बुधवार, 7 अगस्त 2019

क्या डा. आंबेडकर धारा 370 के विरुद्ध थे?


क्या डा. आंबेडकर धारा 370  के विरुद्ध थे?
-       एस आर दारापुरी आईपीएस (से. नि.) एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

इस समय मीडिया में यह बात जोर शोर से चल रही है कि डा आंबेडकर भी जम्मू- कश्मीर राज्य से सम्बंधित धारा 370 के संविधान में डालने के खिलाफ थे. इसके समर्थन में डा आंबेडकर का एक कथन जो उ शेख अब्दुल्लाह को भेजे गये तथाकथित पत्र में है, को उद्धृत  किया जा रहा है :-
आप चाहते हो कि भारत आपकी सीमाओं की रक्षा करे, वह आपके क्षेत्र में सड़कें बनाए, वह आपको खाद्य सामग्री दे, और कश्मीर का वही दर्ज़ा हो जो भारत का है! लेकिन भारत सरकार के पास केवल सीमित अधिकार हों और भारत के लोगों को कश्मीर में कोई अधिकार नहीं हों। ऐसे प्रस्ताव को मंज़ूरी देना भारत के हितों से दग़ाबाज़ी करने जैसा होगा और मैं भारत का कानून मंत्री होते हुए ऐसा कभी नहीं करूंगा।
इसी क्रम में आगे कहा गया है कि तब शेख़ अब्दुल्ला जवाहर लाल नेहरू से मिले जिन्होंने उन्हें गोपाल स्वामी आयंगर के पास भेज दिया। आयंगर सरदार पटेल से मिले और उनसे कहा कि वह इस मामले में कुछ करें क्योंकि नेहरू ने शेख़ अब्दुल्ला से इस बात का वादा किया था और अब यह उनकी प्रतिष्ठा से जुड़ गया है। पटेल ने नेहरू के विदेश यात्रा के दौरान इसे पारित करवा दिया। जिस दिन यह अनुच्छेद चर्चा के लिए पेश किया गया, डॉ. आंबेडकर ने इससे संबंधित एक भी सवाल का जवाब नहीं दिया जबकि दूसरे अनुच्छेद पर हुई चर्चा में उन्होंने भाग लिया। (कश्मीर को विशेष दर्जा देने संबंधी) सारी दलीलें आयंगर की तरफ से आईं।
हमने डा. आंबेडकर के इस कथन की सत्यता और विश्वसनीयता ढूंढने की कोशिश की तो आंबेडकर का ऐसा कोई भी बयान नहीं दिखा जो इसकी पुष्टि करता हो। हां, भारतीय जनसंघ के नेता बलराज मधोक के हवाले से एक रिपोर्ट उपलब्ध है जिसमें यह लिखा हुआ है किडॉ. आंबेडकर ने शेख़ अब्दुल्ला से उपरोक्त बातें कहीं थीं. यह सर्विदित है कि वर्तमान में डा. आंबेडकर का सम्पूर्ण प्रकाशित/अप्रकाशित साहित्य महाराष्ट्र सरकार द्वारा 23 खण्डों में छपवाया गया है परन्तु किसी भी खंड में उक्त पत्र/बातचीत का ज़िकर नहीं है. अतः यह स्पष्ट है कि उक्त बात आरएसएस /भाजपा द्वारा धारा 370 के बारे में अपनी अवधारणा/ कृत्य को सही ठहराने के लिए डा. आंबेडकर का नाम उक्त कथन से जोड़ा गया है. यह वैसा ही है जैसाकि पिछले दिनों यह कहा गया था कि डा. आंबेडकर नागपुर में आरएसएस मुख्यालय आये थे और वे वहां की व्यवस्था देख कर बहुत प्रभावित हुए थे तथा उन्होंने वहां की समरसता की व्यवस्था की बहुत प्रशंसा की थी. बाद में यह कथन  भी मनघडंत और आधारहीन पाया गया था.
हाँ,  इतना ज़रूर है कि डा. आंबेडकर ने 10 अक्तूबर, 1951 को कानून मंत्री के पद से अपने इस्तीफे में कहा था:-
 “पाकिस्तान के  साथ हमारा झगड़ा हमारी विदेश नीति का हिस्सा है जिसको लेकर मैं गहरा असंतोष महसूस करता हूं। पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्तों में खटास दो कारणों से है एक है कश्मीर और दूसरा है पूर्वी बंगाल में हमारे लोगों के हालात। मुझे लगता है कि हमें कश्मीर के बजाय पूर्वी बंगाल पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए जहां जैसा कि हमें अखबारों से पता चल रहा है, हमारे लोग असहनीय स्थिति में जी रहे हैं। उस पर ध्यान देने के बजाय हम अपना पूरा ज़ोर कश्मीर मुद्दे पर लगा रहे हैं। उस भी मुझे लगता है कि हम एक अवास्तविक पहलू पर लड़ रहे हैं । हम अपना अधिकतम समय इस बात की चर्चा पर लगा रहे हैं कि कौन सही है और कौन ग़लत। मेरे विचार से असली मुद्दा यह नहीं है कि सही कौन है बल्कि यह कि सही क्या है। और इसे यदि मूल सवाल के तौर पर लें तो मेरा विचार हमेशा से यही रहा है कि कश्मीर का विभाजन ही सही समाधान है। हिंदू और बौद्ध हिस्से भारत को दे दिए जाएं और मुस्लिम हिस्सा पाकिस्तान को जैसा कि हमने भारत के मामले में किया। कश्मीर के मुस्लिम भाग से हमारा कोई लेनादेना नहीं है। यह कश्मीर के मुसलमानों और पाकिस्तान का मामला है। वे जैसा चाहें, वैसा तय करें। या यदि आप चाहें तो इसे तीन भागों में बांट दें; युद्धविराम क्षेत्र, घाटी और जम्मू-लद्दाख का इलाका और जनमतसंग्रह केवल घाटी में कराएं। अभी जिस जनमतसंग्रह का प्रस्ताव है, उसको लेकर मेरी यही आशंका है कि यह चूंकि पूरे इलाके में होने की बात है, तो इससे कश्मीर के हिंदू और बौद्ध अपनी इच्छा के विरुद्ध पाकिस्तान में रहने  को बाध्य हो जाएंगे और हमें वैसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ेगा जैसा कि हम आज पूर्वी बंगाल में देख पा रहे हैं।“

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि धारा 370 के सम्बन्ध में जो बात डा. आंबेडकर के सन्दर्भ से कही जा रही है वह पूर्णतया अपुष्ट एवं मनघडंत है जिससे सभी ख़ास करके दलितों को सावधान रहना चाहिए. यह आरएसएस की दलितों को डा. आंबेडकर का नाम ले कर गुमराह करने का प्रयास है.



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

रेट्टाइमलाई श्रीनिवासन (1859-1945) - एक ऐतिहासिक अध्ययन

  रेट्टाइमलाई श्रीनिवासन ( 1859-1945) - एक ऐतिहासिक अध्ययन डॉ. के. शक्तिवेल , एम.ए. , एम.फिल. , एम.एड. , पीएच.डी. , सहायक प्रोफेसर , जयल...