मंगलवार, 20 नवंबर 2018

आरएसएस/भाजपा आदिवासी विरोधी एवं कार्पोरेटपरस्त


आरएसएस/भाजपा आदिवासी विरोधी एवं कार्पोरेटपरस्त
-एस.आर.दारापुरी आई.पी.एस (से.नि.) एवं संयोजक जन मंच



हाल में छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में चुनावी सभाओं में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दावा किया है कि भाजपा ही आदिवासियों  की सबसे बड़ी शुभ चिन्तक है और कांग्रेस ने अपने शासनकाल में इनके उत्थान के लिए कुछ भी नहीं किया है. उन्होंने इसमें आगे कहा  है कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भाजपा के लम्बे शासन ने आदिवासियों का बहुत सशक्तिकरण किया है और उसने ही आदिवासियों के महापुरुषों की मूर्तियाँ लगवा कर उन्हें सम्मानित किया है. उन्होंने आगे कहा है कि पहले जहाँ आदिवासियों के पास साईकल भी मुश्किल से होता था वहीं अब वह मोटर साईकल पर चलते हैं. उसका दावा है कांग्रेस के समय आदिवासियों के विकास का पैसा उन तक नहीं पहुंचता था. परन्तु अब उसके पूरे का पूरा पहुंचने के कारण उनका आश्चर्यजनक विकास हुआ है. भाजपा उक्त बातें कह कर आदिवासियों का वोट प्राप्त करके पुनः सत्ता में आने का प्रयास कर रही है.
आइये भाजपा के इस दावे का तथ्य परीक्षण करें:
यह सर्विदित है कि आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदायों का सदियों से जंगल पर अधिकार रहा है. परन्तु ब्रिटिश काल से लेकर देश के आज़ाद होने के बाद तक भी उन्हें हमेशा जल, जंगल और ज़मीन से बेदखल किया गया. यह करने के लिए अलग-अलग सरकारी कानूनों व नीतियों का प्रयोग होता रहा है. 1856 में अंग्रेजों ने मोटे पेड़ों के जंगलों पर कब्ज़ा करने का आदेश दिया. 1865 में पहला वन कानून लागू हुआ जिसने सामुदायिक वन संसाधनों को सरकारी संपत्ति में बदल दिया. 1878 में दूसरा वन कानून आया, जिसने आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदायों को जंगलों के हकदार नहीं बल्कि सुविधाभोगी माना. 1927 के वन कानून ने सरकार का जंगलों पर नियंत्रण और कड़ा कर दिया. इसके कारण हजारों वनवासियों को अपराधी घोषित किया गया और उन्हें जेल में कैद भी होना पड़ा. 1980 के वन संरक्षण कानून ने जंगलवासियों को जंगल में अतिक्रमणकारी घोषित कर दिया. 1988 की राष्ट्रीय वन नीति में वनवासियों की जंगल के संरक्षण व प्रबंधन में भागीदारी बढ़ाने के लिए संयुक्त वन प्रबंधन की रणनीति बनाई गयी. परन्तु वन विभाग ने इसमें गठित होने वाली वन सुरक्षा समितियों में सरकारी अधिकारियों को शामिल कर इस रणनीति को सफल नहीं होने दिया. परन्तु आदिवासी व अन्य परम्परागत समुदाय ऐसे वन विरोधी कानूनों व नीतियों का विरोध करते रहे. इसको लेकर वनवासी वनक्षेत्रों में दूसरे के शासन का विरोध करते रहे, आज भी वनों पर अधिकार पाने के लिए आन्दोलन जारी है. इन्हीं संघर्षों का परिणाम है कि भारत सरकार को अनुसूचित जनजाति व् अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 (वनाधिकार कानून) बना कर उसे  2008 में लागू करना पड़ा.
वनाधिकार कानून दो तरह के अधिकारों को मान्यता देता है. 1. खेती के लिए वनभूमि का उपयोग करने का व्यक्तिगत या सामुदायिक अधिकार और 2, गाँव के अधिकार क्षेत्र के वन संसाधनों का उपयोग करने का अधिकार जिसमें लघु वन उपजों पर मालिकाना हक़ और वनों का संवर्धन, संरक्षण तथा प्रबंधन का सामुदायिक अधिकार शामिल है. इस कानून के अनुसार आदिवासी व अनन्य परम्परागत वन निवासी जो 13 दिसंबर 2005 के पहले से वन भूमि पर निवास या खेती करते आ रहे हैं और अपने और अपने परिवार की आजीविका के लिए उस वन भूमि पर निर्भर हैं, उनको वन भूमि का व्यक्तिगत पट्टा पाने का अधिकार है. इस प्रावधान के अंतर्गत जितनी वन भूमि पर दखल है, उतने पर ही अधिकार मिलेगा. यह अधिकार अधिकतम चार हेक्टेयर (10 एकड़) ज़मीन पर होगा. इस कानून के अंतर्गत वन अधिकार वन में निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी भूमि प्राप्त कर सकते हैं. वन में निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति का मतलब ऐसे सदस्य या समुदाय जो प्राथमिक रूप से वन में निवास करते हैं और अपनी आजीविका के लिए वनों पर या वनभूमि पर निर्भर करते हैं. अन्य परम्परागत वन निवासी का मतलब ऐसा कोई व्यक्ति या समुदाय जो 13 दिसंबर 2005 के पूर्व कम से कम 75 सालों से प्राथमिक रूप से वन या वन भूमि पर निवास करता रहा है और जो अपनी आजीविका की आवश्यकताओं के लिए वनों या वन भूमि पर निर्भर है.
अब अगर देखा जाये कि विभिन्न राज्यों में इस कानून का क्रियान्वयन किस तरह से किया गया है तो बहुत डरावनी स्थिति सामने आती है. इस कानून का आशय तो यह था कि आदिवासियों और वनवासियों को उनके कब्ज़े की ज़मीन का कानूनी तौर पर मालिक बना दिया जाये परन्तु व्यवहार में यह उनके विस्थापन का कानून सिद्ध हुआ है.  सदियों से वनभूमि पर रहने वाले लोग भूमि के मालिक बनने  की बजाये अवैध कब्जेदार घोषित हो गये हैं और कई राज्यों में तो उनको उजाड़ने की कार्रवाही भी शुरू हो गयी है. अब अगर अमित शाह के दावे के अनुसार झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र  और गुजरात राज्यों, जिनमे पिछले काफी लम्बे समय से भाजपा का शासन रहा है, में इस कानून को लागू करने की स्थिति को देखा जाये तो यह बहुत निराशाजनक दिखाई देती है. उदाहरण के लिए झारखंड जिसकी स्थापना से लेकर अब तक अधिकतर भाजपा का ही शासन रहा है, में आदिवासियों की आबादी 86.45 लाख है जो कुल आबादी का 26.2% है. इसमें आदिवासियों के कुल 16.99 लाख परिवार हैं. इस राज्य में वनाधिकार कानून के अंतर्गत मात्र 1.08 लाख दावे तैयार किये गये जिनमें से कुल 60,000 दावे स्वीकृत किये गये. इसी प्रकार छत्तीसगढ़ राज्य,  यहाँ पर पिछले 15 वर्ष से भाजपा का शासन रहा है,  में आदिवासियों की कुल आबादी 78.22 लाख है जो कुल आबादी का 30.6% है. इस राज्य में आदिवासियों के 17.43 लाख परिवार हैं . यहाँ वनाधिकार कानून के अंतर्गत कुल 8.88 लाख दावे तैयार किये गये जिनमें मात्र 4.16 लाख दावे ही स्वीकार किये गये. अब अगर मध्य प्रदेश जिसमें पिछले 10 साल से भाजपा का शासन रहा है, में आदिवासियों की आबादी 1.53 करोड़ है जो कुल आबादी का 21.1% है, में आदिवासियों के 31.22 लाख परिवार रहते हैं. इस राज्य में इस कानून के अंतर्गत कुल 6.17 लाख दावे तैयार किये गये जिनमें से केवल 2.52 लाख दावे ही स्वीकृत किये गये.
अब यदि मोदीजी के अपने राज्य जिस में वह स्वयम 15 साल मुख्य मंत्री रहे तथा अब भी भाजपा की ही सरकार है, को देखा जाये तो स्थिति बहुत ही खराब है. इस राज्य में अदिवासियों की कुल आबादी 89.17 लाख है जो कुल आबादी का 14.8% है. यहाँ पर उनके 17 लाख परिवार हैं जबकि वनाधिकार कानून के अंतर्गत केवल 1.90 लाख दावे तैयार किये गये जिनमें से केवल 87,215 दावे ही स्वीकार किये गये. अब अगर महाराष्ट्र जो कि पिछले कई सालों से भाजपा अथवा उसके सहयोगियों द्वारा शासित रहा है, को देखा जाये तो इस राज्य में आदिवासियों की कुल आबादी 1.05 करोड़ है जो कुल आबादी का 9.4% है और यहाँ पर उनके 21.56 लाख परिवार रहते हैं.  यहाँ पर वनाधिकार कानून के अंतर्गत केवल 3.72 लाख तैयार किये गये जिनमें से मात्र 1.21 लाख दावे ही स्वीकार किये गये. वनाधिकार कानून को लागू करने के मामले में इन भाजपा शासित राज्यों के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश ही ऐसा राज्य है जिसमें मायावती के शासनकाल में केवल 20% दावे जो कि पूरे देश में सबसे कम है, ही स्वीकार किये गये जो कि मायावती के दलित हितैषी होने के दावे की पोल खोल देता है. पूरे देश में गैर भाजपा शासित राज्य उड़ीसा और त्रिपुरा ही ऐसे दो राज्य हैं जहाँ पर स्वीकृत दावों का प्रतिशत 68.50 तथा 63.34% क्रमश रहा है. 
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि अमित शाह का भाजपा के आदिवासियों का सबसे बड़ा हितैषी होना का दावा बिलकुल झूठा है क्योंकि वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों को भूमि अधिकार दिलाने वाले कानून को भाजपा शासित राज्यों में बिलकुल विफल कर दिया गया है. इतना ही नहीं भाजपा को चलाने वाली आरएसएस तो इससे भी अधिक आदिवासी विरोधी है. उसके एक अनुषांगिक संगठन “वाईल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया” ने तो सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल करके यह मांग कर रखी है कि सुरक्षित वन की भूमि राष्ट्रपति महोदय के सीधे नियंत्रण में होती है और इस सम्बन्ध में संसद को कोई भी कानून बनाने का अधिकार नहीं है. अतः संसद द्वारा बनाया गया वनाधिकार कानून-2006 अवैधानिक घोषित किया जाये तथा अदिवासियों /वनवासियों  के कब्जे से मुक्त हुयी भूमि को तुरंत वनभूमि दर्ज करके वन विभाग को सौंपी जाये. इससे स्पष्ट हो जाता है की आरएसएस/ भाजपा का आदिवासी हितैषी होने का दावा निरा धोखा है. इस जनहित याचिका में फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून की वैधता के सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं दिया है परन्तु अवैध कब्जों की भूमि मुक्त कराकर वन विभाग को देने का आदेश पारित कर दिया है जिसके अनुपालन में कई राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश में आदिवासियों/वनवासियों की बेदखली शुरू हो गयी है. इससे स्पष्ट है कि एक तरफ भाजपा आदिवासी हितैषी होने का दावा करती है, दूसरी तरफ उसको चलाने वाली आरएसएस सुप्रीम कोर्ट से वनाधिकार कानून को ख़त्म करने का अनुरोध करती है. यह आरएसएस/भाजपा के दोगलेपन को पूरी तरह से नंगा कर देता है.
भाजपा शासित राज्यों सहित कुछ अन्य राज्यों में भी वनाधिकार कानून को जानबूझ कर विफल किया गया है क्योंकि वाम पंथियों को छोड़ कर सभी राजनितिक पार्टियाँ कार्पोरेट परस्त हैं. आरएसएस तो पूरी तरह से कार्पोरेट द्वारा पोषित है. अतः उसका कार्पोरेटपरस्त होना भी लाजिमी है. वर्तमान में जिस भूमि पर आदिवासी/वनवासी रहते हैं वह भूमि बहुत से खनिज पदार्थों  से भरी पड़ी है जिन पर कार्पोरेट्स की निगाह लगी हुयी है. अब अगर वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों/वनवासियों को उक्त भूमि का मालिकाना हक़ दे दिया जायेगा तो फिर उस भूमि को खाली कराने के लिए पुनर्वास और मुयाव्ज़े की मांग उठेगी. इस लिए वनाधिकार कानून को लागू न करके उन्हें अवैध कब्जाधारी घोषित करके उजाड़ना अधिक आसान होगा. इसी लिए खास करके भाजपा शासित राज्यों में जानबूझ कर वनाधिकार कानून लागू नहीं किया गया है जोकि आरएसएस/ भाजपा के आदिवासी/वनवासी विरोधी होने का सबसे बड़ा प्रमाण है.
यह भी विचारणीय है कि भाजपा आदिवासियों को आदिवासी न कह कर वनवासी क्यों कहती है? यह जानबूझ कर एक साजिश के अंतर्गत किया जा रहा है क्योंकि आरएसएस/ भाजपा को पता है कि आदिवासी कहने का मतलब होगा कि वे लोग जो यहाँ के मूल निवासी हैं यानिकी आदिवासी के इलावा बाकी लोग बाहर से आकर बसे हैं. इसका सीधा मतलब होगा कि आर्य लोग बाहर से आये हैं और वे यहाँ के मूल निवासी नहीं हैं. ऐसे में आरएसएस के लोग फिर किस मुंह से कहेंगे कि मुसलमान बाहरी हैं और हिन्दू यहां के मूल निवासी हैं. इसीलिए ये आदिवासियों को वनवासी कहते हैं. आरएसएस आदिवासियों को गुमराह करने का काम वनवासी कल्याण परिषद के माध्यम से करती है. बीबीसी को दिए साक्षात्कार में वनवासी कल्याण परिषद के एक पदाधिकारी ने कहा है,”वन में रहने वाले सारे लोग वनवासी हैं. ये सब भगवान राम के वंशज हैं. हम सब आदिवासी हैं. सबरी माता ने भगवान राम को जूठा बेर खिलवाया था और राम खाए थे. हमारे भगवान राम के साथ सबरी माता भी पूजनीय है.” इस ब्यान से स्पष्ट है कि किस तरह आदिवासियों को वनवासी बता कर उन्हें राम से जोड़ा जा रहा है. कौन नहीं जानता कि राम सूर्यवंशी क्षत्री थे. फिर भी आदिवासियों को जबरदस्ती भगवन राम के वंशज बता कर गुमराह किया जा रहा है. वास्तव में अदिवासियों को आदिवासी कहने से मूलनिवासी और विदेशी आर्यों का प्रशन खड़ा हो जाता है जिससे  हिंदुत्व की राजनीति का माडल भी ध्वस्त हो जाता है. इसके अतिरिक्त आरएसएस आदिवासियों का धर्म, संस्कृति, देवी देवता और रस्मो-रिवाज़ बदल कर उनकी पहचान नष्ट करना चाहती है जबकि संविधान में उन्हें जनजातियों की पहचान दी गयी है और उन्हें आरक्षण एवं आदिवासी क्षेत्रों में विशेष प्रशासन व्यवस्था दी गयी है. आरएसएस उनकी आदिवासी की पहचान नष्ट करके उन्हें अपने विरोधियों के खिलाफ सैनिकों के तौर पर इस्तेमाल करती है. आदिवासियों को उनकी इस चाल को समझ कर उससे बच कर रहना होगा.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि लगभग सभी आदिवासी क्षेत्र विकास में बुरी तरह से पिछड़े हुए हैं. यद्यपि आदिवासियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिला हुआ है परन्तु सरकारी नौकरियों में केवल 4.36% परिवार ही नौकरी पा सके हैं. सामाजिक आर्थिक जनगणना-2011 के अनुसार 86.53% आदिवासी परिवारों की मासिक आमदन 5,000 से कम है. केवल 8.95% परिवारों की मासिक आय 5,000 से 10,000 तक है और 4.48% परिवारों की मासिक आय 10,000 से अधिक है. इससे स्पष्ट है कि अधिकतर आदिवासी परिवार गरीबी की रेखा के निचे हैं. यद्यपि अधिकतर आदिवासी जंगल और पहाड़ वाले क्षेत्रों  में रहते हैं परन्तु उन में से 56% परिवार भूमिहीन हैं. इनमे से 51% परिवार केवल हाथ का श्रम कर सकते हैं और 90% परिवार नियमित तनखाह वाली नौकरियों के बिना हैं. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि अमित शाह का आदिवासियों का अप्रत्याशित विकास करने का दावा एक दम झूठा है  
इतना ही नहीं आरएसएस आदिवासियों का जबरदस्ती हिन्दुकरण करके उन्हें ईसाई बने आदिवासियों के खिलाफ भड़काती और लड़ाती है. इसके साथ ही नक्सल प्रभावित राज्यों जैसे छत्तीसगढ़ में उनके एक तबके को सरकारी तौर पर हथियार देकर सलवा जुड़म जैसे संगठनों के माध्यम से अपने ही लोगों को मरवाती है. लगभग सभी भाजपा शासित राज्यों में आदिवासियों का धर्म परिवर्तन रोकने के लिए क़ानून बने हैं. इससे उनका ईसाईकरण तो रुक गया है परन्तु आरएसएस द्वारा उनका हिन्दुकरण खुले आम किया जा रहा है. यह अधिकतर भाजपा शासित राज्यों में हो रहा है.
उपरोक्त संक्षिप्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि आरएसएस/भाजपा का आदिवासी हितैषी होने का दावा बिलकुल खोखला है . इसके विपरीत उसके कार्यकलाप आदिवासी विरोधी तथा कार्पोरेट परस्त हैं. आरएसएस तो उनकी आदिवासी की पहचान ख़त्म करके उनके धर्म, संस्कृति और अस्तित्व को ही समाप्त करने पर तुली है. जैसाकि ऊपर दर्शाया गया है कि उनके सशक्तिकरण हेतु बनाये गये वनाधिकार कानून को भाजपा शासित राज्यों में जानबूझ कर लागू नहीं किया गया है. आरएसएस तो सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से इस कानून को ही ख़त्म कराने के प्रयास में लगी है. भाजपा सरकारें नक्सल प्रभावित राज्यों में आदिवासियों की जल, जंगल और ज़मीन सम्बन्धी समस्यायों को हल करने की बजाये उन्हें नक्सलवादी कह कर मार रही हैं और उन्हें  जंगल से उजाड़ने में लगी हैं. अतः आदिवासियों को आरएसएस/भाजपा से बहुत सतर्क रहने की ज़रुरत है क्योंकि वह आदिवासी विरोधी और कार्पोरेट परस्त है.
  





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