बुधवार, 22 अप्रैल 2020

कम्युनिस्ट आन्दोलन : विफलता के कुछ कारण - कँवल भारती

 कम्युनिस्ट आन्दोलन : विफलता के कुछ कारण

(कँवल भारती)
भारत में बुद्ध से डा. आंबेडकर तक एक परम्परा है और दूसरी परम्परा वेदों से गाँधी तक की है. एक मौलिक समाजवादी चिन्तन की परम्परा है, और दूसरी दमन की ब्राह्मणवादी परम्परा है. इसे हम यूँ भी कह सकते हैं कि एक क्रान्ति की धारा है और दूसरी प्रतिक्रान्ति की धारा है. प्रतिक्रान्ति की धारा व्यापारियों, पूंजीपतियों और हिंदूवादी शक्तियों के द्वारा संचालित होती है, इसलिए वह हमेशा आगे और तेज गति से चलती है.
मार्क्सवाद तीसरी परम्परा है, जो अभारतीय है, पर निस्संदेह अपने साम्यवादी दर्शन के कारण समाजवादी धारा की पूरक हैं. भारत की दोनों परम्पराएँ अपनी-अपनी गति से काम कर रही हैं. दोनों के बीच जबर्दस्त लड़ाई है, जो आज की नहीं है, और न कल खत्म हो जाने वाली है, बल्कि यह लगातार चलने वाली लड़ाई है. इसे आंबेडकरवादी भी समझते हैं और हिंदूवादी भी.
पर मार्क्सवाद किस की लड़ाई लड़ रहा है, मैं इस पर कुछ बातें कहना चाहता हूँ—
मार्क्सवाद आंबेडकर की धारा के साथ खामखां कदमताल कर रहा है, जिसकी कोई वजह समझ में नहीं आ रही है. मार्क्सवाद भारत की उक्त दोनों धाराओं के बीच तीसरी धारा है, जिसे किस धारा के साथ लड़ना है, और किस धारा के साथ सहयोग करना है, यह भूमिका उसने अभी तक तय नहीं की है. मैं डा. आंबेडकर के हवाले से अपनी बात समझाना चाहूँगा. उन्होंने एक जगह लिखा है कि कुछ लोग अछूतों (दलित जातियों) की दयनीय स्थिति को देखकर कहते हैं, “हमें अछूतों के लिए कुछ करना चाहिए,” पर उनमें से किसी को भी यह कहते हुए नहीं सुना गया कि “हमें सवर्ण हिन्दुओं को बदलने के लिए कुछ करना चाहिए.” वेदों से गाँधी तक की परम्परा में आपको यही रोना मिलेगा-- ‘हमें अछूतों के लिए कुछ करना चाहिए.” इसलिए आर्यसमाजी नेता श्रद्धानंद ने अछूतों के लिए ‘शुद्धि आन्दोलन’ चलाया, जिसे गाँधी का भी समर्थन प्राप्त था. सवाल यह है कि अशुद्ध कौन थे? क्या अछूत अशुद्ध थे, या सवर्ण हिन्दू अशुद्ध थे, जो अच्छे भले इंसानों को अछूत मानकर उनसे घृणा करते थे? जाहिर है कि अछूत अशुद्ध नहीं थे, बल्कि सवर्ण हिन्दू अशुद्ध थे. फिर अछूतों की शुद्धि का आन्दोलन क्यों चलाया गया? जबकि, शुद्धि आन्दोलन सवर्ण हिन्दुओं की शुद्धि के लिए चलाया जाना चाहिए था. डा. आंबेडकर यही कहते थे कि जिन्हें बदला जाना है, उनको बदलने के लिए कुछ नहीं किया गया.
यही काम भारत में मार्क्सवाद ने किया. मैं जिन दिनों सुल्तानपुर में प्रवास करता था, दो ब्राह्मण लड़कों से मेरा मिलना हुआ. वे किसी वामपंथी संगठन से जुड़े हुए थे, वे सर्वहारा और डीकास्ट होकर गांवों में अछूत बस्तियों में जाते, और उनकी चारपाई पर बैठ जाते, उन्हीं के घर की रोटी खाते, शाम को चौपाल लगाते, और वहीँ सो जाते थे. इस तरह वे अछूतों को ‘मरकस बाबा का ज्ञान’ बांटते थे. यह ज्ञान उनके कितने काम आया, यह तो मुझे नहीं पता, पर यह जानता हूँ कि अगर उन लडकों ने ‘मरकस बाबा का ज्ञान’ गाँव के ब्राह्मण-ठाकुरों को समझाया होता, तो समाज को बदलने में उससे ज्यादा फर्क पड़ता. यह काम शायद उन्होंने नहीं किया. वे पार्टी के होलटाइमर थे, और जाहिर है कि अपने काम का वेतन पाते थे.
मार्क्सवाद एक तीसरी और जरूरी धारा है, इसमें संदेह नहीं. पर वह न तो अपने को बुद्ध-आंबेडकर की परम्परा के साथ आत्मसात कर सका, और न वेदों से गाँधी तक की परम्परा के विरुद्ध सीना तानकर खड़े होकर क्रान्ति की पहली धारा बन सका. उसे अपनी भूमिका आंबेडकर की धारा के साथ सहयोग करके और गाँधी की परम्परा के विरुद्ध लड़कर निभानी थी. पर उसने आंबेडकर की धारा के साथ संघर्ष किया और गाँधी की धारा के साथ सहयोग किया. उसने वेदों और उपनिषदों को मार्क्सवाद के अनुकूल बताया और गांधीवादी पूंजीवाद के साथ समझौता किया.
मार्क्सवाद को जहाँ काम करना चाहिए था, वहां उसने कोई काम नहीं किया, और जहाँ उसे काम नहीं करना चाहिए था, यानी, जहाँ आंबेडकर की धारा पहले से मौजूद थी, वहां वह उस धारा को खारिज करने का गैर जरूरी काम करता रहा. परिणाम क्या हुआ? मार्क्सवाद खुद हाशिए पर चला गया.
बुद्ध-आंबेडकर की परम्परा से कुछ उदाहरण लेते हैं. बुद्ध ने अपना ज्ञान निम्न वर्गों को नहीं, उच्च वर्गों को दिया था. उन्होंने अच्छी तरह समझ लिया था कि ब्राह्मणों और सामंतों को बदलकर ही समाज को बदला जा सकता है. इसलिए उन्होंने ब्राह्मणों और सामंतों के बीच काम किया, और अपने संघ में उन्हीं समुदायों से युवकों को भर्ती किया. उन्होंने वर्णव्यवस्था, जाति और ईश्वर पर ब्राह्मण आचार्यों से बहस की और उनकी धारणाओं को बदला. इसी बदलाव के परिणामस्वरूप बहुत से वैदिक धारा के ब्राह्मण भी बुद्ध के संघ में शामिल हुए. बुद्ध की क्रान्ति ने ब्राह्मणवाद का सारा ढांचा ध्वस्त कर दिया था, और पांच सौ वर्षों तक बुद्ध शासन रहा था.
कबीर ने ब्राह्मण, संतों, काजी, मुल्ला को संबोधित किया. उनके नेतृत्व को नकारा. उनकी पूरी वैचारिकी से टक्कर ली और अपनी वैचारिकी खड़ी की. उन्होंने भी निम्न वर्गों को नहीं, बल्कि उच्च वर्गों को बदलने का अभियान चलाया था. कबीर ने वेद-पुराण में लोगों की आस्था को भंग किया और सगुण के खिलाफ निर्गुण की महत्वपूर्ण क्रान्ति की, जिसने उनके सौ साल बाद तुलसीदास तक को हिलाकर रख दिया था.
डा. आंबेडकर ने भी हिन्दुओं की मानसिकता को बदलने के लिए काम किया. उन्होंने अपने समय के शक्तिशाली नेता महात्मा गाँधी से संघर्ष किया और दलितों के लिए उनके नेतृत्व को नकारा, जैसे कबीर ने रामानंद के नेतृत्व को नकारा था. उन्होंने ‘फिलोसोफी ऑफ़ हिन्दूइज्म’ और ‘रिडिल्स इन हिन्दूइज्म’ किताबें लिखकर पूरे हिन्दू धर्म और ब्राह्मणवाद को कटघरे में खड़ा किया था. क्यों? क्योंकि उनके सामने एक विशाल बहुजन समाज था, जो हिन्दू धर्म और ब्राह्मणवाद की जंजीरों में जकड़ा हुआ गुलामी की जिन्दगी जी रहा था. उनके सामने एक लक्ष्य था उनको गुलामी से मुक्त कराने का.
किन्तु, मार्क्सवादी नेताओं ने उच्च जातियों को बदलने के लिए इसलिए कुछ नहीं किया, क्योंकि वे जिस समाज से आए थे, वह हिन्दू धर्म और ब्राह्मणवाद की जंजीरों में जकड़ा हुआ गुलाम समाज नहीं था, बल्कि वह एक स्वतंत्र समाज था. वह किसी का उपनिवेश नहीं था, जैसा कि विशाल बहुजन समाज हिन्दुओं (द्विजों) का उपनिवेश था. उस समाज को बदलने का अर्थ था हिन्दू धर्म और ब्राह्मणवाद के विरुद्ध विद्रोह करना, जो वे कर नहीं सकते थे.
इसलिए, मार्क्सवाद के भारतीय नेता डीकास्ट तो हुए, पर एंटी-कास्ट नहीं हुए. उनका आन्दोलन किसानों, खेत मजदूरों के लिए ट्रेड यूनियनों के माध्यम से चलता रहा. पर उन्होंने बुद्ध और कबीर की तरह उच्च जातियों को बदलने का काम नहीं किया. उन्होंने ब्राह्मणवाद को मजबूत करने वाले पाखंडों और अंधविश्वासों के खिलाफ भी कोई आन्दोलन नहीं चलाया, बल्कि इस तरह के पाखंडों को उन्होंने और भी मजबूत किया. वे उन आर्यसमाजी नेताओं से भी गए-गुजरे निकले, जो धार्मिक मेलों में मंच लगाकर पाखंड और अन्धविश्वास के खिलाफ जनता को जगाया करते थे. इस तरह मार्क्सवाद के भारतीय नेता वेदों से गाँधी की परम्परा के सहायक बने रहे.
कोढ़ में खाज यह कि उन्होंने आंबेडकर और उनके आन्दोलन से नफरत की, पता नहीं वे कौन सी दुनिया में जी रहे हैं. जहाँ वे वर्ण और जाति को समाप्त किये वगैर वर्ग-क्रान्ति कर सकते हैं. क्या यह संभव है कि जाति में विश्वास करने वाला समाज एक वर्ग बन जाए? जिस समाज में पेशेवर लोग भी जातियों में बंटे हुए हों, और बड़ी जातियां छोटी जातियों को हीन समझती हो, वहां कोई भी वर्गीय चेतना कैसे आ सकती है? मार्क्सवाद के भारतीय नेता अगर बुद्ध-आंबेडकर की परम्परा को आगे बढ़ाने में सहयोग करते, तो फासीवादी ताकतें सत्ता में नहीं आ पातीं.
मार्क्सवादी बुद्धिजीवी बुद्ध-आंबेडकर की परम्परा को समझना नहीं चाहते. एक रंगनायकम्मा हैं, उन्होंने भी आंबेडकर के विरुद्ध अपनी अलग ढपली बजाई है. उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा यह स्थापित करने में लगाई है कि आंबेडकर-चिन्तन बुर्जुआवादी है और मार्क्सवाद परिपूर्ण दर्शन है, जिसमें कोई दोष नहीं है. जब मार्क्सवाद में कोई दोष नहीं है, तो वह भारत में विफल क्यों हुआ? जिन डा. आंबेडकर को वह बुर्जुआवादी कहती हैं, वही दलितों को अधिकार दिलाने में सफल क्यों हुआ?
मेरा अभी भी विश्वास है कि मार्क्सवाद भारत में आंबेडकर आन्दोलन के साथ सहयोग करके ही कुछ स्थापित कर पायेगा. और अगर इस देश में आंबेडकर का माडल स्थापित हो गया, तो सब कुछ उल्ट जायेगा—संविधान, अर्थशास्त्र, न्यायशास्त्र, कृषि, उद्योग, लोकतान्त्रिक पद्धति, चिन्तन, विमर्श सब बदल जायेगा.
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