मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

मई दिवस कि शुभ कामनाएं ! मजदूर एकता जिंदाबाद !

डॉ. आंबेडकर और मजदूरों के हित में कानून
-भगवान दास
बाबा साहेब अम्बेडकर बम्बई में शुरू से ही मजदूर आन्दोलन से जुड़े हुए थे. इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना १९३६ में की गयी. बाबा साहेब ने उसके संविधान में मज़्दूर वर्ग के संगठन और उत्थान के लिए प्रावधान किये थे.
एक बड़ा कार्य जो उन्होंने किया, वह मजदूर वर्ग के लिए प्रगतिशील कानून बनाने का था. फैक्ट्री एक्ट, ट्रेड यूनियन एक्ट, इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट, एम्प्लाइज इन्शुरैंस एक्ट आदि कानून उनके द्वारा १९४३-४६ में बनाये गए. इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाईजेशन की सिफारिशों पर बहुत दृढ़ता से अमल करवाने की कोशिश करते थे. जो अधिकार एवं सुविधाएँ अन्य देशों में बहुत मुश्किल से मजदूरों ने प्राप्त कीं वे बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपने श्रम मंत्री काल में कानून बना कर मजदूरों को प्रदान कर दीं.
दूसरा बड़ा काम जो उन्होंने किया वह महिलाओं को खानों मी निचली तहों में काम करने पर रोक लगाने का था. ब्रिटिश सरकार यह कानून लागू नहीं करना चाहती थी, क्योंकि उन्हें डर था कि इस से खानों के उत्पादन पर बुरा असर पड़ेगा.
लार्ड वेवल ने मजबूर होकर सेक्रेटरी अफ स्टेट को लिखा और शिकायत की कि लेबर मिनिस्टर डॉ. आंबेडकर इस दिशा में बहुत दबाव डाल रहा है. आखिर यह कानून बना और महिलाओं को खानों की निचली सतहों पार लगाना बंद हुआ.

"मजदूरों! केवल कानूनी अधिअकारों या सुविधायों के लिए नहीं सत्ता के लिए संघर्ष करो."

बाबा साहेब आंबेडकर स्वयं एक लेबर लीडर रह चुके थे. अधिकतर अछूत ही खेत, कारखानों, मिल्लों आदि में छोटे दर्जे के मजदूर थे. बाबा साहेब ने अपने संघर्ष के दौरान इन्हीं मजदूर बस्तियों में जीवन गुज़ारा था. वह उनकी समस्यायों तथा पीड़ा को भी भली भांति समझाते थे. पर श्रमिकों, मजदूरों आदि से वह कहते थे-
" इतना ही काफी नहीं कि तुम अच्छे वेतन और नौकरी के लिए, अच्छी सुविधाओं तथा बोनस प्राप्त करने तक ही संघर्ष को सीमित रखो. तुम्हे सत्ता छीन लेने के लिए भी संघर्ष करना चाहिए."

अतः यह निस्संकोच कहा जा सकता है बाबा साहेब ही भारतीय मजदूरों के सब से बड़े हितैषी तथा अधिकार दिलाने वाले थे. जिस के वे सदैव बाबा साहेब के ऋणी रहेंगे.

श्री भगवान भगवान दास जी की पुस्तक " बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर : एक परिचय- एक सन्देश" से उधृत

सोमवार, 29 अप्रैल 2013

आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट की हाल में हुयी मीटिंग में चुने गए जन अधिकार के लिए आंदोलन के प्रस्तावित मुददे :

आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट की हाल में हुयी मीटिंग में चुने गए
जन अधिकार के लिए आंदोलन के प्रस्तावित मुददे :

1- प्रदेश में माफिया-पुलिस-गुण्डाराज की जगह कानून का शासन स्थापित हो। नागरिकों की सुरक्षा और उनके लोकतांत्रिक अधिकारों की गारण्टी हो।
2- न्यायमूर्ति आर0 डी0 निमेष कमीशन की रिपोर्ट को तत्काल सार्वजनिक किया जाये और आतंकवाद के खिलाफ प्रभावी लड़ार्इ के लिए यह जरूरी है कि उन सभी अधिकारियों और ए जेनिसयों को दणिड़त किया जाए, जिन्होनें निर्दोष लोगों को अनावश्यक रू प से गिरफ्तार किया और अभी भी जेलों में बंद रखा है। साथ ही प्रदेश में और दंगे न हो इसके लिए भी जरूरी है कि अखिलेश सरकार के सालभर से कम शासन में हुए 27 दंगों की जांच सी0बी0आर्इ0 से करायी जाए। अल्पसंख्यकों, महिलाओं, आदिवासियों, दलितों की सुरक्षा की हर हाल में गारंटी की जाए।
3- उ0 प्र0 में अति पिछड़ों को दलितों से लड़ाने की नीति से सरकार बाज आए और अन्य पिछड़ा वर्ग के 27 प्रतिशत आरक्षण में से अति पिछड़ों का कोटा अलग किया जाए। धारा 341 को खत्म कर दलित मुसलमानों व र्इसाइयों को अनुसूचित जाति में षामिल करने के लिए प्रदेश सरकार विधानसभा से प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार को भेजे। कोल जैसी आदिवासी जातियों को जनजाति में षामिल किया जाए। सुप्रीम कोर्ट के आदेष के अनुसार गोड़, खरवार जैसी आदिवासी का दर्जा पायी जातियों के लिए चुनाव में सीट आरक्षित की जाएं।
4- गन्ना, गेहू और धान की खरीद का तत्काल प्रभाव से भुगतान हो और भुगतान न करने वालों को दणिड़त किया जाए।
5- समाजवादी पार्टी अपने धोषणापत्र के वायदे के अनुसार किसान की उपज का लागत मूल्य निर्धारित करने के लिए तत्काल प्रभाव से आयोग का गठन करे। लागत मूल्य का पचास प्रतिशत जोड़ कर बुआर्इ के पहले विभिन्न फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य धोषित कर किसानों क ी उपज की खरीद को सुनिशिचत करे।
6- लखनऊ-आगरा ए क्सप्रेस वे जैसी योजना जिसके निर्माण के लिए तेजी से सरकार आगे बढ़ रही है, को पूर्णतया रदद किया जाए। लखनऊ-आगरा ए क्सप्रेस वे और गंगा ए क्सप्रेस वे जैसी सड़क योजनाओं का मकसद यातायात के सवाल को हल करना नहीं बलिक किसानों की उपजाऊ भूमि को छीनकर बिल्डरों, पूजी धरानों के हवाले करना है जिससे कि वे वहां टाउनशिप और फार्म हाउस बनाकर बेहिसाब मुनाफा कमाएं। यह सभी को मालूम है कि यातायात के लिए प्रस्तावित यह दोनों ए क्सप्रेस वे के बगल में बेहतर नेशनल हार्इवे मौजूद हैं।
7- जब तक देश में भूमि उपयोग की समग्र नीति भूमि उपयोग आयोग का गठन करके केन्द्र सरकार द्वारा नहीं बना दी जाती तब तक किसानों की जमीन की खरीद पर पूर्णतया प्रतिबंध हो साथ ही उ0 प्र0 सरकार इस आशय का प्रस्ताव विधानसभा में पारित कर केन्द्र सरकार को भेजे।
8- बेकारी भत्ता बेरोजगारी के सवाल को हल नहीं कर सकती इसलिए जरूरी है कि रोजगार के अधिकार को संविधान के नीति निदेशक तत्व से हटाकर मौलिक अधिकार बनाने के लिए उ0 प्र0 शासन विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार को भेजे। रोजगार पैदा करने के लिए सार्वजनिक निवेश बढ़ाया जाएं और भर्ती पर लगी रोक हटायी जाएं।
9- मिर्जापुर, सोनभद्र और चंदौली जनपद में माओवाद का प्रभाव अब समाप्तप्राय है। आदिवासी, गरीब समाज के लोग, जो व्यवस्था से अलगाव और विक्षोभ की वजह से माओवाद के प्रभाव में चले गए थे, उस क्षेत्र में लगातार चले लोकतांत्रिक आंदोलन की
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वजह से प्रभावित होकर राजनीति की मुख्यधारा में लौट आए है। फिर भी माओवाद से निपटनें के नाम पर वहां गरीबों का दमन हो रहा है और फर्जी मुठभेड़ दिखायी जा रहीं है। पुलिस प्रशासन द्वारा की जा रही इस तरह की कार्रवाहियों पर रोक लगनी चाहिए। माओवादी होने के नाम पर गरीबों पर चल रहे मुकदमें समाप्त किए जाए और जेल में बंद सभी लोगों को, जिसमें बड़ी संख्या महिलाओं की है, उन्हें रिहा किया जाए।
10- मनरेगा को समाप्त करने की कोशिश में लगी उ0 प्र0 सरकार अपनी मजदूर-गरीब विरोधी कार्रवाही को बंद करे। किसानों और मजदूरों को लाभ पहुंचाने के उददेश्य से बने इस कानून को लागू किया जाए और हर हाल में 100 दिन के रोजगार की और 15 दिन में मजदूरी भुगतान की गारंटी की जाए। जिन जिलों में 100 दिन काम की गारंटी न हो वहां के जिलाधिकारी को दोषी माना जाए और उन्हें दणिड़त किया जाए। मनरेगा के तहत काम के दिनों में वृद्धि की जाए, न्यूनतम वेतन को मूल्य सूचकांक से जोड़ा जाए और इसका विस्तार शहरी क्षेत्र के लिए भी हो।
11- सर्वोच्च न्यायालय का स्पष्ट आदेष है कि बिना पर्यावरण विभाग की अनुमति के खनन न किया जाए। बिना पर्यावरण अनुमति के किया जा रहा खनन अवैध है। उ0 प्र0 में अवैध खनन शासन के सक्रिय सहयोग से बड़े पैमाने पर चल रहा है। अवैध खनन पर तत्काल प्रभाव से रोक लगायी जाए और अवैध खनन के पूरे मामले की सीबीआर्इ से जांच करायी जाए।
12- प्रदेश में आंगनबाड़ी, आशा, मिड़ डे मील, मनरेगा कर्मियों, शिक्षामित्र, वित्त विहीन शिक्षक और संविदा श्रमिक जीविका के गम्भीर संकट के दौर से गुजर रहे है। इन कर्मियों को सरकारी कर्मचारी का दर्जा दिया जाए और जब तक यह न हो उन्हें कम से कम 10000 रू पए न्यूनतम मजदूरी दी जाए।
13- वनाधिकार कानून को लागू किया जाए और आदिवासियों व वनाश्रित लोगों को जिस जमीन पर वह काबिज है, बेदखल न किया जाए और अभियान चलाकर वनाधिकार कानून के तहत उन्हें उसका मालिकाना हक दिया जाए। विस्थापितों से हुए समझौतों को भी पूरी तौर पर लागू किया जाए।
14- भूमि सुधार नीति को लागू किया जाए और हर गरीब के लिए आवास की गारंटी की जाए।
15- एपीएल-बीपीएल श्रेणी को खत्म कर हर नागरिक को 50 किलो राषन 2 रू पए के दर पर दिया जाए।
16- बुनकरों के कर्जे माफ किए जाएं, उन्हे मुफ्त बिजली दी जाए और विशेष सर्वे कराकर उन्हें लाल राशन कार्ड दिये जाएं।
17- प्रदेश में बिजली वितरण क्षेत्र के निजीकरण और बिजली दरों को बढ़ाने पर रोक लगार्इ जाएं। दरअसल प्रदेश में पैदा हुआ गंभीर बिजली संकट भ्रष्टाचार की देन है। भ्रष्टाचार और कारपोरेट मुनाफे के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के अनपरा-ओबरा में निजीकरण और ठेकेदारी प्रथा ने बिजली संकट को और गहरा किया है। ठेकेदारी प्रथा य हां से खत्म हो, ठेका मजदूरों का विनियमितिकरण किया जाए, सार्वजनिक क्षेत्र के बिजली घरों को और मजबूत बनाया जाए और उनका विस्तार किया जाए।
18- खाधान्न घोटाला अभी भी उ0 प्र0 में चल रहा है इस पर रोक लगायी जाए और जबाबदेह लोगों को दण्ड़ दिया जाए।

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

उत्तर प्रदेश में माया-मुलायम की दलित एक्ट पर राजनीति



उत्तर प्रदेश में माया-मुलायम की दलित एक्ट पर राजनीति
एस. आर. दारापुरी
दिनांक २६ अप्रैल को लखनऊ में ब्राह्मणों के प्रबुद्ध वर्ग के नाम से बुलाये गए सम्मलेन में मुलायम सिंह ने ब्राह्मणों को पटाने के लिए घोषणा की कि  पिछली मायावती सरकार में ब्राह्मणों के विरुद्ध एससी-एसटी एक्ट के अंतर्गत दर्ज किये गए मुक़दमे वापस होंगे. इस घोषणा के अनुसार  ब्राह्मणों पर दर्ज मुक़दमे चाहे वह फर्जी हों या सच्चे सभी वापस लिये जायेंगे. इस घोषणा से यह स्पष्ट है कि आज कल राजनेता वोट के चक्कर में सही गलत पर ज़रा भी विचार किये  बिना किसी भी जाति को खुश करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. इस में उन्हें  कानून की कोई भी परवाह नहीं है.
जहाँ तक एससी एक्ट की बात है उस के बारे में यह सर्वमान्य है कि पुलिस जिस प्रकार आम मुक़दमे लिखने में हीला हवाली करती है इस एक्ट के मामले में तो और भी अधिक करती है क्योंकि इस में एक तो पुलिस वालों की अपनी जातिवादी मानसिकता आड़े आती है और दूसरे सत्ताधरी पार्टी का दलित उत्पीड़न के प्रति रुख. अब तक यह बिलकुल स्पष्ट हो चुका है कि अपने इस शासन काल में मुलायम सिंह दलितों के प्रति दुश्मनी वाला रुख खुल कर अपना रहे हैं जैसा कि उनके पदोन्नति में आरक्षण के खुले विरोध से स्पष्ट है. उन के इस रुख का सब से बड़ा खामियाजा दलितों को भुगतना पड़ रहा है क्योंकि उनके ऊपर अत्याचार के मुक़दमे पुलिस में दर्ज कराना बहुत मुश्किल हो गया है.
यह भी सर्व विदित है कि दलितों पर उत्पीड़न के मामले में उत्तर प्रदेश पिछले काफी वर्षों से पूरे देश में प्रथम रहा है. यह स्थिति मायावती के समय में भी रही है और अब भी है. यह बात अलग है कि मुलायम सिंह दलित उत्पीड़न के मुक़दमे न लिखे जाने के कारण अपराध के कम आंकड़े दिखा कर मायावती के मुकाबले बेहतर स्थिति होने का दावा कर सकते हैं. परन्तु इस का खामियाजा तो अब भी दलितों को ही भुगतना पड़ रहा है.
अब अगर मायावती के शासनकाल की बात की जाये तो स्थिति इस भी बदतर थी. मुलायम सिंह ने तो केवल ब्राह्मणों पर से मुक़दमे वापस लेने की बात ही कही है परन्तु मायावती ने तो २००१ में  सवर्णों को खुश करने के लिए इस एक्ट का दुरूपयोग रोकने का बहाना लेकर हत्या और बलात्कार ( वह भी डाक्टरी जांच के बाद) को छोड़ कर शेष २० प्रकार के उत्पीड़न के मामलों में इस एक्ट को लागू न करने का  अवैधानिक आदेश जारी कर दिया था. यह अलग बात है कि बाद में इस का व्यापक विरोध होने तथा मामला उच्च न्यायालय में  पहुँच जाने पर इसे वापस ले लिया था परन्तु इस का दुरूपयोग रोकने की मौखिक हिदायत बरबार लागू रही. इस से दलितों को अत्यंत दुखद स्थिति का सामना करना पड़ा. एक तरफ जहाँ उनके मुक़दमे दर्ज नहीं हुए वहीँ दूसरी तरफ उन्हें इस एक्ट के अंतर्गत मिलने वाली आर्थिक सहायता भी नहीं मिली.
कल्याण सिंह के समय में भी दलित एक्ट के दुरूपयोग को रोकने के लिए रोक लगाने की बात की गयी थी परन्तु इस हेतु जाहिरा तौर पर कुछ नहीं किया गया था.

अब यहाँ तक इस  एक्ट के दुरूपयोग की बात है उस में कुछ सच्चाई ज़रूर है. काफी मामले ऐसे होते हैं जिन में दलित या तो स्वयं अथवा किसी उच्च जाति का मोहरा बन कर दलित उत्पीड़न के झूठे मुक़दमे दर्ज करा देते हैं. वैसे अगर देखा जाये तो हमारे देश में कोई भी ऐसा कानून नहीं है जिस का दुरूपयोग न होता हो. कानूनों का सब से ज्यादा दुरूपयोग तो पुलिस ही स्वयं ही करती है.
परन्तु कानूनों खास करके एससी एसटी एक्ट का  दुरूपयोग रोकने का हल इस को लागू करने से रोकना नहीं है क्योंकि इस से दलित वर्ग के उत्पीड़न को बढ़ावा मिलता है जैसा कि मायावती के समय में  भी हुआ. दूसरी यह भी सच्चाई  है कि अब भी दलित वर्ग पर अत्याचार बराबर होते रहते हैं जिसे रोकने हेतु इस कानून को सही रूप में कडाई से लागू करने की ज़रुरत है.
इस एक्ट अथवा किसी अन्य एक्ट के दुरूपयोग रोकने हेतु कानून में पहले से ही प्रावधान है. भारतीय दंड संहिता कि धारा १८२ में यह प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति किसी लोक सेवक को मिथ्या सूचना दे कर  किसी व्यक्ति को क्षति कराने कि कार्रवाही करता है तो मुकदमा झूठा पाए जाने पर उस व्यक्ति के विरुद्ध मुकदमा चला कर ६ माह तक की सज़ा हो सकती है. अतः ऐसे मामलों में इस विधान के अंतर्गत कार्रवाही की जानी चाहिए न कि कानून को ही लागू करने से रोकने की. अतः  किसी भी केस को वापस लेने की राजनीती करने की बजाये पुलिस को सभी मामलों की निष्पक्षता से विवेचना करने के निर्देश दिए जाने चाहिए. जो मामले झूठे पाए जाएँ उन में वादियों के विरुद्ध धारा १८२ के अंतर्गत कार्रवाही की जानी चाहिए. परन्तु ऐसा न तो पुलिस ही चाहती है और न ही राजनेता क्योंकि इस में लोगों को बेवकूफ बनाने की कम गुन्जायिश रहती है जो कि राजनीति के लिए ज़रूरी है. अब तक मायावती और मुलायम सिंह इस हथकंडे को अपनाते आ रहे हैं.
राजनितिक पार्टियाँ  चाहे वह मायावती या फिर मुलायम सिंह की हों दलित एक्ट की राजनीती का खामियाजा तो दलितों को ही भुगतना पड़ता है. क्योंकि वोट बैंक के चक्कर में दलित उत्पीड़न के मामले दर्ज नहीं किये जाते और दलित उत्पीड़न को बढावा मिलता है. यह भी सच्च  है कि जो मुकदमे किन्हीं कारणोंवश लिखे भी जाते हैं वह कुल मामलों का बहुत छोटा हिस्सा होते हैं. हाँ राजनेताओं के इस खेल में पुलिस को दोहरा फायदा होता है. एक तो मुकदमा न लिखने से उनका काम काफी हल्का हो जाता है दूसरे इस में रिश्वतखोरी के लिए काफी मौका मिल जाता है. इसी लिए राजनेतायों की ऐसी वोट कि राजनीती का विरोध किया जाना चाहिए और कानून को निष्पक्ष रूप से लागू किये जाने कि  मांग की जानी चाहिए ताकि हमारे देश में वास्तव में कानून का राज्य स्थापित हो सके.     

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

डॉ. अम्बेडकर का आर्थिक दर्शन: भूमंडलीकरण एवं निजीकरण

डॉ. अम्बेडकर का आर्थिक दर्शन : भूमंडलीकरण एवं निजीकरण
- एस आर दारापुरी

डॉ अम्बेडकर को सामान्यतया भारतीय संविधान के निर्माता और दलितों के मसीहा के रूप में ही जाना जाता है परन्तु उनके व्यक्तित्व का एक अति महत्वपूर्ण पहलू अभी तक जन साधारण से छिपा हुआ है। डॉ अम्बेडकर न केवल महान समाज-शास्त्री, राजनीति-शास्त्री और धर्म-शास्त्री थे, बल्कि वे एक महान अर्थ-शास्त्री भी थे। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी वे पब्लिक फाइनेंस विषय के महान विशेषज्ञ थे। उनकी पीएचडी (Ph.D.)  का शोध विषय  "Evolution of Public Finance in British India" तथा डीएससी (D.Sc.)  का विषय "Problem of the Rupee" अत्यंत गहन विषय था जो कि बाद में पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित हुए। उनकी एम ए का विषय Ancient Indian Commerce तथा एमएससी (M.Sc.) का शोध विषय "Decentralization of Imperial Finance in British India" भी गंभीर और महत्वपूर्ण विषय थे। उनका इरादा अर्थशास्त्र के संसार में प्रसिद्ध अध्ययन केंद्र Bonn University से एक एडवांस कोर्स करने का भी था जिसे वे पैसे की कमी के कारण पूरा नहीं कर सके। उनकी यह शैक्षिक उपलब्धियां उनके अर्थ शास्त्र के प्रकांड विद्वान् होने का प्रमाण हैं।
भारतीय अर्थ व्यवस्था को सुधारने के उद्देश्य से वर्ष 1925 में गठित हिल्टन कमीशन के सामने उन्हें अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया गया था। जब वे कमीशन के सामने प्रस्तुत हुए तो उनकी पुस्तक "प्रॉब्लम ऑफ़ दा रूपी" सभी सदस्यों के हाथ में थी. अंत में उनके रूपये को सोने पर आधारित करने के सुझाव को माना  गया जो आज तक लागू है. उनके दूसरे असंख्य लेख एवं भाषण न केवल उनके एक अग्रगणी अर्थशास्त्री होने को प्रमाणित करते हैं बल्कि इस से उनकी भारतीय अर्थ व्यवस्था को सुधारने की उत्सुकता भी प्रमाणित होती है। डॉo अम्बेडकर द्वारा विद्यार्थियों की एक सभा में  "Responsibilities of a Responsible Government" विषय पर पढ़े गए लेख में व्यक्त विचारों के बारे में उस समय के संसार प्रसिद्ध राजनीति शास्त्र के विद्वान प्रो हेराल्ड जे लस्की ने कहा था : " लेख में प्रकट किये गए डॉ अम्बेडकर के विचार क्रांतिकारी स्वरूप के हैं।" डॉ आंबेडकर के आर्थिक दर्शन से प्रभावित होकर ही नोबल पुरुस्कार विजेता डॉ अमर्त्य सेन ने कहा है: " Dr Ambedkar is the father of my economics " अर्थात "डॉ आंबेडकर मेरे अर्थशास्त्र के जनक हैं।"
डॉ अम्बेडकर के शोध- ग्रन्थ "Decentralization of Imperial Finance in British India" पर उनके आचार्य एडविन केनन ने अपनी प्रस्तावना में उनके तर्क से मतभेद व्यक्त करते हुए उन के ग्रन्थ में व्यक्त विचारों और युक्तिवाद में प्रकट कुशाग्र बुद्धि की सराहना की थी।
भारत की मुद्रा प्रणाली में आवश्यक सुधार लागू करने के लिए "Royal Commission on Indian Currency and Finance" की स्थापना की गयी थी। इस कमीशन के अध्यक्ष Edward Hilton Young थे। इस कमीशन ने 40 लोगों के ब्यान लिए जिनमे डॉ अम्बेडकर को जब आमंत्रित किया गया तो कमीशन के हरेक सदस्य के हाथ में डॉ आंबेडकर द्वारा लिखित "Evolution of Public Finance in British India" ग्रन्थ की प्रतिलिपियाँ थीं। यह इस अद्भुत भारतीय मनीषी के प्रति अंग्रेज़ बुद्धिजीवियों द्वारा प्रदर्शित बौद्धिक सम्मान था।
उस समय सारे भारत में यह चर्चा का विषय बना हुआ था कि रुपए का मूल्य पौंड के हिसाब से 1 शिलिंग 4 पैन्स या 1 शिलिंग 6 पैन्स रखा जाये। इस विषय में डॉ आंबेडकर ने दो लेख कर अपनी राय ज़ाहिर की थी। उसमें उन्होंने यह सुझाव दिया था कि रुपए का मूल्य 1 शिलिंग 6 पैन्स रखना ही राष्ट्र के लिए हितकर होगा। बाद में डॉ आंबेडकर के इस सुझाव के अनुसार ही रुपए का मूल्य 1 शिल्लिग 6 पेन्स रखा गया था।
कमीशन के सामने दिए गए अपने ब्यान में डॉ अम्बेडकर ने साफ साफ कहा था कि सरकार की दुविधामयी नीति के कारण ही कीमतों में भारी उतार चढ़ाव होते रहते हैं और उसका परिणाम गरीबों को झेलना पड़ता है। उन्होंने एच एल शैव्लानी की पुस्तक "Indian Currency and Exchange" पर भी समालोचना लिखी थी।
डॉ अम्बेडकर ने अपनी कृतियों में अंग्रेज़ सरकार की तत्कालीन कर-नीति जैसे अत्यधिक भूमि लगान, नमक-कर, इंग्लैंड तथा भारतीय उत्पादन पर असमान कर कस्टम डियूटी, जागीरदारी व्यवस्था द्वारा किसानों का घोर आर्थिक शोषण तथा अंग्रेजों और भारतीय सरकारी अधिकारियों के वेतन में भारी अंतर अदि पर भी आलोचनाएँ की थीं। इस व्यस्था के परिणामों का चित्रण बाबा साहेब ने इन शब्दों में किया था- " The Agencies of war were cultivated in the name of peace and they usurped so much of the total funds that nothing was practically left for the agencies of progress" अर्थात शांति के नाम पर युद्ध के अभिकरण तैयार किये गए और वे सम्पूर्ण धनराशी का इतना अधिक भाग हजम कर गए कि विकास के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं। "
रुपये की समस्या पर उनका मत था कि भारतीय रुपए का आधार सोना होना चाहिए न कि चांदी। डॉ आंबेडकर "गोल्ड एक्सचेंज स्टैण्डर्ड" तथा " गोल्ड रिज़र्व फण्ड" के विरोधी थे। वे रुपए के मूल्य को उसकी आन्तरिक क्रय क्षमता से जोड़ने तथा उसके नियंत्रित प्रचलन के पक्षधर थे। उनका सुझाव था कि रुपए का मूल्य सोने के रूप में रखा जाये तथा कागज़ के नोट चलाये जाएँ। इस विवरण से स्पष्ट है कि बाबा साहेब भारतीय अर्थ व्यवस्था के प्रति कितने चिंतित थे तथा उन्होंने इसे सुधारने में अथक योगदान दियाथा.
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि डॉ आंबेडकर की एक अर्थशास्त्री के रूप में योग्यता अंग्रेजी और पश्चिम के विद्वानों द्वारा कितनी सराही गयी थी।
स्वंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में वांछित अर्थ-व्यस्था के बारे में उनके विचार "States and Minorities"  नामक पुस्तक, जो वास्तव में उनका संविधान का अपना प्रारूप था, में स्पष्टतया अंकित हैं।
डॉ आंबेडकर प्रत्येक नागरिक की मुलभूत अवश्क्ताओं की पूर्ति किसी भी लोकतंत्र का प्रथम कर्तव्य मानते थे। वे साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के खुले विरोधी थे। उनकी सोच में कार्ल मार्क्स और गौतम बुद्ध के विचारों का अदभुत समन्वय है। वे पक्के यथार्थवादी थे। उनकी मान्यता थी कि मानव समाज में पूर्ण समानता नहीं लायी जा सकती। इसलिए वे धन-दौलत एवं अन्य प्रकार की सामाजिक-शैक्षिक असमानताओं को ही क्रमिक और तार्किक ढंग से दूर करना चाहते थे। उन्होंने निजी पर्स की समाप्ति, बैंकों, बीमा कम्पनियों तथा कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण की बात बहुत पहले उठाई थी। इस से भी आगे बढ़कर उन्होंने भूमि तथा कृषि के राष्ट्रीयकरण की वकालत की थी। वे समाजवाद और सार्वजानिक क्षेत्र के पक्षधर थे जिनके माध्यम से नेहरु जी भी भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रित एवं विकसित करना चाहते थे। डॉ आंबेडकर की आर्थिक योजना पर उनके निम्नलिखित शब्द प्रकाश डालते हैं- " यदि विदेशी तत्वों को निष्काषित करके आर्थिक परिवर्तनों को वरीयता दी जाये तो सशक्त प्रशासन आसानी से दूरगामी समाज-सुधार ला सकता है।"
डॉ आंबेडकर का दृढ़ मत था कि "हमें अपने लोकतंत्र को सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र बनाना चाहिए क्योंकि इसके बिना राजनीतिक लोकतंत्र अधिक दिनों तक नहीं चल सकता।" उन्होंने भारतीय समाज की सामाजिक दशा का चित्रण एक ज़ोरदार राजनीतिक एवं आर्थिक शब्दावली में इस प्रकार किया है:-
" यह अत्यंत असंतोषजनक स्थिति है कि अधिकांश लोगों को अपनी जीविका कमाने के लिए भार ढोने वाले पशुओं की तरह 14-14 घंटे पसीना बहाना पड़ता है और इस प्रकार वे मनुष्य की अमूल्य धरोहर मस्तिष्क एवं मन का प्रयोग करने के अवसरों से सर्वथा वंचित रह जाते हैं। पूर्व में कैसा भी रहा हो, परन्तु वर्तमान समय में वैज्ञानिक और तकनीकि प्रगति ने इसे संभव बना दिया है। कुछ लोगों द्वारा दूसरों का शोषण इस लिए संभव हो पा रहा है कि उत्पादन के साधनों, भूमि और उद्योगों पर समाज का नियंत्रण नहीं है। जब यह संभव कर दिया जायेगा तो मैं इसे वास्तविक क्रांति मानूंगा।"
डॉ आंबेडकर की यह भी मान्यता थी कि सामाजिक और आर्थिक मुक्ति के बिना जीवन और राजनितिक स्वतंत्रता का कानून एवं संविधान द्वारा संरक्षण बेमानी हो जाता है। उन्होंने कहा कि," हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोग, दलितों सहित, केवल कानून और व्यवस्था पर जीवित नहीं रहते, उन्हें तो रोटी चाहिए।" लोकतंत्र की सफलता के बारे में उन्होंने कहा कि " मेरे विचार में लोकतंत्र की सफलता की पहली शर्त है कि समाज में घोर असमानताएं न हों। वहां पर कोई शोषित और दलित वर्ग न हो। वहां पर न तो कोई सर्वाधिकार संपन्न वर्ग और न ही कोई सर्वथा वंचित वर्ग हो। अन्यथा ऐसा विभाजन, ऐसी परिस्थिति तथा ऐसा सामाजिक संगठन हमेशा हिंसक क्रांति के बीज संजोये रहता है और लोकतंत्र द्वारा इनका निदान असंभव हो जाता है।"
डॉ आंबेडकर उन राष्ट्रवादियों से असहमत थे जो केवल राजनीतिक स्वतंत्रता को प्राथमिकता देते थे। वे ऐसी कोरी एवं भावुक देशभक्ति को आदर्श नहीं मानते थे। उनकी मान्यता स्पष्ट थी- " भारत में वे लोग राष्ट्रवादी और देशभक्त माने जाते हैं जो अपने भाईयों के साथ अमानुषिक व्यवहार होते देखते हैं किन्तु इस पर उनकी मानवीय संवेदना आंदोलित नहीं होती। उन्हें मालूम है कि इन निरपराध लोगों को मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया है परन्तु इस से उनके मन में कोई क्षोभ नहीं पैदा होता। वे एक वर्ग के सारे लोगों को नौकरियों से वंचित देखते हैं परन्तु इस से उनके मन में न्याय और ईमानदारी के भाव नहीं उठते। वे मनुष्य और समाज को कुप्रभावित करने वाली सैंकड़ों कुप्रथायों को देख कर भी मर्माहत नहीं होते। इन देशभक्तों का तो एक ही नारा है- उनको तथा उनके वर्ग के लिए अधिक से अधिक सत्ता। मैं प्रसन्न हूँ कि मैं इस प्रकार के देशभक्तों की श्रेणी में नहीं हूँ। मैं उस श्रेणी से सम्बन्ध रखता हूँ जो लोकतंत्र की पक्षधर है और हर प्रकार के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए संघर्षरत है। हमारा उद्धेश्य जीवन के सभी क्षेत्रों- राजनीतिक, आर्थिक एवं समाज में एक व्यक्ति, एक मूल्य के आदर्श को व्यव्हार में उतारना है।"
बाबा साहेब ने राजनीतिक आंदोलनों में मजदूर वर्ग की भूमिका के बारे में 6-7 सितम्बर, 1943 को पांचवी मजदूर सभा को संबोधित करते हुए कहा था-
"मैं दो टिप्णियाँ करना चाहता हूँ। पहली- यह कि जो लोग औद्योगिक ढांचे की पूंजीवादी व्यवस्था और राजनीतिक ढांचे की संसदीय व्यवस्था में रह रहे हैं वे अपनी व्यवस्था के अंतर्विरोधों को अवश्य पहचानें। इसमें प्रथम अन्तर्विरोध काम न करने वालों के लिए असीम सम्पदा एवं काम करने वालों के लिए भीषण गरीबी के रूप में है। दूसरा अन्तर्विरोध राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में है। राजनीति में समानता परन्तु आर्थिक क्षेत्र में असमानता। एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य हमारे राजनीतिक आदर्श हैं, परन्तु आर्थिक क्षेत्र राजनीतिक आदर्श का बिलकुल उल्टा है। इन अंतर्विरोधों को दूर करने के रास्तों के बारे में मतभेद हो सकते हैं, परन्तु इस में कोई मतभेद नहीं हो सकता कि ये अन्तर्विरोध हैं।
मेरी दूसरी टिप्पणी यह है कि जबसे जीवन का आधार स्तर और संविदा (Status and Contract) हुए हैं तब से जीवन की असुरक्षा एक सामाजिक समस्या बन गयी है और मानवीय जीवन को बेहतर बनाने वालों को इस का हल ढूंढना होगा। मनुष्य के जन्म-सिद्ध अधिकारों एवं स्वतंत्राओं को व्याखित करने में बड़ी शक्ति लगायी है। यह सब बहुत अच्छा है। लेकिन मैं यह कहना चाहता हूँ कि तब तक सुरक्षा संभव नहीं होगी जब तक इन अधिकारों को मूर्त रूप नहीं दिया जाता जिन्हें जन साधारण समझ सके जैसे - शांति, मकान, पर्याप्त कपड़ा, शिक्षा, अच्छी सेहत तथा सब से ऊपर गिरने के भय के बिना सिर को ऊँचा रखकर चलने का आधिकार।"
डॉ आंबेडकर ने आगे कहा है-
" हम भारत में इन समस्यायों को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते। हमें अपने मूल्यों का पुनर मूल्यांकन करना होगा। भारत में केवल आर्थिक उत्पादन पर सारी शक्ति लगा देना पर्याप्त नहीं होगा। हमें न केवल सभी भारतियों के सम्मानजनक जीवन के साधन के रूप में इस संपदा में उनकी हिस्सेदारी के मौलिक अधिकार पर सहमत होना होगा, बल्कि असुरक्षा से बचने के तरीके भी ढूंढने होंगे।"
वे गाँधीवादी अर्थव्यवस्था से खुले रूप से असहमत थे। उनकी दृष्टि में " गांधीवाद केवल वर्गभेद से ही संतुष्ट नहीं है, वह वर्ण व्यवस्था पर भी जोर देता है। यह तो समाज की वर्ण अर्थात आर्य-संरचना को पवित्र मानता है जिसके फलस्वरूप अमीर-गरीब, उंच-नीच, मालिक-नौकर आदि हमारे सामाजिक संगठन के स्थायी अंग हो जायेंगे।" उन्होंने आगे कहा कि " गांधीवाद ऐसे समाज के लिए उपयुक्त हो सकता है जो लोकतंत्र के आदर्श को अस्वीकार करता हो। ऐसा समाज आत्मनिर्भरता और संस्कृति के प्रति उदासीन हो सकता है, परन्तु लोकतान्त्रिक नहीं। पहला समाज कुछ लोगों के लिए आराम और सुसंस्कृत जीवन तथा अधिकांश लोगों के लिए कड़ी मेहनत और दरिद्रता का जीवन स्वीकार करेगा। परन्तु एक लोकतान्त्रिक समाज के लिए अपने सभी नागरिकों को सुखी एवं सुसंस्कृत जीवन सुनिश्चित करना आवश्यक है।" डॉ आंबेडकर मशीनीकरण और औद्योगीकरण के प्रबल समर्थक थे जब कि गाँधी जी इस के कट्टर विरोधी थे।
वास्तव में डॉ अम्बेडकर का बहुत बड़ा योगदान भारत के औद्योगीकरण और आधनुकीकरण की नींव डालने का भी रहा है। दुर्भाग्यवश उन के इस योगदान को जानबूझ कर लोगों के सामने प्रकट नहीं किया गया है। इस क्षेत्र में उनका प्रमुख योगदान मजदूर वर्ग का कल्याण, बाढ़ नियंत्रण योजनायें, कृषि सिचाई, बिजली उत्पादन एवं जल यातायात सम्बन्धी योजनायें तैयार करना है। इसके फलस्वरूप ही बाद में भारत में औद्योगीकरण एवं बहुउदेशीय नदी जल योजनायें बन सकीं।
यह स्पष्ट है कि पंडित जवाहर लाल नेहरु गाँधीवादी व्यवस्था के विरुद्ध उतने मुखर नहीं थे जितने कि डॉ आंबेडकर। नेहरु जी के लिए भी राजनीतिक स्वन्तान्त्रता सर्वोपरी थी और सामाजिक कार्यक्रम गौण थे। डॉ आंबेडकर और नेहरु जी दोनों ही राजकीय समाजवाद में विश्वास रखते थे।
डॉ आंबेडकर के शब्दों में:
"समस्या यह है कि अधिनायकवाद के बिना समाजवाद और संसदीय लोकतंत्र के साथ राजकीय समाजवाद कैसे रहे। इसका केवल यही हल दिखता है कि संसदीय लोकतंत्र और संवैधानिक कानूनों द्वारा राजकीय समाजवाद अपनाया जाये जिसे संसदीय बहुमत द्वारा निलंबित, संशोधित अथवा समापित करना असंभव होगा। इस प्रकार समाजवाद लाने, संसदीय लोकतंत्र को स्थापित करने और अधिनायकवाद से बचने के हमारे तीनों उद्देश्यों की पूर्ती हो सकेगी।"
डॉ आंबेडकर का राजनीतिक दर्शन मूलत: सामाजिक- आर्थिक दर्शन है। वे कहते हैं: " बेरोजगार लोगों से पूछिये कि उनके लिए मौलिक अधिकारों की क्या उपयोगिता है। यदि किसी बेरोजगार व्यक्ति को अनिश्चित घंटों वाली सवैतनिक नौकरी और किसी मजदूर यूनियन में शामिल होने, संगठन बनाने अथवा धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के बीच चुनने के लिए कहा जाये तो क्या उसके चुनाव के बारे में कोई शक हो सकता है? वह दूसरी चीज़ कैसे चुन सकता है? भुखमरी, घर-विहीनता, दरिद्रता, बच्चों को स्कूल से दूर रखने जैसी परिस्थितियां किसी भी व्यक्ति को अपने मौलिक अधिकार छोड़ने के लिए बाध्य कर सकती हैं। इस प्रकार बेरोजगार लोग काम तथा जीवन-निर्वाह के लिए मौलिक अधिकारों को तिलांजलि देने के लिए मजबूर होंगे।"
स्वतंत्रता के सम्बन्ध में चर्चा करते हुए डॉ आंबेडकर ने कहा -
"संवैधानिक विशेषज्ञ यह मान लेते हैं की स्वंत्रता की सुरक्षा हेतु मौलिक अधिकारों को दे देना ही पर्याप्त है। उनकी मान्यता है कि जब सरकार व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती तो व्यक्ति की स्वंत्रता सुरक्षित रहती है। किन्तु आवश्कता इस बात की है कि न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप को कायम रखते हुए वास्तविक स्वतंत्रताओं को बढ़ाया जाये। स्वतंत्रता को केवल सरकारी हस्तक्षेप से पूर्ण मुक्ति के सन्दर्भ में ही नहीं परिभाषित किया जाना चाहिए। इस से स्वतंत्रता की समस्या का समाधान नहीं हो जाता। सरकारी हस्तक्षेप के बिना जंगल राज अर्थात जिस की लाठी उसकी भैंस वाला समाज होगा।"
इस लिए ऐसी स्वतंत्रता के सन्दर्भ में डॉ आंबेडकर यह प्रश्न उठाते हैं कि ऐसी स्वतंत्रता आखिर कैसी और किस के लिए होगी? इस का उत्तर वे निम्न प्रकार देते है:
" स्पष्टतया यह स्वंत्रता ज़मींदारों को लगान बढ़ाने, पूंजीपतियों को काम के घंटे बढ़ाने और कम मजदूरी देने की छूट देने वाली होगी। यह ऐसी ही होगी।"
इसलिए डॉ आंबेडकर ने राजशक्ति की सृजनात्मक भूमिका पर जोर दिया था। सही मायने में लोकतान्त्रिक राज लोक कल्याणकारी होगा। ऐसे राज का उपयोग ज़मींदारों और पूँजीपतियों जैसे निहित स्वार्थों को अनुशासित करने और उनके सामाजिक-आर्थिक आधार को ख़तम करने के लिए किया जा सकता है। इनके अधिकारों को सीमित किये बगैर आम जन को स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती। अतः डॉ आंबेडकर ने कहा: " एक अर्थव्यवस्था , जिसमे लाखों मजदूर उत्पादनरत हों, समय समय पर किसी न किसी को नियम बनाने पड़ेंगे ताकि मजदूरों को काम मिल सके और उद्योग चलते रहें, अन्यथा जीवन असंभव हो जायेगा। राजकीय नियंत्रण से स्वतंत्रता का मतलब होगा व्यक्तिगत मालिकों की तानशाही।"
डॉ आंबेडकर के मस्तिष्क में समाजवाद की रूप-रेखा बहुत स्पष्ट थी जो कि रूस की क्रांति से बहुत प्रभावित थी. भारत के सामाजिक रूपान्तरण और आर्थिक विकास के लिए वे इसे अपरिहार्य मानते थे। उन्होंने भारत के भावी संविधान के अपने प्रारूप में इस रूप-रेखा को राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत भी किया था जो कि "States and Minorities" नामक पुस्तक के रूप में उपलब्ध है। उनके अनुसार भावी संविधान में भारतीय संघ निम्नलिखित को संवैधानिक कानून का अंग घोषित करेगा:
1. सभी प्रमुख उद्योग सरकारी नियंत्रण में होंगे तथा सरकार द्वारा ही चलाये जायेंगे।
2. वे उद्योग भी जो प्रमुख नहीं हैं किन्तु आधारभूत हैं सरकार अथवा सरकारी उद्यमों द्वारा चलाये जायेंगे।
3. बीमा केवल सरकार के हाथ में होगा तथा प्रत्येक व्यस्क व्यक्ति को जीवन बीमा पालिसी लेना आवश्यक होगा।
4. कृषि राजकीय उद्योग घोषित होगी।
5. सरकार सभी प्रमुख उद्योगों, बीमा कम्पनियों एवं कृषि भूमि का उनके मालिकों को डिबेंचरज के रूप में मुआवजा दे कर राष्ट्रीयकरण कर लेगी।
6. कृषि उद्योग निम्न प्रकार से चलाया जायेगा:
(1) सरकार द्वारा अधिग्रहीत भूमि को उचित आकार के फार्मों में विभाजित करके ग्रामीण परिवार-समूहों को इकाई मानकर उत्पादन करने हेतु निम्न शर्तों पर आवंटित किया जायेगा:
(क) फार्म पर सामूहिक खेती होगी।
(ख) फार्म पर सरकार द्वारा बनाये गए नियमों के अनुसार उतपादन किया जायेगा।
(ग) किरायेदारी कर आदि देने के बाद बचे उत्पादन को निर्धारित तरीके से आपस में बांटा जायेगा।
(घ). भूमि सभी लोगों में जाति-धर्म आदि के भेदभाव के बगैर इस तरह बांटी जाएगी कि न तो कोई जमींदार होगा और न ही भूमिहीन मजदूर।
(च) पानी, उपकरण, पशु, खाद तथा बीज आदि उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेवारी होगी।
इस प्रकार हम देखते हैं की डॉ आंबेडकर द्वारा प्रस्तावित राष्ट्र-निर्माण का आर्थिक स्वरूप राजकीय समाजवादी था। वे राज्य का सकारात्मक हस्तक्षेप सामाजिक-आर्थिक रूपान्तरण के लिए आवश्यक मानते थे। यह प्रारूप गाँधीवादी प्रारूप से सर्वथा भिन्न और नेहरुवादी प्रारूप से अधिक स्पष्ट, विकसित और निर्णायक था। भारत में परम्परागत सामाजिक बंटवारा अन्यापूर्ण है और उस पर आधारित आर्थिक बंटवारा अमानवीय है। हमें इसे समाप्त करना है। यही हमारे लिए महा प्रशन है। इस सन्दर्भ में कुछ विशेष न कर पाने के कारण ही आज जगह जगह हिंसात्मक संघर्ष फूट रहे हैं। इन्हें केवल कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में देखना समझदारी नहीं होगी। इसकी आशंका डॉ आंबेडकर को पहले ही थी। अतः उन्होंने उसी समय अपना राजकीय समाजवाद का नमूना देश के सामने रखा था। यह भारत जैसे पिछड़े देश के लिए आज भी प्रासंगिक है। नेहरु जी इस दिशा में चले थे लेकिन आधे अधूरे मन से। आज हम अपने चिंतकों द्वारा प्रस्तुत राजनीतिक-आर्थिक नमूनों को भूल कर पच्छिमी पूंजीवादी देशों द्वारा लुभावने किन्तु खतरनाक नारों और मुहावरों में फंसते जा रहे हैं। यह बहुत खतरनाक रास्ता है।
आज भूमंडलीकरण औए निजीकरण के दौर में हम राजकीय नियंतरण से स्वतंत्रता को वास्तविक स्वतंत्रता मान बैठे हैं। लेकिन डॉ आंबेडकर ने इसमें व्यक्तिगत मालिकों की तानशाही देखी थी। लोकतान्त्रिक राज्य को निपट पूंजीवादी राज्य मानना उचित नहीं हैं। डॉ आंबेडकर ने भारत में व्याप्त आर्थिक और सामाजिक अंतर्विरोधों को दूर करने के लिए जिस राज्य की कल्पना की थी वह राजनीतिक दृष्टि से लोकतान्त्रिक और आर्थिक दृष्टि से समाजवादी था। उसे उन्होंने राजकीय समाजवाद कहा था। उसे समाजवादी लोकतंत्र भी कहा जा सकता है। हमारे लिए यह नमूना आज भी प्रासंगिक है।

आज वित्तीय पूँजी देश की राजनीति पर पूरी तरह से हावी होती दिखाई दे रही है . कार्पोरेट्स ही सरकारी नीतियों के निर्धारण में प्रभावशाली भूमिका निभा रहे  हैं. राज्य कार्पोरेट्स के हाथ राष्ट्रीय सम्पदा को कौड़ियों के भाव बेच रहा है. मज्दूर वर्ग के संरक्षण के लिए बने कानूनों को समाप्त करके ठेकेदारी प्रथा को तेज़ी  से लागू किया जा रहा है. निजी क्षेत्र का लाभ बढ़ाने के लिए मजदूरी लागत कम करने हेतु अँधाधुंध आटोमेशन किया जा रहा है जिससे बेरोज़गारी बढ़ रही है. ऐसी परिस्थिति में राजकीय समाजवाद जिसके डॉ. आंबेडकर बहुत बड़े पक्षधर थे, ही वित्तीय पूँजी के आक्रमण के विरुद्ध एक कारगर हथियार सिद्ध हो सकता है.
अंत में डॉ आंबेडकर की इस गंभीर चेतावनी को दोहराना अति आवश्यक है जिस में उन्होंने कहा था, " 26 जनवरी, 1950 को हम विरोधाभासों के क्षेत्र में प्रवेश करने जा रहे है। एक तरफ जहाँ हमारे राजनीतक क्षेत्र में समानता होगी वहीँ हमारी परम्पराओं के कारण सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता बनी रहेगी। हमें इस अन्तर्विरोध को शीघ्रातिशीघ्र दूर करना होगा अन्यथा इस असमानता के शिकार लोग मुश्किल से बनाये गए इस राजनीतिक लोकतंत्र को ध्वस्त कर देंगे।"

रविवार, 14 अप्रैल 2013

क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है?

  क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है ? हाल ही में हुई बहसों में सवाल उठाया गया है कि क्या अनुसूचित जाति के उपसमूहों में सकारात्म...