मंगलवार, 25 सितंबर 2018

आरएसएस का भ्रमजाल या कोई बदलाव - अखिलेंद्र प्रताप सिंह

आरएसएस का भ्रमजाल या कोई बदलाव
- अखिलेंद्र प्रताप सिंह
मोहन भागवत के तीन दिन के सम्मेलन के बाद कई तरह की टिप्पणी दिख रही है। उसमें जो मुझे दिखता है एक तो मैं उन लोगों का विचार सुन रहा हूं जो लोग आरएएसस को सिद्धांत और व्यवहार के रूप में बहुत करीब से देखते हैं। उनका ये मानना है कि आरएसएस ने ये दरअसल भ्रम पैदा करने के लिए किया है। और इसमें ये समझना कि कोई बदलाव है खुद को भ्रम में रखने जैसी बात होगी। वो लोग भागवत के इस कनक्लेव को बहुत महत्व नहीं दे रहे हैं और आमतौर पर खारिज कर रहे हैं। एक ये भी नजर है कि संघ ने बड़े बदलाव की तरफ इशारा किया है और उस तरफ भी ध्यान देने की जरूरत है।
मुझे जहां तक लगता है संघ की जो दृष्टि है और उसका जो स्वभाव है उसमें कोई बदलाव नहीं है। लेकिन संघ की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति जरूर है जो अपने में खासतौर पर संविधान और संसदीय राजनीतिक व्यवहार के बारे में एक नई अभिव्यक्ति है जिसे देखने की जरूरत है। संघ ये मानता है कि भारत में संविधान के पीछे केवल उदारपंथियों की नहीं बल्कि सामाजिक शक्तियों की भी एक बड़ी ताकत है और अभी तक की जो संसदीय व्यवस्था है उसमें संसदीय प्रणाली राष्ट्रपति प्रणाली से बेहतर है। इसलिए इन दोनों को उसने स्वीकार किया है और मैं समझता हूं कि पहली बार संघ ने स्पष्ट तौर पर इसको स्वीकार किया है।
इसमें शासन करने के लिए एक राजनीतिक मंच (बीजेपी) द्वारा उसने जो शासन किया उस व्यवहार से भी उसे एक नई सीख मिली। संघ ने ये माना है कि संविधान और संसदीय राजनीति जैसी चल रही है वैसे चलने दिया जाए। जहां तक उन्होंने हिंदुत्व की बात की है, अल्पसंख्यकों के मामले में गुरु गोलवलकर के विचारों को बदलने की बात की है तो उसमें कोई मौलिक बदलाव नहीं है। क्योंकि मूल प्रश्न ये नहीं है कि वो मुसलमान को स्वीकार करते हैं या नहीं करते हैं। मुसलमानों को वो सशर्त पहले भी स्वीकार करते थे आज भी स्वीकार करते हैं। उनका मानना है कि हिंदुस्तान में मुसलमानों को अपने पूर्वजों का, अपनी परंपरा का, अपनी संस्कृति का सम्मान करना पड़ेगा, उसे स्वीकार करना पड़ेगा।
जैसा कि उनके प्रेरणास्रोत सावरकर या फिर गुरूजी के विचार रहे हैं, वो इस बात को भी ले आते हैं कि आपको इसे पितृभूमि ही नहीं बल्कि पूण्यभूमि भी मानना पड़ेगा। ये जो उनका सैद्धांतिक सूत्रीकरण है, इस पर वो अभी भी अडिग हैं। संघ की इस मूल दृष्टि में कोई बदलाव नहीं हुआ है। गैर हिंदुओं पर यह सांस्कृतिक दबाव वो बनाए रखना चाहते हैं। अब इसमें उन्होंने दोनों पद्धतियों को स्वीकार किया है लेकिन अंतिम पद्धति उनकी हमले और दबंगई की है। इसको भी वो बदलने नहीं जा रहे हैं। जैसे वो मानते हैं कि हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए प्राण देना और प्राण लेना उनका राष्ट्रीय कर्तव्य है।
हिंदुओं का सैन्यीकरण और सैनिकों का हिंदूकरण जैसी जो उनकी कुछ मूल स्थापनाएं हैं इसको वो मानते हैं। और जिस दिन संघ पूण्यभूमि और पितृभूमि के झगड़े को खत्म कर देगा। मातृभूमि के तौर पर सब लोग तो इसे स्वीकार ही करते हैं। लेकिन उनका जो सांस्कृतिक दबाव है, राजनीतिक दबाव है पूण्यभूमि मानने का। जिस दिन वो इस विचार से अपने को अलग करेंगे तब फिर आरएसएस के बने रहने का या फिर हिंदुत्व के बने रहने का औचित्य ही खत्म हो जाएगा।
इसीलिए अपने कारण का निषेध करके और फिर उसका कोई आधार ही न रहे वो नहीं चल सकते हैं। ये भारत वर्ष के लिए एक लंबी लड़ाई है जो संघ लड़ना चाहता है." अभी संघ सरकार की दृष्टि से ये महसूस जरूर करता है कि बहुत सारी सामाजिक शक्तियां जो हमसे अलगाव में हैं और इससे शासक वर्ग के एलीट हिस्से में एक संदेश है कि बीजेपी तो चलो ठीक है लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जो लोग हैं वो समाज में इस तरह का काम कर रहे हैं। उस हिस्से को यहां पूंजी निवेश करने में डर लगता है। उनको भी उन्होंने आश्वस्त किया है कि वो किसी पुराने विचार के साथ नहीं हैं और वो भी मॉब लिंचिंग के खिलाफ हैं। वो भी चाहते हैं कि समाज में एक अच्छा माहौल रहे। लोगों के बीच संबंध रहे।
"कानून को हाथ में न लें। हमारा संघ भी ऐसा कुछ नहीं करेगा जो कानून के दायरे के इतर हो।" ये आश्वस्त करना चाहते हैं। वो बीजेपी और संघ के बीच के अंतरविरोध को देखते हैं और बदलती हुई स्थितियों में वो आधुनिक ढंग से काम करना चाहते हैं। और हम गैर राजनीतिक हैं इसलिए हमारे राजनीतिक स्वयंसेवक जहां काम कर रहे हैं उन्हीं के अनुरूप हम भी आचरण करते हैं जिसे वो दिखाना चाहते हैं। लेकिन यहां भी उनका एक अंतरविरोध है पूरे वक्तव्य में जहां से उन्होंने शुरूआत की थी और अंत में जहां उन्होंने उसे खत्म किया। उसका उन्होंने निषेध कर दिया। उन्होंने कहा कि कानून का राज होना चाहिए इसको स्वीकार करते हैं लेकिन अब कह रहे हैं कि किसी भी तरीके से मंदिर बनवाओ। ये मुख्यरूप से उसी का निषेध है।
आप कह सकते थे कि जो लोग राजनीति कर रहे हैं ये उनका मामला है, वही देखेंगे या फिर मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और वहां से जो भी फैसला होगा, देखा जाएगा। लेकिन किसी भी तरीके से बनवाओ ये जो आग्रह है। ये किन कारणों से हो सकता है, ये आने वाले दिनों में स्पष्ट होगा। या हो सकता है कि ये लोग अपनी कांस्टीट्यूंसी को मेसेज दे रहे हों कि राम मंदिर हमारे लिए केवल नारेबाजी का मुद्दा नहीं है, हम इसको गंभीरता से ले रहे हैं। और दूसरा ये भी मेसेज दे रहे हों कि राममंदिर बनाया जाना चाहिए और नई राजनीतिक परिस्थिति में खड़ा होकर 2019 के चुनाव में मुद्दा बनाया जा सकता है।
उन्होंने जहां तक हिंदुत्व की व्याख्या की हैकि जो हिंदू धर्म है उसका हिंदुत्व से कुछ लेना-देना नहीं है। हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है। लेकिन वो बंधुत्व की जो परिभाषा हिंदुत्व में देखते हैं, विश्व बंधुत्व में समानता, स्वतंत्रता की जो अवधारणा है वह मूलतः तर्क पर आधारित है, उससे अलग है। उनका बंधुत्व आस्था पर आधारित है। यहां हर चीज आस्था के नाम पर की जाती है। इस तरह से भारत में आस्था का संकट नहीं है बल्कि यहां तर्क, विवेक और वैज्ञानिक सोच का संकट है। ज्ञान हमारे देश में विकसित हो इसलिए ऐसा हिंदुत्व जिसमें तर्क के लिए, विज्ञान के लिए, विवेक के लिए जगह नहीं हो। उस तरह के हिंदुत्व को विश्व बंधुत्व कहकर आप उसका चरित्र जो गैर वैज्ञानिक है, गैर मानवीय है का महिमांडन कर रहे हैं।
जनराजनीति के बारे में भी इनकी कोई धारणा स्पष्ट नहीं है। इनकी कोशिश जरूर रहती है कि डा. अंबेडकर से लेकर गांधी तक को समाहित कर लें। डा. अंबेडकर आधुनिक वैज्ञानिक व्यक्ति हैं इसलिए ये कहकर कि फ्रांस की क्रांति में जो समानता, बंधुत्व की अवधारणा है उसको न स्वीकार करके बुद्ध में जो समानता बंधुत्व है अंबेडकर उसकी बात करते हैं। इसके जरिये वो डाक्टर अंबेडकर के बारे में अपनी समझ को थोपते हैं। डा. अंबेडकर एक आधुनिक भारत बनाने के लिए ज्यादा जोर दलितों पर इसलिए देते हैं क्योंकि बिना उनको गोलबंद किए एक स्वतंत्र व्यक्ति का आविर्भाव नहीं हो सकता है। एक नागरिकता का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता है जातीय बंधन में बांधकर दलितों को मनुष्य बनने के अधिकार से ही वंचित कर दिया गया था।
इसलिए वो उस समाज को साथ लेने की बात करते हैं। डा.अंबेडकर भी लाते हैं और गांधी जी भी हिंद स्वराज में जो लिखे हैं और 1947 आते-आते वो उसमें सुधार नहीं बल्कि जाति तोड़क की भूमिका में आ जाते हैं। तो गांधी का निरंतर विकास हो रहा है। वो कभी भी गांधी को पचा नहीं पाएंगे। पूरा संविधान आधारशिला है जिसे नेहरू ने बनाया और ड्राफ्ट कमेटी ने तैयार किया। गांधी उसकी आत्मा हैं। इसलिए लोकतांत्रिक अधिकार से लेकर नीति निर्देशक तत्व तक ये सब बाते हैं। इसमें गांधी का आधुनिक विचार दिखता है जो नेहरू के माध्यम से सामने आता है।
इसलिए गांधी और नेहरू के बीच कोई अंतरविरोध तलाशना बेमानी है। दोनों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किए जाने की कोशिश की जाती है। ये भी दांव लगाते हैं और कभी गांधी को नेहरू तो कभी नेहरू को गांधी के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश करते हैं। दरअसल ये नेहरू के माध्यम से गांधी को हराना चाहते हैं। आरएसएस के लोग कभी-कभी चाणक्य की नीति की बात करते हैं। लेकिन चाणक्य की नीति में भी एक सोशल मोरलिटी है एक सामाजिक नैतिकता है। यह सामाजिक नैतिकता संघ में नहीं है। क्योंकि संघ में आप देखिएगा कि किस तरह से खुद में संघ के मूल स्रोत के विचारक सावरकर अपनी रिहाई के मामले में क्या-क्या करते हैं। खुद देवरस इमरजेंसी के दौरान क्या-क्या किए?
यहां तक कि संघ में एक धारा रही है जिसमें नाना जी देशमुख जिन्होंने लोहिया वगैरह से लेकर गांधी को स्वीकार किया और कहा कि बिना इन लोगों को लिए हम भारत वर्ष में नहीं बढ़ सकते हैं। कम्यूनिस्ट संदर्भ में न कार्यनीति के संदर्भ में इन्होंने कोई बदलाव किया है। और न ही चाणक्य नीति के संदर्भ में ऐसा कुछ हुआ है। दरअसल ये परिस्थितियों के हिसाब से समय-समय पर अपनी मूल दृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए समायोजन करते रहते हैं। ये इन सब प्रश्नों पर काम करते हैं। आज की तारीख में अगर हम समग्रता में देखें तो मोहन भागवत जो कह रहे हैं उससे कुछ मोटी बातें निकलती हैं।
एक मोटी बात ये निकलती है कि उन्होंने सामाजिक दबाव में अभी जो कमजोर बिंदु है उसके लिहाज से संविधान में जो सेकुलरिज्म और समाजवाद है उसको स्वीकार किया है और अभी जो संसदीय प्रणाली है राष्ट्रपति प्रणाली की जगह उसे बनाए रखने के पक्ष में हैं। इस संदर्भ में ये बात जरूर देखना होगा। ये जो पुरानी बात को नये ढंग से कह रहे हैं इसने उन लोगों के लिए मुश्किल खड़ा कर दिया है जो हिंदू-हिंदू खेल में लगे हुए हैं। जैसे कांग्रेस का पूरा ये खेल था कि ये कट्टरपंथी हिंदू और मैं उदारवादी, सनातनी हिदू हूं।
आरएसएस ने उनके इस स्पेस को कम किया है और कम से कम अवधारणा के स्तर पर ये बहस चला दिया है कि ये भी सनातनी हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग हैं। इसने उनके लिए भी और जो लोग समाजशास्त्र को अर्थनीति से अलग-थलग करके इनको वास्तविक हिंदू धर्म का प्रतिनिधि नहीं मानते उनके लिए भी चुनौती कड़ा कर दिया है। इन्होंने अपने कैनवास को बड़ा किया है जिसमें धर्म में अपने को सनातनी कहते हैं और राजनीति जो हिंदुत्व की विचारधारा है उसको सार्वजनिक विश्व बंधुत्व से जोड़ते हैं या फिर उसकी कोशिश करते हैं।
उदारवाद की भी अपनी सीमाएं हैं। जो लोग उदारवाद और अनुदारवाद के जरिये इनसे लड़ना चाहते हैं उनके सामने जरूर संकट है। और कांग्रेस को इसका सैद्धांतिक जवाब देना होगा जो अभी तक नहीं आया है। मैं समझता हूं कि इनका पूरा प्रोजेक्ट पूरी तरह से एक अधिनायकवादी वैचारिका प्रक्रिया है जो वर्चस्ववादी है और बुनियादी तौर पर लोकतंत्र विरोधी है। जिसमें ये माडर्न, सिटीजनशिप कंसेप्ट के विरोधी हैं। नागरिकता के विरोधी हैं। समाज के सेकुलराइजेशन के विरूद्ध हैं। मूलत: ये लोकतंत्र विरोधी विचार है और इसका जवाब सुसंगत लोकतांत्रिक पद्धति से ही दिया जा सकता है। लोकतंत्र की व्याख्या केवल सामाजिक संदर्भों में ही नहीं बल्कि उसकी आर्थिक व्याख्या भी की जानी चाहिए।
भारत में एक राष्ट्रीय अर्थनीति की भी जरूरत है और स्वदेशी के मामले में भी ये पूरी तरह से नाकाम हुए हैं। पीछे हटे हैं। जो पर्दा लगा रखा था उसे हटा लिया है। इसलिए भारत वर्ष में राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक एक वैकल्पिक धारणा है वो इस देश में उदार अर्थव्यवस्था के विरुद्ध खड़ी होती है। नेशनल अर्थव्यवस्था को बनाती है। जिसमें छोटे-छोटे कल कारखाने और देश में पूंजी का निर्माण जो राष्ट्रीय आंदोलन में लक्ष्य लिया गया उन सब को पूरा करने का सवाल है। सेकुलराइजेशन, नागरिकता और पूंजी निर्माण में बाधा पैदा करने वाले जो पुराने अवशेष बचे हैं उनको हटाने के लिए और एक नये राज्य के माध्यम से, विश्व स्तरीय ताकतों से एकताबद्ध होने के जरिये वित्तीय पूंजी के शोषण के शिकार खासकर भारत के पड़ोसी मुल्कों, के साथ एकताबद्ध होने की जरूरत है।
मूल रूप से बड़े राजनीतिक प्लेटफार्म की जरूरत है जिसे संघ ने जो चुनौती पेश की है उसका मुकाबला करना है। पुराना जो फार्मुलेशन है वो इनकी विचार प्रक्रिया से लड़ने की बजाय उनके कुछ भौतिक फार्मेंशन तक सीमित रह जाता है। ये थोथे स्तर पर इनका विरोध करता है। वो लोग इनसे वैचारिक स्तर पर अभी नहीं लड़ पाएंगे। जैसे कुछ लोग अभी तक कहते थे कि रजिस्ट्रेशन नहीं कराया है वो अपना रजिस्ट्रेशन करा लेंगे। वो ये भी कह रहे हैं कि ग्रुप आफ इंडिविजुअल के तौर पर उनका रजिस्ट्रेशन है। ये भी कह रहे हैं कि उनका आडिट होता है। अब आप कहां खड़े होंगे?
सवाल कुछ तकनीकी प्रश्न की जगह सामाजिक न्याय की ताकतों को भी संघ ने जो चुनौती पेश की है उसके बारे में सोचना होगा। और जो दलित बहुजन दृष्टि है वो लाक्षणिक संदर्भों में ही इसका विरोध करती है। उसके सामने भी अर्थव्यवस्था से लेकर सामाजिक व्यवस्था में एक नागरिक के अस्तित्व की स्वीकृति और उसका सेकुलराइजेशन एक बड़ा प्रश्न है। और उसे इसको हल करना होगा।
आज एक नये किस्म के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक ढांचे की जरूरत है जो व्यक्ति के अस्तित्व और उसके सेकुलराइजेशन की स्वीकृति देता हो। और संघ ने इस स्तर पर जो चुनौती पेश की है उसका सैद्धांतिक और व्यवहारिक स्तर पर मुख्यधारा के दल जवाब दे पाएंगे ऐसा अभी नहीं दिख रहा है। इसमें संघ के संकट को कभी भी कम मानने की जरूरत नहीं है। या फिर उसे समावेशी समाज के किसी नये प्रवक्ता के बतौर नहीं देखा जा सकता है। क्योंकि उनकी जो मूलदृष्टि है वो समाज के एक बड़े हिस्से को बहिष्कृत करती है और वो राष्ट्रवाद के नाम पर पराधीन साम्राज्यवाद की सेवा करता है।
(अखिलेंद्र प्रताप सिंह स्वराज अभियान के प्रेजिडियम के सदस्य हैं।)



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