बहुजन
राजनीति का वैचारिक संकट
कॅंवल भारती
“बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का
जब चीरा तो इक क़तरा खूँ न निकला”
बहुजन राजनीति में उठने वाला बवण्डर भाजपा में जाकर शान्त हो गया। कह सकते हैं कि परिवर्तन का गरजने वाला काला बादल बिना बरसे ही हिन्दुत्व के समुद्र में विलीन हो गया। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) से बगावत करके निकले स्वामी प्रसाद मौर्य और आर. के. चौधरी बाहर आकर लगभग वही बातें कह रहे थे, जो अक्सर बागी नेता बोलते हैं- बसपा में हमारा दम घुट रहा था, मायावती अब धन की देवी हो गई हैं, वह लाखों-करोड़ों रुपए लेकर टिकट बेचती हैं, आदि, आदि। उन्होंने यह भी कहा कि वे अपनी अलग पार्टी बनायेंगे और मायावती को सबक सिखायेंगे। पर, अपनी अलग राजनीति की घोषणा करने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य इतनी जल्दी भाजपा अध्यक्ष के घुटनों में झुक जायेंगे, यह हैरान इसलिए नहीं करता, क्योंकि इसकी पटकथा भाजपा ने ही लिखी थी। चरणों में झुकने की आदत उन्होंने बसपा में डाली थी, वह अब भाजपा में काम आयेगी। गले में भगवा पट्टा अब उनकी नई पहिचान बनेगी। यह अच्छी बात है कि पट्टे की परम्परा बसपा में नहीं है। दूसरे बागी नेता आर. के. चौधरी का ऊॅंट किस करवट बैठेगा? यह स्पष्ट नहीं हो रहा है। हालांकि बैठना उसे भी इसी करवट है, पर, अभी इन्तजार करना होगा।
मुझे लगभग 25 साल पुरानी बात याद आ रही है। इलाहाबाद के राजापुर में एक कार्यक्रम में स्वामी प्रसाद मौर्य मेरे साथ मंच पर थे। बहुजन राजनीति और बहुजन शब्द की अवधारणा को लेकर मेरे और उनके बीच में तीखा विवाद हो गया था। मैंने बाबासाहेब डा. आंबेडकर के शब्दों को उद्धरित करते हुए कहा था कि जाति के आधार पर आप जो निर्माण करने जा रहे हैं, उसका कोई भविष्य नहीं है। मैने यह भी कहा था कि जाति की राजनीति परिवर्तन की राजनीति नहीं है, वरन लूटखसोट की राजनीति है। जाहिर है कि उन्होंने इसका पुरजोर विरोध किया था। उसके बाद से बसपा कई बार टूटी और जुड़ी। और आज जाति के आधार पर ही स्वामी प्रसाद मौर्य बसपा से बाहर आए और जाति के आधार पर ही भाजपा में शामिल हुए हैं। इसी जाति के आधार से वह बसपा में अपनी महत्वाकांक्षायें पूरी कर रहे थे और इसी जाति से अब भाजपा में अपने निजी हितों को साधेंगे। पर पता नहीं, यह उन्हें याद है कि नहीं, जातीय राजनीति का कोई टिकाऊ भविष्य नहीं होता।
यह असल में बहुजन राजनीति में विचारधारा का संकट है। यह संकट इसीलिए है कि उनका बहुजन समाज वर्गीय नहीं है, जातीय है। यह दलित जातियों, पिछड़ी जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के आधार पर बना बहुजन समाज है। इस प्रकार बहुजन राजनीति की बुनियाद में मुख्य रूप से सवर्ण बनाम बहुजन का जातिवाद है। इसके उद्भावक और नियामक कांशीराम माने जाते हैं। वह जेब से पेन निकालकर उसे खड़ा करके बताते थे कि ढक्कन वाला छोटा हिस्सा सवर्ण है और उसके नीचे का बड़ा हिस्सा बहुजन है। फिर कहते थे कि छोटा हिस्सा बड़े हिस्से पर चढ़कर बैठा हुआ है। फिर वह पेन को लिटा कर दिखाते थे कि हमें इन सबको बराबर करना है। इसी पेन सिद्धान्त से उन्होंने पूरा बहुजन आन्दोलन उत्तर प्रदेश में खड़ा किया। इस सिद्धान्त में न आंबेडकर को कोई जगह थी और न बुद्ध को। हाँ, उनका प्रतीकात्मक उपयोग खूब किया गया। प्रतीकात्मक उपयोग उन्होंने महात्मा ज्योतिबा फुले और शाहू महाराज का भी किया। लेकिन उनका विचारधारा के स्तर पर कोई उपयोग नहीं हुआ। इसलिए कांशीराम की बहुजन राजनीति में, जिसकी उत्तराधिकारी अब मायावती हैं, दलित जातियों, पिछड़ी जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए, सिवाए आरक्षण के, कुछ भी एजेण्डे में नहीं है। स्वामी प्रसाद मौर्य और आर. के. चौधरी दोनों नेता कांशीराम के इसी बहुजन आन्दोलन की उपज हैं, जिसका एक राजनीतिक नारा यह भी था-‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।’ यह पूरा आन्दोलन जजबाती है, जिसमें ‘चीजें जैसी है, उसका वर्णन है, उसे बदलने का स्वप्न है, पर वे कैसे बदलेंगी, उसका चित्रण नहीं है।’ डा. आंबेडकर ने चीजों को बदलने के लिए राज्य समाजवाद का माॅडल दिया था, जिस पर बहुजन राजनीति में कभी चर्चा नहीं होती। बुद्ध के वर्गीय बहुजन शब्द से तो खैर उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं है, फुले की गुलामगिरी की वैचारिकी भी उसके केन्द्र में नहीं है। लेकिन जैसे-जैसे कांशीराम और मायावती राजनीति के कठोर यथार्थ से गुजरे, उनके कई जातीय नारे हवा में उड़ गए, और पेन के ऊपरी हिस्से के सवर्णों को भी उन्हें जोड़ना पड़ा। अतः यह साबित हो गया कि सब को साथ लिए बिना वे सरकार नहीं बना सकते। अगर जातियों के आधार पर थोड़े-बहुत समय के लिए सरकार बना भी ली, तो वह टिकने वाली नहीं है।
इस बात में कोई दम नहीं है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की भागीदारी वाली सरकारें ही उनके कल्याण की योजनाएँ बना सकती हैं। अगर यह सच होता, तो क्या कोई मुलायम सिंह यादव, अखिलेश सिंह यादव और मायावती से सीना ठोककर यह कहलवा सकता है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का कल्याण कर दिया है? वे नहीं कह सकते, क्योंकि हकीकत यह है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का कल्याण योजनाएँ चलाकर नहीं किया जा सकता। ऐसी योजनाएँ पिछले 70 सालों से सभी सरकारें चला रही हैं। कौन दावा कर सकता है उनसे इन वर्गों का कल्याण हुआ?
सच यह है कि किसी जाति विशेष के लिए अर्थात् दलित जातियों, पिछड़ी जातियों, धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों और आदिवासियों के कल्याण के लिए योजनाएँ बनाने का अर्थ उनका कल्याण करना नहीं, बल्कि उन्हें वोट बैंक बनाना होता है। ऐसी कुछ योजनाओं की घोषणायें ऐन उस वक्त होती हैं, जब चुनाव होने वाले होते हैं। उन घोषणाओं से खुश होकर ये लोग उन पार्टियों को अपना हितैषी समझ लेते हैं। किन्तु एक बार जब वे पार्टियां सत्ता में आ जाती हैं, तो पांच साल तक उन्हें कोई खतरा नहीं रहता और वे उनकी तरफ अपनी पीठ किए रहती हैं। पाँच साल के बाद जब पुनः चुनावी मौसम आता है, तो पार्टियां फिर अंगड़ाई लेती हैं और दलितों, पिछड़ों, धार्मिक अल्पसंख्यकों और आदिवासियों पर वे फिर मेहरवान होने लगती हैं, जबकि वे अपने पांच साल के शासन काल में अपनी तमाम आर्थिक नीतियां कारपोरेट को फायदा पहुँचाने के लिए बनाती हैं, जो गरीब वर्गों की कमर तोड़ देती हैं। गरीब वर्गों का ध्यान उन नीतियों की तरफ न जाए, इसलिए समय-समय पर वे कुछ ऐसी घटनायें भी कराते रहते हैं, जो उनका ध्यान हटाती हैं। ये घटनायें दलित उत्पीड़न की भी हो सकती हैं और साम्प्रदायिक दंगों वाली भी हो सकती हैं। जातियों और धर्मों में बॅंटे हुए गरीब लोग उनके मूल कारण और उनमें निहित अर्थ को नहीं समझ पाते हैं। परिणामतः महीने-दो-महीने शोर मचता है और फिर सब कुछ शान्त हो जाता है। इसलिए वे अपने आर्थिक-सामाजिक शोषण को न समझ पाने के कारण ही चुपचाप शोषण सहन करने के सिवा कुछ नहीं कर सकते। दुर्भाग्य से उनके जातीय और धार्मिक नेता भी उनके शोषण में ही अपना हित देखते हैं। लेकिन गुजरात में ऊना की घटना के बाद, जिसमें हिन्दू गोभक्तों ने पांच दलितों की बेरहमी से पिटाई की थी, एक रेडिकल बहुजन आन्दोलन उभरा है, जो शोषण की व्यवस्था के विरुद्ध सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की बड़ी लड़ाई है और राजनीतिक नहीं है। लेकिन अफसोस कि मायावती जैसे कुछ नेता वहाँ भी राजनीति करने पहुँच गए।
मैं यहाँ इस बात को भी स्पष्ट करना चाहूँगा कि कल्याण की योजनाओं का मतलब और मकसद क्या है? इसे डा. आंबेडकर ने भी अपने बजट भाषणों में अच्छी तरह स्पष्ट किया था। मैं उन्हीं के शब्दों को आधार बनाकर कहता हूँ कि यह विकास का यूरोपीय माडल है, जिसमें यह समझा जाता है कि देश में कुछ थोड़े से कमजोर और गरीब लोग हैं, जिन्हें कुछ विशेष अनुदान और सहायता आदि की जरूरत है। वे उन्हें लाभार्थी के रूप में देखते हैं, और कुछ कल्याणकारी योजनाओं तक सीमित रखते हैं। इसमें एक बात पहले से मान ली गई है कि अधिकांश लोगों को इस तरह की सुविधाओं की आवश्यकता नहीं है। वे गरीबी की रेखा से ऊपर हैं। इसलिए सरकारें जनता के सामान्य उत्थान की चिन्ता नहीं करती हैं। उसे वे धर्म और जाति के सम्वेदनशील मुद्दों से गर्म रखती हैं।
जाति और धर्म की राजनीति का खेल बहुत सोच-समझकर कांग्रेस ने शुरु किया था, और अब वह राजनीति सभी पूंजीवादी पार्टियों की जरूरत भी बन चुकी है और विचारधारा भी। अगर स्वामी प्रसाद मौर्य ने इस विचारधारा के विरुद्ध बगावत की होती, तो इतिहास रच सकते थे। पर उनके वैचारिक संकट ने उन्हें एक खाई से निकालकर दूसरी खाई में गिरा दिया है, जो ऐसी बड़ी और गहरी है, जिसमें गिरकर अपंग होना निश्चित है।
11 जुलाई, 2016
कॅंवल भारती
“बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का
जब चीरा तो इक क़तरा खूँ न निकला”
बहुजन राजनीति में उठने वाला बवण्डर भाजपा में जाकर शान्त हो गया। कह सकते हैं कि परिवर्तन का गरजने वाला काला बादल बिना बरसे ही हिन्दुत्व के समुद्र में विलीन हो गया। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) से बगावत करके निकले स्वामी प्रसाद मौर्य और आर. के. चौधरी बाहर आकर लगभग वही बातें कह रहे थे, जो अक्सर बागी नेता बोलते हैं- बसपा में हमारा दम घुट रहा था, मायावती अब धन की देवी हो गई हैं, वह लाखों-करोड़ों रुपए लेकर टिकट बेचती हैं, आदि, आदि। उन्होंने यह भी कहा कि वे अपनी अलग पार्टी बनायेंगे और मायावती को सबक सिखायेंगे। पर, अपनी अलग राजनीति की घोषणा करने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य इतनी जल्दी भाजपा अध्यक्ष के घुटनों में झुक जायेंगे, यह हैरान इसलिए नहीं करता, क्योंकि इसकी पटकथा भाजपा ने ही लिखी थी। चरणों में झुकने की आदत उन्होंने बसपा में डाली थी, वह अब भाजपा में काम आयेगी। गले में भगवा पट्टा अब उनकी नई पहिचान बनेगी। यह अच्छी बात है कि पट्टे की परम्परा बसपा में नहीं है। दूसरे बागी नेता आर. के. चौधरी का ऊॅंट किस करवट बैठेगा? यह स्पष्ट नहीं हो रहा है। हालांकि बैठना उसे भी इसी करवट है, पर, अभी इन्तजार करना होगा।
मुझे लगभग 25 साल पुरानी बात याद आ रही है। इलाहाबाद के राजापुर में एक कार्यक्रम में स्वामी प्रसाद मौर्य मेरे साथ मंच पर थे। बहुजन राजनीति और बहुजन शब्द की अवधारणा को लेकर मेरे और उनके बीच में तीखा विवाद हो गया था। मैंने बाबासाहेब डा. आंबेडकर के शब्दों को उद्धरित करते हुए कहा था कि जाति के आधार पर आप जो निर्माण करने जा रहे हैं, उसका कोई भविष्य नहीं है। मैने यह भी कहा था कि जाति की राजनीति परिवर्तन की राजनीति नहीं है, वरन लूटखसोट की राजनीति है। जाहिर है कि उन्होंने इसका पुरजोर विरोध किया था। उसके बाद से बसपा कई बार टूटी और जुड़ी। और आज जाति के आधार पर ही स्वामी प्रसाद मौर्य बसपा से बाहर आए और जाति के आधार पर ही भाजपा में शामिल हुए हैं। इसी जाति के आधार से वह बसपा में अपनी महत्वाकांक्षायें पूरी कर रहे थे और इसी जाति से अब भाजपा में अपने निजी हितों को साधेंगे। पर पता नहीं, यह उन्हें याद है कि नहीं, जातीय राजनीति का कोई टिकाऊ भविष्य नहीं होता।
यह असल में बहुजन राजनीति में विचारधारा का संकट है। यह संकट इसीलिए है कि उनका बहुजन समाज वर्गीय नहीं है, जातीय है। यह दलित जातियों, पिछड़ी जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के आधार पर बना बहुजन समाज है। इस प्रकार बहुजन राजनीति की बुनियाद में मुख्य रूप से सवर्ण बनाम बहुजन का जातिवाद है। इसके उद्भावक और नियामक कांशीराम माने जाते हैं। वह जेब से पेन निकालकर उसे खड़ा करके बताते थे कि ढक्कन वाला छोटा हिस्सा सवर्ण है और उसके नीचे का बड़ा हिस्सा बहुजन है। फिर कहते थे कि छोटा हिस्सा बड़े हिस्से पर चढ़कर बैठा हुआ है। फिर वह पेन को लिटा कर दिखाते थे कि हमें इन सबको बराबर करना है। इसी पेन सिद्धान्त से उन्होंने पूरा बहुजन आन्दोलन उत्तर प्रदेश में खड़ा किया। इस सिद्धान्त में न आंबेडकर को कोई जगह थी और न बुद्ध को। हाँ, उनका प्रतीकात्मक उपयोग खूब किया गया। प्रतीकात्मक उपयोग उन्होंने महात्मा ज्योतिबा फुले और शाहू महाराज का भी किया। लेकिन उनका विचारधारा के स्तर पर कोई उपयोग नहीं हुआ। इसलिए कांशीराम की बहुजन राजनीति में, जिसकी उत्तराधिकारी अब मायावती हैं, दलित जातियों, पिछड़ी जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए, सिवाए आरक्षण के, कुछ भी एजेण्डे में नहीं है। स्वामी प्रसाद मौर्य और आर. के. चौधरी दोनों नेता कांशीराम के इसी बहुजन आन्दोलन की उपज हैं, जिसका एक राजनीतिक नारा यह भी था-‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।’ यह पूरा आन्दोलन जजबाती है, जिसमें ‘चीजें जैसी है, उसका वर्णन है, उसे बदलने का स्वप्न है, पर वे कैसे बदलेंगी, उसका चित्रण नहीं है।’ डा. आंबेडकर ने चीजों को बदलने के लिए राज्य समाजवाद का माॅडल दिया था, जिस पर बहुजन राजनीति में कभी चर्चा नहीं होती। बुद्ध के वर्गीय बहुजन शब्द से तो खैर उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं है, फुले की गुलामगिरी की वैचारिकी भी उसके केन्द्र में नहीं है। लेकिन जैसे-जैसे कांशीराम और मायावती राजनीति के कठोर यथार्थ से गुजरे, उनके कई जातीय नारे हवा में उड़ गए, और पेन के ऊपरी हिस्से के सवर्णों को भी उन्हें जोड़ना पड़ा। अतः यह साबित हो गया कि सब को साथ लिए बिना वे सरकार नहीं बना सकते। अगर जातियों के आधार पर थोड़े-बहुत समय के लिए सरकार बना भी ली, तो वह टिकने वाली नहीं है।
इस बात में कोई दम नहीं है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की भागीदारी वाली सरकारें ही उनके कल्याण की योजनाएँ बना सकती हैं। अगर यह सच होता, तो क्या कोई मुलायम सिंह यादव, अखिलेश सिंह यादव और मायावती से सीना ठोककर यह कहलवा सकता है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का कल्याण कर दिया है? वे नहीं कह सकते, क्योंकि हकीकत यह है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का कल्याण योजनाएँ चलाकर नहीं किया जा सकता। ऐसी योजनाएँ पिछले 70 सालों से सभी सरकारें चला रही हैं। कौन दावा कर सकता है उनसे इन वर्गों का कल्याण हुआ?
सच यह है कि किसी जाति विशेष के लिए अर्थात् दलित जातियों, पिछड़ी जातियों, धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों और आदिवासियों के कल्याण के लिए योजनाएँ बनाने का अर्थ उनका कल्याण करना नहीं, बल्कि उन्हें वोट बैंक बनाना होता है। ऐसी कुछ योजनाओं की घोषणायें ऐन उस वक्त होती हैं, जब चुनाव होने वाले होते हैं। उन घोषणाओं से खुश होकर ये लोग उन पार्टियों को अपना हितैषी समझ लेते हैं। किन्तु एक बार जब वे पार्टियां सत्ता में आ जाती हैं, तो पांच साल तक उन्हें कोई खतरा नहीं रहता और वे उनकी तरफ अपनी पीठ किए रहती हैं। पाँच साल के बाद जब पुनः चुनावी मौसम आता है, तो पार्टियां फिर अंगड़ाई लेती हैं और दलितों, पिछड़ों, धार्मिक अल्पसंख्यकों और आदिवासियों पर वे फिर मेहरवान होने लगती हैं, जबकि वे अपने पांच साल के शासन काल में अपनी तमाम आर्थिक नीतियां कारपोरेट को फायदा पहुँचाने के लिए बनाती हैं, जो गरीब वर्गों की कमर तोड़ देती हैं। गरीब वर्गों का ध्यान उन नीतियों की तरफ न जाए, इसलिए समय-समय पर वे कुछ ऐसी घटनायें भी कराते रहते हैं, जो उनका ध्यान हटाती हैं। ये घटनायें दलित उत्पीड़न की भी हो सकती हैं और साम्प्रदायिक दंगों वाली भी हो सकती हैं। जातियों और धर्मों में बॅंटे हुए गरीब लोग उनके मूल कारण और उनमें निहित अर्थ को नहीं समझ पाते हैं। परिणामतः महीने-दो-महीने शोर मचता है और फिर सब कुछ शान्त हो जाता है। इसलिए वे अपने आर्थिक-सामाजिक शोषण को न समझ पाने के कारण ही चुपचाप शोषण सहन करने के सिवा कुछ नहीं कर सकते। दुर्भाग्य से उनके जातीय और धार्मिक नेता भी उनके शोषण में ही अपना हित देखते हैं। लेकिन गुजरात में ऊना की घटना के बाद, जिसमें हिन्दू गोभक्तों ने पांच दलितों की बेरहमी से पिटाई की थी, एक रेडिकल बहुजन आन्दोलन उभरा है, जो शोषण की व्यवस्था के विरुद्ध सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की बड़ी लड़ाई है और राजनीतिक नहीं है। लेकिन अफसोस कि मायावती जैसे कुछ नेता वहाँ भी राजनीति करने पहुँच गए।
मैं यहाँ इस बात को भी स्पष्ट करना चाहूँगा कि कल्याण की योजनाओं का मतलब और मकसद क्या है? इसे डा. आंबेडकर ने भी अपने बजट भाषणों में अच्छी तरह स्पष्ट किया था। मैं उन्हीं के शब्दों को आधार बनाकर कहता हूँ कि यह विकास का यूरोपीय माडल है, जिसमें यह समझा जाता है कि देश में कुछ थोड़े से कमजोर और गरीब लोग हैं, जिन्हें कुछ विशेष अनुदान और सहायता आदि की जरूरत है। वे उन्हें लाभार्थी के रूप में देखते हैं, और कुछ कल्याणकारी योजनाओं तक सीमित रखते हैं। इसमें एक बात पहले से मान ली गई है कि अधिकांश लोगों को इस तरह की सुविधाओं की आवश्यकता नहीं है। वे गरीबी की रेखा से ऊपर हैं। इसलिए सरकारें जनता के सामान्य उत्थान की चिन्ता नहीं करती हैं। उसे वे धर्म और जाति के सम्वेदनशील मुद्दों से गर्म रखती हैं।
जाति और धर्म की राजनीति का खेल बहुत सोच-समझकर कांग्रेस ने शुरु किया था, और अब वह राजनीति सभी पूंजीवादी पार्टियों की जरूरत भी बन चुकी है और विचारधारा भी। अगर स्वामी प्रसाद मौर्य ने इस विचारधारा के विरुद्ध बगावत की होती, तो इतिहास रच सकते थे। पर उनके वैचारिक संकट ने उन्हें एक खाई से निकालकर दूसरी खाई में गिरा दिया है, जो ऐसी बड़ी और गहरी है, जिसमें गिरकर अपंग होना निश्चित है।
11 जुलाई, 2016
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