मायावती का दलित वोट बैंक क्यों खिसका ?
-एस. आर. दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
हाल के लोक सभा चुनाव के परिणामों पर मायावती ने प्रतिक्रिया व्यक्त
करते हुए कहा है कि उन की हार के पीछे मुख्य कारण गुमराह हुए ब्राह्मण, पिछड़े और मुसलमान समाज द्वारा वोट न देना
है जिस के लिए उन्हें बाद में पछताना पड़ेगा. इस प्रकार मायावती ने स्पष्ट तौर पर
मान लिया है कि उस का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला फेल हो गया है. मायावती ने यह
भी कहा है कि उस की हार के लिए उसका यूपीए को समर्थन देना भी था. उस ने आगे यह भी
कहा है कि कांग्रेस और सपा ने उस के मुस्लिम और पिछड़े वोटरों को यह कह कर गुमराह
कर दिया था कि दलित वोट भाजपा की तरफ जा रहा है. परन्तु इस के साथ ही उस ने यह
दावा किया है कि उत्तर प्रदेश में उसकी पार्टी को कोई भी सीट न मिलने के बावजूद उस
का दलित वोट बैंक बिलकुल नहीं गिरा है. उस ने अपने वोट बैंक में इजाफा होने का
दावा भी किया है.
आइये उस के इस दावे की सत्यता की जांच उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर
करें:-
यदि बसपा के 2007 से लेकर अब तक चुनाव परिणामों को देखा जाये तो यह
बात स्पष्ट तौर पर उभर कर आती है कि पिछले 7 साल से जब से मायावती ने बहुजन की
राजनीति के स्थान पर सर्वजन की राजनीति शुरू की है तब से बसपा का जनाधार बराबर घट
रहा है. 2007 के असेंबली चुनाव में बसपा को 30.46%, 2009 के लोकसभा चुनाव में 27.42% (-3.02%), 2012 असेंबली चुनाव में 25.90% (-1.52%)
तथा 2014 के लोक सभा चुनाव में 19.60% (-6.3%)वोट मिला है. इस से स्पष्ट है कि
मायावती का दलित वोट बैंक के स्थिर रहने का दावा उपलब्ध आंकड़ों पर सही नहीं उतरता
है.
मायावती का यह दावा कि उस का उत्तर प्रदेश में वोट बैंक 2009 में 1.51
करोड़ से बढ़ कर 2014 में 1.60 करोड़ हो गया है भी सही नहीं है क्योंकि इस चुनाव में
पूरे उत्तर प्रदेश में बढ़े 1.61 करोड़ नए मतदाताओं में से बसपा के हिस्से में केवल
9 लाख मतदाता ही आये हैं . राष्ट्रीय चुनाव आयोग द्वारा जारी आंकड़ों
के अनुसार भी बसपा का वोट बैंक 2009 के 6.17 % से 2% से अधिक गिरावट के कारण घट कर
4.1% रह गया है. सेंटर फार स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटी के निदेशक संजय कुमार ने भी
बसपा के कोर दलित वोट बैंक में सेंध लगने की बात कही है.
मायावती का कुछ दलितों द्वारा गुमराह हो कर भाजपा तथा अन्य पार्टियों
को वोट देने का आरोप भी बेबुनियाद है. मायावती यह अच्छी तरह से जानती हैं कि
दलितों का एक बड़ा हिस्सा चमारों सहित 2012 के असेंबली चुनाव में ही उस से अलग हो
गया था. इस का मुख्य कारण शायद यह था कि मायावती ने दलित राजनीति को उन्हीं
गुण्डों. माफियायों और पूंजीपतियों के हाथों बेच दिया है जो कि उनके वर्ग शत्रु हैं.
इस से नाराज़ हो कर चमारों का एक हिस्सा और अन्य दलित उपजातियां बसपा से अलग हो
गयीं. मायावती का बोली लगा कर टिकेट बेचना और दलित वोटों को भेड़ बकरियों की मानिंद
किसी के भी हाथों बेच देना और इस वोट बैंक को किसी को भी हस्तांतरित कर देने का
अधिकार रखना दलितों को एक समय के बाद रास नहीं आया. इसी लिए पिछले असेंबली चुनाव
और इस लोक सभा चुनाव में दलितों ने उसे उसकी
औकात बता दी है.
किसी भी दलित विकास के एजंडे के अभाव में दलितों को मायावती की केवल
कुर्सी की राजनीति भी पसंद नहीं आई है क्योंकि इस से मायावती के चार बार मुख्य
मंत्री बनने के बावजूद भी दलितों की माली हालत में कोई परिवर्तन नहीं आया है. एक
अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश के दलित बिहार. उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के दलितों को छोड़
कर विकास के सभी मापदंडों जैसे: पुरुष/महिला शिक्षा दर, पुरुष/महिला तथा 0-6 वर्ष के बच्चों के
लैंगिक अनुपात और नियमित नौकरी पेशे आदि में हिस्सेदारी में सब से पिछड़े हैं.
मायावती के व्यक्तिगत और राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण दलितों को राज्य की
कल्याणकारी योजनाओं का भी लाभ नहीं मिल सका. दूसरी तरफ बसपा पार्टी के
पदाधिकारियों की दिन दुगनी और रात चौगनी खुशहाली से भी दलित नाराज़ हुए हैं जिस का
इज़हार उन्होंने इस चुनाव में खुल कर किया है. यह भी ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश
की 40 सीटें ऐसी हैं जहाँ दलितों की आबादी 25% से भी अधिक है. 2009 के लोक सभा
चुनाव में बसपा 17 सुरक्षित सीटों पर नंबर दो पर थी जो इस बार कम हो कर 11 रह गयी
है. इस से स्पष्ट है कि मायावती का दलित वोट बैंक के बरकरार रहने का दावा तथ्यों
के विपरीत है.
मायावती ने 2012 के असेंबली चुनाव में भी मुसलामानों पर आरोप लगाया था
कि उन्होंने उसे वोट नहीं दिया. इस बार फिर मायावती ने इस आरोप को न केवल दोहराया है
बल्कि बाद में उनके पछताने की बात भी कही है. मायावती यह भूल जाती हैं मुसलामानों
को दूर करने के लिए वह स्वयं ही जिम्मेवार हैं. 1993 के चुनाव में मुसलामानों ने
जिस उम्मीद के साथ उसे वोट दिया था मायावती ने उस के विपरीत मुख्य मंत्री बनने की
चाह में 1995 में मुसलामानों की धुर विरोधी पार्टी भाजपा से हाथ मिला लिया था. इस
के बाद भी उसने कुर्सी पाने के लिए दो बार भाजपा से सहारा लिया था. इतना ही नहीं
2003 में उस ने गुजरात में मुसलमानों के कत्ले आम के जिम्मेवार मोदी को कलीन चिट
दी थी तथा उस के पक्ष में चुनाव प्रचार भी किया था. इस बार भी मायावती भाजपा से
हाथ नहीं मिलाएगी इस की कोई गारंटी नहीं है. ऐसी मौकापरस्ती के बरक्स मायावती यह
कैसे उम्मीद करती है कि मुसलमान उसे आँख बंद कर वोट देते रहते. मुज़फ्फर नगर के
दंगे में मायावती द्वारा कोई भी प्रतिक्रिया
न दिया जाना भी मुसलामानों को काफी नागुबार गुज़रा था.
मायावती द्वारा पिछली तथा इस बार की हार के लिए अपनी कोई भी गलती न
मानना भी दलितों और मुसलामानों के लिए असहनीय है. पिछली बार उसने इस का दोष
मुसलामानों को दिया था. इस बार वह इसे कांग्रेस सरकार को समर्थन देना बता रही है.
अगर यह सही है तो मायावती के पास इस का क्या जवाब है कि उस ने कांग्रेस सरकार को
समर्थन क्यों दिया? केवल कट्टरपंथी ताकतों को रोकने की कोशिश वाली बात भी जचती नहीं.
दरअसल असली बात तो सीबीआई के शिकंजे से बचने की मजबूरी थी जो कि आय से अधिक
संपत्ति के मामले में अभी भी बनी हुयी है. भाजपा भी मायावती की इसी मजबूरी का
फायदा उठाती रही है और आगे भी उठाएगी. इस के लिए मायावती का व्यक्तिगत भ्रष्टाचार
जिम्मेवार है.
उपरोक्त संक्षिप्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों ने इस बार मायावती
के सर्वजन वाले फार्मूले को बुरी तरह से नकार दिया है. मुसलामानों ने भी उस से
किनारा कर लिया है. वर्तमान में दलितों, मुसलामानों, मजदूरों, किसानों और छोटे कारखानेदारों और दुकानदारों
के लिए मोदी की कार्पोरेटप्रस्त हिंदुत्व फासीवादी राजनीति सब से बड़ा खतरा है जिस
का मुकाबला मायावती और मुलायम सिंह आदि की सौदेबाज, अवसरवादी और कार्पोरेटप्रस्त राजनीति द्वारा नहीं किया
जा सकता है. इस के लिए सभी वामपंथी, प्रगतिशील और अम्बेडकरवादी ताकतों को
एकजुट हो कर कार्पोरेट और फासीवाद विरोध की जनवादी राजनीति को अपनाना होगा.
अन्तः में मैं चिंतक व भाषाविद नोम चोमस्की की भारत
के संभावित राजनीतिक परिवर्तन पर
टिप्पणी को दोहराना चाहूँगा जिस में उसने 15 मई को बोस्टन में कहा था कि “भारत
में जो कुछ हो रहा है, वह बहुत बुरा है | भारत खतरनाक स्थिति से गुजरेगा | आर एस एस और
भाजपा के नेतृत्व में जो बदलाव भारत में
आने
वाला है, ठीक इसी अंदाज
में जर्मनी में नाजीवाद आया था | नाजी शक्तियों ने भी सस्ती व सिद्धांतहीन लोकप्रियता का सहारा
लिया था | भाजपा ने भी वही हथकंडा अपनाया है | कांग्रेस पार्टी ही इन सबके लिए जिम्मेदार है | अब भारत
के
वामपंथी और प्रगतिशील शक्तियों को संगठित होकर इस चुनौती का सामना करना पड़ेगा
|”( नोम चोमस्की उस
दिन केम्ब्रिज पब्लिक लाइब्रेरी में अमेरिका की विदेश नीति पर अपना डेढ़ घंटे का भाषण दे रहे थे
| इसके पश्चात उन्होंने अलग से श्री. राम शरण जोशी से अनौपचारिक संक्षिप्त
बातचीत में अपनी यह प्रतिक्रिया व्यक्त की थी).
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