पूना पैकट: एक
पुनर्मुल्यांकन
एस.आर. दारापुरी.
राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्ज़ फ्रंट
(24 सितंबर को पूना पैक्ट दिवस पर विशेष)
भारतीय हिन्दू समाज में
जाति को आधारशिला माना गया है. इस में श्रेणीबद्ध असमानता के ढांचे
में अछूत सबसे निचले स्तर पर हैं जिन्हें 1935 तक सरकारी तौर पर ' डिप्रेस्ड क्लासेज' कहा जाता था. गांधी जी ने उन्हें 'हरिजन' के नाम से पुरस्कृत किया था जिसे अधिकतर अछूतों ने
स्वीकार नहीं किया था. अब उन्होंने अपने लिए 'दलित' नाम स्वयम चुना है जो उनकी पददलित स्थिति का परिचायक है. वर्तमान में वे भारत की कुल आबादी का लगभग छठा भाग (16.6 %) तथा कुल हिन्दू आबादी का पांचवा भाग हैं.
अछूत सदियों से हिन्दू समाज में सभी प्रकार के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व शैक्षिक अधिकारों से वंचित रहे हैं और काफी हद तक आज भी हैं.
दलित कई प्रकार की वंचनाओं एवं निर्योग्यताओं को झेलते रहे हैं. उनका हिन्दू समाज
एवं राजनीति में बराबरी का दर्जा पाने के संघर्ष का एक लम्बा
इतिहास रहा है. जब श्री. ई.एस. मान्तेग्यु, सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया, ने पार्लियामेंट में 1917 में यह महत्वपूर्ण
घोषणा की कि "अंग्रेजी सरकार का अंतिम लक्ष्य भारत को डोमिनियन स्टेट्स देना है तो दलितों ने बम्बई में दो मीटिंगें करके अपना मांग पत्र वाइसराय तथा भारत भ्रमण पर भारत आये सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया को दिया. परिणामस्वरूप निम्न जातियों को विभिन्न प्रान्तों में अपनी समस्यायों को 1919 के भारतीय संवैधानिक
सुधारों के पूर्व भ्रमण कर रहे कमिशन को पेश करने
का मौका मिला.
तदोपरांत विभिन्न कमिशनों , कांफ्रेंसों एवं कौंसिलों का एक लम्बा एवं
जटिल सिलसिला चला. सन 1918 में मान्तेग्यु चैमस्फोर्ड रिपोर्ट के बाद 1924 में मद्दीमान कमेटी रिपोर्ट आई जिसमें कौंसलों में
डिप्रेस्ड क्लासेज के अति अल्प प्रतिनिधित्व और उसे बढ़ाने के उपायों के
बारे में बात कही गयी. साईमन कमीशन (1928) ने स्वीकार किया कि डिप्रेस्ड क्लासेज को पर्याप्त प्रातिनिधित्व दिया जाना चाहिए. सन 1930 से 1932 एक लन्दन में तीन गोलमेज़ कान्फ्रेंसें
हुयीं जिन में अन्य अल्प संख्यकों के साथ साथ दलितों के भी भारत के भावी संविधान के निर्माण में अपना मत देने के
अधिकार को मान्यता मिली. यह एक ऐतहासिक एवं निर्णयकारी परिघटना थी . इन गोलमेज़ कांफ्रेंसों में डॉ. बी. आर. आंबेडकर तथा राव बहादुर आर.
श्रीनिवासन द्वारा दलितों के प्रभावकारी प्रतिनिधित्व एवं ज़ोरदार प्रस्तुति के कारण 17 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश सरकार द्वारा घोषित 'कमिनुअल अवार्ड' में दलितों को पृथक निर्वाचन का स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकार
मिला. इस अवार्ड से दलितों को आरक्षित सीटों पर पृथक निर्वाचन द्वारा अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने तथा साथ ही सामान्य जाति के निर्वाचन क्षेत्रों
में सवर्णों को चुनने हेतु दो वोट का अधिकार भी प्राप्त
हुआ. इस प्रकार भारत के इतिहास में अछूतों को पहली वार राजनैतिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त हुआ जो उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता था.
उक्त अवार्ड द्वारा दलितों को गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट,1919 में अल्प संख्यकों के रूप में मिली मान्यता के आधार पर अन्य अल्प संख्यकों - मुसलमानों, सिक्खों, ऐंग्लो इंडियनज तथा कुछ अन्य के साथ साथ पृथक निर्वाचन के रूप में प्रांतीय विधायकाओं एवं केन्द्रीय एसेम्बली हेतु अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार
मिला तथा उन सभी के लिए सीटों की संख्या निश्चित की गयी. इसमें अछूतों
के लिए 78 सीटें विशेष निर्वाचन क्षेत्रों के रूप में आरक्षित की गयीं.
गाँधी जी ने उक्त अवार्ड की घोषणा होने पर यरवदा (पूना) जेल में 18 अगस्त, 1932 को दलितों को मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार के विरोध में 20 सितम्बर, 1932 से आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी. गाँधी जी का मत था
कि इससे अछूत हिन्दू समाज से अलग हो जायेंगे जिससे हिन्दू समाज व हिन्दू धर्म विघटित हो जायेगा. यह ज्ञातव्य है कि उन्होंने मुसलमानों, सिक्खों व ऐंग्लो-
इंडियनज को मिले उसी अधिकार का कोई विरोध नहीं किया था. गाँधी जी ने इस अंदेशे को लेकर 18 अगस्त, 1932 को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री, श्री रेम्ज़े मैकडोनाल्ड को एक पत्र भेज कर
दलितों को दिए गए पृथक निर्वाचन के अधिकार को समाप्त करके संयुक्त मताधिकार की व्यवस्था करने तथा हिन्दू समाज को विघटन से बचाने की अपील की.
इसके उत्तर में ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने अपने पत्र दिनांकित 8 सितम्बर, 1932 में अंकित किया, " ब्रिटिश सरकार की योजना के अंतर्गत दलित वर्ग हिन्दू समाज के अंग बने रहेंगे और वे हिन्दू निर्वाचन के लिए समान रूप से मतदान करेंगे, परन्तु ऐसी व्यवस्था प्रथम 20 वर्षों तक रहेगी तथा हिन्दू समाज का अंग रहते हुए उनके लिए सीमित संख्या में विशेष निर्वाचन क्षेत्र
होंगे ताकि उनके अधिकारों और हितों की रक्षा हो
सके. वर्तमान स्थिति में ऐसा करना नितांत आवश्यक हो गया
है. जहाँ जहाँ विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे वहां वहां
सामान्य हिन्दुओं के निर्वाचन क्षेत्रों में दलित वर्गों को
मत देने से वंचित नहीं किया जायेगा. इस प्रकार दलितों के लिए दो मतों का अधिकार होगा - एक विशेष निर्वाचन क्षेत्र के अपने सदस्य के लिए और दूसरा हिन्दू समाज के सामान्य सदस्य के लिए. हम ने जानबूझ कर - जिसे आप ने अछूतों के लिए सम्प्रदायिक निर्वाचन कहा
है, उसके विपरीत फैसला दिया है. दलित वर्ग के मतदाता सामान्य अथवा
हिन्दू निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्ण उमीदवार को मत दे सकेंगे तथा सवर्ण हिन्दू मतदाता दलित वर्ग के उमीदवार को उसके निर्वाचन क्षेत्र में मतदान क़र सकेंगे. इस प्रकार हिन्दू समाज की एकता को सुरक्षित रखा गया है."
कुछ अन्य तर्क देने के बाद उन्होंने गाँधी जी
से आमरण अनशन छोड़ने का आग्रह किया था.
परन्तु गाँधी जी ने प्रत्युत्तर में आमरण अनशन को अपना पुनीत धर्म मानते हुए कहा कि दलित वर्गों को केवल दोहरे मतदान का अधिकार देने से उन्हें तथा हिन्दू समाज को छिन्न - भिन्न होने से नहीं रोका जा सकता. उन्होंने आगे कहा, " मेरी समझ में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था करना हिन्दू धर्म को बर्बाद करने का इंजेक्शन लगाना है. इस से दलित वर्गों का कोई लाभ नहीं होगा." गंधी जी ने इसी प्रकार के तर्क दूसरी और तीसरी गोल मेज़
कांफ्रेंस में भी दिए थे जिसके प्रत्युत्तर में डॉ. आंबेडकर ने
गाँधी जी के दलितों के भी अकेले प्रतिनिधि और उनके शुभचिन्तक
होने के दावे को नकारते हुए उनसे दलितों के राजनीतिक
अधिकारों का विरोध न करने का अनुरोध किया था. उन्होंने यह भी कहा था कि फिलहाल दलित केवल स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकारों की ही मांग कर रहे हैं न कि हिन्दुओं से अलग हो कर अलग देश बनाने की. परन्तु गाँधी जी का सवर्ण हिन्दुओं के हित को सुरक्षित रखने और अछूतों को हिन्दू समाज का गुलाम बनाये रखने का स्वार्थ था. यही
कारण था कि उन्होंने सभी तथ्यों व तर्कों को नकारते
हुए 20 सितम्बर, 1932 को अछूतों के पृथक
निर्वाचन के अधिकार के विरुद्ध आमरण अनशन शुरू कर दिया. यह एक
विकट स्थिति थी. एक तरफ गाँधी जी के पक्ष में एक विशाल
शक्तिशाली हिन्दू समुदाय था, दूसरी तरफ डॉ. आंबेडकर और अछूत समाज. अंतत भारी दबाव एवं अछूतों के संभव जनसंहार के भय तथा गाँधी जी की जान बचाने के उद्देश्य से डॉ. आंबेडकर तथा उनके साथियों को दलितों के पृथक निर्वाचन के अधिकार की बलि देनी पड़ी और सवर्ण हिन्दुओं से 24 सितम्बर, 1932 को तथाकथित पूना पैक्ट
करना पड़ा. इस प्रकार अछूतों को गाँधी जी की जिद्द के कारण अपनी
राजनैतिक आज़ादी के अधिकार को खोना पड़ा.
यद्यपि पूना पैक्ट के अनुसार दलितों के लिए ' कम्युनल अवार्ड' में सुरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 78 से 151 हो गयी परन्तु संयुक्त निर्वाचन के कारण उनसे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार छिन्न गया जिसके दुष्परिणाम आज तक दलित समाज
झेल रहा है. पूना पैकट के प्रावधानों को
गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट, 1935 में शामिल करने के
बाद सन 1937 में प्रथम चुनाव संपन्न हुआ जिसमें गाँधी जी के दलित प्रतिनिधियों को कांग्रेस द्वारा कोई
भी दखल न देने के दिए गए आश्वासन के बावजूद कांग्रेस ने 151 में से 78 सीटें हथिया लीं
क्योंकि संयुक्त निर्वाचन प्रणाली में दलित पुनः सवर्ण
वोटों पर निर्भर हो गए थे. गाँधी जी और कांग्रेस के इस छल से खिन्न होकर डॉ. आंबेडकर ने कहा था, " पूना पैकट में दलितों के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ
है."
कम्युनल अवार्ड के माध्यम से अछूतों के
पृथक निर्वाचन के रूप में अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने और दोहरे वोट के अधिकार से सवर्ण हिन्दुओं
की भी दलितों पर निर्भरता से दलितों का स्वंतत्र राजनीतिक अस्तित्व सुरक्षित रह सकता था परन्तु पूना पैक्ट करने की विवशता ने दलितों को
फिर से सवर्ण हिन्दुओं का गुलाम बना दिया. इस व्यवस्था से आरक्षित सीटों पर जो सांसद या विधायक
चुने जाते हैं वे वास्तव में दलितों द्वारा न चुने जा कर विभिन्न
राजनैतिक पार्टियों एवं सवर्णों द्वारा चुने जाते हैं जिन्हें
उन का गुलाम/ बंधुआ बन कर रहना पड़ता है. सभी राजनैतिक
पार्टियाँ गुलाम मानसिकता वाले ऐसे प्रतिनिधियों पर कड़ा नियंत्रण रखती
हैं और पार्टी लाइन से हट कर किसी भी दलित मुद्दे को उठाने या उस पर बोलने की इजाजत नहीं देतीं. यही कारण
है कि लोकसभा तथा विधान सभायों में दलित प्रतिनिधियों कि स्थिति
महाभारत के भीष्म पितामह जैसी रहती है जिस ने यह पूछने पर कि
" जब कौरवों के दरबार में द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था तो
आप क्यों नहीं बोले?" इस पर उन का उत्तर था, " मैंने कौरवों का नमक खाया था."
वास्तव में कम्युनल अवार्ड से दलितों
को स्वंतत्र राजनैतिक अधिकार प्राप्त हुए थे जिससे वे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने के लिए सक्षम
हो गए थे और वे उनकी आवाज़ बन सकते थे. इस के साथ ही दोहरे वोट के अधिकार के कारण सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में सवर्ण हिन्दू भी उन पर निर्भर रहते और दलितों को नाराज़
करने की हिम्मत नहीं करते. इस से हिन्दू समाज में
एक नया समीकरण बन सकता था जो दलित मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करता.
परन्तु गाँधी जी ने हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म के विघटित होने की झूठी दुहाई दे कर तथा आमरण अनशन का
अनैतिक हथकंडा अपना कर दलितों की राजनीतिक
स्वतंत्रता का हनन कर लिया जिस कारण दलित फिर से सवर्णों के राजनीतिक गुलाम बन गए. वास्तव में गाँधी जी की चाल
काफी हद तक राजनीतिक भी थी जो कि बाद में उनके एक अवसर पर
सरदार पटेल को कही गयी इस बात से भी स्पष्ट है:
“अछूतों के अलग
मताधिकार के परिणामों से मैं भयभीत हो उठता हूँ. दूसरे वर्गों के लिए अलग निर्वाचन अधिकार के बावजूद भी मेरे पास उनसे सौदा करने की गुंजाइश रहेगी परन्तु मेरे पास अछूतों से सौदा करने का कोई साधन नहीं रहेगा. वे नहीं जानते कि पृथक निर्वाचन हिन्दुओं को इतना बाँट देगा कि उसका अंजाम खून खराबा होगा. अछूत गुंडे मुसलमान गुंडों से मिल जायेंगे और हिन्दुओं को मारेंगे. क्या अंग्रेजी सरकार को इस का कोई अंदाज़ा नहीं है? मैं ऐसा नहीं सोचता." (महादेव देसाई, डायरी, पृष्ट 301, प्रथम खंड).
गाँधी जी के इस सत्य कथन से आप गाँधी
जी द्वारा अछूतों को पूना पैक्ट करने के लिए बाध्य करने के असली उद्देश्य का अंदाज़ा लगा सकते हैं.
दलितों की संयुक्त मताधिकार व्यवस्था के कारण सवर्ण हिन्दुओं पर निर्भरता के फलस्वरूप दलितों की कोई भी राजनैतिक पार्टी पनप
नहीं पा रही है चाहे वह डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ही
क्यों न हो. इसी कारण डॉ. आंबेडकर को भी दो
बार चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा क्योंकि आरक्षित सीटों पर सवर्ण वोट ही निर्णायक होता है. इसी
कारण सवर्ण पार्टियाँ ही अधिकतर आरक्षित
सीटें जीतती हैं. पूना पैक्ट के इन्हीं दुष्परिणामों के कारण ही डॉ. आंबेडकर ने संविधान में राजनैतिक आरक्षण को केवल 10 वर्ष तक ही जारी रखने की बात कही थी. परन्तु
विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इसे दलितों के हित में नहीं
बल्कि अपने स्वार्थ के लिए अब तक लगातार 10-10 वर्ष तक बढाती चली आ रही हैं क्योकि इस से उन्हें
अपने मनपसंद और गुलाम दलित सांसद और विधायक चुनने की सुविधा
रहती है.
सवर्ण हिन्दू राजनीतिक
पार्टियाँ दलित नेताओं को खरीद लेती हैं और दलित पार्टियाँ कमज़ोर हो
कर टूट जाती हैं. यही कारण है की उत्तर भारत में तथाकथित दलितों की कही जाने वाली बहुजन
समाज पार्टी भी ब्राह्मणों और बनियों के पीछे घूम
रही है और " हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है" जैसे नारों
को स्वीकार करने के लिए वाध्य है. अब तो उसका रूपान्तार्ण बहुजन से सर्वजन में हो गया है. इन परिस्थितयों के कारण दलितों का बहुत अहित हुआ है वे राजनीतिक तौर प़र सवर्णों के गुलाम बन कर रह गए हैं. अतः इस सन्दर्भ में पूना पैक्ट के औचित्य की समीक्षा करना समीचीन होगा. क्या दलितों को पृथक निर्वाचन की मांग पुनः उठाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए?
यद्यपि पूना पैक्ट की शर्तों में छुआ-छूत को समाप्त करने, सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने तथा
दलितों की शिक्षा के लिए बजट का प्रावधान करने की बात थी परन्तु आजादी के 65 वर्ष बाद भी उनके
किर्यान्वयन की स्थिति दयनीय ही है. डॉ. आंबेडकर ने अपने इन अंदेशों को पूना
पैक्ट के अनुमोदन हेतु बुलाई गयी 25 सितम्बर, 1932 को बम्बई में सवर्ण हिन्दुओं की बहुत बड़ी मीटिंग में व्यक्त करते हुए कहा था, " हमारी एक ही चिंता
है. क्या हिन्दुओं की भावी पीढियां इस समझौते
का अनुपालन करेंगी ?" इस पर सभी सवर्ण
हिन्दुओं ने एक स्वर में कहा था, " हाँ, हम करेंगे." डॉ. आंबेडकर ने यह भी कहा था, " हम देखते हैं कि दुर्भाग्यवश हिन्दू सम्प्रदाय एक संघटित
समूह नहीं है बल्कि विभिन्न सम्प्रदायों की फेडरेशन है. मैं आशा और विश्वास करता हूँ कि आप अपनी तरफ से इस अभिलेख को पवित्र मानेंगे तथा एक सम्मानजनक भावना से काम करेंगे." क्या आज सवर्ण हिन्दुओं को अपने
पूर्वजों द्वारा दलितों के साथ किये गए इस समझौते
को ईमानदारी से लागू करने के बारे में थोडा बहुत आत्म चिंतन नहीं करना चाहिए. यदि वे इस समझौते को ईमानदारी से लागू करने में अपना अहित देखते हैं तो क्या उन्हें दलितों के पृथक निर्वाचन का राजनैतिक अधिकार लौटा नहीं देना चाहिए?
मेरे विचार में अब समय आ गया है जब
दलितों को संगठित हो कर आरक्षित सीटों पर वर्तमान संयुक्त चुनाव प्रणाली की जगह
पृथक चुनाव प्रणाली की मांग उठानी चाहिए ताकि वे अपने प्रतिनिधियों को सवर्णों की
जगह स्वयम चुनने में सक्षम हो सकें. इसके साथ ही
दलितों को इस यथार्थ को भी सामने रखना चाहिए की वर्तमान परिस्थितियों में पूना पैकट
की वापसी संभव नहीं लगती है. अतः उनके सामने दूसरा विकल्प यही है कि उन्हें अपने
राजनीतिक प्रतिनिधियों को चुनते समय यह ध्यान में अवश्य रखना चाहिए कि क्या वे
केवल दूसरी पार्टियों अथवा दलित पार्टियों द्वारा आरक्षित सीटें जीतने के लिए
दलितों के नाम पर खड़े किये गये हैं या उनका दलितों के उत्थान में कोई उल्लेखनीय
योगदान भी रहा है या नहीं. यह भी देखा गया है कि तथाकथित दलित पार्टियाँ भी केवल
जाति के नाम पर न कि काम के आधार पर आरक्षित सीटों पर प्रत्याशी खड़े करती हैं
जिनका रवैया चुने जाने पर दूसरी पार्टियों द्वारा जिताए गये दलित प्रतिनिधियों
जैसा ही होता है. अतः अब समय आ गया है कि अब बहुजन राजनीति का परीक्षण एवं
पुनर्मुल्यांकन किया जाना चाहिए. अब तक की बहुजन राजनीति से स्पष्ट हो चूका है कि
वह भी केवल सत्ता की राजनीती ही रही है क्योंकि उसका कोई प्रगतिशील दलित एजंडा यही
नहीं रहा है और वह केवल कुछ नेताओं को जिताने तक ही सीमित रहा है. यही कारण है की
उत्तर प्रदेश में चार बार दलित मुख्य मंत्री के रहने के बावजूद भी दलितों का कोई
भौतिक सशक्तिकरण नहीं हो सका है. न तो उन्हें भूमि आवंटन हुआ और न ही उनकी बेरोज़गारी
की समस्या का समाधान ही हुआ. इसके विपरीत दलित राजनीती भ्रष्टाचार, अवसरवादिता और
मुद्दाविहीनता का शिकार हो कर पतन की और अग्रसर है. अतः इस परिस्थिति में बहुजन
राजनीति का विश्लेषण एवं मूल्याङ्कन कर नयी जनवादी, प्रगतिशील एवं व्यक्ति आधारित
की जगह मुद्दा आधारित राजनीति को अपनाने की ज़रुरत है. इसके साथ ही उन्हें समान
विचारधारा वाली पार्टियों के साथ गठजोड़ करने पर भी खुले दिमाग से विचार भी करना
चाहिए. हमें बाबासाहेब के इस कथन को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए जिसमे उन्होंने
कहा था, “आपको नेता पर निर्भर न हो कर हमेशा अपनी ताकत पर निर्भर रहना चाहिए.”
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