उत्तर प्रदेश में माया-मुलायम
की दलित एक्ट पर राजनीति
एस. आर. दारापुरी
दिनांक २६ अप्रैल को लखनऊ
में ब्राह्मणों के प्रबुद्ध वर्ग के नाम से बुलाये गए सम्मलेन में मुलायम सिंह ने
ब्राह्मणों को पटाने के लिए घोषणा की कि
पिछली मायावती सरकार में ब्राह्मणों के विरुद्ध एससी-एसटी एक्ट के अंतर्गत
दर्ज किये गए मुक़दमे वापस होंगे. इस घोषणा के अनुसार ब्राह्मणों पर दर्ज मुक़दमे चाहे वह फर्जी हों
या सच्चे सभी वापस लिये जायेंगे. इस घोषणा से यह स्पष्ट है कि आज कल राजनेता वोट
के चक्कर में सही गलत पर ज़रा भी विचार किये
बिना किसी भी जाति को खुश करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. इस में
उन्हें कानून की कोई भी परवाह नहीं है.
जहाँ तक एससी एक्ट की बात
है उस के बारे में यह सर्वमान्य है कि पुलिस जिस प्रकार आम मुक़दमे लिखने में हीला
हवाली करती है इस एक्ट के मामले में तो और भी अधिक करती है क्योंकि इस में एक तो
पुलिस वालों की अपनी जातिवादी मानसिकता आड़े आती है और दूसरे सत्ताधरी पार्टी का
दलित उत्पीड़न के प्रति रुख. अब तक यह बिलकुल स्पष्ट हो चुका है कि अपने इस शासन
काल में मुलायम सिंह दलितों के प्रति दुश्मनी वाला रुख खुल कर अपना रहे हैं जैसा
कि उनके पदोन्नति में आरक्षण के खुले विरोध से स्पष्ट है. उन के इस रुख का सब से बड़ा
खामियाजा दलितों को भुगतना पड़ रहा है क्योंकि उनके ऊपर अत्याचार के मुक़दमे पुलिस
में दर्ज कराना बहुत मुश्किल हो गया है.
यह भी सर्व विदित है कि दलितों
पर उत्पीड़न के मामले में उत्तर प्रदेश पिछले काफी वर्षों से पूरे देश में प्रथम
रहा है. यह स्थिति मायावती के समय में भी रही है और अब भी है. यह बात अलग है कि
मुलायम सिंह दलित उत्पीड़न के मुक़दमे न लिखे जाने के कारण अपराध के कम आंकड़े दिखा
कर मायावती के मुकाबले बेहतर स्थिति होने का दावा कर सकते हैं. परन्तु इस का
खामियाजा तो अब भी दलितों को ही भुगतना पड़ रहा है.
अब अगर मायावती के शासनकाल
की बात की जाये तो स्थिति इस भी बदतर थी. मुलायम सिंह ने तो केवल ब्राह्मणों पर से
मुक़दमे वापस लेने की बात ही कही है परन्तु मायावती ने तो २००१ में सवर्णों को खुश करने के लिए इस एक्ट का दुरूपयोग
रोकने का बहाना लेकर हत्या और बलात्कार ( वह भी डाक्टरी जांच के बाद) को छोड़ कर
शेष २० प्रकार के उत्पीड़न के मामलों में इस एक्ट को लागू न करने का अवैधानिक आदेश जारी कर दिया था. यह अलग बात है
कि बाद में इस का व्यापक विरोध होने तथा मामला उच्च न्यायालय में पहुँच जाने पर इसे वापस ले लिया था परन्तु इस का
दुरूपयोग रोकने की मौखिक हिदायत बरबार लागू रही. इस से दलितों को अत्यंत दुखद
स्थिति का सामना करना पड़ा. एक तरफ जहाँ उनके मुक़दमे दर्ज नहीं हुए वहीँ दूसरी तरफ
उन्हें इस एक्ट के अंतर्गत मिलने वाली आर्थिक सहायता भी नहीं मिली.
कल्याण सिंह के समय में भी दलित
एक्ट के दुरूपयोग को रोकने के लिए रोक लगाने की बात की गयी थी परन्तु इस हेतु
जाहिरा तौर पर कुछ नहीं किया गया था.
अब यहाँ तक इस एक्ट के दुरूपयोग की बात है उस में कुछ सच्चाई
ज़रूर है. काफी मामले ऐसे होते हैं जिन में दलित या तो स्वयं अथवा किसी उच्च जाति
का मोहरा बन कर दलित उत्पीड़न के झूठे मुक़दमे दर्ज करा देते हैं. वैसे अगर देखा
जाये तो हमारे देश में कोई भी ऐसा कानून नहीं है जिस का दुरूपयोग न होता हो.
कानूनों का सब से ज्यादा दुरूपयोग तो पुलिस ही स्वयं ही करती है.
परन्तु कानूनों खास करके
एससी एसटी एक्ट का दुरूपयोग रोकने का हल
इस को लागू करने से रोकना नहीं है क्योंकि इस से दलित वर्ग के उत्पीड़न को बढ़ावा मिलता
है जैसा कि मायावती के समय में भी हुआ.
दूसरी यह भी सच्चाई है कि अब भी दलित वर्ग
पर अत्याचार बराबर होते रहते हैं जिसे रोकने हेतु इस कानून को सही रूप में कडाई से
लागू करने की ज़रुरत है.
इस एक्ट अथवा किसी अन्य
एक्ट के दुरूपयोग रोकने हेतु कानून में पहले से ही प्रावधान है. भारतीय दंड संहिता
कि धारा १८२ में यह प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति किसी लोक सेवक को मिथ्या सूचना
दे कर किसी व्यक्ति को क्षति कराने कि
कार्रवाही करता है तो मुकदमा झूठा पाए जाने पर उस व्यक्ति के विरुद्ध मुकदमा चला
कर ६ माह तक की सज़ा हो सकती है. अतः ऐसे मामलों में इस विधान के अंतर्गत कार्रवाही
की जानी चाहिए न कि कानून को ही लागू करने से रोकने की. अतः किसी भी केस को वापस लेने की राजनीती करने की
बजाये पुलिस को सभी मामलों की निष्पक्षता से विवेचना करने के निर्देश दिए जाने
चाहिए. जो मामले झूठे पाए जाएँ उन में वादियों के विरुद्ध धारा १८२ के अंतर्गत
कार्रवाही की जानी चाहिए. परन्तु ऐसा न तो पुलिस ही चाहती है और न ही राजनेता
क्योंकि इस में लोगों को बेवकूफ बनाने की कम गुन्जायिश रहती है जो कि राजनीति के
लिए ज़रूरी है. अब तक मायावती और मुलायम सिंह इस हथकंडे को अपनाते आ रहे हैं.
राजनितिक पार्टियाँ चाहे वह मायावती या फिर मुलायम सिंह की हों दलित
एक्ट की राजनीती का खामियाजा तो दलितों को ही भुगतना पड़ता है. क्योंकि वोट बैंक के
चक्कर में दलित उत्पीड़न के मामले दर्ज नहीं किये जाते और दलित उत्पीड़न को बढावा
मिलता है. यह भी सच्च है कि जो मुकदमे
किन्हीं कारणोंवश लिखे भी जाते हैं वह कुल मामलों का बहुत छोटा हिस्सा होते हैं.
हाँ राजनेताओं के इस खेल में पुलिस को दोहरा फायदा होता है. एक तो मुकदमा न लिखने
से उनका काम काफी हल्का हो जाता है दूसरे इस में रिश्वतखोरी के लिए काफी मौका मिल
जाता है. इसी लिए राजनेतायों की ऐसी वोट कि राजनीती का विरोध किया जाना चाहिए और
कानून को निष्पक्ष रूप से लागू किये जाने कि मांग की जानी चाहिए ताकि हमारे देश में वास्तव
में कानून का राज्य स्थापित हो सके.
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