतर्विरोधी सामग्री न तो 10 वर्ष की सज़ा देने वाली लखनऊ की अदालत और न ही 2006 के वाराणसी के विस्फोटों के मामले की सुनवाई कर रही गाज़ियाबाद की अदालत के सामने ही रखी. वलीउल्लाह 2006 से ही जेल में है.
25.     मोहमद सलमान, पुत्र मोहमद शकील, स्थायी निवासी आजमगढ़.
25.1    इस क्रम में इन 6 गिरफ्तारियों में आखरी गिरफ्तारी मार्च 2010 में 18 वर्षीय मोहमद सलमान की थी. मेरे पास  यूपी एटीएस द्वारा सलमान की तैयार की गयी पूछताछ रिपोर्ट उपलब्ध है.
25.2    इस पूछताछ रिपोर्ट में सलमान ने 2007 के गोरखपुर विस्फोट, 2007 के कचेहरी विस्फोटों के अलावा 2008 के जयपुर और अहमदाबाद विस्फोटों की बात भी स्वीकारी थी.
25.3    सलमान गोरखपुर और कचेहरी विस्फोटों के बारे में मोहमद सैफ, सैफुर रहमान और आरिफ बदर उर्फ़ लड्डन, जो उसकी गिरफतारी से कई महीने पहले गिरफ्तार किये गए थे और उन से पूछताछ की गयी थी,  द्वारा दिए  गए  विवरण की पुष्टि करता है. इन में से किसी भी संदिग्ध को  पूछताछ करने वालों को दूसरे व्यक्तियों द्वारा दिए गए विवरण के बारे में जानकारी नहीं थी.
25.4    इन सभी पूछताछ की रिपोर्टों को गोपनीय करार दे कर किसी भी अदालत के सामने प्रस्तुत नहीं किया गया है.
26.     यूपी पुलिस द्वारा न्यायालयों को गुमराह करने का प्रयास.
26.1    यहाँ पर जबरदस्त विरोधी सामग्री के सम्मुख उत्तर प्रदेश पुलिस ने एक नई कहानी गढ़ी. अदालतों को कुछ मामलों में यूपी पुलिस ने यह बताया कि वर्ष 2006 में वाराणसी विस्फोट और वर्ष 2007 में कचेहरी विस्फोट इंडियन मुजाहिदीन और बांग्लादेश स्थित हुजी संगठन द्वारा मिल कर किये गए थे. यह इस लिए किया गया क्योंकि शुरू में गिरफ्तार किये गए 9 व्यक्तियों को हुजी के सदस्य के रूप में दिखाया गया था. परन्तु उपरांकित सभी पूछताछ रिपोर्टों में हुजी अथवा इस के सदस्यों का कोई ज़िकर नहीं है.
26.2    प्रश्न यह उठता है कि यूपी पुलिस ने पुरानी विवेचनाओं और बाद के खुलासों में कैसे तालमेल बैठाया? अगर इन मुजाहिदीन आतंकी संदिग्ध व्यक्तियों द्वारा हुजी अथवा उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा गिरफ्तार व्यक्तिओं का कोई भी ज़िक्र नहीं किया गया है तो यूपी पुलिस किस आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंची कि यह सांझी कार्र्वाहियाँ थीं. इस से केवल यह ही तार्किक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह केवल पहली गलत गिरफ्तारियों को ढकने के लिए ही किया गया था ताकि दोषी पुलिस कर्मचारियों को साक्ष्य घड़ने और निर्दोषों को फंसाने के परिणामों से बचाया जा सके.
26.3    इस परिकल्पना का बेतुकापन इस तथ्य से सामने आता है कि इस संयुक्त हुजी-मुजाहिदीन कार्रवाहीकी कहानी को कभी भी आरोप पत्र के रूप में सम्बन्धित अदालत में पेश नहीं किया गया.
26.4    मैंने इन सात विवेचनाओं की उत्तर प्रदेश में छानबीन की है. यह जानना सम्भव नहीं है कि इस राज्य में इस प्रकार के ऐसे कितने अन्य मामले हैं और राज्य सरकारों ने आतंक विरोधी इकाईओं को जो खुली छूट दे रखी है जिस से वे अत्यंत गोपनीयता के परदे में निरंकुश हो कर काम करती हैं. यह संभव है कि शायद अपराधिक-न्यायायिक व्यवस्था को विकृत करने की कहानी इन सात मामले से आगे भी जाती है. मैंने इस से पहले बॉम्बे हाई कोर्ट के सामने 21 निर्दोष मुस्लिम नौजवानों को आतंकी वारदातों में जैसे मुम्बई ट्रेन विस्फोट (2006), मालेगांव विस्फोट (2006) और पूना जर्मन बेकरी विस्फोट (2010). में फंसाने के मामले को रखा है.
26.5    यह मुद्दे बहुत गंभीर हैं जो कानूनी वैधता से आगे जाते हैं. यह केवल हमारे राष्ट्र की सुरक्षा ही नहीं परन्तु भारतीय लोकतंत्र के विचार के लिए भी खतरा है. इस लिए मैंने इस सामग्री को ऐसे सभी संस्थान जो कि मानवाधिकार, संवैधानिक मूल्यों और जवाबदेही को बचाने में लगे हैं के सामने सीधा रखा है. इस प्रकार मैंने इसे इस कोर्ट के सामने जनहित याचिका के रूप में प्रस्तुत किया है. इस में अति महत्वपूर्ण मुद्दों के शामिल होने के कारण दूसरे  संवैधानिक अधिकारियों जो कि मानवाधिकारों, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, पुलिस प्रशिक्षण और मीडिया निकायों को भी अवगत कराया है. मैंने इसे पब्लिक डोमेन में भी दिया है क्योंकि यह मुद्दा गंभीर जन महत्व का है जिसे लोकतंत्र में लोगों को जानने का अधिकार है.
27.6    मैं इस को बहुत जल्दी में कर रहा हूँ. यदि आवश्यक हो तो मुझे इसे औपचारिक तरीके से करने की अनुमति दी जाये.
प्रार्थनाएं
मैं इस माननीय उच्च न्यायालय के सामने निम्नलिखित प्रार्थनाएं करता हूँ:
(1)     इस याचिका में  अंकित संगीन वारदातों की विवेचना में विवेचकों के व्यवहार की जाँच के लिए एक कमीशन नियुक्त किया जाये.
(2)     इन सभी 7 मामलों की एनआईए (राष्ट्रीय जाँच एजंसी) द्वारा उच्च न्यायालय की देख रेख में पुनर विवेचना करायी जाये ताकि सही अभियुक्तों को पकड़ कर दण्डित किया जा सके.
(3)     संवैधानिक मूल्यों और मौलिक अधिकारों का उलंघन करने वाले पुलिस अधिकारियों  को कानून के अंतर्गत दण्डित किया जाये.
(4)      इस प्रकार की फर्जी और गलत विवेचनाओं के शिकार लोगों को सीधे राहत दिलाई जाये.
प्रार्थी
आशीष खेतान
ई-55 आईएफएस अपार्टमेंट्स,
मयूर विहार फेस 1,
दिल्ली-1100091
ईमेल:  ashish.journo@gmail.com;
khetan@gmail.com
   


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  क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है ? हाल ही में हुई बहसों में सवाल उठाया गया है कि क्या अनुसूचित जाति के उपसमूहों में सकारात्म...