बलात्कार और
पुलिस
एस.आर.दारापुरी, आई.पी.एस (से.नि.)
हाल में बदायूं में दो दलित
लड़कियों के साथ बलात्कार और हत्या के मामले में पुलिस की कार्रवाही न केवल अपने
कर्तव्य के प्रति लापरवाही बल्कि अपराध में उनकी संलिप्तता को भी दर्शाती है.
उपलब्ध जानकारी के अनुसार दोनों लड़कियों के ग़ायब होने की सूचना पुलिस को रात में
ही प्राप्त हो गयी थी. यदि पुलिस ने उस पर तुरंत कार्रवाही शुरू कर दी होती तो शायद
दोनों लकड़ियों की जान बच जाती. परन्तु पुलिस की लापरवाही और मिली भगत की परिणति दो
मासूम लड़कियों का बलात्कार और हत्या में हुयी.
यह भी सर्वविदित है कि
पुलिस अपराधों की प्रथम सूचना दर्ज करने में हद दर्जे की हीलाहवाली करती है जिस के
गंभीर परिणाम होते हैं जैसा कि बदायूं वाली घटना में हुआ. पुलिस ऐसा कई कारणों से
करती है. पुलिस के इस आचरण के लिए केवल थाना स्तर के कर्मचारी ही नहीं बल्कि उच्च अधिकारी जहाँ तक कि मुख्य मंत्री तक भी जिम्मेवार
होते हैं. ऐसा इसी लिए होता है कि राजनीतिक कारणों से हरेक मुख्य मंत्री अपने
शासनकाल में पूर्व सरकार की अपेक्षा अपराध के आंकड़े कम करके दिखाने की कोशिश करता है.
अधिकतर पुलिस से सरकार की यह अपेक्षा
गुप्त होती है परन्तु होती ज़रूर है.
वर्तमान में पुलिस की कार्यकुशलता
का मूल्यांकन अपराध के आंकड़ों के आधार पर होता है न कि क्षेत्र में वास्तविक अपराध
नियंतरण एवं शांति व्यवस्था के आधार पर. इसी लिए पुलिस का सारा ध्यान आंकड़ों को
फिट रखने में ही लगा रहता है. इस का सब से आसान तरीका अपराधों का दर्ज न करना होता
है. यह भी सर्वविदित है कि विभिन्न कारणों से अपराध का ग्राफ हमेशा ऊपर की ओर बढ़ता
है न कि नीचे की ओर. हाँ इतना ज़रूर है कि सक्रिय एवं दक्ष पुलिस अपराध को कुछ हद
तक नियंतरण में रख सकती है परन्तु इस में बहुत बड़ी कमी लाना बहुत मुश्किल है. इसी
लिए अपराध के सरकारी आंकड़े कुल घटित अपराध का बहुत छोटा हिस्सा ही होते हैं. अपराध
के आंकड़े कम रखने में पुलिस का भी निहित स्वार्थ है. इस से एक तो उनका काम हल्का
हो जाता है. दूसरे इस में भ्रष्टाचार का स्कोप भी बढ़ जाता है.
आम जनता की पुलिस से यह
अपेक्षा रहती है कि उन की रिपोर्ट तत्परता से लिखी जानी चाहिए और उस पर त्वरित
कार्रवाही हो. ऐसा तभी संभव है जब सरकार द्वारा थाने पर स्वतंत्रता से अपराध दर्ज
करने की छूट दी जाये. आज कल तो सत्ताधारी लोग थाने पर रिपोर्ट लिखने अथवा न लिखने
में भी भारी दखल रखते हैं. जिस मामले में सरकार चाहती है रिपोर्ट दर्ज होती है जिस
में नहीं चाहती वह दर्ज नहीं होती है. इसी कारण से जिन मामलों में पुलिस वाले
रिपोर्ट दर्ज न करने के दोषी भी पाए जाते हैं जैसा कि बदायूं वाले मामले में भी है
उन में भी पुलिस वालों के खिलाफ कोई कार्रवाही नहीं होती. दलित और कमज़ोर वर्ग के
मामलों में तो यह पक्षपात और लापरवाही खुले तौर पर होती है.
महिलायों के मामलों में
थाने पर पुलिस का व्यवहार शिकायत करता को हतोउत्साहित करने एवं टालने वाला होता
है. यदि कोई व्यक्ति थाने पर अपनी बेटी की गुमशुदगी की रिपोर्ट करने जाता है तो
पुलिस रिपोर्ट न लिख कर उस के घर वालों को उसकी तलाश करने की हिदायत दे कर चलता कर
देती है. इसी प्रकार बलात्कार के मामलों में
तुरंत मुकदमा दर्ज न करके पुलिस दोषी पक्ष को बुला कर वादी से समझौता करने के लिए
दबाव डालती है. इस प्रक्रिया में कई बार मुकदमा दर्ज होने और डाक्टरी होने में
काफी विलम्ब हो जाता है जिस से डाक्टरी
जांच का परिणाम भी कुप्रभावित हो जाता है. पुलिस के कार्यकलाप में जातिभेद भी काफी
हद तक हावी रहता है. आम लोगों का कहना है कि थाने पर वादी और दोषी की जात देख कर कार्रवाही
होती है. वर्तमान में पुलिस बल का जातिकरण और राजनीतिकरण इस आरोप को काफी बल देता
है.
अतः महिलायों पर बलात्कार
एवं अन्य अपराधों के त्वरित पंजीकरण एवं प्रभावी कार्रवाही हेतु सब से पहले ज़रूरी
है कि थाने पर अपराधों का स्वतंत्र रूप से पंजीकरण हो जिस के लिए सरकार द्वारा
पुलिस को पूरी छूट दी जानी चाहिए. इस के लिए अपराध पंजीकरण हेतु एक अलग शाखा बनाने
पर भी विचार किया जा सकता है. दूसरे अपराध छुपाने और दर्ज न करने वाले पुलिस
अधिकारियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाही होनी चाहिए. तीसरे पुलिस कर्चारियों को
महिलायों, बच्चों, दलितों और समाज के कमज़ोर वर्गों के प्रति संवेदनशील बनाने हेतु
निरंतर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. इन सब से बढ़ कर ज़रूरत है सुप्रीम कोर्ट द्वारा
आदेशित किये गए पुलिस सुधार को लागू करने की ताकि पुलिस को कार्य स्वतंत्रता मिल
सके और वह सत्ताधारियों की बजाये जनता के प्रति जवाबदेह बन सके. तभी वर्तमान की
शासक वर्ग की पुलिस को जनता की पुलिस में रूपांतरित करना संभव हो सकेगा.
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