शनिवार, 28 मई 2022

बौद्ध विहार हिन्दू मंदिरों में बदले गए

 

बौद्ध विहार हिन्दू मंदिरों में बदले गए

                    -(भगवान स्वरूप कटियार)

*आज के ज्यादात्तर नामी-गिरामी हिंदू मंदिर, मूलतः: बौद्ध स्थल थे, जिन्हें ब्राह्मणवादियों ने तोड़कर हिंदू मंदिर बनाया। इसमें बद्रीनाथ का मंदिर भी शामिल हैं,।क्यों न बौद्ध धर्मावलंबी इन हिंदू मंदिरों पर कब्जा का अभियान चलाएं?*

*प्रमाण राहुल सांकृत्यायन और डी एन झा ने प्रस्तुत किया है:-

बदरीनाथ की मूर्ति पद्मासन भूमिस्पर्श मुद्रायुक्त बुद्ध की है, इसमें कोई संदेह नही है.”

@राहुल सांकृत्यायन

(स्रोत-उद्धृत गुणाकर मुले, महापंडित राहुल सांकृत्यायन (जीवन और कृतित्व) नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, पृ. 136)

बदरीनाथ, हिंदुओं के चारधामों में से एक है. यहां की बुद्ध मूर्ति को आदि विष्णु का रूप दे दिया गया. यहां का मुख्य पुजारी सिर्फ केरल का नंबूदरी ब्राह्मण हो सकता है.

सैकड़ों नहीं, हजारों नहीं, बल्कि लाखों बुद्ध की मूर्तियों को, हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों में तब्दील कर दिया गया है यानि बौद्ध स्थलों पर ब्राह्मण धर्मालंबियों (जिसे आजकल "हिंदू धर्म" कहा जाता है) ने कब्जा जमा लिया, इसके पुरातात्विक साक्ष्य निरंतर मिलते रहे हैं और अभी भी मिल रहे हैं!

यहां तक कि बोधगया के महाबोधि मंदिर पर भी, ब्राह्मणों ने कब्जा कर लिया था. किन्तु दुनिया भर के बौद्ध अनुयायियों के लंबे संघर्ष के बाद, वह पवित्र स्थान बौद्ध अनुयायियों (14 जनवरी 1953) को मिल पाया!

सच यह है कि भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा, बहुजन-श्रमण संस्कृति रही है, जिसे नष्ट व घालमेल कर ब्राह्मणी संस्कृति (=हिंदू संस्कृति) स्थापित की गई.

इस तथ्य को डी. एन. झा इन शब्दों में व्यक्त करते हैं:-

"ब्राह्मणवादियों ने बड़े पैमाने पर बौद्ध मठों, स्तूपों और ग्रंथों को नष्ट किया और बौद्ध भिक्षुओं की बड़े पैमाने पर हत्या की. नालंदा विश्वविद्यालय और पुस्तकालय को जलाया जाना भी इस प्रक्रिया का हिस्सा था."

ब्राह्मणों और श्रमणों के बीच संघर्ष का क्या रूप था. इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध वैयाकरण पतंजलि (द्वितीय शताब्दी) लिखते हैं कि

श्रमण और ब्राह्मण एक दूसरे के शाश्वत शत्रु (विरोध: शाश्वतिक:) हैं, उनका विरोध वैसे ही है, जैसे सांप और नेवले के बीच. (संदर्भ- डी. एन. झा, पृ. 34, "हिंदू पहचान की खोज")

 

हिंदुओं ने बड़े पैमाने पर बौद्ध स्थलों को नष्ट किया, उन्होंने ही नालंदा के विश्वविद्यालय को भी जलाया-

प्रमाण इतिहासकार डी एन झा ने प्रस्तुत किया है.

डी.एन. झा पूर्व मध्यकालीन इतिहास के संदर्भ में भी फैलाए गए अन्य झूठे मिथकों को समुचित साक्ष्यों के आधार खारिज करते हैं. इन झूठे मिथकों में आम तौर स्वीकृत एक मिथक है यह है कि "नालंदा विश्वविद्यालय और उसके पुस्तकालय को बख्तियार खिलजी ने जलाया और नष्ट किया था."

डी. एन. झा ने तिब्बती बौद्ध धर्मग्रंथ ‘परासम-जोन-संग’ को उद्धृत करते हुए बताया है कि "हिंदू अंध श्रद्धालुओं द्वारा, नालंदा को पुस्तकालय जलाया गया था!" (स्रोत- "हिंदू पहचान की खोज", पृ.38, डी. एन. झा)

उनके इस मत की पुष्टि इतिहासकार बी. एन. एस. यादव भी करते हैं, उन्होंने लिखा है कि “आमतौर पर यह माना जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार खिलजी ने नष्ट किया था, जबकि उसे हिंदुओं ने नष्ट किया था.”

इतिहासकार डी. आर. पाटिल को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं कि “उसे (नालंदा विश्वविद्याल) शैवों (हिंदुओं) ने बर्बाद किया.”

(स्रोत: एंटीक्वेरियन रिमेंन्स ऑफ बिहार, 1963, पृ.304)

इस संदर्भ में आर. एस. शर्मा और के. एम. श्रीमाली ने भी विस्तार से विचार किया है. (ए कम्प्रिहेंसिव हिस्ट्री ऑफ इंडिया, खंड, भाग-2 (ए. डी.985-1206) आगामी अध्याय XXX ( b) बुद्धिज्म फुटनोट्स 79 से 82 तक

असल में डी. एन. झा प्राचीनकालीन और पूर्व मध्यकालीन इतिहास को ब्राह्मण-श्रमण विचारों-परंपराओं के संघर्ष के रूप में देखते हैं और साक्ष्यों के आधार पर यह स्थापित करते हैं कि ब्राह्मणवादियों ने बड़े पैमाने पर बौद्ध मठों, स्तूपों और ग्रंथों को नष्ट किया और बौद्ध भिक्षुओं की बड़े पैमाने पर हत्या की. नालंदा विश्वविद्यालय और पुस्तकालय को जलाया जाना भी इस प्रक्रिया का हिस्सा था.

ब्राह्मणों और श्रमणों के बीच संघर्ष का क्या रूप था; इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध वैयाकरण पतंजलि (द्वितीय शताब्दी) लिखते हैं कि “श्रमण और ब्राह्मण एक दूसरे के शाश्वत शत्रु (विरोध: शाश्वतिक:) हैं, उनका विरोध वैसे ही है, जैसे सांप और नेवले के बीच. (उद्धृत डी. एन. झा, पृ. 34, हिंदू पहचान की खोज)

यह शत्रुता लंबे समय तक जारी रही है और बड़े पैमाने पर बौद्धों- जैनों और श्रमण पंरपरा के अन्य वाहकों के खिलाफ ब्राह्मणवादियों द्वारा हिंसा जारी रही.

हिंसा के इस स्वरूप का साक्ष्यों द्वारा उद्घाटन करते हुए डी. एन. झा यह स्थापित करते है कि, "हिंदू धर्म का इतिहास, सहिष्णुता और अहिंसा का इतिहास रहा है, यह गढ़ा गया झूठा मिथक हैं. हिंदू धर्म का इतिहास हिंसा और असहिष्णुता से भरा पड़ा है. यह हिंसा न केवल श्रमण विचारों के वाहकों के खिलाफ हुई, इसके साथ वैदिक-ब्राह्मणवादी परंपरा के विभिन्न संप्रदायों के बीच भी व्यापक हिंसा हुई, जिसमें वैष्णवों और शैवों के बीच हिंसा भी शामिल है."

अपनी किताब ‘हिंदू पहचान की खोज’ में डी. एन. झा श्रमणों के खिलाफ ब्राह्मणवादियों की व्यापक हिंसा के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं. वे लिखते है कि

बौद्ध रचना 'दिव्यावदान' (तीसरी शताब्दी) में पुष्यमित्र शुंग को बौद्धों का बहुत बड़ा उत्पीड़क बताया गया है: वह चार गुना सेना के साथ बौद्धों के विरुद्ध निकल पड़ता है, स्तूपों को नष्ट करता है, बौद्ध विहारों को जला देता है और शाकल (सियालकोट) तक भिक्षुओं की हत्या करता जाता है और जहां वह प्रत्येक श्रमण के सिर लिए, एक सौ दीनार के इनाम की घोषणा करता है.” ('दिव्यावदान', सं. ई. बी. कोवेल और आर.ए. मील, कैम्ब्रिज, 1886, पृ.433-34)

डी. एन. झा लिखते हैं कि-

"बौद्ध एवं जैन संप्रदायों और ब्राह्मणवादियों के बीच शत्रुता मध्ययुग के आरंभ में तीखी होती जाती है. यह हमें धर्मशास्त्रीय वैमनस्व संबंधी पाठों तथा उन्हें मानने वालों के बीच उत्पीड़न से पता चलता है. कहा जाता है कि उद्योत्कर (सातवीं शताब्दी) ने बौद्ध तर्कशास्त्रियों-नागार्जुन और दिगनाग-के तर्कों का खंड़न किया था और उनके तर्कों को वाचस्पति मिश्र ने अधिक दृढ़ बनाया."

"सनातनी-ब्राह्मणवादी दार्शनिक- कुमारिल भट्ट (आठवीं शताब्दी) ने सभी गैर-परंपरावादी आंदोलनों (खासकर बौद्ध और जैन) के दर्शनों को मानने से इंकार कर दिया."

बौद्धों-जैनों के बारे में कुमारिल कहता है कि “वे उन अकृतज्ञ और अलग हो गए बच्चों के समान हैं जो अपने अभिभावकों द्वारा की गई भलाई स्वीकार करने से इंकार करते हैं, क्योंकि वे वेद-विरोधी प्रचार के लिए ‘अहिंसा’ के विचार का प्रयोग एक औजार के रूप में करते हैं."

बुद्ध के संदर्भ में शंकर (आदि शंकराचार्य) कहते हैं कि

वे (बुद्ध) असंबद्ध प्रलाप (असंबद्ध-प्रलापित्वा) करते हैं, यहां तक कि वे जानबूझकर और घृणापूर्वक मानवता को विचारों की गड़बड़ी की ओर ले जाते हैं.”

सोलहवीं बंगाल के भगवद्गीता के टिप्पणीकार-मधुसूदन सरस्वती- यहां तक कहते हैं कि

"भौतिकवादियों, बौद्धों तथा अन्य के विचार, म्लेच्छों के विचारों के समान हैं. ब्राह्मणवादी दार्शनिकों को अनुकरण करते हुए पुराण (सौर पुराण) यह मत प्रकट करता है कि “चार्वाकों, बौद्धों और जैनियों को साम्राज्य में रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.” ( सौर पुराण, 64.44, 38.54)

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डी.एन. झा लिखते हैं कि बौद्धों और जैनियों के विरुद्ध शैव तथा वैष्णव अभियान सिर्फ जहरीले शब्दों तक सामित नहीं थे. उन्हें प्रथम सहस्राब्दी के मध्य से प्रताड़ित किया जाने लगा, जिसकी पुष्टि आरंभिक मध्ययुगीन स्रोतों से होती है."

ह्यूआन सांग को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं कि -

हर्षवर्धन के समकालीन गौड़ राजा शशांक ने बुद्ध की मूर्ति हटाई थी."

यह भी बताते हैं कि "शिवभक्त हूण शासक मिहिरकुल ने 1600 बौद्ध स्तूपों और मठों को नष्ट किया तथा हजारों बौद्ध भिक्षुओं तथा सामान्य जनों की हत्या की.” (सैमुअल बील, सी-यू: बुद्धिस्ट रेकॉर्डस ऑफ द वेस्टर्न वर्ल्ड, दिल्ली, 1969, पृ. 171-72, उद्धृत डी. एन. झा)

कश्मीर में बौद्धों के दमन का महत्वपूर्ण प्रमाण राजा क्षेमगुप्त ( 950-58) के शासन में मिलता है. उन्होंने श्रीनगर में स्थित बौद्ध विहार-जयेंन्द्र विहार-नष्ट करके उसकी सामग्री का प्रयोग श्रेमगौरीश्वर के निर्माण के लिए किया. (राजतरंगिणी ऑफ कल्हण, 1.140-144, उद्धृत डी. एन. झा)

उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले में नष्ट किए गए सैंतालिस किलेबंद नगर के अवशेष मिले हैं, जो वास्तव में बौद्ध नगर थे और जिन्हें ब्राह्मणवादियों ने बौद्धवाद पर अपनी जीत की खुशी में आग लगाकर बर्बाद किया था.”

(उद्धृत, डी. एन. झा, सोसायटी एंड कल्चर इन नादर्न इंडिया इन द टवेल्फ्थ सेंचुरी, इलाहाबाद, 1973, पृ.436)

बौद्धों के प्रति ब्राह्मणवादियों में किस कदर नफरत थी, इसका एक बड़ा उदाहरण देते हुए डी. एन. झा लिखते हैं कि-

"दक्षिण भारत में मिलता है. तेरहवीं शताब्दी के एक अल्वार ग्रंथ के अनुसार वैष्णव कवि-संत तिरुमण्कई ने नागपट्टिनम में एक स्तूप से बुद्ध की एक बड़ी सोने की मूर्ति चुराई और उसे पिघलाकर एक अन्य मंदिर में प्रयुक्त किया, कहा गया कि वह मंदिर बनाने का आदेश स्वयं भगवान विष्णु ने उन्हें दिया था. (रिचर्ड एव. डेविस, लाइव्स ऑफ इमेजेज, प्रथम संस्करण, दिल्ली, 1999, पृ.83)

डी. एन. झा प्रमाणों के साथ यह प्रस्तुत करते हैं कि "ब्राह्मणवादियों ने बौद्धों से कहीं अधिक ज्यादा जैनियों का दमन किया है."

निष्कर्ष रूप में डी. एन. झा लिखते हैं कि ब्राह्मणवाद निहित रूप से असहिष्णु था...अक्सर ही हिंसा का रूप धारण करने वाली असहिष्णुता सैन्य-प्रशिक्षण प्राप्त ब्राह्मणों से काफी सहायता पाती रही होगी. इसलिए यह दावा (हिंदुओं का दावा) पचाना कठिन है कि हिंदूवाद तिरस्कार करने के बजाय समावेश करता है.

यह भी मानना असंभव है कि हिंदूवाद के रूप में हिंदूवाद का सार ही सहिष्णुता है!

इसी तरह यह कहना कि इस्लाम ने ही इस देश में हिंसा लाई है, जिसे इसका पता नहीं ही नहीं था, ऐसा कहना प्रमाणों की उपेक्षा करना है.

भारत में इस्लाम के आगमन से काफी पहले, सन्यासी-योद्धाओं और साधु फौजियों के दल बन चुके थे और वे आपस में खूब मारा-मारी करते थे.

-डेविड एन. लोरेन्जेन, (वॉरियर एसोटिक्स इन इंडियन हिस्ट्री, जर्नल ऑफ द अमेरिकन सोसायटी, पृ.61-75, उद्धृत डी.एन. झा, पृ.42)

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