सोमवार, 21 सितंबर 2020

क्या भारत एक पुलिस स्टेट बन गया है?

 

क्या भारत एक पुलिस स्टेट बन गया है?

एस आर दारापुरी आईपीएस (सेवानिवृत्त) राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

लेखक, स्टीवन लेविट्स्की और डैनियल ज़िब्लाट ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "हाउ डेमोक्रेसीज़ डाई: व्हाट हिस्ट्री रिवीलज़ फ़ॉर फ्यूचर" में कहा है कि "डेमोक्रेसी तख्तापलट के साथ मर सकती हैं- या वे धीरे-धीरे मर सकती हैं। यह एक भ्रामक रूप में धीरे धीरे होता है, एक तानाशाह  नेता के चुनाव के साथ, सरकारी सत्ता का दुरुपयोग और विपक्ष का पूर्ण दमन। ये सभी कदम दुनिया भर में उठाए जा रहे हैं- कम से कम डोनाल्ड ट्रम्प के चुनाव के साथ- और हमें समझना चाहिए कि हम इसे कैसे रोक सकते हैं।

अब अगर हम अपने देश को देखें तो यह उतना ही सत्य प्रतीत होता है जितना कि अमेरिका में। क्या उपरोक्त सभी घटनाएँ भारत में नहीं हो रही हैं? एक तानाशाह नेता और विपक्ष के पूर्ण दमन के रूप में मोदी के चुनाव के अलावा, सरकारी सत्ता का दुरुपयोग बहुत स्पष्ट है। सरकारी शक्तियों के बीच पुलिस किसी भी सरकार के हाथों में सबसे शक्तिशाली साधन है। वास्तव में इसे राज्य की शक्ति का डंडा कहा जाता है। सामान्य तौर पर, पुलिस को कानून और व्यवस्था बनाए रखने, अपराध को रोकने, अपराध की जांच करने और अपने अधिकारों के प्रयोग करने वाले लोगों की रक्षा करने के लिए एक उपकरण कहा जाता है। लेकिन यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि अक्सर राज्य द्वारा पुलिस को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाता है ताकि विपक्ष और नागरिकों को दबाया जा सके, जो सरकार की नीतियों और कार्यों के साथ इत्तफाक नहीं रखते हैं। इस लिए सरकार पुलिस को अधिक से अधिक शक्तियां देना चाहती है। इसलिए धीरे धीरे लोकतांत्रिक व्यवस्था अपने सत्ता पक्ष यानी पुलिस के सहारे एक अधिनायकवादी संगठन में बदल जाती है। राज्य के अन्य संस्थान भी एक सत्तावादी मोड में बदल दिये जाते हैं। अंत में लोकतांत्रिक राज्य एक पुलिस राज्य बन जाता है।

अब अगर हम अपने देश को देखें तो हमें पता चलता है कि 2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से राज्य अधिक से अधिक तानाशाही होता जा रहा है। हर भाजपा शासित राज्य में पुलिस को अधिक से अधिक शक्तियां दी गई हैं और न केवल अपराधियों या कानून तोड़ने वालों के साथ बल्कि असंतुष्टों और राजनीतिक विरोधियों के साथ कठोर व्यवहार करने के लिए खुली छूट दी गयी है। सामान्य दंड वाले प्रावधानों के साथ यूएपीए और एनएसए जैसे कठोर कानूनों का दुरुपयोग किया जा रहा है। इसका परिणाम यह है कि यूएपीए और एनएसए के तहत बहुत बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार रक्षकों को बुक किया गया है। भीमा कोरेगांव मामला इसका एक भयानक उदाहरण है।

गुजरात और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां पुलिस का दमन सबसे क्रूर है। उत्तर प्रदेश में योगी ने पुलिस को ऑपरेशन ठोक दोयानी अपराधियों पर कार्रवाई करने के लिए स्वतंत्र हाथ दिया है। राज्य ने 5000 से अधिक मुठभेड़ों को अंजाम दिया है जिसमें 100 से अधिक लोग मारे गए हैं और बहुत बड़ी संख्या में टांग या पैरों में गोली मारी गयी है। निस्संदेह मारे गए और घायलों की अधिकतम संख्या मुसलमानों के बाद दलितों और सबसे पिछड़े वर्ग के लोगों की है। राज्य नीति के रूप में किए गए मुठभेड़ों के गुजरात मॉडल का ईमानदारी से पालन किया जा रहा है, यहां तक ​​कि कभी-कभी उत्तर प्रदेश में उससे अधिक भी। एक बहुत बड़ी संख्या में व्यक्तियों को एनएसए के तहत जेल में रखा गया है। आपातकाल के दौरान संख्या इससे कम हो सकती है। यहाँ भी मुसलमानों और दलितों का अनुपात मुठभेड़ों की तरह ही अधिक है।

वर्तमान में हम कोरोना संकट का सामना कर रहे हैं। कोविड-19 संक्रमण के कारण न केवल लोगों की मौत हो रही है, बल्कि वे महामारी को नियंत्रित करने के नाम पर राज्य द्वारा दमन का सामना भी कर रहे हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि एक कानून "महामारी रोग अधिनियम, 1897 के रूप में जाना जाता है जो कि विभिन्न महामारियों के दौरान अब तक इस्तेमाल किया गया है। इस अधिनियम में केवल 4 धाराएं थीं। इस अधिनियम के तहत जारी किए गए सरकारी आदेशों के उल्लंघन के लिए, धारा 3 में एक माह की जेल की अधिकतम सजा और रुo 200 जुर्माना था. लेकिन मार्च में मोदी सरकार ने कोरोना वारियर्ज़ को साधारण चोट पहुँचाने के लिए इसमें 3 महीने से 5 साल तक की कैद की अधिकतम सजा और 50,000 से 2 लाख रुo तक का जुर्माना होने का संशोधन किया है। गंभीर चोट के मामले में 6 महीने से 7 साल तक की कैद और 2 लाख से 5 लाख रुपये का जुर्माना।  इसके अलावा संपत्ति को नुकसान की कीमत की दुगनी लागत पर वसूली का प्रावधान है। इससे आप देख सकते हैं कि ब्रिटिश और पिछली सरकारें बहुत मामूली सजा से महामारी के खतरे से निपट सकती थीं लेकिन मोदी सरकार ने इसे बहुत कठोर दंड के रूप में बढ़ाया है। इसका उद्देश्य आम आदमी को आतंकित करना है।

मोदी अक्सर कहते रहे हैं कि हमें संकट को अवसर में बदलना चाहिए। लेकिन कोरोना महामारी से लड़ने के उपायों को बढ़ाने के लिए इसका इस्तेमाल करने के बजाय, उनकी सरकार ने जनता को आतंकित करने के लिए इसका इस्तेमाल किया है। पुलिस द्वारा सताए जा रहे प्रवासी मजदूरों के दृश्य राज्य के आतंक और दुखी नागरिकों के प्रति अमानवीयता के उदाहरण हैं। इसी तरह दिसंबर में उत्तर प्रदेश में सीएए / एनआरसी प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी हजारों की संख्या में हुई, जिसमें 21 लोग मारे गए लेकिन पुलिस ने इससे इनकार करते हुए कहा कि यह प्रदर्शनकारियों की आपसी गोलीबारी से हुयी हैं. इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि असंतोष की आवाज को कुचलने के लिए पुलिस की ताकत का कैसे इस्तेमाल किया गया है। फरवरी 2020 के दिल्ली दंगों में पुलिस न केवल हमलावरों से मिली रही, बल्कि अब उसने पीड़ितों को ही आरोपी बना दिया है। सीएए / एनआरसी के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन में भाग लेने वाले सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं को साजिशकर्ता के रूप में गिरफ्तार किया गया है और उनके खिलाफ यूएपीए का कड़ा कानून इस्तेमाल किया गया है। यहां तक ​​कि सीपीएम के सीताराम येचुरी, स्वराज इंडिया के योगेन्द्र यादव, सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर, डॉ. अपूर्व नंद और फिल्म निर्माता राहुल रॉय जैसे राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं को भी चार्जशीट में रखा गया है। इसी तरह बड़ी संख्या में छात्र नेताओं और जामिया मिलिया और जेएनयू के सांस्कृतिक कर्मियों को झूठे आधार पर गिरफ्तार किया  गया है। उमर खालिद की हालिया गिरफ्तारी राज्य की शक्ति के दुरुपयोग का एक क्रूर उदाहरण है।

ऊपरोक्त से यह देखा जा सकता है कि मोदी सरकार के तहत भारत तेजी से पुलिस स्टेट बन रहा है। सामान्य कानूनों को और अधिक कठोर बनाया जा रहा है। राजद्रोह, यूएपीए और एनएसए जैसे काले कानूनों का धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है। लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार रक्षकों और विपक्षी नेताओं को झूठे आरोपों में फंसाया जा रहा है। दुर्भाग्य से अदालतें भी आम आदमी के बचाव में नहीं आ रही हैं जैसा कि अपेक्षित है। विरोधियों या असंतुष्टों को दंडित करने के लिए पुलिस और अन्य पुलिस एजेंसियों का दुरुपयोग किया जा रहा है। इसलिए यह उचित समय है कि जो लोग लोकतंत्र और कानून के राज में विश्वास करते हैं, उन्हें तानाशाही के हमले के खिलाफ खड़े होने के लिए हाथ मिलाना चाहिए और हमारे देश को पुलिस स्टेट नहीं बनने देना चाहिए। अब चूंकि यह हिंदुत्ववादी ताकतों की राजनीतिक रणनीति का नतीजा है, अतः इसका प्रतिकार भी राजनीतिक स्तर से ही करना होगा जिसके लिए एक बहुवर्गीय पार्टी की ज़रुरत है क्योंकि वर्तमान विपक्ष इसको रोकने में असमर्थ दिखाई दे रहा है. आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट इस दिशा में गंभीर प्रयास कर रहा है.

रविवार, 20 सितंबर 2020

 

बाबा साहब अम्बेडकर का मद्रास का एक जरूरी व्याख्यान

[ मद्रास के प्रसिद्ध पत्र संडे आबजर्वर के सम्पादक श्री पी. बालासुब्रम्ण्या ने बाबा साहब के सम्मान में , २३ दिसम्बर १९४४ को वहाँ के कन्नेमारा होटल में एक लंच दिया था । ]

अम्बेडकर,पेरियार,जिन्ना

मित्रों ,जहाँ तक मैंने अध्ययन किया है , मैं कह सकता हूँ कि मद्रास की अब्राह्मण-पार्टी का संगठन भारत के इतिहास की एक विशिष्ट घटना है । इस बात को बहुत कम लोग समझ सकते हैं कि यद्यपि इस पार्टी का जन्म साम्प्रदायिकता के आधार पर हुआ था , जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट झलकता है , फिर भी इस पार्टी का मौलिक आधार और वास्तविक ध्येय साम्प्रदायिक नहीं था । यह कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है कि अब्राह्मण पार्टी का संचालन किसने किया ? भले ही इसका संचालन किसी ’मध्य वर्ग’ ने किया हो , जिसके एक सिरे पर ब्राह्मण रह रहे हैं और दूसरे सिरे पर अछूत , तो भी यदि यह पार्टी लोकतंत्र पर आश्रित न होती , तो इसका कुछ मूल्य न होता । इसीलिए हर लोकतंत्रवादी को इस पार्टी की उन्नति और विकास में दिलचस्पी रही है ।

इस देश के इतिहास में जहाँ ब्राह्मणवाद का बोलबाला है , अब्राह्मण पार्टी का संगठन एक विशेष घटना है और इसका पतन भी उतने ही खेद के साथ याद रखी जाने वाली एक घटना है । १९३७ के चुनाव में पार्टी क्यों एकदम धराशायी हो गयी , यह एक प्रश्न है , जिसे पार्टी के नेताओं को अपने से पूछना चाहिए। चुनाव से पहले लगभग २४ वर्ष तक मद्रास में अब्राह्मण-पार्टी ही शासनारूढ़ रही । इतने लम्बे समय तक गद्दी पर बैठे रहने के बावजूद अपनी किसी गलती के कारण पार्टी चुनाव के समय ताश के पत्तों की तरह उलट गई ? क्या बात थी जो अब्राह्मण-पार्टी अधिकांश अब्राह्मणों में ही अप्रिय हो उठी ? मेरे मत में इस पतन के दो कारण थे । पहला कारण यह है कि इस पार्टी के लोग इस बात को साफ नहीं समझ सके कि ब्राह्मण-वर्ग के साथ उनका क्या वैमनस्य है ? यद्यपि उन्होंने ब्राह्मणों की खुल कर आलोचना की,तो भी क्या उनमें से कोई कभी यह कह सका था कि उनका मतभेद सैद्धान्तिक है । उनके भीतर स्वयं कितना ब्राह्मणवाद भरा था । वे ’ नमम’ पहनते थे और अपने आपको दूसरी श्रेणी के ब्राह्मण समझते थे। ब्राह्मणवाद को तिलांजलि देने के स्थान पर वे स्वयं ’ब्राह्मणवाद’  की भावना से चिपटे हुए थे और समझते थे कि इसी आदर्श को उन्हें अपने जीवन में चरितार्थ करना है । ब्राह्मणों से उन्हें इतनी ही शिकायत थी कि वे उन्हें निम्न श्रेणी का ब्राह्मण समझते हैं ।

ऐसी कोई पार्टी किस तरह जड़ पकड़ सकती थी जिसके अनुयायी यह तक न जानते कि जिस पार्टी का वे समर्थन कर रहे हैं तथा जिस पार्टी का विरोध करने के लिए उनसे कहा जा रहा है ,उन दोनों में क्या-क्या सैद्धान्तिक मतभेद हैं । उसे स्पष्ट कर सकने की असमर्थता , मेरी समझ में , पार्टी के पन का कारण हुई है । पार्टी के पतन का दूसरा कारण इसका अत्यन्त संकुचित राजनैतिक कार्यक्रम था । इस पार्टी को इसके विरोधियों ने ’नौकरी खोजने वालों की पार्टी ’ कहा है ।मद्रास के ’हिन्दू’ पत्र ने बहुधा इसी शब्दावली का प्रयोग किया है। मैं उसक आलोचना का अधिक महत्व नहीं देता क्योंकि यदि हम ’ नौकरी खोजने वाले ’ हैं, तो दूसरे भी हम से कम ’नौकरी खोजने वाले’ नहीं हैं ।

अब्राह्मण-पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रम में यह भी एक कमी अवश्य रही कि उसने अपनी पार्टी के कुछ युवकों के लिए नौकरी खोजना अपना प्रधान उद्देश्य बना लिया था। यह अपनी जगह ठीक अवश्य था। लेकिन जिन अब्राह्मण तरुणों को सरकारी नौकरियां दिलाने के लिए पार्टी बीस वर्ष तक संघर्ष करती रही, क्या उन अब्राह्मण तरुणों ने  नौकरियाँ मिल जाने के बाद पार्टी को स्मरण रखा ? जिन २० वर्षों में पार्टी सत्तारूढ़ रही ; इस सारे समय में पार्टी गांवों में रहने वाले उन ९०  प्रतिशत अब्राह्मणों को भुलाये रही, जो आर्थिक संकट में पड़े थे और सूदखोर महाजनों के जाल में फँसते चले जा रहे थे ।

मैंने इन बीस वर्षों में पास किये गए कानूनों का बारीकी से अध्ययन किया है । भूमि-सुधार सम्बन्धी सिर्फ़ एक कानून को पास करने के अतिरिक्त इस पार्टी ने श्रमिकों और किसानों के हित में कुछ भी नहीं किया । यही कारण था कि ’ कांग्रेस वाले चुपके से ’ चीर हरण,कर ले गये।

ये घनायें जिस रूप में घटी हैं , उन्हें देखकर मुझे बहुत दुख हुआ। एक बात जो मैं आपके मन में बिठाना चाहता हूं, वह यह है कि आपकी पार्टी ही आपको बचा सकती है । पार्टी को अच्छा नेता चाहिए , पार्टी को मजबूत संगठन चाहिए , पार्टी को अच्छा प्लैट-फ़ार्म चाहिए ।

बहुजन राजनीति के उद्भव और पतन की कहानी के कुछ सूत्र

बहुजन राजनीति के उद्भव और पतन की कहानी के कुछ सूत्र

-कँवल भारती


(नोट: यद्यपि यह लेख 2018 का है परंतु कंवल भारती का 2019 के चुनाव में भी बहुजन राजनीति की दुर्दशा का आंकलन बिल्कुल सही निकला।एस आर दारापुरी)

 

यह कहानी शुरू होती है, आरपीआई से. आरपीआई यानी रिपब्लिकन पार्टी, जिसके बढ़ते प्रभाव और जबरदस्त भूमि आन्दोलन ने कांग्रेस का सिंहासन हिला दिया था. कांग्रेस के लिए आरपीआई को खत्म करना या तोड़ना जरूरी था.कांग्रेस ने RPI के बिकाऊ नेताओं को पकड़ा. और वह उसे कमजोर करने में कामयाब हो गई. देश भर में आरपीआई  का ढांचा बिखर गया.

कांग्रेस के सिंहासन के दलित, पिछड़े, मुस्लिम और सवर्ण चार पाए थे. इन चारों पायों पर आरएसएस की तीखी नजर थी. कांग्रेस को खत्म या कमजोर करने के लिए दलित, पिछड़े और मुस्लिम इन तीन पायों को तोड़ना जरूरी था. इसके बिना हिन्दू राजनीति सत्ता में नहीं आ सकती थी.

इसी दौरान आरएसएस को बिल्ली के भाग्य से छींका हाथ लगा, या छींका उसी ने तैयार किया. यह विश्लेषण का विषय है. बिल्ली के भाग्य से इसी दौरान मुलायम सिंह यादव समाजवादी बनकर पिछड़ों के नेता के रूप में उभर कर आ गए. इसी दौरान बहुत सोच समझ कर मंदिर आन्दोलन खड़ा किया गया. कांग्रेस के नरसिम्हा राव, जो हिंदूवादी थे, आरएसएस के बहुत काम आए. अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई. और एक ही झटके में देश भर का मुसलमान कांग्रेस से अलग हो गया. कांग्रेस के सिंहासन का एक पाया तोड़ने में आरएसएस सफल हो गया.

कांशीराम और मुलायम सिंह यादव ने मिलकर चुनाव लड़ा, और उत्तर प्रदेश से कांग्रेस का सफाया हो गया. नंगे-भूखों ने साइकिल से और पैदल घूम घूम कर विजय हासिल कर ली.

सपा-बसपा ने मिलकर कांग्रेस के दलित, पिछड़े और मुस्लिम तीनों पायों को तोड़ दिया. भाजपा तो वैसे भी दौड़ में नहीं थी, पर वह कांग्रेस की हार पर खुश थी. कांग्रेस के तीनों पाए टूटने के बाद कांग्रेस का सवर्ण पाया तो भाजपा का ही था.

अब जरूरत थी, आरएसएस को दलित-पिछड़ों को भाजपा से जोड़ने की, सवर्ण उसके साथ था ही, मुसलमानों की उसे जरूरत नहीं थी.  आरएसएस के इस काम में काम आए कांशीराम.

कांशीराम ने आरएसएस और भाजपा से समझौता किया. कांशीराम के तीन पाए थे दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक. कांशीराम ने मुलायम सिंह यादव से गठबंधन तोड़कर भाजपा से हाथ मिला लिया और और इस हाथ ने मुसलमानों को बसपा से दूर कर दिया. बसपा का एक पाया टूट गया, जो आरएसएस भी चाहता था.  मुसलमान सपा से जुड़ गया, इसके सिवा उसके पास कोई विकल्प भी नहीं था.

बसपा के पास अब भी कुछ पिछड़ा वोट था. उसे खत्म करने में बाबू सिंह कुशवाहा और स्वामी प्रसाद मौर्य को बसपा से ठिकाने लगाने का काम हुआ, जिसमे भाजपा को पूरी सफलता मिली.

मायावती भाजपा के सहयोग से तीन बार मुख्यमंत्री बन चुकी थीं, उनकी गठबंधन सरकार में भाजपा शामिल थी. भाजपा ने मायावती को पूरी छूट दी. मायावती भ्रष्टाचार करती रहीं, और भाजपा उसका पूरा बहीखाता तैयार करके अपने पास रखती रही, ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे. इसी सनदके बल पर मायावती ने पिछले लोकसभा के चुनावों तक भाजपा का कार्ड खेला. अब भी यह सनद मायावती से वही कराएगी, जो भाजपा चाहेगी, वरना वे जानती है, लालू यादव आज कहाँ है?

यादव वोट को विभाजित करने के लिए शिवपाल सिंह यादव का समाजवादी मोर्चा अस्तित्व में आ ही गया है. जाटव वोट को विभाजित करने के लिए चन्द्रशेखर रावण को दो महीने पहले ही रात के १२ बजे छोड़ने का और कोई कारण समझ में नहीं आ रहा है. पिछड़ों में मौर्य, कुशवाहा, सैनी, काछी, लोधी में कोई प्रतिरोध का नेतृत्व नहीं है, इसलिए वे सब भाजपा के साथ हैं.

67 दलित जातियों में जाटव या चमार को छोड़कर शेष वाल्मीकि, खटिक, पासी, धानुक, धोबी, आदि में भी कोई प्रतिरोध का नेतृत्व नहीं है, इसलिए वे सब भी भाजपा के साथ हैं.

क्या अब भी किसी को संदेह है कि 2019 में क्या होने वाला है.

(यह बहुजन राजनीति का अद्यतन इतिहास संक्षिप्त सूत्रों में है. इस पर अगर विस्तार से लिखा गया, तो एक किताब बन जाएगी)

 

 

क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है?

  क्या डेटा कोटा के विभाजन को उचित ठहराता है ? हाल ही में हुई बहसों में सवाल उठाया गया है कि क्या अनुसूचित जाति के उपसमूहों में सकारात्म...