संत रैदास जयंती पर आल इंडिया पीपुल्स
फ़्रंट (आइपीएफ) के उदगार
संत रैदास वाणी
ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन कोअन्न।
छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न।।
जात-जात में जात हैं, जों केलन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जात न जात।।
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।
हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।
रैदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच।
नर कूँ नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।।
बेगमपुरा सहर को नाउ, दुखु-अंदोहु नहीं तिहि
ठाउ।
ना तसवीस खिराजु न मालु, खउफुन खता न तरसु
जुवालु।
अब मोहि खूब बतन गह पाई, ऊहां खैरि सदा मेरे
भाई।
काइमु-दाइमु सदा पातिसाही, दोम न सोम एक सो
आही।
आबादानु सदा मसहूर, ऊहाँ गनी बसहि मामूर।
तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै, महरम महल न को
अटकावै।
कह ‘रविदास’ खलास चमारा, जो हम सहरी सु मीतु
हमारा।
(बेगमपुरा पद के बारे में दलित लेखक कंवल भारती लिखते हैं कि ‘यह पद
डेरा सच्चखंड बल्लां, जालंधर के संत सुरिंदर दास द्वारा
संग्रहित ‘अमृतवाणी सतगुरु रविदास महाराज जी’ से लिया गया है। यहां यह उल्लेखनीय
है कि असल नाम ‘रैदास’ है, ‘रविदास’ नहीं है। यह नामान्तर
गुरु ग्रन्थ साहेब में संकलन के दौरान हुआ। जिज्ञासु जी ने इस संबंध में लिखा है,
अ‘ यह पता नहीं चल सका कि गुरु ग्रन्थ साहेब में संत रैदास जी के जो
40 पद मिलते हैं, वे किसके द्वारा
पहुंचे और उनमें रैदास को रविदास किसने किया? यह बात
विचारणीय इसलिए है, क्योंकि ‘रैदास’ का ‘रविदास’ किया जाना
संत प्रवर रैदास जी का ब्राह्मणीकरण है; जो रैदास-भक्तों में
सूर्याेपासना का प्रचार है। अन्य संग्रहों में रैदास साहेब का यह पद कुछ पाठान्तर
के साथ मिलता है और उसमें ‘रैदास’ छाप ही मिलती है। जिज्ञासु जी के संग्रह में इस
पद के आरंभ में यह पंक्ति आई है- ‘अब हम खूब वतन घर पाया, ऊँचा
खैर सदा मन भाया।
इस पद में रैदास साहेब ने अपने समय की व्यवस्था से मुक्ति की तलाश
करते हुए जिस दुःखविहीन समाज की कल्पना की है; उसी का नाम
बेगमपुरा या बेगमपुर शहर है। रैदास साहेब इस पद के द्वारा बताना चाहते हैं कि उनका
आदर्श देश बेगमपुर है, जिसमें ऊंच-नीच, अमीर-गरीब और छूतछात का भेद नहीं है। जहां कोई टैक्स देना नहीं पड़ता है;
जहां कोई संपत्ति का मालिक नहीं है। कोई अन्याय, कोई चिंता, कोई आतंक और कोई यातना नहीं है। रैदास
साहेब अपने शिष्यों से कहते हैं- ‘ऐ मेरे भाइयो! मैंने ऐसा घर खोज लिया है यानी उस
व्यवस्था को पा लिया है, जो हालांकि अभी दूर है; पर उसमें सब कुछ न्यायोचित है। उसमें कोई भी दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक
नहीं है; बल्कि, सब एक समान हैं। वह
देश सदा आबाद रहता है। वहां लोग अपनी इच्छा से जहां चाहें जाते हैं। जो चाहे कर्म
(व्यवसाय) करते हैं। उन पर जाति, धर्म या रंग के आधार पर कोई
प्रतिबंध नहीं है। उस देश में महल (सामंत) किसी के भी विकास में बाधा नहीं डालते
हैं। रैदास चमार कहते हैं कि जो भी हमारे इस बेगमपुरा के विचार का समर्थक है,
वही हमारा मित्र है।’)
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‘ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन को अन्न।
छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न।।’
रैदास जी जन साधारण के राज की बात करते हैं। एक ऐसे लोकतांत्रिक
गणराज्य की जिसमें जनता की भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सभी जरूरतें पूरी हों। यह रचना लगभग छः सौ साल पहले की है। फिर
भी उन्होंने किसी राजा-रानी, नवाब या बादशाह के राज की वकालत
नहीं की है, यहां तक कि उन्होंने किसी राम राज्य की बात भी
नहीं की है। बहुत मुश्किल से दुनिया के किसी इतिहास में संत कवियों की रचना में इस
तरह के लोक कल्याणकारी राज्य के विचार मिलते हैं। यहां तक कि राजनीतिक इतिहास में
भी यह दुर्लभ है।
रैदास की बेगमपुरा रचना प्लेटो, थामस मूर के
विचार की तरह यूटोपियन नहीं है, यह ठोस व व्यावहारिक है तथा
लोगों की आवश्यकता के अनुरूप है। यह रचना उदात्त है और छोटी होते हुए भी जनराजनीति
के राज्य का आज भी एक प्रामाणिक दस्तावेज है। यह एक पुख्ता प्रमाण है कि हमारे
संविधान की प्रस्तावना की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय की संकल्पना किसी पश्चिम की नकल नहीं है, यह भारतीय भूमि की ही पैदाइश है जो विभिन्न रूपों में संघर्ष की धारा के
बतौर आज भी मौजूद है।
बेगमपुरा में किसी मूर्ति-मंदिर की राजनीतिक संस्कृति कहीं भी नहीं
दिखती है। आजकल कुछ लोग भारतीय संस्कृति को एकांगी बनाकर दलितों, आदिवासियों और आम नागरिकों के सहज मानव प्रेम, मानव
मुक्ति की भावना को नष्ट करने में लगे हुए है। यहीं नहीं हिन्दू परम्परा में भी जो
ग्राहय है उसको भी वे नष्ट करने पर तुले हुए हैं। आखिर स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती जैसे बड़े संतों ने भी सदैव मूर्ति-मंदिर की राजनीतिक
संस्कृति का विरोध ही किया, उनसे बड़ा वैदिक धर्म का ज्ञानी
हिन्दुत्व की वकालत करने वाले लोगों में कौन है? गोलवरकर जो
हिटलर को अपना आदर्श मानते थे या मोदी सरकार, जो जनता के खून
पसीने की गाढ़ी कमाई से खड़ी हुई जनसम्पत्ति को देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हाथ कौड़ी
के मोल बेच रही है, विदेशी ताकतों की सेवा में दिन रात लगी
हुई है।
बहुलता को कमजोरी और धर्म निरपेक्षता को जो लोग विदेशी मानते हैं,
वे भारतीय संस्कृति को वास्तविक अर्थों में ना जानते हैं, न मानते हैं। भारत ने विश्व को बहुत कुछ दिया है, और
विश्व से बहुत कुछ लिया भी है। हमने यूनान, मिस्र, अरब, चीन जैसी सभ्यताओं को दिया भी और लिया भी।
शर्म आनी चाहिये उन लोगों को, जिनके श्लाघा
पुरुष हिटलर, मुसोलिनी, तोजो जैसे
तानाशाह हैं। शर्म आरएसएस करे, भाजपा करे जो हमारे
सांस्कृतिक जीवन में रचे - बसे बहुलता व धर्म निरपेक्षता को खारिज करने में लगे
हैं। धर्मनिरपेक्षता के विचार के विदेशी होने के तर्क को यदि मान भी लें तो भी
क्या ? सत्य - शिव - सुंदर तो मानव जाति की आत्मा है,
अगर कहीं भी सत्य है, तो वह ग्राह्य है ।
रैदास सामाजिक सच्चाइयों से भी रूबरु हो कर ही कहते हैं
- छोट बड़ो सब सम बसे,
रैदास रहे प्रसन्न ।
समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व
और न्याय की भावना कितनी गहरी है उनके अंदर यह उनके इसी पद से समझ सकते हैं। वर्ण
व्यवस्था और जाति के जंजाल के भार से दबी मानवता की मुक्ति की भावना, जो बाद में ज्योतिबा फुले, पेरियार और डाक्टर
अंबेडकर के संघर्षों में दिखती है उसकी जमीन रैदास जी जैसे संत कवि ही बनाते हैं।
समता की यही संकल्पना, आधुनिक भारत के संविधान
की संकल्पना है और न्याय की चाह है।
बेगमपुरा के रचयिता रैदास को आइपीएफ का नमन है और बेगमपुरा की भावना
तथा संविधान की प्रस्तावना के संकल्प को जन-जन तक पहुंचाने के लिए आइपीएफ
प्रतिबद्ध है।
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