कानून और पूर्वाग्रह
एस. आर. दारापुरी आई.पी.एस.
(से.नि.)एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
भारत की जेलों में आधे से अधिक
बंदी कमज़ोर वर्ग की जातियों के हैं जब किअमीर लोग कानून को धत्ता बता कर बच निकलते
हैं.
हरेक देश आधुनिकता और प्रगति का दावा बढ़ा चढ़ा कर
करता है. फिर भी हरेक देश वर्गों का भद्दा ध्रुवीकरण, समाज के पायदान पर पड़े लोगों
का शोषण, धन संपत्ति से वन्चितिकरण, सत्ता और विशेषधिकार की व्यवस्था को मज़बूत
करता है. भारत में भी इसी प्रक्रिया के सुदृढ़ीकरण की उदाहरण दी जा रही है. इसी
महीने जेलों पर जारी की गयी सरकारी
रिपोर्ट यह दर्शाती है कि दलित, आदिवासी और मुसलमान जो कि समाज का अति पिछड़ा वर्ग
हैं की जेलों में बंद कैदियों की संख्या आधे से अधिक है. सब से बड़ी हैरानी की बात यह है कि
इन वर्गों की जनसँख्या देश की कुल जनसंख्या का केवल 39% है जबकि जेलों में इन की जनसंख्या
53% है.
हाल में ही जेलों के बारे में
जारी की गयी रिपोर्ट यह दर्शाती है कि हमारी व्यवस्था किस प्रकार विषमतावादी,
अमीरों की पक्षधर और गरीबों के विरोध में खड़ी है. उदहारण के लिए 2013 में भारत की जेलों में 4.2 लाख बंदी थे. इन में से 20%
मुसलमान थे जब कि 2001 की जनगणना के अनुसार इन की आबादी देश की कुल आबादी का केवल 13%
थी. दलितों की 17% आबादी के विरुद्ध जेलों में उन की संख्या 22% और आदिवासियों की 9%
आबादी के विरुद्ध 11% थी.
अब तक हम सब लोग भली भांति अवगत
हो चुके हैं कि मुसलामानों को आतंक के
मामलों में कैसे झूठा फंसाया जाता है. इन लोगों को बहुत देर के बाद न्याय मिल पाता
है. जेल में लम्बे समय तक बंद रह कर छूटने और जीवन भर के लिए कलंकित हो जाने के
कारण बीती ज़िन्दगी को वापस लाना असंभव हो
जाता है. हमारे वर्ग विभाजित समाज में गरीब लोगों को शिकार बनाना बहुत आसान है. इस
भेदभाव वाली संस्कृति की व्ययस्था में अमीर और प्रभावशाली लोगों के लिए कानून से बच
निकलना बहुत आसान है चाहे उन का अपराध कितना भी संगीन क्यों न हो. दागी मंत्री
(केन्द्रीय मंत्री निहाल चाँद मेघवाल और राज्य सभा के उपसभापति कुरियन) संगीन
आपराध के आरोपी होने के बावजूद भी अपने सत्ता के पदों पर विराजमान हैं. इसी प्रकार
की नर्मी फंड का भारी अपव्यय करने और बड़े बड़े घोटालों के आरोपियों के मामलों में
भी देखी जा सकती है. अक्सर सत्ता और विशेषाधिकार कानून के राज से ऊपर दिखाई देते हैं जब कि यह केवल गरीबों पर ही लागू होता दिखाई
देता है.
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो
द्वारा जेलों के बारे में 1995 से और 1999 से जातिवार जारी किये जा रहे आंकड़ों से
यह देखा जा सकता है कि पिछले पंद्रह साल से दलित, मुस्लिम और आदिवासी कैदियों की संख्या में कोई कमी नहीं आई है. साफ़ तौर पर
यह हमारी व्यवस्था में जाति, साम्प्रदाय और वर्ग आधारित पूर्वाग्रह का ही परिणाम
है. वे कानून को सामान रूप से लागू करने
में बहुत बड़ी बाधा हैं.
इस बात में ही कुछ सांत्वना मिलती है कि केवल
भारत ही ऐसा देश नहीं है जहाँ पर कानून व्यवस्था जाति, वर्ग और धर्म के
पूर्वाग्रहों से प्रभावित होती है. अमेरिका जैसे विकसित देश की जेलों में भी रंगभेद
का पूर्वाग्रह काले और गोरे कैदियों की
संख्या के अनुपात में स्पष्ट दिखाई देता है. नैशनल असोसिएशन फार प्रोटेक्शन आफ दी
कलर्ड पीपुल्स द्वारा जारी आंकड़े बताते
हैं कि जेलों में बंद कुल 20.30 लाख लोगों में 10 लाख अफ्रीकन-अमेरिकन हैं जो कि
गोरों की अपेक्षा 6 गुना अधिक हैं. इतना ही नहीं है. कहा जाता है कि अमेरिका में लगभग
1.40 करोड़ गोरे और 2.60 करोड़ काले अवैध
ड्रग्स का सेवन करते हैं. दूसरे शब्दों में काले लोगों के मुकाबले में 5 गुणा अधिक
गोरे ड्रग्स का इस्तेमाल करते हैं परन्तु अवैध ड्रग इस्तेमाल करने के अपराध में
जेल भेजे जाने वाले काले लोगों की दर गोरे लोगों की दर से 10 गुना अधिक है.
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