जिस हिंदुत्व का एजेंडा रामराज्य, वह सहिष्णु कैसे?
(कँवल भारती)
इसी 27 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने एक
जनहित याचिका पर विचार करते हुए दो टिप्पणियां कीं : एक यह कि हिंदुत्व या हिंदूधर्म एक जीवन पद्धति है, और इस कारण हिंदुओं ने
सभी धर्मों को आत्मसात किया है। और, दूसरी यह कि भारत को अतीत का बंदी नहीं
बनाया जा सकता। यह टिप्पणी जस्टिस के. एम. जोसफ और जस्टिस बी. वी. नागरत्ना की खंडपीठ ने अश्विनी उपाध्याय की एक जनहित याचिका को खारिज करते हुए की है, जिसमें विदेशी आक्रांताओं की ओर से बदले गए प्राचीन, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक
स्थानों के मूल नामों का पता लगाने
और दुबारा वही नाम रखने के लिए ‘नामकरण आयोग’ बनाने की मांग की गई थी। लेकिन न्यायमूर्तियों द्वारा इसमें
हिंदुत्व को भी परिभाषित कर दिया गया, जो याचिका का हिस्सा नहीं था।
न्यायमूर्ति नागरत्ना ने यहाँ तक कहा कि हिंदुत्व में किसी तरह की कट्टरता नहीं है।
इस टिप्पणी पर कुछ सवाल जहन में उभरते हैं, जो हिंदू विमर्श में भले ही मायने नहीं रखते, पर दलित
विमर्श में न सिर्फ बहुत अहम हैं, बल्कि गौरतलब भी हैं। हिंदुत्व पर सुप्रीम कोर्ट
द्वारा की गई यह पहली टिप्पणी नहीं है, बल्कि पूर्व में भी वह ऐसी
टिप्पणी कर चुका है। संभवत: पहली बार 1966 में शास्त्री यज्ञपुरुष दासजी बनाम मूलदास भूरदास वैश्य मामले में तत्कालीन चीफ जस्टिस राजेन्द्र गड़कर द्वारा यह
निर्णय दिया गया था कि ‘हिंदुत्व एक जीवन पद्धति है।‘
दूसरी बार 1995 में डा. आर.
वाई. प्रभु बनाम पी. के. कुंडे मामले में
निर्णय देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘हिंदुत्व एक जीवन पद्धति है, जिसमें सभी को ग्रहण करने की क्षमता और सहिष्णुता है।‘ यह निर्णय न्यायमूर्तियों द्वारा
डा. राधाकृष्णन की ‘हिंदू फिलोसोफी’ और तिलक की ‘गीता-रहस्य’ किताबों के आधार पर दिया गया था। हिंदुत्व पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लगने के बाद
अब यही परिभाषा आरएसएस और भाजपा द्वारा प्रचारित की जाती है। इसी आधार पर आरएसएस बकायदा ‘हिंदुत्व : एक दृष्टि और जीवन पद्धति’ नाम से पुस्तिका जारी
कर चुका है।
सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीशों ने यह किस आधार पर निष्कर्ष निकाला कि हिंदूधर्म में सबको
ग्रहण करने की क्षमता और सहिष्णुता
है? जो ब्राह्मण हिंदुत्व का
निर्माता और नियामक है, उसकी लिखी किताबों के आधार पर हिंदुत्व का निष्पक्ष
विश्लेषण कैसे किया जा सकता है? जिस
वर्णव्यवस्था को डा. राधाकृष्णन और तिलक दोनों ने माना हो, उनकी किताबों के आधार पर इस नतीजे पर कैसे पहुंचा जा सकता है कि हिन्दू धर्म एक सहिष्णु धर्म है? क्या न्यायमूर्तियों ने वर्णव्यवस्था से पीड़ित लोगों के दृष्टिकोण से हिंदुत्व को समझने की कोशिश की? क्या न्यायमूर्तियों ने डा. आंबेडकर को पढ़ा? क्या उन्होंने जोतिबा फुले की गुलामगिरी पढ़ी? अगर उनके विचार में हिंदुत्व पर कोई
बहस केवल ब्राह्मणों को पढ़कर ही पूरी हो सकती है, तो ऐसा सोचना ही गलत होगा, क्योंकि
प्रतिपक्ष को सुने या पढ़े बगैर न्याय नहीं किया जा सकता।
हिंदुत्व की जीवन पद्धति को समझने के लिए एक सवाल लेते हैं। यह कथन किसका है कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है? संभवत: यह गाँधी ने कहा था, परन्तु इसकी वकालत भारत के सारे ब्राह्मण और द्विज करते हैं, यहाँ तक कि वामपंथी भी इस कथन में विश्वास करते हैं। पर सवाल यह है कि ब्राह्मण और द्विज ऐसा क्यों मानते हैं कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है? अगर भारत की आत्मा गांवों में बसती है, तो शहरों में किसकी आत्मा बसती है? क्या शहरों में भारत नहीं बसता है? इसका उत्तर यही है कि जिसे वे भारत की आत्मा कहते हैं, वह हिंदुत्व की वर्णव्यवस्था है, जो गांवों में बसती है। गांवों की बनावट और बसावट दोनों वर्णव्यवस्था के हिसाब से हुई है। इस वर्णव्यवस्था को हिंदू गांवों में ‘हिंदू समाज व्यवस्था’ कहा जाता है, जिसके तहत दलितों को दक्षिण दिशा में गांव-बाहर बसाया गया था। इसीलिए उन्हें अन्त्यज और उनकी बसती को दक्खिन टोला भी कहा जाता है। इस दक्खिन टोले में उनके लिए एक कोड बनाया गया था, जिसमें यह तय किया गया था कि दलितों को क्या पहनना है, क्या नहीं पहनना है; क्या खाना है, और क्या नहीं खाना है; किस तरह के नाम रखने हैं, और किस तरह के नाम नहीं रखने हैं; कौन से काम करने हैं और कौन से काम नहीं करने हैं; घर पर छत नहीं डालनी है, दरवाजे नीचे रखने हैं, बच्चों को नहीं पढ़ाना है, बारात में घुड्चढ़ी नहीं करना है; और कभी भी बेगार करने से मना नहीं करना है। इस कोड के उल्लंघन पर उनके लिए कठोर दंड की व्यवस्था थी। कुछ ग्रामीण अंचलों में यह आज भी मौजूद हो सकता है। क्या इससे यह नहीं समझ में आता कि सवर्ण हिंदू अपने गांवों को आदर्श क्यों कहते हैं? और डा. आंबेडकर हिंदू गांवों को वर्णव्यवस्था का वर्किंग प्लांट और दलितों के लिए नर्क क्यों कहते थे? सुप्रीम कोर्ट ने इस नजरिए से हिंदुत्व पर विचार क्यों नहीं किया? हिंदुत्व में सहिष्णुता देखने वाले जजों ने हिंदुत्व से पीड़ित दलितों को क्यों नहीं देखा? संभव है ब्राह्मणों की जिन किताबों को जजों ने पढ़ा हो, उनमें दलितों को हिंदू न माना गया हो, पर अतीत में हिंदुत्व द्वारा चार्वाकों, आजीवकों, और बौद्धों का किया गया नरसंहार तो उन्हें इतिहास में मिलना चाहिए था। वह क्यों नहीं मिला? चलो, अतीत को कुरेदना उनको ठीक न लगा हो, पर वर्तमान में ईसाईयों और मुसलमानों का किया गया कत्लेआम तो उन्हें नजरंदाज नहीं करना चाहिए था। कैसे जस्टिस नागरत्ना ने कह दिया कि हिंदुत्व में किसी तरह की कट्टरता नहीं है, और उसमें सहिष्णुता है।
केवल हिंदुत्व ही जीवन पद्धति नहीं है, बल्कि ईसाई और इस्लाम धर्म भी उसी तरह की जीवन पद्धति हैं, जिस तरह हिंदुत्व है। हर धर्म की अपनी एक
जीवन-शैली है। इस्लाम में यह जीवन शैली
उसकी ‘शरीयत’ है, तो वर्णव्यवस्था हिंदुओं की जीवन शैली है। हिंदू समाज में जाति और वर्ण ही
जीवन शैली निर्धारित करते हैं। जब तक किसी ब्राह्मण या द्विज को यह न पता चल जाए कि उसके पड़ोस में रहने वाले व्यक्ति की जाति क्या है, तब तक वह लगातार बेचैन रहता है, और जिस दिन उसे पड़ोसी की जाति का पता चल जाता है, उसी दिन से उसकी जीवन-शैली उसकी जाति के अनुरूप शुरू हो जाती है। वह उसकी जाति के अनुसार ही पड़ोसी के साथ अपना व्यवहार जारी रखता है। यही हिंदुत्व की
जीवन शैली या पद्धति है। यह हिंदुत्व अगर किसी के हित में सोचता है, तो केवल द्विजों के हित में सोचता है, अन्य किसी जाति या समुदाय का
हित उसके दिमाग में आता ही नहीं, और शूद्र तो खैर उसके विकास के एजेंडे से ही बाहर हैं। इस
जीवन शैली का मुख्य आधार जाति है।
इसका डा. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘हिंदुत्व का दर्शन’ में विस्तार से वर्णन किया है। उनके शब्दों में हिंदुत्व
समानता में विश्वास नहीं करता, स्वतंत्रता में विश्वास नहीं करता और भ्रातृत्व
में विश्वास नहीं करता, क्योंकि वह वर्णव्यवस्था में विश्वास करता है।
यही है हिंदुत्व की जीवन पद्धति
या शैली।
आइए, थोड़ा विचार सुप्रीम कोर्ट की
दूसरी टिप्पणी पर भी कर लिया जाए। इसमें जरा भी संदेह नहीं कि उसने अश्विनी उपाध्याय की देश में नफरत को आमन्त्रण देने वाली याचिका को खारिज करके
लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की रक्षा करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। जजों की यह टिप्पणी स्वागत योग्य है कि ‘भारत कानून के शासन, धर्मनिरपेक्षता और संविधान से बंधा हुआ है, जिसका अनुच्छेद 14 राष्ट्र के व्यवहार में
समानता और निष्पक्षता की गारंटी देता
है। हमारे संस्थापकों ने भारत को ऐसा गणराज्य माना है, जो केवल निर्वाचित राष्ट्रपति तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें सभी वर्गों के लोग शामिल हैं। यह एक लोकतंत्र है। और महत्वपूर्ण बात यह है कि देश को आगे बढ़ना चाहिए।‘
लेकिन, सवाल यह है कि वर्तमान में
जिस राजनीतिक पार्टी की सत्ता केन्द्र और अनेक राज्यों में है, क्या वह
धर्मनिरपेक्षता और संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार चलती है? वह अभी तक नहीं चली, तो आगे क्या चलेगी? जिस सरकार के राजनीतिक एजेंडे में हिंदुत्व और रामराज्य है, क्या वह उस एजेंडे का परित्याग करेगी? क्या उससे यह अपेक्षा और आशा की जा सकती है कि वह समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की ओर लौटेगी, जो भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लोकतंत्र का मुख्य अंग है? इसी एक मार्च को उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री ने विधानसभा में खुलेआम घोषणा की है
कि वह प्रदेश को समाजवाद और
धर्मनिरपेक्षता से नहीं, बल्कि रामराज्य से चलाएंगे।
क्या न्यायविदों ने इसका
संज्ञान लिया? जिस पार्टी की राजनीति ही
हिंदू-मुस्लिम-भेदभाव और साम्प्रदायिकता
पर फलती-फूलती और परवान चढ़ती है, उससे यह
उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह प्राचीन मुस्लिम
स्थलों और शहरों के नामों को बदलने की अपनी हिंदू-ध्रुवीकरण की नीति पर अमल करना छोड़ देगा, और भारत को अतीत का कैदी नहीं बनाएगा। हालाँकि भाजपा और आरएसएस के हिंदू
यह अच्छी तरह जानते हैं कि इलाहाबाद को प्रयागराज और फैजाबाद को अयोध्या बनाने से एक बहुत ही अल्पसंख्यक वर्ग का ब्राह्मण-अहंकार ही संतुष्ट
हुआ है, बहुसंख्यक जनता के बीच वे इलाहाबाद और फैजाबाद ही बने हुए हैं और
बने रहेंगे। वे यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि वे केवल मुट्ठीभर हिंदू द्विजों को खुश करने के लिए कुछ मुस्लिम या ईसाई नाम वाले शहरों के नाम भर बदल
सकते हैं, उन शहरों के इतिहास बदलना उनके बस की बात नहीं है।
मुझे यह कहने दीजिए कि इन नफरती हिंदुत्ववादियों से बेहतर और धर्मनिरपेक्ष शासक मुस्लिम रहे हैं। मैं जिस जनपद में रहता हूँ, वहां मुस्लिम नवाबों के शासन का एक लंबा दौर रहा है। पर उन्होंने ‘रामपुर’ का नाम नहीं बदला, जबकि वे अधिकार-संपन्न थे, उसका नाम बदल सकते थे। पर भाजपा मुसलमानों के प्रति अपनी नफरत में इतनी अंधी है कि उसके एजेंडे में पडोसी जिले ‘मुरादाबाद’ का हिंदू नाम रखने की योजना है, क्योंकि मुरादाबाद के नाम में उसे मुस्लिम गंध आती है।
इजरायल में एक शहर का नाम ‘रामल्ला’ है। यह पहले फिलिस्तीन में था, पर 1967 में युद्ध के बाद से इस पर इजरायल का नियंत्रण है। इस शहर के नाम के शिलापट में अंग्रेजी में अल्लाह से पहले कैपिटल अक्षरों में आरएएम ‘राम’ लिखा हुआ है, और उर्दू में साफ-साफ ‘रे अलिफ़ मीम’ राम लिखा हुआ है। अगर यह शहर भारत में किसी भाजपा-शासित राज्य में होता, तो उसमें से कभी का ‘अल्लाह’ शब्द हटा दिया गया होता। किन्तु फिलिस्तीन और इजरायल किसी ने भी उसमें से ‘राम’ शब्द को हटाने की जुर्रत नहीं की, जबकि वे ऐसा कर सकते थे, और इसलिए कर सकते थे, क्योंकि वहाँ की आधी आबादी ईसाईयों और मुसलमानों की है।
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