शनिवार, 12 मई 2012

उत्तर प्रदेश में दलितों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का मामला

उत्तर प्रदेश में दलितों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का मामला
एस. आर. दारापुरी

हाल में सुप्रीम कोर्ट दुआरा दिए गए निर्णय के अनुसार  उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरियों में दलितों को पदोन्नति में मिलाने वाला आरक्षण समाप्त हो गया है. इस के पूर्व इसी मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मायावती सरकार दुआरा वर्ष २००७ में नौकरियों में आरक्षण और परिणामी ज्येष्टता के आदेश को रद्द कर दिया था जिस के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील  दायर की थी. सुप्रीम कोर्ट  ने इसे एम नागराज के मामले में दलितों  के पिछड़ेपन के सम्बन्ध में आंकड़े एकत्र करके प्रस्तुत करने के आदेशों का अनुपालन न करने के कारण कर दिया   था. यद्यपि उस ने पदोन्नति में आरक्षण को रद्द नहीं किया था परन्तु उसे देने से  पहले पिछड़ेपन के सम्बन्ध में आंकड़े एकत्र करके प्रस्तुत करने का आदेश दिया था.

एम. नागराज का निर्णय वर्ष २००६ में ही आ गया  था और मुलायम सिंह यादव जो उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे ने दलितों के लिए पदोन्नति में आरक्षण को लागु नहीं किया था.  वर्ष २००७ में जब मायावती सत्ता में आई तो उन्होंने इस निर्णय के आदेशों का अनुपालन किये  बिना ही पदोन्नति में आरक्षण लागु कर दिया जिसे इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया. दरअसल इस मामले में आरक्षण लागु करने से पहिले या तो एम. नागराज के मामले में दलित जातियों  के पिछड़ेपन के सम्बन्ध में आंकड़े एकत्र करके कोर्ट के सामने रखने चाहिए थे. या फिर एम. नागराज के मामले में निर्णय के  खिलाफ पुनर निरीक्षण याचिका दायर करनी चाहिए थी कि दलितों के मामले में पिछड़ेपन का लागू  किया गया टेस्ट उचित नहीं है परन्तु ऐसा नहीं किया गया.  या फिर इस सम्बन्ध में संविधान संशोधन की मांग उठाई जाती जैसी कि अब उठाई गयी है. अगर मायावती इस मामले में वांछित   कार्रवाही करने के बाद  ही आरक्षण लागू  करती तो उसे न तो कोई रद्द कर  पाता और न ही आज की तरह आरक्षण पर कोई रोक ही लगती. यह मायावती सरकार दुआरा जल्दबाजी  में की गयी कार्रवाही का ही परिणाम है कि अब पदोन्नति में आरक्षण समाप्त हो गया है जिसे बहाल करने में बहुत समय लगेगा.

इस मामले में यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि सुप्रीम कोर्ट अपने पूर्व के कई निर्णयों में स्पष्ट कर चुका है कि नियुक्ति  में पदोन्नति भी निहित है और नियुक्ति में आरक्षण का अर्थ पदोन्नति में भी आरक्षण है. परन्तु  इंदिरा  साह्नी - १९९२ केस में पदोन्नति में आरक्षण पर प्रतिबन्ध लगा दिया था  जिसे लेकर संविधान संशोधन करके संविधान की धारा 16 (4A )  तथा धारा 16 (4B) जोड़ी  गयी जिससे पदोन्नति में आरक्षण तथा परिणामी ज्येष्टता का प्राविधान लागू  कर दिया गया. यह प्राविधान  केवल अनुसूचित/ अनुसूचित जाति के मामले में ही लागू  होना था. इस का लाभ अन्य पिछड़ी जातियों को देय नहीं था.   ऍम. नागराज के मामले में  इसी संविधान संशोधन को चुनौती दी गयी जिस पर सुप्रीम कोर्ट की पॉँच जजों की बैंच ने अपने निर्णय में यह शर्त लगा दी कि यदि कोई राज्य अपने राज्य में अनुसूचित जातियों / जनजातियों को पदोन्नति में आरक्षण देना चाहता है तो उसे इस से पहले इन जातियों के पिछड़ेपन  एवं उन के अपर्याप्त प्रतिनिधितव  के संवंध में आंकड़े तथा इसके  धारा ३३५ में कार्य कुशलता के अनुरूप होने के बारे में सूचनाएं प्रस्तुत करनी होंगी. परन्तु न तो मायावती सरकार ने और न ही राजस्थान एवं हिमाचल प्रदेश सरकार ने इस का अनुपालन किया जिस के फलस्वरूप हाई कोर्ट्स तथा अंतत सुप्रीम कोर्ट ने  उनके पदोन्नति सम्बन्धी आदेशों को रद्द कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट  के इस निर्णय के कारण पूरे देश में पदोन्नति में आरक्षण पर रोक लग गयी है. अब या तो एम. नागराज के मामले में दिए गए निर्देशों का अनुपल किया जाये या फिर सुप्रीम कोर्ट में इस निर्णय के खिलाफ पुनर निरीक्षण याचिका दायर करके इन शर्तों को रद्द कराया जाये या फिर संविधान संशोधन किया जाये. यह उल्लेखनीय  है कि संविधान की  धारा  15(4) तथा 16(4) में केवल पिछड़ी जातियों पर सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ेपन और सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व का टेस्ट लागू होता है अनुसूचित जातियों/ जन जातियों  पर नहीं. संविधान में पिछड़ी जातियों को पिछड़ा वर्ग आयोग दुआरा उपरोक्त मापदंडों के आधार पर ही चिन्हित किया जाता है परन्तु अनुसूचित जातियां तो संविधान की धारा ३४१ व ३४२  के अंतर्गत और संविधान (अनुसूचित जातियां ) आदेश ,१९५० तथा संविधान (अनुसूचित जनजातियाँ) आदेश, १९५० के अनुसार चिन्हित हैं. अतः  इन के मामले में पिछड़ेपन के टेस्ट को लागू करना संविधान सम्मत नहीं कहा जा सकता है. अतः इसे जल्दी से जल्दी सुप्रीम कोर्ट में पुनर निरीक्षण  याचिका दुआरा अथवा संविधान संशोधन दुआरा समाप्त किया जाना चाहिए.

पदोन्नति में आरक्षण इस लिए भी ज़रूरी है कि अनुसूचित जातियों का  उच्च पदों पर  प्रतिनिधित्व अभी भी बहुत कम है. दलित  वर्ग के अधिकतर  कर्मचारी विभिन्न कारणों से नौकरी में देर से आते हैं. अतः वे सेवा काल में उन उच्च पदों पर नहीं पहुँच पाते हैं जहाँ पर सामान्य जाति के लोग पहुँच जाते हैं. इस के अतिरिक्त आरक्षण  का मतलब सभी स्तरों पर प्रतिनिधित्व भी है.  यह भी ज्ञातव्य है कि प्रशासन में उच्च पदों की महत्वपूरण भूमिका होती है. अतः इन पदों पर दलितों का प्रतिनिधितिव केवल पदोन्नति  में आरक्षण  दुआरा ही सम्भव है. अब अगर पदोन्नति के बाद उस पद की ज्येष्टता नहीं मिलेगी तो अल्गली  पदोन्नति फिर बाधित हो जाएगी क्योकि इस के बिना सामान्य जाति का बाद में पदोन्नति पाने वाला व्यक्ति फिर जयेष्ट हो जायेगा. अतः दलितों के लिए पदोन्नति में आरक्षण और परिणामी ज्येष्टता का प्रावधान होना ज़रूरी है.
दलितों को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि आरक्षण पर शुरू से ही चौतरफा हमले होते रहे हैं. एक तो किसी भी सरकार ने कोटा पूरा करने में ईमानदारी नहीं दिखाई है और दूसरे इस में अदालतों दुआरा अनेकों बाधाएं पैदा की जाती रही है. इस का दुष्परिणाम यह है कि १९५० से लेकर अब तक बड़ी मुश्किल से वर्ग तीन और वर्ग चार की नौकरियों में ही कोटा पूरा हो पाया है जो कि महत्वहीन  पद होते है. वर्ग दो और वर्ग एक का कोटा अभी बहुत पिछड़ा हुआ है जबकि यह पद ही वास्तव में महत्वपूर्ण होते हैं जहाँ से प्रशासन में महतवपूर्ण भागीदारी  हो सकती है. अतः उच्च पदों पर पहुँच कर भागीदारी करने हेतु पदोन्नति में आरक्षण का होना अति आवश्यक है जिस कि बहाली हेतु अदालत और राजनैतिक स्तर पर संघर्ष की ज़रूरत है. इसमें वे एक तो अपने स्तर सुप्रीम कोर्ट जा कर और दूसरे सपा सरकार पर उचित दबाव पैदा करके आवश्यक कार्रवाही करवा सकते हैं.

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