मंगलवार, 12 मई 2020

मेहनतकशों को चाहिए नया गणतंत्र!


मेहनतकशों को चाहिए नया गणतंत्र!
-लाल बहादुर सिह,  नेता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
देश के बहुसंख्य आमजन-मेहनतकशों के लिए ऐसी सरकार, ऐसे राज्य के बने रहने का तर्क खत्म हो गया है!  कोरोना की आपदा तो वैश्विक है, लेकिन इससे जिस तरह हमारे देश में निपटा जा रहा है, उसने मजदूरों की जिस दिल दहला देने वाली अकल्पनीय यातना को जन्म दिया है, उसका पूरी दुनिया में कोई सानी नहीं है ! आने वाले कल कोई संवेदनशील इतिहासकार/पत्रकार/साहित्यकार जब इन दुःख की इन महागाथाओं, शासकों की अनन्त क्रूरता और मजदूरों की अदम्य जिजीविषा को लिपिबद्ध करेगा तो वह विश्व इतिहास का मानव पीड़ा का सबसे महाकाव्य बन जायेगा। आधुनिक इतिहास की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी के हम साक्षी है!
आज बस सभी सम्भव तरीकों से मरने के लिए उन्हें छोड़ दिया गया है- भूख से, बीमारी से, घर की अनंत यात्रा के बीच रास्ते में बेदम होकर दम तोड़ते, भूखे पेट जेल जाते पुलिस की मार खाते, ट्रेन से कटकर, हाइवे पर कुचलकर, पुलिस की मार से नदी में कूदकर, आत्महत्या कर.....और अंत में कोरोना से भी सबसे ज्यादा वही मरेंगे क्योंकि उनके पास अच्छी रोग प्रतिरोधक क्षमता देने  वाला भोजन व 'सोशल डिस्टेंसिंग' मेंटेन कर सकने लायक घर में रहने की न सुविधा है, न प्राइवेट इलाज के खर्च लायक औकात, न प्राथमिकता में अच्छा सरकारी इलाज-आईसीयू, वेंटिलेटर पाने की हैसियत !
आज जब 50 दिनों से अधभूखे-प्यासे, जीवन की भयानक असुरक्षा, अपनों की चिंता में डूबे मजदूर, अपने गाँव लौटना चाह रहे हैं, तो उन्हें सभी सम्भव तरीकों से रोकने की, हतोत्साहित करने की साजिश की जा रही है, ताकि मुनाफाखोरी का पहिया चलता रहे। आज वे चीख चीख कर कह रहे हैं कि अगर उन्हें अपने काम की जगह पर भर पेट भोजन मिलता रहता तो वे इतनी अपार तकलीफें झेलते हुए 'रोटी की जगह पुलिस के लट्ठ खाते हुए' , दुधमुंहे बच्चों, गर्भवती पत्नियों के साथ हजारों किमी की जानलेवा असुरक्षित यात्रा पर कत्तई न निकलते, जब वे गुहार लगा रहे कि, 'हमें सरकार से कुछ नहीं चाहिए, न रोटी, न पैसा, बस हमें घर/गाँव जाने दिया जाय' , जब वे चरम हताशा में चीत्कार कर रहे हैं कि या तो ' हमें गाँव जाने दो या गोली मार दो '। अपनी सारी दौलत के सृजनहार जिन मजदूरों को उनके मालिक और सरकार भरपेट भोजन न दे सकी और उन्हें गांवों की ओर भागने के लिए मजबूर कर दी, उन्हें महान दार्शनिक प्रधानमंत्री जी दर्शन समझा रहे हैं कि यह मानव स्वभाव है कि वह अपने गाँव जाना चाहता है!
उनके इस मौलिक रहस्योद्घाटन की तुलना उनके ही दूसरे ऐसे ही सुभाषित से की जा सकती है जब उन्होंने बताया था की सीवर साफ करने वाले मजदूर को उसमें आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती है ! आज ऐसा लग रहा है, जैसा मजदूरों के लिए राज्य अस्तित्वहीन हो चुका है और अपने ही राष्ट्र में वे बेगाने हो गए हैं, 'उदार' भारतीय राज्य में श्रमिकों की रक्षा के लिए बने सारे संवैधानिक प्रावधान, नियम-कानून, सारी संवैधानिक संस्थाएं मजदूरों के लिए अर्थहीन हो गयी हैं ! आज जब अप्रत्याशित, अकल्पनीय विपत्ति का पहाड़ उनके ऊपर टूट पड़ा है, तब, कोई उनको नहीं बचा पाया, न राष्ट्रवाद, न लोकतंत्र, न संविधान!
बेहयाई और क्रूरता की हद तो यह है कि एक ऐसे समय में जब उन्हें सबसे ज्यादा मदद की जरूरत है, उनसे उनकी सेवा- सुरक्षा के न्यूनतम संवैधानिक, कानूनी सुरक्षा कवच को भी छीना जा रहा है !
यह संविधान की धारा 21 के तहत उन्हें प्राप्त गरिमामय जीवन के अधिकार का भी निषेध है, जिसे देश के संविधान के अनुसार आपातकाल में भी नहीं छीना जा सकता। डॉo आंबेडकर ने कभी कहा था कि लागू करने वाले बुरे हों तो अच्छा संविधान भी बुरे नतीजे देगा।
पर हमारा गणतंत्र इतना अशक्त क्यों निकला, इसकी संस्थाएं इतनी लिजलिजी क्यों हैं, जो अपने सबसे कमजोर नागरिकों को उनके सबसे बुरे वक्त में जीवन की न्यूनतम सुरक्षा भी न दे पायीं, यह system इतना अमानवीय क्यों है ? खूबसूरत जुमलों की आड़ में छिपाई गयी भारतीय राज्य की क्रूर वर्गीय सच्चाई सात पर्दों को फाड़कर सामने आ चुकी है, हमारे शासक आभिजात्य की श्रमिको के प्रति सदियों की संचित घृणा और पूंजी की मुनाफाखोरी की कभी न मिटने वाली हवस का क्रूर कॉकटेल है यह ! कल तक जिन्हें गलतफहमी थी कि यह महज मुसलमानों के खिलाफ है, आज वे आंख खोल कर देख लें कि आज इसके निशाने पर कौन है। कल सबका नम्बर आएगा ।!
आज इस देश के मेहनतकशों को चाहिए एक नया गणतंत्र ! इस औपचारिक गणतंत्र को वास्तविक गणतंत्र बनाने की लड़ाई ही आज का एजेंडा है- इस एजेंडा में सबसे ऊपर होगी मेहनतकशों की गरिमा, उनकी आजीविका और स्वास्थ्य की सुरक्षा !!


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