गुरुवार, 26 मई 2016

डॉ. आंबेडकर का आगरा का ऐतिहासिक भाषण



डॉ. आंबेडकर का आगरा का ऐतिहासिक भाषण
(18 मार्च, 1956)
(नोट:- डॉ. आंबेडकर का यह भाषण ऐतिहासिक और अति महत्वपूर्ण है क्योंकि इस भाषण में उन्होंने अपने तब तक के अनुभव और भविष्य की रणनीति के संकेत दिए हैं. इस में उन्होंने दलित समाज के विभिन्न वर्गों को संबोधित किया है और उनके लिए दिशा निर्देश दिए हैं. वास्तव में यह भावी दलित आन्दोलन के लिए दिशा सूचक थे परन्तु बहुत अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि दलितों ने इन को नज़रंदाज़ किया है जिस का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव 2011 की जनगणना में बौद्धों की जन्संसख्या वृद्धि दर में भारी गिरावट के रूप में सामने आया है. आज दलित समाज बाबासाहेब के जाति उन्मूलन और बौद्ध धम्म आन्दोलन से दूर चला गया है. सिद्धान्तहीन और अवसरवादी दलित राजनीति ने बाबासाहेब के सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन को बहुत पीछे धकेल दिया है. आज दलित समाज संगठित होने की बजाये जाति बिखराव का शिकार है. लगता है बाबासाहेब का कारवां आगे बढ़ने की बजाये पीछे की ओर चला गया है. यह सभी आम्बेडकरवादियों के लिए गहन चिंतन का विषय होना चाहिए.)  
जनसमूह से
पिछले तीस वर्षों से तुम लोगों को राजनैतिक अधिकार दिलाने के लिए मैं संघर्ष कर रहा हूँ. मैंने तुम्हें संसद और राज्य विधान सभायों में सीटों का आरक्षण दिलाया है. मैंने तुम्हारे बच्चों की शिक्षा के लिए  उचित प्रावधान करवाए हैं . आज हम प्रगति कर सकते हैं. अब यह तुम्हारा कर्तव्य है कि शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक गैर बराबरी  को दूर करने के लिए एकजुट होकर इस संघर्ष को जारी रखें. इसी उदेश्य हेतु तुम्हें हर प्रकार की कुर्बानियों के लिए तैयार रहना चाहिए जहाँ तक कि खून बहाने के लिए भी.
नेताओं से
“यदि कोई तुम्हें अपने महल में बुलाता है तो स्वेच्छा से जाओ.लेकिन अपनी झोंपड़ी में आग लगा कर नहीं. यदि वह राजा किसी दिन आपसे झगड़ता है और आप को अपने महल से बाहर धकेल देता है , उस समय तुम कहाँ जायोगे? यदि तुम अपने आपको बेचना चाहते हो तो बेचो लेकिन किसी भी तरह अपने संगठन को बर्बाद करने की कीमत पर नहीं. मुझे दूसरों से कोई खतरा नहीं है , लेकिन मैं अपने लोगों से ही खतरा महसूस कर रहा हूँ. “
भूमिहीन मजदूरों से
“मैं गाँव में रहने वाले भूमिहीन मजदूरों के लिए काफी चिंतित हूँ. मैं उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाया हूँ. मैं उनके दुःख और तकलीफें सहन नहीं कर पा रहा हूँ.उनकी तबाहियों का मुख्य कारण यह है कि उनके पास ज़मींन नहीं है. इसी लिए वे अत्याचार और अपमान का शिकार होते हैं. वे अपना उत्थान नहीं कर पाएंगे. मैं इनके लिए संघर्ष करूँगा.यदि सरकार इस कार्य में कोई बाधा उत्पन्न करती है तो मैं इन लोगों का नेतृत्व करूँगा और इन की वैधानिक लड़ाई लडूंगा. लेकिन किसी भी हालत में भूमिहीन लोगों को   ज़मीं दिलवाने की प्रयास करूँगा.”
अपने समर्थकों से
“ बहुत जल्दी ही मैं तथागत बुद्ध की शरण को अंगीकार कर लूँगा. यह प्रगतिवादी धर्म है. यह समानता,  स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित है. मैं इस धर्म को बहुत सालों के प्रयास के बाद खोज पाया हूँ. अब मैं जल्दी ही बुद्धिस्ट बन जायूँगा. तब एक अछूत के रूप में मैं आप के बीच नहीं रह पायूँगा. लेकिन एक सच्चे बुद्धिस्ट के रूप में तुम लोगों के कल्याण के लिए संघर्ष जारी रखूँगा. मैं तुम्हें अपने साथ बुद्धिस्ट बनने के लिए नहीं कहूँगा क्योंकि मैं अंधभक्त नहीं चाहता. केवल वे लोग ही जिन्हें इस महान धर्म की शरण में आने की तमन्ना है, बौद्ध धर्म ग्रहण कर सकते हैं जिससे वे इस धर्म में दृढ विशवास के साथ रहें और इसके आचरण का अनुसरण करें.”
बौद्ध भिक्षुओं से
“बौद्ध धर्म एक महान धर्म है. इस धर्म के संस्थापक तथागत ने इस धर्म का प्रसार किया और अपनी अच्छाईयों के कारण यह धर्म भारत में  दूर-दूर तक एवं गलीकूचों तक पहुँच सका. लेकिन महान उत्कर्ष के बाद यह वर्ष 1293 ई. में विलुप्त हो गया. इसके कई कारण हैं. एक कारण यह भी है कि बौद्ध भिक्षु विलासितापूर्ण जीवन जीने के आदी हो गए. धर्म प्रचार हेतु स्थान-स्थान पर जाने की बजाये उन्होंने विहारों में आराम करना तथा रजवाड़ों की प्रशंसा में पुस्तकें लिखना शुरू कर दिया. अब इस धर्म की पुनर्स्थापना हेतु उन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी. उन्हें दरवाजे- दरवाजे जाना पड़ेगा. मुझे समाज में बहुत कम भिक्षु दिखाई देते हैं. इसी लिए जन साधारण में से अच्छे लोगों को भी इस धर्म के प्रचार हेतु आगे आना चाहिए.”
शासकीय कर्मचारियों  से
“हमारे समाज में शिक्षा  से कुछ प्रगति हुयी है. शिक्षा प्राप्त करके कुछ लोग उच्च पदों पर पहुँच गए हैं. परन्तु इन पढ़े-लिखे लोगों ने मुझे धोखा दिया है. मैं आशा कर रहा था कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे समाज की सेवा करेंगे. किन्तु मैं क्या देख रहा हूँ कि छोटे और बड़े क्लर्कों की एक भीड़ एकत्रित हो गयी है जो अपने पेट भरने में व्यवस्त हैं. ये जो शासकीय सेवाओं में नियोजित हैं उनका कर्तव्य है कि उन्हें अपने वेतन का बीसवां भाग (5 प्रतिशत) स्वेच्छा से समाज सेवा के कार्य हेतु देना चाहिए. तब ही समाज प्रगति करेगा अन्यथा केवल एक ही परिवार का सुधार होगा. एक वह बालक जो गाँव में शिक्षा प्राप्त करने जाता है सम्पूर्ण समाज की आशाएं उस पर टिक जाती हैं. एक शिक्षित सामाजिक कार्यकर्त्ता उनके लिए वरदान साबित हो सकता है.”
छात्र-छत्राओं से
“मेरी छात्र-छात्राओं से अपील है कि शिक्षा प्राप्त करने के बाद किसी प्रकार की कलर्की करने की बजाये उन्हें  अपने गाँव की अथवा उसके आस-पास के लोगों की सेवा करनी चाहिए जिससे अज्ञानता से उत्पन्न शोषण एवं अन्याय को रोका जा सके. आपका उत्थान समाज के उत्थान में ही निहित है.”
भविष्य की चिंता
“आज मेरी स्थिति एक बड़े खम्भे की तरह है, जो विशाल टेंटों को संभाल रही है. मैं उस समय के लिए चिंतित हूँ कि जब यह खम्भा अपनी जगह पर नहीं रहेगा. मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है. मैं नहीं जानता मैं कब आप लोगों के बीच से चला जायूँ. मैं किसी ऐसे नवयुवक को  नहीं ढूंढ पा रहा हूँ जो इन करोड़ों असहाय और निराश लोगों के हितों की रक्षा करे. यदि कोई नौजवान इस ज़िम्मेदारी को लेने के लिए आगे आता है तो मैं चैन से मर सकूँगा.”





  

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